Tuesday, May 12, 2015

गांव की बातें

मनुष्य जहां जन्म लेता है उस जमीन से उस मिट्टी से उसका ताउम्र एक आत्मीय लगाव रहता है। अपनी जन्मभूमि से साथ हमारा एक गहरा अतीत जुडा होता है भले ही उस अतीत की स्मृतियां सुखद हो या दुखद मगर फिर भी अपनी जडें हमे सदैव अपनी और खींचती रहती है। गांव-देहात में जन्मे लोगो की नगरीकरण की प्रक्रिया में यह अतीत सदैव आडे आता रहा है। पहले अध्ययन और बाद में नौकरी के सिलसिलें मै डेढ दशक तक शहर में रहा अब एक दुर्योग की वजह से पिछले सवा साल से गांव में हूं। शहर मे रहतें हुए मैने गांव की जीवनशैली और मातृभूमि प्रेम के बारें मे खूब लिखा। निसन्देह गांव के जीवन में एक खास किस्म की सहजता है मगर पिछले एक साल से गांव के जीवन का पुन: हिस्सा बनने के बाद कुछ सवाल मेरे जेहन मे सतत दस्तक देते रहें है जिस वक्त हमनें गांव छोडा था उस दौर की पीढियां एकदम अलग किस्म की थी वें सीमित साधनों और बिना किसी मार्गदर्शन के खुद ही गिरती संभलती हुई अपना रास्ता बना रही थी। अब गांव की तस्वीर भी काफी हद तक बदल गई है अब गांव उस सहजता और आत्मीयता के केन्द्र नही बचें है जिसके लिए ये जाने जाते थे। मैनें बहुत सी पोस्ट गांव की सकारात्मकता के विषय पर लिखी है आज कुछ ऐसे बिन्दूओं को प्रकाशित कर रहा हूं जो न केवल असहज करने वाले है बल्कि गांव के विषय में स्थापित लोक अवधारणाओं का पर भी प्रश्नचिंह लगाते है। मेरे पास एक समीक्षक दृष्टि है इसलिए मेरा उद्देश्य महज गांव का महिमामंडन करना नही है आज इस पोस्ट के जरिए मैं गांव की कुछ विसंगतियों के बारें में बात करने जा रहा हूं मुझे लगता है गांव के विषय में बहुत भावुक होकर सोचने से पहलें इन तथ्यों पर भी विचार किया जाना चाहिए।
1.गांव में जातिवादी तंत्र बेहद सक्रिय और जटिल अवस्था में मौजूद है। कोई भी प्रगतिशील व्यक्ति इस तंत्र को देखकर एक खास किस्म की बैचेनी महसूस कर सकता है। लाख समतामूलक समाज़ का दावा करें आज भी गांव में सवर्ण जातियों की दबंगई कायम है। दलित और अति पिछ्डों की स्थिति कमोबेश आज भी एक जैसी ही है। 21 वीं सदी के भारत में गांव का यह स्वरुप निसन्देह बडे सवाल खडे करता है।

2.गांव में पडौसी अपने खुद के पडौसी को बर्बाद देखना चाहता है वो उसकी तरक्की से कतई खुश नही होता है बल्कि एक चिढ और ईर्ष्या की भावना रखता है। गांव में किसी सम्पन्न और भलेमानुष के लडकें को बाकायदा एजेंडा बनाकर कुसंग का शिकार किया जाने की परम्परा है खुद मेरे पिताजी को किशोरावस्था में मदिरा के व्यसन का आदी बनाना इसी एजेंडे के तहत किया गया था क्योंकि वो अकेले थे और सम्पत्ति के लिहाज़ से गांव के सबसे बडे जमींदार थे। इसका खामियाज़ा हमारे पूरे परिवार ने भोगा और पिताजी मात्र 57 साल की उम्र मे व्यसन व्याधि शरीर की वजह से दिवंगत हो गए।

3.गांव में आपके पास सर्वाईव करनें के लिए मैन पावर (मसल्स पावर) का होना एक अनिवार्य शर्त है भले ही आपके पास जमीन कम हो मगर आपके पास कुटम्ब जरुर होना चाहिए तभी गांव में आप सुरक्षित है। मैन पावर की कमी में आप गांव के असामाजिक तत्वों के लिए एक इजी टारगेट हो जातें हैं और फिर आपको किस्म किस्म से परेशान किया जा सकता है।

