Thursday, March 31, 2011

दोस्त,दोस्ती और बुरा वक्त

सबसे पहले एक राहत भरी खबर यह है कि कल यानि 1 अप्रैल को हमारी अस्पताल से छुट्टी हो रही हैं आज डाक्टर साहब ने डिस्चार्ज़ पेपर तैयार कर लिए है अभी थोडी देर पहले बालक का एक अल्ट्रासाउंड करवाया है जिसकी रिपोर्ट शाम को डाक्टर देखेंगे उसके बाद कल सुबह संभावना हैं कि हमको छुट्टी मिल ही जायेगी।

पिछले तकरीबन 10-15 दिनों से मैने अस्पताल का मानसिक थकान से भरा तनावपूर्ण जीवन जीया है जिसकी मैने कभी सपनें में भी कल्पना नही की थी बच्चे की भावी स्वास्थ्य को लेकर दुश्चिंताएं अभी तक मन के एक कोने मे बनी हुई है और वें तब तक बनी रहेगी जब तक बच्चा अपनी रुटीन जिन्दगी के काम यथासमय करना शुरु न कर दें हालांकि पहले अस्वस्थ बच्चे ने बहुत कुछ सिखा दिया है लेकिन फिर भी मन मे शंकाए बनी ही रहती है लेकिन अभी मैने सब कुछ ईश्वर पर छोड दिया है इसके अलावा मेरे पास कोई चारा भी नही है...अब जो भी होगा उसको भी देखा,भोगा जाएगा।

कहते है कि जब आपका जीवन का सबसे बुरा दौर चल रहा हो तब आपको अपने सच्चे मित्र याद आतें हैं ताकि आप उनसे अपनी पीडा बांट कर थोडा हल्का महसुस कर सकें। जिन्दगी में खुशियों मे शामिल करने के लिए अनगिनत नये पुराने चेहरे हो सकते है लेकिन आप अपने दुख मे कुछ चुनिंदा लोगो के साथ ही अपनी मन:स्थिति शेयर कर सकतें है। संवेदना के व्यापक संसार मे दुनिया मे लोग मिलते बिछडते रहते है कुछ का साथ मिलता है तो कुछ की बेरुखी...यही दुनिया का एक दस्तूर भी है। एक वक्त था कि मैं बडे फख्र के साथ सीना चौडा करते हुए यह बात कहा करता था कि मेरे पास दूनिया के सर्वश्रेष्ठ आत्मीय एवं संवेदनशील परिपक्व मित्र है लेकिन वास्तव मे वो सब मेरी अपेक्षाओं के संसार का बुना हुआ भ्रमजाल था जिसमे फंसकर ऐसा प्रतीत होता था।

आज के दौर में परिपक्व होने के जो दो बडे फलसफे है वो यह है कि सम्बन्धों में अपेक्षाएं नही रखनी चाहिए और अतीत का व्यसन एक मानसिक रोग है इसके अतिरिक्त कुछ भी नही सो वर्तमान मे जीओं, दुख की बात बस यही है कि मै आजतक इन दोनो बातों न समझ पाया हूँ और न ही आत्मसात कर पाया हूँ मुझे यह स्वीकार करने मे भी कोई परहेज़ नही है कि हो सकता है कि यह मेरी व्यक्तिगत कमजोरी हों...।

तो जनाब मसला यह है कि जिन लोगो के साथ सपनों का संसार बनाया था तथा जीया था वें धूल के गुबार की तरफ गर्द बन कर कब के उड गयें बाकि रह गये है तो उन कदमों के कुछ निशान जो हमारी मंजिल की तरफ साथ बढे थें।

बुरे वक्त में ऐसे भगौडे मित्र अक्सर याद आतें है और बहुत टूट कर याद आतें है क्योंकि ऐसे दोस्तों का परिचय आप तक ही सीमित नही रहता है आपके परिवार के वजूद और वजह का एक हिस्सा रहें होते है ये जालिम दोस्त और जब कोई घर वाला आपसे पूछता है कि भई अब कहाँ हैं आपके......जी तब कोई भी शब्द उनकी रिक्तता को भर नही सकता है। कहने के लिए सबकी अपनी-अपनी मजबूरियां है लेकिन मेरे ये दुर्भाग्य रहा कि अक्सर मुझे मजबुर दोस्त ही मिलें है...बस इससे ज्यादा मुझे कुछ नही कहना है।

अब जिक्र उन चेहरों को जो मेरी ज़िन्दगी में बेहद आम किस्म परिचित श्रेणी के लोग थें जिनसे कभी कोई मदद की अपेक्षा न रखी और न खुद ही उनके किसी काम आयें लेकिन अब मेरा तज़रबा यह कहता है है बुरे वक्त में ऐसे आम लोग बेहद खास बन जातें है और उनकी आत्मीयता की जितनी तारीफ की जाए उतनी ही कम है मेरे पास ऐसे कुछ आम चेहरों के प्रति कृतज्ञता ज्ञापित करने के लिए शब्द नही है..और उनके आत्मीय,संवेदनशील वजूद के सामने मै बहुत बौना हूँ।

शालू: मेरे पहला दोस्त

शालू वो शख्स है जिसका नाम मेरी तुच्छ जिन्दगी के सबसे पहले दोस्त के रुप में शामिल है। ये वो किरदार है जब मै बमुश्किल पांच साल का रहा हूंगा तब इसने दोस्त के रुप मे मेरा हाथ थामा था गांव मे बैठक के चौतरे पर हम दोनो अक्सर साथ साईकिल (ट्राईसाईकिल) साथ चलाया करते थे...फिर कुछ बडे हुए तो साथ मिलकर गांव की एक क्रिकेट टीम बना ली खुब मैच खेले वो हमारे गांव के बेहतरीन बेट्समैन और बोलर के रुप मे उभर गया था और मै विकेट कीपर हुआ करता था।

दूनियादारी में ऐसे उलझे की धीरे-धीरे गांव से वो शहर चला गया और फिर बचपन की यह पहली दोस्ती धीरे-धीरे एक सामान्य परिचय मे तबदील हो गया हालांकि जब भी हम गांव मे मिलते थे तब बडी आत्मीयता से मिलते थें लेकिन उतना आत्मीय अनुराग नही रहा जैसा कभी पहले हुआ करता था।

अब शालू देहरादून मे रहता है पिछले कई सालों से वह यही पर रह कर बिजनेस कर रहा है एकाध बार मिलना भी हुआ था कुछ साल पहले लेकिन उस तरह ही घनिष्ठा नही रही कि पारिवारिक रुप से आना जाना रहा हो। मेरी बेशर्मी और ढीठता का अन्दाजा इस बात से भी लगाया जा सकता है कि पिछले एक साल में ऐसा कई बार हुआ है कि शालू ने फोन किया और मैने उसको किसी वजह से रिसीव नही किया था फिर से यह जानने की जेहमत भी नही उठाई कि आखिर वो क्यों फोन कर रह था? उसने इस बात कि एकाध बार औपचारिक रुप से शिकायत भी की लेकिन मैने गंभीरता से नही लिया...।

