Wednesday, December 24, 2014

ख़्वाब

कुछ ख़्वाब केवल
आँखें देखती है
उन्हें देखने की इजाज़त
दिल और दिमाग नही देते
ऐसी बाग़ी आँखों से
नींद विरोध में विदा हो जाती है
ऐसे ख़्वाब बहुत जल्द
नींद की जरूरत से बाहर निकल आते है
वो हमारी चेतना का हिस्सा बन
खुली आँखों हमें दिखते है
दिल अपनी कमजोरी दिखाता नही
दिमाग को जताता है अक्सर
और दिमाग की होती है एक ही जिद
वो देखना चाहता हमें हर हालत में
विजयी और सफल
दिल धड़कनों की आवाज़ सुनता है
सुनकर डरता है
वो भांप लेता है
मन के राग के आलाप
जो बज रहे होते है
बिना लय सुर ताल के
इन ख़्वाबों को देखते हुए
न रूह थकती है और न आँख
दोनों ही करती है इन्तजार
एक ऐसे ख़्वाब के सच होने का
यही इन्तजार बनता है जीने की वजह
मनुष्य को मनुष्य बनाए रखने में ऐसे ख़्वाब
ईश्वर के नियोजित षडयन्त्र का हिस्सा होते है
क्योंकि
ऐसे ख़्वाब कभी पूरे नही होते
बस उनका अधूरापन
उन्हें न कभी बूढ़ा नही होने देता
और न मरने देता है।

© डॉ. अजीत

Monday, December 8, 2014

दुःख का मनोविज्ञान

तमाम उम्र जो रिश्तों की तुरपाई करता रहा उसकी भूमिकाऐं बदली मगर न वो बदला और न उसके अंदर की अच्छाई ही। जिंदगी ने उसको बहुत जल्दी ही नट की तरह संतुलन साधने के लिए प्रशिक्षित कर दिया था। जिन्दगी ने उसको उम्मीदें दी मगर उसके बदले जो लिया वो उसके चाहने वालो का स्थाई दुःख बना रहेगा उम्र भर। सुख दुःख की धूप छाँव में उसके हिस्से तपती धूप ज्यादा आई मगर उसको धूप छाँव से ज्यादा अपना खुद का आसमान बुनने की धुन थी उसने सबको दिया अपने हिस्से का आकाश। उसका होना सबके लिए एक आश्वस्ति जैसा था उसके रहतें हर गलती छोटी और हर खुशी बड़ी हो जाती थी। उसकी डांट में फ़िक्र और दुआओं में अपने संचित कर्मों को बांटने की आदत शामिल थी।
वो जब तक आसपास था तब तक अपने कद का अकेला अहसास साथ नही चलता था परछाई पर उसकी परछाई की नजर साथ चलती थी। एक छोटी सी दुनिया के जितना बड़ा विस्तार हो सकता था उसका केंद्र था वो अकेला शख्स। नही देखा था कभी उसको बोझिल बातें करते हुए। वो कभी एक निरपेक्ष यात्री था तो कभी एक संघर्षरत योद्धा।
बाहर की दुनिया से लड़ते भिड़ते बनते बिगड़ते उसकी जो लड़ाई खुद से चल रही थी उसका किसी को भी आभास नही था और जब वो प्रकट हुई तो उसके बाद की दुनिया बेहद निःसहाय किस्म की हो गई थी।
उस आदर्श पुरुष को तयशुदा मौत की तरफ बढ़ते हुए देखना जीवन का सबसे अविस्मरणीय निसहायताबोध था। जब तक हम अपने हिस्से के सुख का दशमांश भी उसको लौटा पातें नियति ने उसके लेने के सारे केंद्र पर मनाही का ताला टांग दिया था।
किस्तों में अपने प्रियजन को पीड़ा त्रासदी और मौत के चक्र का हिस्सा बनते देखना सदी का सबसे बड़ा दुःख था और ये दुःख तब और भी गहरा जाता जब वो शख्स मेरा पिता था। तमाम वैचारिक असहमतियों के बावजूद और कथित ज्ञान अर्जन के बाद भी मेरा कद कभी इस काबिल न हो सकता है कि उनके किए कामों को अच्छा या बुरा कहकर सम्पादित कर सकूं।
जीवन का उत्तरार्द्ध जब सुख भोगने के लिए शास्त्रों ने अनुकूल बताया तब भी मुझे यकीन नही होता था मगर पिता का ऐसे आकस्मिक चलें जाना मेरे उस विश्वास को और पुष्ट कर गया कि कुछ लोगो के न पूर्वाद्ध में सुख नसीब होता है और उत्तरार्द्ध में वो जीवनपर्यन्त अपने हिस्से का दुःख जीने और सुख बांटने के लिए ही जन्म लेते है।
पिता का यूं चले जाना अपने साथ एक दुनिया ले जाता है जहां बहुत से ऐसे प्रश्न हमारें मन में घूमते रहते है जिनका कोई जवाब किसी के पास नही होता है।
वक्त भले ही सब सीखा देता है परन्तु एक निर्वात सदैव मन के अंदर बचा रह जाता है जहां कुछ वक्त से शिकायतें कुछ खुद से सवाल चलते रहतें गाहे बगाहे मनुष्य के रूप में इस निर्वात को जीना बेहद त्रासदपूर्ण लगता है क्योंकि हम केवल सोच कर भी मन को सांत्वना नही दे पातें है ऐसे दुःख बड़े अपरिहार्य और ढीठ किस्म के होते है कहने/लिखनें/बांटने से इनकी मात्रा और तीव्रता पर कोई फर्क नही पड़ता है।