4.गांव में सम्पत्ति के झगडें इतने आम बात है कि इसकी वजह से परिवारों मे तनाव पसरा रहता है आपसे मे बोलचाल तक बंद हो जाती है और यहां तक की छोटी छोटी मेढ की लडाई में कत्ल तक हो जातें हैं। आपके परिजन भी आपको दीवानी के मुकदमों में फंसाकर ताउम्र कचहरी के चक्कर कटवाते रख सकतें हैं। अविवाहित पुरुषों की सम्पत्ति के चक्कर मे दुर्गति और हत्या आम बात है।

5.गांव में वर्चस्व और पंचायती राजनीति के चलते किसी संवेदनशील और रचनात्मक व्यक्ति के लिए यहां कोई सम्भावना नही बचती है बल्कि यदि आप तटस्थ है न्यायप्रिय है और अपने गांव के लिए सच मे कुछ सकारात्मक करना भी चाहते है तो उसमें भी राजनीति दांवपेंच घुसाकर आपकी यथासम्भव लैगपुलिंग करने की एक बडी नकारात्मक परम्परा है।

6.गांव में बेहद उदार भद्र तटस्थ और एकांतिक जीवन नही जी सकते है यदि आप ऐसा जीना चाहतें है तो आप गांव के सामाजिक गॉसिप के तंत्र के लिहाज़ से ‘असामाजिक’ या घमंडी जीव है।

7.संयोग से एक बडी पृष्टभूमि से ताल्लुक रखनें की वजह से यह जान पाया कि आप गांव में केवल कृषि आधारित जीवन नही जी सकते है लोग सतत रुप से आपको अपनी नूरा कुश्ती में हिस्सा लेने के लिए प्रोवोक करते रहेंगे आपकी कृषि आधारित प्रयोगधर्मिता से अभिप्रेरणा लेने की बजाए उसे एक अफवाह केन्द्रित सामाजिक चटखारे का विषय बनाने मे यकीन रखते है जिसमें अजीब सा व्यंग्यात्मक कौतुहल छिपा होता है।

8.अब गांव में उस किस्म की आत्मीयता लगभग हाशिए पर बची है जब लोग सबके दुख मे दुखी और सबके सुख में सुखी हुआ करते थे अब यहां घर घर डीटीएच लगे है और हाथ में स्मार्ट फोन है मगर बावजूद इनके मनुष्य से मनुष्य की भावनात्मक दूरी बढती गई है।

9.एक बडा कडवा सच यह भी है गांव में वही आदमी रहना चाहता है जिसके पास शहर में बसनें का कोई विकल्प नही है अन्यथा हर आदमी चाहता है उसका शहर में छोटा ही सही एक मकान हो जहां कम से कम उसके बच्चें रहकर पढ सकें।

 10.बिजली,शिक्षा,स्वास्थ्य,परिवहन, लॉ एंड ऑडर यें पांच मूल भूत तंत्र गांव में पूरी तरह से ध्वस्त है इसके लिए न किसी राज्य सरकार और ने केन्द्र सरकार के पास कोई कार्ययोजना है सब भगवान भरोसे है यदि आप नजदीक से इस बुनियादी तंत्र की कमी से उपजी विसंगतियां दुश्वारियां देखेंगे तो आप हैरत मे पड जायेंगे कि गांव के लोग आखिर किसके सहारे जिन्दा हैं।

...फिलहाल इतना है इन दस बिन्दूओं के व्यापक समाजशास्त्रीय और मनोवैज्ञानिक अर्थ है जिन पर शोध विमर्श हो सकता है। कई दिनों से यह लिखनें की सोच रहा था मगर मातृभूमि का प्रेम मुझे अक्सर रोक लेता है आज लगा कि चूंकि मैं इस जीवन का हिस्सा हूं इसलिए कम से कम उन लोगों को गांव का यह सच जरुर बताना चाहिए जो मेरे जरिए गांव को देख और समझ रहें है।
कल वाणी गीत जी के एक कमेंट ने मेरे मन की जड़ता तोड़ी जिसमें उन्होने कहा कि ग्राम्य जीवन का मतलब ‘अहा जीवन’ नही होता है। सच में गांव मे जीना उतना आसान नही है जितना आप सब को लगता है यहां के जीवन की अपनी कुछ ऐसी पेचीदिगियां है जिनका कोई हल किसी के पास नजर नही आता है।


© डॉ.अजीत

डिस्क्लेमर: यह मेरा नितांत ही निजी ऑब्सर्वेशन है।इसे गाँव के विषय में नकारात्मक प्रचार न समझा जाए।