खैर ! अब आप हालात देखिए देहरादून के जिस अस्पताल में हम लोग भर्ती है वह शहर से एकदम बाहर ही है और आसपास शाकाहारी भोजन का कोई विकल्प भी नही था मैने बडा प्रयास किया कि आसपास कोई होटल मिल जाए लेकिन निराशा ही हाथ लगी। मेरे साथ मेरी बडी बहन भी अस्पताल मे पत्नि की देखभाल के लिए रुकी हुई है सो उसके खाने के लिए मै तनाव में था चलो एक बार खुद तो कुछ भी खाकर जीया जा सकता है।

जब यहाँ खाने का कुछ रास्ता न सूझा तो मुझे अपने बचपन को दोस्त शालू याद आया लेकिन अपने पूर्व के व्यवहार से थोडा सा संकोच भी हो रहा था फिर भी पता नही किस अधिकार से शालू को फोन किया और अधिकाबोध के साथ कह दिया कि शालू भाई आपकी मदद की जरुरत है एक टाईम अस्पताल मे खाना भिजवाओं अब शालू का ये बडप्पन ही था कि उसने एक सैकेंड भी नही लगाया और मुझे आश्वस्त किया कि भाई आप बिल्कुल भी खाने की चिंता न करें मै डेली खाना भिजवा दिया करुंगा...। मै निशब्द हो गया था...। शालू का घर मेरे घर के बिल्कुल पास ही है एक तरह से वह मेरा पडौसी भी है उसने दोस्ती और पडौसी दोनो का धर्म इतनी बखुबी से निभाया है कि मै उसके वजूद के समक्ष नतमस्तक हो गया हूँ।

आज लगभग 10 दिन हो गयें है शालू के घर से डेली दोपहर का बेहतरीन किस्म का भोजन आ रहा है जबकि उसका घर यहाँ लगभग 15 किमी.तो होगा ही।खाने को देखने के बाद यही लगता है कि जिसने भी भेजा है बडी आत्मीयता के साथ भेजा है,जबकि शालू बनिया है जिसको हम कंजूस कौम के रुप मे सुनते आयें है। शालू के यहाँ से भोजन दाल,चावल,रोटी,अचार और स्वीट डिश के साथ आता है। मै निशब्द हूँ...अभिभूत हूँ और अपने वजूद के बौनेपन पर ग्लानि से भी भरा हुआ हूँ।

ऐसे बुरे वक्त मे जब मेरे तथाकथित अजीज़ो का कुछ अता पता नही है ऐसे भी शालू जैसा मेरा आम दोस्त बेहद खास हो कर अपनी दोस्ती के फर्ज़ को निभा रहा है उसके इस बडप्पन को मै सलाम करता हूँ....।

अनुरागी जी/सुशील उपाध्याय जी/योगी जी/डा.कृष्ण रोहिल जी

यें चार लोग और है जिन्होनें इस बुरे दौर मे मेरा हौसला अफजाई की है और भले ही उतना प्रत्यक्ष समय न दे पाएं हो लेकिन सूक्ष्म रुप से इनकी हितचिंताएं और शुभकामनाएं मुझे मानसिक बल देती रही इसके लिए मै इनका भी तहे दिल से शुक्र गुज़ार हूँ....।

...बस अब यह मित्र पुराण यही बंद करता हूँ जिसे अक्सर भावनात्मक मुज़रे का तमगा दिया जाता रहा है और भी कुछ नाम है जिन्होनें आम होते हुए भी अपने खास होने का अहसास कराया है मै उनके प्रति भी अपनी कृतज्ञता ज्ञापित करता हूँ...।

उन अजीज़ दोस्तों का भी शुक्रिया जिन्होनें मुझे बुरे वक्त में नितांत अकेला छोड दिया तभी मैं उनके व्यामोह से मुक्त होकर अपने आस पास फैले हुई अच्छे इंसानो को दोस्त के रुप में महसुस कर पाया....।

अपने निरापद अपराधों की क्षमा याचना सहित....
डा.अजीत

Tuesday, March 29, 2011

हास्पिटल के कुछ पात्र



भले ही मैं यहाँ अपना सबसे बुरा वक्त गुजार रहा हूँ लेकिन फिर भी अस्पताल की भागदौड में जब भी फुरसत में सुस्ताने बैठता हूँ तो अस्पताल के कुछ चेहरे मेरी आखों के सामने बरबस दौड जातें हैं कहते हैं कि दूनिया मे भांति-भांति के लोग रहते है इसी तरह अस्पताल मे भी काम करने वालों कर्मचारियों की भी एक अलग ही वैरायटी है यहाँ मै उनमे से कुछ पात्रों का जिक्र कर रहा हूँ।

सोनाली सिस्टर

सोनाली सिस्टर इस अस्पताल की सबसे अनुभवी नर्स में से एक है जिस दिन हमारा बालक बालक पैदा हुआ यही सिस्टर नाईट ड्यूटी पर थी।जब लेबर पेन शुरु हुआ तब हम लोग बडे घबरायें हुए थें लेकिन सोनाली सिस्टर एकदम कूल थी वैसे तो यें प्रतिदिन इन सब चीज़ो की अभ्यस्त रहती है लेकिन वो आत्मविश्वास से पूर्ण थी उसने डिलिवरी को बडे परिपक्व ढंग से सम्पन्न करवाया दीगर बात यह रही कि जब पत्नि ओ.टी. में थी तब सोनाली सिस्टर नें सब कुछ मैनेज़ किया अस्पताल की गाईनिकोलाजिस्ट तो उस समय ओ.टी. मे पहूंची जब बच्चा पैदा हो चुका था हालांकि उसने अपनी फीस पूरी ली है। सोनाली सिस्टर का प्रोफेशनल पक्ष उज्ज्वल है लेकिन पर्सनल रुप से वह उतनी ही अमानवीय,संवेदनहीन,रुखी और तथाकथित रुप से हार्डकोर प्रेक्टिकल नर्स है। जब तक पत्नि प्राईवेट रुम में प्रसूति के रुप मे भर्ती रही तब तक सोनाली सिस्टर की नजरे इनायत रही वो अपना काम बखुबी करती रही लेकिन जैसे मैने अस्पताल का प्रसव संबन्धी कार्य का भुगतान किया तो अस्पताल ने हमे डिस्चार्ज़ स्लिप थमा दी अब समस्या यह बनी कि चूंकि अभी बच्चा नर्सरी मे रहेगा तो फिर बालक की मम्मी कहाँ रहेगी? मैने अस्पताल के मैनेजर से बात करके जिस प्राईवेट रुम मे हम भर्ती थें उसको ही रुम चार्ज़ पर ही ले लिया। इसके बाद सोनाली सिस्टर का नजरिया ही बदल गया कल तक सेवा की प्रतिमूर्ति और निपुण कर्तव्यनिष्ठ नर्स अब कायदा प्लस कानून बताने वाली कठोर प्रशासक बन गई उसे हमारा इस तरह से अस्पताल मे रुकना नागवार गुज़रा।

वैसे तो सोनाली सिस्टर कुछ कर नही सकती थी लेकिन जो उसके बस में था उसका उसका खुब प्रयोग किया मसलन हम लोग जच्चा के भोजन के लिए दाल/खिचडी अभी तक अस्पताल मे ही पका रहे थे और चाय वगैरह भी अस्पताल के चूल्हे पर ही बना लेते थे,सोनाली सिस्टर नें अपना तुगलकी फरमान जारी कर दिया कि यह गैस अस्पताल के अंदरुनी कामों के लिए है खाने बनानें के लिए नही इसका प्रयोग ओ.टी के उपकरणो को उबालनें के लिए किया जाता है सो आप यहाँ खाना मत बनाया करें। उसके इस ब्यान के बाद हम एकाध दिन सहमें-सहमें से रहें क्योंकि यहाँ देहरादून मे और कोई ऐसा जरिया नही था जहाँ से जच्चा के लिए हल्का भोजन बन कर आ सके।

