Tuesday, November 23, 2010

एसएमएस

आज सुबह-सुबह मुझे अपने एक मित्र का एसएमएस मिला जिसमे उन्होनें मेरी ब्लाग पर लेखन के मामले मे गैरहाजिरी का जिक्र किया था उनका कहना भी एकदम वाजिब ही है पिछले कुछ दिनों से मै नियमित रुप से लेखन नही कर पा रहा हूं जिसकी एक बडी वजह मेरा आलस है तथा दूसरा यह कि आजकल अन्दर से इतना शांत जी रहा हूं कि कुछ रचनात्मक करने की एक आंतरिक प्रेरणा ही नही पैदा होती है और जैसाकि मै पहले भी लिख चूका हूं कि सायास लेखन मेरे बस की बात नही है।

खैर! अपनी कमजोरियों का बार-बार जिक्र करने का जो लुत्फ है वो मै बहुत समय से उठाता आ रहा हूं यह भी एक किस्म की प्रवृत्ति है जिसको मनोविज्ञान की भाषा मे ईगो डिफेंस मैकनिज़्म कहा जाता है ऐसा करने से ईगो को बहुत मोटी खुराक मिलती रहती है। सब कुछ जानकर भी कुछ अजीब से जीना एक खास किस्म की लत है जो एक बार लग जाए तो फिर पीछा नही छोडती है।

आजकल मौसम बदल रहा है धीरे-धीरे सर्दीयां दस्तक दे रही है पिछले दो दिन से मुझे भी बाईक चलाते समय ठंड महसूस हो रही है कुछ गर्म कपडे भी खरीदने है लेकिन शायद वेतन आने के बाद ही यह संभव हो पायेगा। उतरोत्तर वेतन बढता ही रहा है लेकिन मैने अपनी जीवन शैली मे कोई खास फर्क महसूस नही किया है अब भी जैसे-तैसे काम चल रहा है तब भी चल ही रहा था जब सेलरी मात्र 9 हज़ार रुपये होती थी।

कई बार मुझे लगता है कि मुझे थोडा सा मितव्ययी होना चाहिए और आपदाकाल के लिए भी थोडी सी सेविंग करनी चाहिए लेकिन पता नही क्यों हर महीने के अंत मे हाथ तंग हो ही जाता है बस ईश्वर की कृपा है कि किसी का कर्ज़ सिर पर नही है जैसे-तैसे काम चल जाता है मेरे गांव मे एक कहावत बहुत प्रचलित है गाय की भैस तले करके काम चल जाता है बस मै भी गाय की भैस तले(नीचे) करके अर्थात जुगाड के तंत्र से काम चला ही लेता हूं ये बात अलग है कि पिछले चार महीनें से कोई भी ऐसा महीना नही गया कि मैने जब अपने घर से आर्थिक मदद न ली हो...क्या करुं करना पडता है भाई अब यहाँ परदेश मे किसके सामने हाथ फैलाया जाए लोग अन्यथा अर्थ निकालने मे तो माहिर होतें ही है।

मेरे साथ काम करने वाले एक साथी प्रवक्ता(जो मुझे नापंसद करते है और बनना भी मेरी तरह चाहते है) ने किसी मित्र के सामने अपनी यह जिज्ञासा व्यक्त कर ही दी कि जब मै इतनी प्रबल पारिवारिक पृष्टभूमि से हूं जमीन भी 100 बीघे हिस्से मे आती है तो क्यों इस बाईस हज़ारी नौकरी के लिए हरिद्वार पडा हूं सारी विलासिता छोडकर क्यों जीवन को बेवजह संघर्षमय बना रहा हूं। इस बात का जवाब न मेरे मित्र के पास था और न मेरे ही पास है अगर मुझे विलासिता का भोग करना होता तो निसंदेह मै आज राजप्रसाद भोग रहा होता ये तो एक स्वंयसिद्द का यज्ञ चल रहा है जिसमें खुद को सिद्द करना है येन-केन-प्रकारेण।

दूनिया का काम है बातें बनाना सो बनाती रहे मुझे अब कुछ ज्यादा फर्क नही पडता है पहले ऐसी बातें सुनकर मै बहुत तनाव मे आ जाता था...। अब लगता है कि कोई क्या कह रहा है इससे क्या फर्क पडता है बस एक बात का जरुर ध्यान रखता हूं कि कौन कह रहा है? ताकि सनद रहें...।

शेष फिर

डा.अजीत

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