Saturday, April 11, 2015

दो भाई

(फेसबुक के पुराने पाठक मित्र जानतें है अपनें गांव के कुछ किरदारों पर मैं पहले भी एक शृंखला लिख चुका हूं। ये कोई खास किरदार नही है न ही इनके जीवन मे कोई नायकत्व है परंतु देहात के जीवन के ये किरदार अपने किस्म के आखिरी जरुर है जवान होती पीढियों के लिए इनके मामूली से दिखने वाले जीवन का दस्तावेजीकरण मेरे लिए लेखकीय सुख से बढकर निजि तौर पर सुखदायक इसे मेरी जन्मभूमि के प्रति मेरे लगाव की एक अभिव्यक्ति भर भी समझा जा सकता है। आने वाली पीढियां भले ही इसमें कोई रुचि प्रकट न करें मगर कभी पीछे मुडकर देखनें ये छोटी सी कतरन हमेशा मददगार रहेगी। गांव के जीवन को समझनें का एक समाजशास्त्रीय दस्तावेज़ बने यह मेरी इच्छा है इन लोगो के जरिए गांव के जीवन मे झांकना निसन्देह आत्मीय महसूस होता है।)

--------’मंगलू-काशी नाई: दो भाई’

मंगलू नाई का कागज़ पतरों मे नाम मंगलसैन है मगर गांव की सम्बोधन की अपभ्रंश परम्परा (जाति का समाज़शास्त्रीय अनुक्रम भी एक पक्ष है) में वो मंगलसैन से मंगलू हो गया है। मंगलू का एक छोटा भाई काशी। दोनों भाई गांव में रहकर नाई का काम करते रहे है दोनो ही जज़मान सिस्टम ( किसानों के बाल काटनें का फसलाना तंत्र) के जरिए गुजर बसर करते आये हैं। गांव मे नाई को बडे और मझोले किसान हर छमाही पर फसल में से अनाज़ देते है जिसकी ऐवज़ में वो साल भर उनके बाल काटते है।

मंगलू के चार बेटे है मगर कोई भी अपने पिता के इस पैतृक काम को नही करता है एक शराब के ठेके पर सेल्समैन है एक टेलर मास्टर है दो बेटे धारुहेडा( हरियाणा) में किसी फैक्टरी मे काम करते है। काशी का एक बेटा है जिसका वास्तव में नाम जगप्रकाश है मगर गांव मे उसे लोग चट्टु कहतें है वो जरुर नाई का काम करता है।

मंगलू पुरानें जमाने का दसवी दर्जे तक पढा हुआ है फारेस्ट विभाग में सरकारी नौकरी पर लग गया था मगर जंगलात मे काम करने मे जी नही लगा तो सरकारी नौकरी छोड गांव में नाई का काम करने आ लौट आया मंगलू की उम्र अब सत्तर के पार मगर आज भी उसे अपने उस नौकरी छोडने का अफसोस है। मेरे पास अक्सर बैठ जाता है बातचीत में कुछ अंग्रजी के वाक्य धाराप्रवाह बोलता है जिससे उसका पुराना पढा लिखा होने की पुष्टि हो सके। काशी अनपढ है मगर वो अपने काम में पारंगत है।

जिस बात के लिए मंगलू-काशी दोनों भाई जाने जाते है वो उन दोनों भाईयों का आपस का प्रेम। दोनों की एकदम से राम-लक्ष्मण की जोडी है। गांव मे आज भी भाईयों के प्रेम का उदाहरण के लिए मंगलू-काशी का ही नाम लिया जाता है। मंगलू चूंकि पढा लिखा है इसलिए वो थोडा शार्प भी है मगर काशी का प्रेम एकदम निश्छल और नैसर्गिक किस्म का रहा है। काशी जवानी में ही विधुर हो गया था उसनें कभी अपने जीवन की परवाह नही की हमेशा अपने बडे भाई के लिए जुता रहा। अब दोनों ही भाई लगभग सन्यास आश्रम में है मगर आज भी दोनो का प्रेम अद्भुत किस्म का है। ऐसा प्रेम विरला ही देखने को मिलता है। गांव में लगभग सभी लोग यह बात जानते है कि यदि मंगलू कहीं गांव से बाहर गया होता था और शाम तक वापिस नही आता था वो काशी शाम को लालटेन लेकर बस स्टैंड पर पहूंच जाता था और जब तक मंगलू वापिस न आता वहीं बैठ उसकी राह देखता था। पिछलें दिनों मंगलू की आंखों का मोतियाबंद का आपरेशन हुआ तो काशी अपने बडे भाई मंगलू का हाथ पकडकर उसे गली मे लेकर चलता था। दोनो बूढे हो चुके है मगर आज भी दोनों में गजब का प्यार है।