अगले दिन मैने अस्पताल के मैनेजर से अपनी समस्या का जिक्र किया तो उसने बडी आत्मीयता से कहा कि कौन रोकता है आपको? आप खाना पका सकतें है,चाय बना सकतें है वो भी साधिकार। बस इसके बाद हमने सोनाली सिस्टर को उपेक्षित करते हुए खाना-पकाना जारी कर दिया इस बात से वह और भी चिढ गई और एक दिन फिर हमें टोक दिया बोली आप तो अपने लिए एक छोटे चूल्हे की व्यवस्था करने वाले थें क्या हुआ चूल्हा आया नही क्या? चूंकि मैं इस मसले पर अस्पताल के मैनेजर से विधिवत रुप अनुमति ले ली थी सो अब मैनें सोनाली सिस्टर को थोडा सख्त लहज़े में बता दिया कि हम लोग वैसे ही परेशान है आप और परेशानी खडी करने की कोशिस न करें लेकिन वो ढीठता से अपनी बात अडी रही और विदेश गये अस्पताल के मालिक डाक्टर का हवाला देते हुए कहा कि डाक्टर साहब यहाँ खाने-पकाने की किसी को परमिशन नही देतें है साथ ही उसने ओ.टी.के लिए चूल्हे की उपयोगिता का तर्क भी दिया हमनें उसको पुरी तरह से इगनोर कर दिया। अब सोनाली सिस्टर रोज़ाना नाईट ड्यूटी पर आती हैं और हमारी शक्ल देखकर भुन कर रह जाती है साथ रोज़ाना हमारी यहाँ से जल्दी विदाई की भी दुआ करती है जिसके हमें सख्त जरुरत भी है।

अस्पताल के मैनेजर-नेगी जी

अस्पताल के कर्मचारियों के लिए वें एक कठोर प्रशासक है सुबह आतें ही सभी की क्लास लेतें है। कर्मचारी की गल्ती पर सीधे उसके मुँह पर ही डांट देना उनकी प्रशासनिक कार्यकुशलता का परिचायक है। जब मैने उनसे अपनी वास्तविक समस्या बताई कि इस शहर में मै एकदम अंजान हूँ कुछ मित्रादि हैं भी तो वें यहाँ से भौगोलिक रुप से ज्यादा दूरी पर रहतें है तो उन्होनें ने अस्पताल में वही कमरा हमें दे रुम चार्ज़ पर दे दिया जिसमें हम रुके हुए थें साथ ही गैस पर खाने-पकाने की भी अनुमति दे दी जिससे हमें बडी राहत मिली। सोनाली सिस्टर के रुखे व्यवहार पर जब मैने उनके समक्ष आपत्ति जताई तो उन्होनें व्यक्तिगत रुप से सोनाली सिस्टर को आदेश दिया कि हमें खाना बनाने में चकल्लस न करें हालांकि सोनाली सिस्टर को यह बात भी नागवार ही गुजरी और उसने अस्पताल के आंतरिक अनुशासन का सहारा लेकर डाक्टर साहब का सन्दर्भ दे दिया जिससे यह पता चल सके कि मैनेजर से भी उपर वह डाक्टर साहब के विश्वसनीय लोगों मे से एक हैं। नेगी जी एक खासियत और है वें सुबह आतें ही सभी मरीज़ो के कमरों मे जातें है और सभी कि कुशल-क्षेम पुछतें है यह उनके नित्यक्रम का एक हिस्सा है।

भूषण,रुपाली,शशि सिस्टर और अन्य....

भूषण लगभग बाईस साल का नौजवान है कान में ईयरफोन और जेब मे मोबाईल अक्सर रहता है उसका काम अस्पताल मे भर्ती होनें वालें मरीज़ो का बिलिंग आदि का काम करने का है ड्यूटी के समय वह आक्सीज़न का सिलेंडर भी मेन सप्लाई रुम मे बदलता है। अभी युवा है थोडा मसखरा है साथ ही मुझे लगता है कि प्रेम मे भी पडा हुआ है क्योंकि मै उसको फोन कर अक्सर गुप्त भाषा मे घंटो बाते करता और फुसफुसाता देखता हूँ अस्पताल के कैमिस्ट से भी उसकी अच्छी ट्यूनिंग है शाम को अक्सर उसके केबिन मे का जाकर नीचे ही बैठ जाता है। प्रेम की बात पर मुझे इसलिए भी शक हुआ कि एक दिन मैने उसके कैमिस्ट के केबिन मे अपने फोन से किसी को गाना सुनाते हुए सुन लिया सब उसका मज़ा ले रहे थें और गाना भी कौन सा भींगे होंठ तेरे....प्यासा दिल मेरा...बस फिर इसके बाद मुझे लगा कि भूषण भईया की जरुर किसी से आंखे चार हो रखी हैं।

रुपाली सिस्टर कम रिसेप्शनिस्ट है यह भी युवा है साथ ही काम भी काफी करती है लेडी डाक्टर के मरीजो का हिसाब किताब यह ही रखती है पत्नि की डिस्चार्ज़ स्लिप भी रुपाली नें ही बनायी थी, भूषण के साथ भी इसका सखा भाव ही झलकता है दोनो अक्सर मोबाईल पर फनी रिंगटोनस और गाने सुनते देखे जा सकतें है।

शशि सिस्टर भी अस्पताल की वरिष्ठ नर्स में से एक ही दिन मे ड्यूटी पर रहती है। शशि सिस्टर सौम्य,सभ्य,संवेदनशील और एक ममत्व से पूर्ण एक परिपक्व नर्स है इन्होनें हमारा बडा ख्याल रखा है ऐसे लोगो का सम्मान करने का मन करता है।

एक सिस्टर और है मैं इनका नाम नही जान पाया हूँ अक्सर रिसेप्शन पर बैठा देखता हूँ चूंकि इनकी शक्ल यूपी की मुख्यमंत्री सुश्री मायावती से काफी मिलती है और देखने में उनकी बडी बहन लगती है सो मैने इनका नाम खुद ही माया सिस्टर रख लिया है। माया सिस्टर भी भद्र,सौम्य और सम्वेदशील महिला है मै उनको हमेशा विन्रम ही देखता हूँ भले ही सामने वाला कितना उत्तेजित अवस्था मे न हो। माया सिस्टर भी लगभग प्रतिदिन ही मुझसे बच्चे की कुशल क्षेम पुछती है साथ ही अधिकार के साथ कहती है कि भईया अब नीलम की तबीयत कैसी है? उनकी इसकी आत्मीयता का बडा प्रशंसक हूँ।

कृष्णा दीदी

अगर इस पोस्ट मे मै कृष्णा दीदी का जिक्र नही करुंगा तो खुद के साथ नाइंसाफी होगी। कृष्णा दीदी अस्पताल में सफाईकर्मीं है लेकिन उनकी कर्तव्यपरायणता काबिल-ए-तारीफ है दिन मे कईं बार हमारे रुम से लेकर अस्पताल के कोने-कोने झाडु-पोंछा लगाती है वह भी निष्ठाभाव के साथ ऐसा नही कि बस खानापूर्ति के लिए यह सब कर रही हो दिन भर मैं कृष्णा दीदी को सम्पूर्ण ऊर्जा के साथ काम करते देखता हूँ जबकि नाईट ड्यूटी पर जो सफाई करने वाली आती है वो एक नंबर की कामचोर और बातूनी महिला है जिस दिन हमारा बच्चा पैदा हुआ उसी सुबह रुम मे आ गई थी बोली कि हमारा ईनाम लाओं जबकि उसको पता था कि इस बच्चे के साथ प्राब्लम है क्योंकि रात में वो भी ओ.टी. में थी लेकिन बडी बेशर्म महिला है साथ मे फैशनपरस्त भी उम्र पचास के पार की होगी और धुप मे जब निकलती है तो युवा लडकी की तरह छाता लेकर चलती है ताकि झुलस न जाएं।

खैर! कृष्णा दीदी की जितनी तारीफ की जाएं उतनी ही कम हैं ऐसे लोगो के सहारे ही दूनिया में काम चल रहा है जो अपने कर्तव्यों के पक्के हैं। जिस दिन मै यह अस्पताल से जाउंगा मेरा मन है कि उसको जरुर इनाम दे कर जाउंगा बिन मांगा इनाम जोकि मेरी एक कृतज्ञता होगी उनकी कार्यशैली के प्रति....।
अब विराम देता हूँ कुछ जरुरत से ज्यादा ही बडी पोस्ट हो गई है लेकिन इतने सारे पात्रों को समेटना कोई आसान काम नही था ये जब है कि मैने नर्सरी के नर्सिंग स्टाफ का जिक्र भी नही किया है जिनसे मुझे हर तीन घंटे बाद मिलना पडता है उनके भी किस्से अजीब ही हैं....लेकिन फिर कभी।
डा.अजीत

Monday, March 28, 2011

अस्पताल का अवसाद

आज अस्पताल मे आयें 13 दिन हो गयें है। दिनभर यहाँ मरीज़ो की आवाजाही रहती है प्राय: प्रतिदिन एक डिलिवरी तो हो ही जाती है ओ.टी. के बाहर खडे परिजनों के चेहरे डाक्टर की सुरक्षित प्रसव की सूचना और साथ मे यदि बेटा हुआ है तो उसकी खबर लोगो के चेहरो पर एक खास किस्म की खुशी बिखेर देती है,फिर शुरु होता है बधाईयां...मिठाई का दौर कुछ चेहरे ऐसे भी होते है जो पहली बार बाप बने होते है उनकी बाडी लेंग्वेज़ अलग ही किस्म की होती है।

जिस अस्पताल मे मै पिछले एक पखवाडे से रह रहा हूँ उसके स्वामी डाक्टर दम्पत्ति अपने बच्चों के पास अमेरिका गये हुए हैं संभवत: एक अप्रैल को लौटेंगे सो यहाँ के कर्मचारियों के अंदर के खास किस्म की स्वतंत्रता को भाव छाया हुआ है चाहे वह सिस्टर हो या रिसेप्शनिस्ट सभी मुक्त भाव से अपने काम का मज़ा ले रहें है मुझे कल कैमिस्ट ने बताया कि जब डाक्टर साहब यहाँ होतें है तो यहाँ का माहौल ही अलग किस्म का होता है एक खास किस्म का सन्नाटा और आंतरिक अनुशासन पसरा रहता है।

रोज़ाना इतने चेहरे सामने से गुजरते है कि कभी-कभी लगने लगता है कि दूनिया मे दुख कितना बडा सामाजिक यथार्थ है ऐसे भी भगवान बुद्द भी याद आतें है। जीवन-मरण,हानि-लाभ,नियति-प्रारब्ध जैसे शब्द मन मे दस्तक देते रहतें हैं। अस्पताल का जीवन इतना बोझिल और मानसिक थकान से भरा होता है कि सारा दिन अपना बोझ ढोने के बाद जब रात को मै लेटता हूँ तो पडकर यह पता नही रहता है कि कहाँ पडा हूँ। पत्नि को भी हर तीन घंटे के बाद बच्चें को दूध पिलानें के लिए छत पर जाना पडता है(एन.आई.सी.यू. छ्त पर ही है) वो भी थकी-थकी सी रहती है क्योंकि रात मे नींद पूरी नही हो पाती है और बच्चे के स्वास्थ्य को लेकर मानसिक तनाव अलग से रहता है।

दुख और इससे उपजी आत्मीयता का संसार अस्पताल मे बखुबी देखा जा सकता है मै दिन मे कईं बार नर्सरी के चक्कर लगाता हूँ बालक को शीशे से देखकर लौट आता हूँ नर्सरी के बाहर मेरे जैसे और भी कई लोग अपने बच्चे की स्वास्थ्य लाभ की कामना से बाहर बैठे रहते हैं खासकर ऐसी माएं जिनका बच्चा नर्सरी में भर्ती है उनके आंखों मे हर समय पानी तैरता रहता है जैसी ही किसी ने उनसे यह पूछा कि आपका बच्चा कैसा है वें बडी मुश्किल से अपने आप को संभाल पाती है गला रुंध जाती है और पलको के कोने से एकाध बूंद टपक ही पडती है। यह देखकर मन द्रवित हो जाता है और बस यही दुआ करता हूँ कि ईश्वर ऐसा मानसिक कष्ट किसी दुश्मन को भी न दें। सभी एक दूसरे के बच्चों का हाल चाल जानकर परस्पर सांत्वना देते रहते है तथा एक दूसरे का ढांडस बंधाते रहतें है जिसके बच्चे को छूट्टी मिल जाती है वो यहाँ से जितनी जल्दी हो सके भागना चाहता है और यही उम्मीद करता है कि वो फिर कभी यहाँ लौट कर न आयें। सभी को अपनी-अपनी बारी का इंतजार है बाल रोग विशेषज्ञ दिन मे दो बार राउंड लेते है जिस समय वो आतें है सभी पेरेंट्स की हालात देखने वाली होती है अपने बच्चे को लेकर इतनी शंकाए इतने सवाले उनके मन मे होते है कि बेचारे डाक्टर के समक्ष डरते-डरते थोडा बहुत ही कह पातें है जिस दिन डाक्टर बेबी के ठीक होने की बात कह देता है उस दिन उनके बोझिल चेहरों पर उत्साह से एक इंच मुस्कान बरबस ही आ जाती है और जिन बच्चों को तकलीफ अभी भी जारी है तथा संकट नही टला है वें चिंतित हो जाते है और भगवान की शरण मे जा कर खुद की एक आस बंधाते हैं।

पता नही ईश्वर का अस्तित्व है या नही है लेकिन मुझे इतना जरुर लगने लगा है कि विज्ञान की कडवी सच्चाई से भागकर यदि कही शरण मिल सकती है तो वह ईश्वर की शरण ही है हो सकता है कि यह एक झुठी आस ही हो लेकिन जब डाक्टर नकारात्मक बातें बताता है तो पेरेंट्स बस यही प्रार्थना करते है कि हे! ईश्वर हमारें बच्चे की मदद कर मै भी उन्ही मे से एक हूँ।यदि यह ईश्वर की अवधारणा न होती तो संकट की घडी में न जाने कितने लोग आत्महत्या कर चुके होतें कुछ और मिले न मिलें ईश्वर की प्रार्थना से एक संबल तो मिलता ही है भले ही वह सच्चा न हो।

सर्व: भवन्तु सुखिन:

डा.अजीत

Sunday, March 27, 2011

एक इम्तिहान और...