दोनों भाईयों में यह प्रेम बचा रहा है इसकी एक बडी वजह काशी का बेहद सरल होना रहा है। हालांकि अब काशी अपने बेटे के साथ अलग रहता है मगर एक वक्त वह भी हुआ करता था कि जब तक शाम को मंगलू खाना न खा ले काशी खाना नही खाता था। काशी से पूछने पर बताता है क्या कहूं बाबू जी मेरा जी ही ऐसा है। छ महीने पहले मंगलू गम्भीर रुप से बीमार हो गया था बचने के कम आसार थे कई दिन अस्पताल में भर्ती रहा उन दिनों काशी मेरे पास चिंतातुर हो बैठा रहता और कहता है भाई के मरनें पर मेरा जीना मुश्किल हो जाएगा मेरी भगवान से यही प्रार्थना है कि मै मंगलू से पहले मरुं क्योंकि मंगलू मेरे बिना जी सकता है मगर मै मंगलू के बिना जी न सकूंगा। खैर ! जब मंगलू स्वस्थ होकर घर आया तब काशी को राहत की सांस नसीब हुई।

मंगलू चूंकि पढा लिखा है इसलिए वो थोडा उसका लाभ भी लेता है अब उसने संत गुरु राम रहीम का सत्संग लिया हुआ है इसलिए वो अब हमेशा आध्यात्मिक बातों मे ज्यादा रुचि लेता है और काशी चूंकि शाम को एक एक-दो पैग देशी शराब के लगा लेता है इसलिए वो काशी की निंदा भी करता है उसे अपने साथ सत्संग में लेकर चलने की जिद करता है मगर काशी ने साफ मना कर देता है इसे मंगलू उसकी अज्ञानता कहता है। दोनों भाई दो विपरीत ध्रुव है मगर फिर भी बेहद सहज है।

ओढी हुई सामाजिक समझदारी और सामाजिकता के इस दौर में मंगलू और काशी जैसे भाई अपने किस्म के अकेले है। भले ही मंगलू का संवेदना का पक्ष काशी की अपेक्षा कमजोर है उसकें अन्दर वैचारिकता और पढे लिखे होने का अतिशय दंभ भी नजर आता है मगर फिर भी दोनों भाईयों का प्रेम वास्तव में अद्भुत किस्म का है उम्र के इस दौर में भी दोनों भाई ठीक वैसे ही लगते है जैसे स्कूल के दिनों के साथ जानें वाले दो भाई दिखते है जिनकी कक्षाओं मे एक दो साल का ही फर्क होता है।

काशी के भाई प्रेम की वजह से वो निजि सम्बधों मे पिछडा भी है वो अपने बेटे की उतनी केयर नही कर पाया जितनी करनी चाहिए थी आज बडे भाई के बेटे शहरों मे निकल गये है उसका खुद का बेटा गांव में ही रह गया है मगर फिर भी काशी के मन में कोई मलाल नही है वो आज भी भाई के लिए अपनी जान छिडकता है। आज भी शाम को यदि उसके मंगलू न दिखे तो वो मौहल्ले में पूछना शुरु कर देता है कि भाई कहीं मंगलू देखा क्या?

दिन ब दिन एकाकी होते जीवन में और भाईयों की सामाजिक दूरी के बीच में अपने आसपास दो ऐसे भाईयों को देखना निसन्देह सुखप्रद है उनके अलावा पूरे गांव भाईयों के पारस्परिक प्रेम का कोई उदाहरण नजर नही आता है कल मंगलू और काशी भले ही नही रहेंगे मगर उन दोनों भाईयों के पारस्परिक प्रेम के किस्से हमेशा जिन्दा बचे रहेंगे यह अपने आप में क्या कम बडी बात है