बात लिखने मे अजीब लग रही है लेकिन पिछले एक पखवाडे से मै जिस मन:स्थिति से गुज़र रहा हूँ उसको शब्दों मे ब्याँ कर पाना आसान नही हैं फिर भी आज थोडी सी फुरसत मिली तो अपनी इस डायरी मे यह अनुभव भी दर्ज कर रहा हूँ।

हुआ यूं है कि अगले महीने यानी अप्रैल मे 26 तारीख के आसपास मेरे यहाँ एक नया मेहमान आना संभावित था मसलन पत्नि की डिलिवरी होनी थी।हम लोग उसी के हिसाब से अपने कार्यक्रम तय कर चुके थे कि कहाँ डिलिवरी होगी आदि-आदि।17 मार्च की सुबह जब मै अपने बेटे राहुल का एडमिशन नई क्लास में करवा कर घर लौटा तो पत्नि नें मुझे बताया कि उसे कुछ तकलीफ हो रही है मैने मामले को थोडा हल्के मे लिया और रुटीन की तरह यूनिवर्सिटी चला गया लेकिन थोडी देर बाद पत्नि ने आग्रहपूर्ण ढंग से मुझे फोन किया कि हमें एक बार अपने डाक्टर का परामर्श ले लेना चाहिए। मैं सहमत होकर तुरंत घर लौट आया और पत्नि को लेकर डाक्टर के यहाँ पहूंच गया। लेडी डाक्टर नें जांच के बाद जो बात हमें बताई उसने हमारे पैरो तले की जमीन खिसका दी...। डाक्टर ने बताया कि अपरिहार्य कारणोंवश गर्भस्थ शिशु की आज ही डिलिवरी करानी पडेगी क्योंकि लिक्विड का निकलना जारी हो गया था अभी 26 मार्च को गर्भकाल के आठ माह पूर्ण होनें थे लेकिन ये क्या हुआ कि लगभग सवा महीनें पहले ही यह डिलिवरी होने का दुर्योग बन गया था। हम दोनों गहरी चिंता मे डूब गये थें क्योंकि हमारा पहला बेटा भी माईल्ड सेरेब्रल पाल्सी से पीडित रहा है और ईश्वर ने इस दूसरें बालक के साथ भी कैसा संयोग बना दिया है।

खैर! डाक्टर ने कहा कि आप जल्दी अपना निर्णय बता दीजिए क्योंकि अब इस बच्चे को गर्भ मे ज्यादा समय तक रोक पाना संभव नही होगा, हमारे पास डिलिवरी के अलावा कोई विकल्प नही था सो अब क्या किया जाए इस दुविधा मे पडे हुए हम चिंतामग्न सोचते रहे तभी डाक्टर ने यह भी कहा कि इस समय डिलिवरी के लिए किसी योग्य डाक्टर की इतनी जरुरत नही है जितनी कि एक नवजात शिशुरोग विशेषज्ञ की क्योंकि यह एक प्रीमैच्योर बेबी होगा सो इसकी एक्सक्लूसिव केयर की जरुरत पडेगी जोकि हरिद्वार में उपलब्ध नही है सो एक विकल्प यह भी ठीक रहेगा कि आप यह डिलिवरी देहरादून मे करायें।

इसके बाद हमें भी यही ठीक लगा और आनन फानन मे देहरादून के लिए रवाना हो गयें इस आकस्मिक आपदा मे एक मित्र नें इतना आत्मीय सहयोग प्रदान किया कि मेरे पास उनके प्रति कृतज्ञता ज्ञापित करने के लिए भी शब्द नही हैं...बस यही कहूंगा कि ऐसे निस्वार्थ और भलेमानुष लोगो के तपोबल पर ही यह दूनिया कायम है।

देहरादून मे जिस प्राईवेट नर्सिंग होम हमे रेफर किया गया था वहाँ पहूंचने पर पता चला कि उसके स्वामी डाक्टर दम्पत्ति विदेश यात्रा पर है बडी दुविधा की स्थिति थी फिर अपने डाक्टर से मशविरा किया गया तब उन्होनें ने आश्वस्त किया कि उनकी अनुपस्थिति मे जो डाक्टर मरीज़ देख रहें है वे भी उनके परिचय के हैं और काबिल भी है,बस इसके बाद यही भर्ती हो गयें डाक्टर ने जांच के बाद बताया कि कल तक यदि लेबर पेन रुक जाए तो बेहतर रहेगा लेकिन ऐसा हो नही पाया रात को ग्यारह बजे लेबर पेन शुरु हो गया और ठीक 1.10 पर एक बालक(पुत्र) का जन्म हुआ।

वैसे तो नार्मल डिलिवरी हुई थी लेकिन बाल रोग विशेषज्ञ जोकि ओ.टी. में थें और सारे केस पर नज़र बनाए हुए थें क्योंकि मैने उन्हे अपने पहले बालक की क्लीनिकल हिस्ट्री बता दी थी, वो बालक को लेकर बडी हडबडी में एन आई सी यू(नर्सरी) की तरफ रवाना हुए और मुझे भी साथ आने के लिए बोल गये। मैं घबरा गया था लेकिन जैसे तैसे वहाँ पहूंचा तो डाक्टर ने मुझे बताया कि बालक ने जन्म के बाद ठीक ढंग से क्राई नही किया है वह रोया तो जरुर लेकिन क्लीनिकल पाईंट आफ व्यूव से एक्सक्लूसिव रेंज की क्राई नही है सो यह एक चिंताजनक पहलू हो सकता है।

मेरे सामने 6 साल पहले का अतीत घुम गया जब राहुल पैदा हुआ था उसके साथ भी कमोबेश इसी तरह की दिक्कत आई थी लेकिन वो मैच्योर डिलिवरी थी बाकि रोया वह भी काफी देर बाद था जब आक्सीजन लगाई गई थी।

डाक्टर अपने प्रयासों मे तत्परता से लगा हुआ था और मै असहायता के बोध के साथ उसको देख रहा था मैने डाक्टर से आग्रह किया कि वह इस समय जो अपनी बेहतरीन कोशिस कर सकता है वह करें भले ही कितनी ही महंगी दवाईयों का प्रयोग क्यों न करना पडें क्योंकि मैं एक और सीपी चाईल्ड के लिए मानसिक रुप नही तैयार नही था।

थोडी देर बाद मै बाहर आ गया और फिर डाक्टर के आने की प्रतिक्षा करने लगा...थोडी देर बाद डाक्टर साहब भी बाहर आ गयें उन्होनें ने मुझे आश्वासन दिया कि अब बालक बहुत बेहतर स्थिति मे है उन्होने कहा कि क्राईसिस टाईम अब गुज़र गया है जैसे उन्हें पहले लग रहा था कि बच्चे को वेंटीलेटर की जरुरत पडेगी लेकिन बाद मे बच्चा ठीक से सांस लेने लगा था सो उसकी जरुरत नही पडी।

17 मार्च से लेकर अब तक यानि 27 तक मै और पत्नि यही अस्पताल मे बनें हुए है बच्चा अभी नर्सरी मे ही है और धीरे-धीरे रिकवर हो रहा है आज रात को डाक्टर साहब ने उसकी मां को ब्रेस्ट फीडिंग के लिए कहा है इससे पहले उसे फीडिंग ट्यूब से ही मां का दूध दिया जा रहा था।

अस्पताल के थकाऊ माहौल और मानसिक यंत्रणा के इस दौर से मै गुज़र रहा हूँ पता नही कि यह मेरी नियति है या प्रारब्ध कुछ तय नही कर पा रहा हूँ। आज थोडी राहत मिली तो आपसे अपनी मन:स्थिति शेयर कर ली है। डाक्टर का मत है कि बच्चा शत प्रतिशत रिकवर हो जायेगा लेकिन फिर भी मन मे एक डर हमेशा बना रहता है।

आपकी दुआओं का तालिब हूँ....।

इस दस दिन के तज़रबे ने बहुत कुछ सिखाया है कुछ दोस्त याद आयें तो कुछ दुश्मन दोस्त...बहुत सी परिभाषाएं बदली है..अपने-बैगानो का फर्क समझ मे आया है जिनके बारें मे धीरे-धीरे मै खुलकर लिखूंगा। अभी तो अस्पताल का जीवन जी रहा हूँ और शायद यहाँ से 1 अप्रैल तक ही मुक्ति मिलें....।

बच्चे की कहानी चित्रों की जुबानी....


डा.अजीत

Tuesday, March 8, 2011

तनाव प्रबन्धन

जिस विभाग मे मै काम करता हूँ वह विश्वविद्यालय का मनोविज्ञान विभाग है मतलब मानसिक स्वास्थ्य के उन्नयन के लिए अब तक सैकडों शोध प्रबन्ध यहाँ के यशस्वी प्रोफेसर के कुशल निर्देशन मे लिखें जा चुके हैं।साल भर देश भर मे आयोजित होने वाली सेमीनार/कांफ्रेंस मे विभागीय भागीदारी जबरदस्त रहती है। देश मे मनोविज्ञान की विश्वविद्यालय स्तरीय पढाई के आरम्भिक दौर के विभाग के रुप मे यह शुमार रहा हैं,1962 से पीजी स्तर की पढाई हो रही है और यही स्थिति शोध के मामलें मे है।

इस भूमिका के साथ जो बात मै कहना चाह रहा हूँ वह विरोधाभासी किस्म की है मतलब विषय का अध्यापन व्याख्यानों तक सीमित हो जाना तथा आचरण में उसका अनुशीलन कर पाना सारी अकादमिक उपलब्धि को शुन्य कर देती हैं।प्रतीकात्मक रुप से इसलिए सन्दर्भ रख रहा हूँ क्योंकि इससे मेरे कुछ विभागीय लोगो को बदहजमी हो सकती है और वें अपना नज़ला मुझ पर उतार सकतें है क्योंकि मै विभाग की सबसे कमजोर ईकाई हूँ मतलब तदर्थ असि.प्रोफेसर।
मेरे गुरुजी जिनके कुशल निर्देशन में मैने पीएचडी की उपाधि प्राप्त की है उनका व्यवहार अपवाद स्वरुप हैं मै इसलिए नही लिख रहा हूँ कि वें मेरे गुरु रहें है बल्कि सारा विश्वविद्यालय उनकी सहज़ता का साक्षी है। वें अपने स्तर से किसी को ऐसी कभी असुविधा नही होने देतें कि किसी को मानसिक परेशानी हो। विभाग के एक अन्य विद्वान भी हैं वें मनोविज्ञान विषय के जाने माने विद्वान हैं देश भर में अधिकांश सेमीनार आदि में उनका आना जाना लगा रहता है लेकिन पता नही ऐसी क्या बात है कि वें हमेशा इस बात कि फिराक मे रहतें है कि कैसे अमुक व्यक्ति को तनाव दिया जाए। विश्वविद्यालय कर्मीयों का प्रमोशन कैसे होगा इसकी उन्हे जानकारी भले ही न हों लेकिन विश्वविद्यालय में किसका प्रमोशन कैसे रुकना है उसकी जानकारी उन्हे हमेशा रहती है। कागज़ो के पक्कें और लोगो को उनका कैरियार तबाह कर देने की चेतावनी देने की दुर्वासा प्रवृत्ति उनके अन्दर इस कदर हावी है कि वें खुद भी तनाव मे रहतें है और अपने सहकर्मीयों को भी तनाव में रखतें है।

मेरे शक्ल उन्हें विशेष रुप से नापसंद है और हमेशा इस बात की तलाश मे रहतें है कि कैसे मुझे प्रेम-पत्र(अनुशासनात्मक कार्यवाही की चेतावनी का पत्र) थमाया जाएं? मै वैसे तो अपनी तरफ से भरसक प्रयास करता हूँ कि ऐसा कोई अवसर पैदा न होने दूँ लेकिन कमियां निकाल लेने के लिए सायास कुछ भी तर्क विकसित किए जा सकतें है। इस शैक्षणिक सत्र की नियुक्ति के समय उन्होनें ने मुझे हकबात का दावा करने के अपराध मे विश्वविद्यालत प्रशासन के समक्ष कदाचार/अपराधी सिद्द करनें का भरसक प्रयास किया जमकर चिट्ठीबाजी की लेकिन कुछ मेरे शुभचिंतकों की वजह से मुझे नौकरी करने का अवसर मिल ही गया यह बात उनको इस कदर नागवार गुजरी कि विभागीय समय चक्र मे मुझे ऐसे लेक्चर पढाने के लिए दिए गयें जो मैने पहले के सालों में न पढायें हो ताकि मै असुविधा मे रहों लेकिन अपन के लिए मनोविज्ञान विषय मे ऐसी कोई असुविधा विषय के स्तर पर ईश्वर की दया से नही है।
अब कैसे एक मनोविज्ञान का विद्वान दूसरे के लिए मानसिक असुविधा पैदा कर सकता है इसका ऐस उदाहरण यह भी है कि सुबह दस से ग्यारह मेरा पहला लेक्चर दिया गया है इसके बाद दो घंटे का ब्रेक फिर एक बजे से तीन बजे तक लगातार दो लेक्चर ताकि मै लंच के समय भी घर न आ सकूँ। सुबह दस बजे एक बार विभाग मे जाओं फिर तीन बजे ही घर आओं खैर ! मैने इसके साथ भी समायोजन स्थापित कर लिया है लेकिन वें इस बात की फिराक मे रहतें है कि संयोग से यदि मै तीन बजे से थोडा सा पहले विभाग से निकल आया( यदि छात्र न हों तो) बस फिर वें एक चिठ्ठी तैयार करके अगले दिन मुझे थमा देंगे कि आप कक्षा मे नही पायें जाते है आपके विरुद्द अनुशासनात्मक कार्यवाही की जा सकती है।

अब मैं इस दुराग्रही और पूर्वाग्रही प्रवृत्ति से तंग आ गया हूँ क्योंकि मै जिस पृष्टभूमि से ताल्लुक रखता हूँ वहाँ पर सीन ही अलग है और मै नौकरी आत्म सम्मान के लिए कर रहा हूँ जरुरत के लिए नही यह बात उनके संज्ञान में नही है।

आज इतना सब इसलिए लिखा है क्योंकि मुझे आज शाम ही पता चला है कि आज मेरे आने के बाद उन्होनें फिर से एक चिट्ठी तैयार कर ली है जो कल मुझ थमायी जायेगी। मै यह समझ नही पा रहा हूँ कि किस प्रकार से प्रतिक्रिया करुं क्योंकि वें भी मेरे अध्यापक रहें है मै किसी विवाद मे नही पडना चाहता हूँ क्योंकि अभी मार्च-अप्रैल मे जिस पद पर मै काम कर रहा हूँ उस पर स्थाई नियुक्ति के लिए साक्षात्कार होनें वाले है तथा ये श्रीमान मुझे प्रोवोक कर रहें है कि मै कुछ प्रतिक्रिया करुं और ये मुझे साक्षात्कार के लिए अयोग्य घोषित करवा दें।

यह सब वृतांत कहने का मकसद सिर्फ इतना है कि लोगो के मानसिक स्वास्थ्य के लिए व्याख्यान देने और शोध करने प्रबुद्द बुद्दिजीवी लोग भी मानसिक स्तर पर कितने दुराग्रही हो सकतें है जबकि स्ट्रेस मैनेजमेंट पर इनके अतिथि व्याख्यान होतें है,जबकि तस्वीर का दूसरा पहलु बडा ही अजीब किस्म का है।

यह सत्र मेरे लिए एक निर्णायक सत्र की भूमिका मे हैं यदि विभाग मे स्थाईत्व मिल जाए और न भी मिलें दोनो ही दिशा में मै तो परम पिता परमेश्वर से यही प्रार्थना करुंगा कि ऐसे लोगों को सद्बुद्दि प्रदान करें ताकि वें अपनी मानसिक उर्जा का सदुपयोग कर सकें किसी के अहित के लिए नही...।

डा.अजीत

Sunday, March 6, 2011

निजता: जिसका मैने हनन किया

निजता को बचाए रखना मेरी अकेले की जिम्मेदारी थी ऐसा वें सब सोचतें है जो मेरे आस पास है। ग्रामीण पृष्टभूमि से निकल कर जब शहर मे आया तब मन में इतने सारें संकोच थे कि उनका जिक्र करुँ तो अलग से एक पोस्ट लिखनी पड जायेगी। वें सारे किंतु-परंतु और मनोवैज्ञानिक डर जिस आप मेरी हीन भावना भी कह सकतें है दिल-दिमाग पर इस कदर हावी थी कि बस बता नही सकता। ऐसा नही है कि आर्थिक रुप वंचित परिवेश से आया था और शहर की तथाकथित कुलीनता और अभिजात्यता से भयभीत था मेरे पिताजी गांव के सबसे बडे जमीदार है, एक प्रकार से सामंतवादी व्यवस्था का परिवार रहा है बडी जायदाद और कई कामगार आदि-आदि। ये एक लम्बी दास्तान है कि कैसे एक जमीदार के घर मे पैदा हुआ लडका कविता की बात करने लगा,दर्शन पढने लगा और फिर अतंत: मनोविज्ञान की मास्टरी करने लगा जिसकी चर्चा मै कभी फिर करुंगा।

बहरहाल, मुझ पर यह इलजाम है कि मै दोस्तों के बीच की नितांत ही निजी किस्म की बातों को भी अपने इस ब्लाग के माध्यम से सार्वजनिक कर देता हूँ जो सबको नागवार गुजरता है कुछ लोगो का यह भी कहना है कि मै ऐसा इसलिए करता हूँ कि खुद को महान सिद्द कर सकूँ और दूसरो को हीन जबकि मेरी मंशा ऐसी कभी नही रही। मेरे एक पूर्व मित्र नें मेरी कुछ पोस्ट्स पढने के बाद मुझ पर यह आरोप लगाया था कि मै ब्लाग पर भावनात्मक मुज़रा करता हूँ। यें सब मेरी शख्सियत के वें पहलु हैं जिन पर गाहे-बगाहे बातें बनती ही रहती है।

मेरे लिए यह सौभाग्य की बात है कि मुझे समझदार दोस्त मिलें है जिन्हें और किसी बात की फिक्र हो न हो लेकिन मेरी छवि की बडी परवाह रहती है। यहाँ एक और अभिन्न मित्र का जिक्र याद आ रहा है जिनके हिसाब से मेरे मित्र बनने की हैसियत किसी मेरे परिचित के पास नही है उनका आशय मानसिक हैसियत से था उनका मानना रहा है कि लोग मेरे प्रशंसक हो सकतें है मित्र नही वें भी मेरी ऐसे ही मित्र टर्न प्रशंसक बन गये हैं।

कुछ ऐसे भी चेहरे है जिनसे मेरा वास्ता तकरीबन मेरे होश मे जीने के बराबर से ही रहा है हम लोग साथ ही मन्जिल के लिए निकले थे....उनमें कुछ ने अपनी मंजिल पा ली है कुछ ने मंजिल का पता बदल दिया और कुछ रास्तें मे ही खो गये हैं। मै अभी तक मुसाफिर ही हूँ मंजिल क्या है इसका न मुझे पता था है न है और न ही निकट भविष्य मे होने वाला है। मेरे अन्दर इतने सारे ख्याल,वजूद ,ख्वाब सिमटे हुएं है कि पता नही कौन सा मेरा अपना निकलेगा।

दिल वालो की सोहबत ढूंडता हुआ मै अपने घर से बहुत दूर निकल आया हूँ यह एक ऐसा सफर है जिसमे मीलों नंगे पांव चलने के बाद भी रास्तें मे सुस्तानें के लिए कोई ठौर-ठिकाना नज़र नही आता है। अपनी कमजोरियों के साथ जो भी मुझसे गल्तियां हुई है उन सबका अफसोस मुझे जरुर है लेकिन सबसे ज्यादा अफसोस बस इस बात का है कि जिस तरह का लहू मेरी नसों मे दौड रहा है जो हकबात और ज़ज्बात का मुफीद है उसके जैसे कदावर लोगो से अभी मुलाकात नही हो पाई है। अपने देहात मे एक कहावत प्रचलित है कि जिसकी भी पूंछ उठाई वही मादा निकला बस ऐसी ही कुछ-कुछ हालत से मेरा वास्ता पडा है। मुझे पता है यह बात जानकर कुछ मेरे अज़िजों को बदहज़मी हो सकती है उन्हे अपने वजूद पर भी सवालिया निशान नज़र आयें लेकिन यह अपने जीवन की वो सच्चाई है जिसे मै रोज़ाना महसूस करता हूँ।

मै यह स्वीकार करता हूँ कि मै मित्रों की निज़ता का हनन किया है अपनी निजता का तो कोई अर्थ ही नही है क्योंकि मै जब तक विरेचित न हो जाउं मुझे चैन नही आता है अब यें सब दूनियादारी के किस्से है जो ज़िन्दगी से जुडे हुए सो किरदार के रुप मे किसी न किसी का जिक्र होने लाजिमी ही है ऐसे में अगर कुछ बातें ऐसी लिखी गई हो जिससे किसी को असहज़ लगा हो या अपनी निज़ता का हनन लगा हो तो मेरे पास क्षमा याचना के भी शब्द नही है बस अपनी बात जनाब वसीम बरेलवी साहब के शेर के माध्यम से कहना चाहूंगा...अर्ज़ किया है:

मेरे शेरों को तेरी दूनिया में

मेरे दिल का गुबार लाया है

मेरे शेरों गौर से मत सुन

उनमें तेरा भी जिक्र आया है।

फिर भी मै यही कहूंगा कि सायास किसी को अपमानित,हीन या क्रुर सिद्द करने के लिए मैने कभी नही लिखा जैसा भी महसूस किया ठीक वैसा लिखा बिना किसी लाग-लपेट के और शायद यही मेरी मौलिकता है।

अपने दौर के बेहतरीन लोगो के बीच वक्त बितानें के बावजूद भी कुछ सवालात ऐसे है जिनका कोई जवाब किसी के पास नही है,मुझे अब किसी से कोई शिकवा-शिकायत भी नही पहले कई दिन परेशान रहता था खुद को कोसता रहता था लेकिन अब थोडी देर के लिए मलाल होता है ज़ज्बातों का एक ज्वार भाटा आता है और उतर जाता है और जिन्दगी अपनी धुन मे अपनी गति से फिर से चलने लगती है।

अब विश्राम लेता हूँ वसीम बरेलवी साहब के इस उम्दा ख्याल के साथ जो शायद मेरे तज़रबे की एक कतरन हैं....।

किसी को मीर कहतें हैं किसी के साथ चलतें हैं

पढे लिक्खों का अपना ही कोई चेहरा नही होता

मगर ये मैले कपडों मे सीधे सादे अनपढ लोग
उन्हें पहचानने में कोई भी धोखा नही होता....।
॥आमीन॥
डा.अजीत

Saturday, March 5, 2011

दीक्षांत समारोह के बहानें

आज हमारे विश्वविद्यालय में 111 वां दीक्षांत समारोह था।लोकसभा अध्यक्ष डा.मीरा कुमार मुख्य अतिथि थी साथ दिल्ली विधान सभा अध्यक्ष डा.योगानंद शास्त्री विशिष्ट अतिथि थें। गत शैक्षणिक सत्र के पीएचडी,पोस्ट ग्रेजुएट्स तथा ग्रेजुएट्स को उपाधि दी गई भिन्न-भिन्न रंग के गाउन मे छात्र-छात्राएं आज अपनी शिक्षा पूर्ण होने की खुशी मे मस्त नज़र आ रहे थें। मुझे अपना दीक्षांत समारोह याद आ रहा था जब हम तीन अभिन्न मित्रों ने एक साथ अपनी डिग्री प्राप्त की थी जिसमे से हम दो पी.एच.डी थें एक पत्रकारिता मे गोल्ड मैडल प्राप्त करने वाले उपाधिपत्र धारक। हमने अपने-अपने गुरुजनों के साथ भी एक-एक फोटो खिचवाया था ठीक आज ऐसा ही नज़ारा था गुरुकुल के आचार्यगण(प्रोफेसर) अपने प्रिय विद्यार्थियों के साथ क्लोज़ अप फ्रेम के स्नैपस खिचवातें नज़र आ रहे थे। भले ही गुरुकुल मे कई प्रकार की तकनीकि अव्यवस्थाएं साल भर चलती रहती है लेकिन एक बात यह यहाँ के अकादमिक माहौल को खास बनाती है वह है यहाँ की गुरु-शिष्य परम्परा।शोध करने वाले छात्रों का अपने गुरु के साथ एक ऐसा आत्मीय संबन्ध बन जाता है जो कई अर्थों मे यूनिक किस्म का है। मै यह बात दावे के साथ इसलिए कह सकता है कि मैने अन्य विश्वविद्यालयों मे देखा है कि वहाँ के प्रोफेसर एक खास किस्म की पर्सनल डिस्टैंस बना कर चलते है अपने स्टूडेंट्स सो वहाँ एक औपचारिक रिश्ता होता है ब्रितानी किस्म का।
अब अपनी कुछ बात....मेरी ड्यूटी विश्वविद्यालय के सीनेट हाल की भोजन व्यवस्था मे थीं मै और मेरे एक मित्र डा.अनिल सैनी दोनो वही दिन भर डटे रहें, वैसे तो बडा ही बोझिल किस्म का काम था लेकिन कभी-कभी कुछ काम अनिच्छा से भी करने पडतें है, वक्त काटने के लिए हमने समालोचना-निन्दारस का खुब पान किया साथ ही अपने भविष्य को लेकर अपनी चिंताएं सांझा की। हमारे कोर ग्रुप के वरिष्ठ प्रोफेसर को हमारी ईज़ी गोईंगनेस से तकलीफ भी होती रही वो बार-बार बडबडाकर अपने वरिष्ठ होने और हमारें तदर्थ होने का बोध संज्ञा,सर्वनाम और विशेषणों के माध्यम से कराते रहें जिसका भी हमने लुत्फ ही लिया।
कुल मिलाकर दिन सामान्य रुप से कट गया जैसे रोज़ाना कटता है आज मैने शाम को दूध लेने जाते समय अतीत की स्मृतियों को सायास दफन किया मुझे लगता है कि ये आदत मेरे लिए तकलीफ की बडी वजह बनती जा रही है। वैसे तो परिपक्वता के मामले मे मेरे कुछ मित्रों के हिसाब से मै अभी शिशु ही हूँ इसलिए दूनियादारी का सबक सीख रहा हूँ मैच्योर होने और प्रेक्टिकल होने की कोशिस भी कर रहा हूँ।
गत 28 फरवरी को एक सामूहिक उत्सव का मै भी हिस्सा बना था, कार्यक्रम तो बेहद मज़ेदार किस्म का रहा दो दोस्तों के लिहाज़ से यह एक अविस्मरणीय था लेकिन समापन के बाद कुछ एकाध घटना ऐसी घट गई जिसने मुझे बैचेनी से भर दिया है क्या हुआ था इसकी चर्चा नही करुंगा क्योंकि इससे अनावश्यक निज़ता का हनन हो सकता है। बस सांकेतिक रुप से यही कहूंगा कि जो भी हुआ मुझे कतई अच्छा नही लगा। मुझे अपनी छवि की कोई खास परवाह नही है लेकिन पता नही कैसा बुरा वक्त चल रहा है मै करता हूँ अच्छा और अंत मे मुझे मिलती है बुराई ही है। खैर!अधिकार,स्नेह,छवि,अपनापन,मित्र,परिवार,सम्बन्ध,परिपक्वता,मैच्योरटी इन सभी शब्दों के इर्द-गिर्द अपने वजूद को तलाश रहा हूँ। उस रात की एक घटना को सोचकर अभी भी भयभीत हो जाता हूँ साथ भी आत्मप्रवंचना,ग्लानि जैसे भावों से भी भर जाता हूँ।
पिछले कुछ दिनों से आवारा की डायरी पर नियमित लेखन नही हो रहा है जिसका मुझे भी खेद है। भले ही यह ब्लाग कमेंट्स के मामले मे एक दम निर्धन किस्म का है लेकिन एक वेबसाईट के आंकडों के हिसाब से मेरी कविताओं के ब्लाग शेष फिर जो तीन साल पुराना है से ज्यादा लोकप्रिय है मतलब ज्यादा बार देखा जाता है। यह बात दिल को सुकून देती है।
अभी इतना ही...शेष फिर
डा.अजीत