Saturday, January 16, 2016

बैंड बाजा

बैंड बाज़ा: एक बेसुरी धुन यह भी
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वो हमारे बीच में किसी मिथक की तरह रहते है समाज़ उन्हें क्षेपक से ज्यादा कुछ नही समझताहमारी खुशियों में भरपूर रंग जमाने की सारी जिम्मेदारी उन्ही की होती है मगर हम कभी उनके जीवन में पसरें दुखों को जाननें की कोशिश भी नही करत। वो हमारे किस्सों में सतही हास्य और व्यंग्य के रुप में जिंदा रहते है मसलन हम किसी के गर्दन पर बढे हुए बाल या कलरफुल ड्रेस को देखकर कहते है कि देखो क्या बाजेवाला सा बना घूम रहा है !
हम कभी यह अन्दाज़ा नही लगा पाते है कि हमारी खुशियों में बैंड बजाने वाले लोगो की असल जिन्दगी में किस कदर बैंड बजी होती है वो सांस की बीमारियों से लडते फेफडों को अधिकतम विस्तार तक फैलाते हमारे लिए वो धुन निकालते है जिस पर हम मदहोश होकर थिरक सकें।
बैंड का मैकनिज़्म भी बडा अजीब है जिसे सबसे ज्यादा मेहनत करनी होती है वो हमेशा हाशिए पर रहता है बैंड का मास्टर तो फिर भी नेग लूटता रहता है मगर जो बडे ब्रास के बने बैंड मे दम भर फूंक भर रहे होते है उनके गले की उभरी हुई नसें और आंखों की पुतलियों का अधिकतम फैलाव उन्हें मानवीय श्रम के चरम पर टांग देता है मगर उन्हें न तारीफ मिलती है और न ही नेग ही। हालांकि खुशियों में पैसे उडाना एक किस्म का सामंती ही चलन है जहां किसी के फन की वास्तविक कद्र करने की बजाए पैसा उडाकर स्वामित्व का बडा अजीब प्रदर्शन किया जाता है।
जब मै किसी बैंड को देखता हूं तो उसमे मौसमी मजदूर की तरह काम करने बैंड के अधेड से लेकर बुजुर्ग मेम्बर पर नजर जाती है वो उम्र के इस पडाव मे अजीब सी शून्यता को झेलते हुए अपने कन्धे में सांप के जैसा बैंड ढोने के लिए बाध्य है। फुरसत मे बीडी फूंकते हुए उन्हे देख लगता है जैसे उनकी जिन्दगी मे कोई खुशी की धुन नही है वो खुशियों को सुनने केमामलें में लगभग बहरे हो गए है। सांस और फेफडे की बीमारी एक उम्र के बाद उनको अपने कब्जे मे ले लेती है क्योंकि वो अपनी सांस की नली का सामान्य व्यक्ति से चार गुना ज्यादा उपयोग करते है ऐसे में उनके फेफडे असामान्य फैलाव के शिकार हो जाते है। कभी गौर से उनकें होठ देखिएगा कैसे बैंड के पाईप पर लगे-लगे उलथ जाते है। हम अन्दाज़ा भी नही लगा सकते है कि किसी फिल्मी गाने की धुन बजाने के लिए कितना अधिक शारीरिक श्रम लगता है।
गरीबी,बीमारी कुपोषण से वो रोज़ लडतें है मगर फिर भी उनके लिए थकना मना होता है उन्हें हर हाल में जहां भर की फूंक खुद के अन्दर इकट्ठी करनी होती है और फिर गानें की डिमांड के मुताबिक छोडना होता है ताकि हम खुशी मे झूम कर थिरक सकें।
यह सच है कि ब्रास बैंड एक टीम वर्क होता है मगर फिर भी इस टीम के अधेड और बुजुर्गवार सदस्यों की तकलीफें सच में कम नही होती है उम्र के लिहाज़ से सबसे पीछे रहना होता है और सबसे कम पैसा उनको मिलता है इसके अलावा उमस भरी गर्मी जो ड्रेस बैंड वाले पहनतें वह भी कम कष्टदायक नही है न जाने कौन ऐसी ड्रेस डिजाईन करता है मोटा चमकीला कपडा उपर से उस ड्रेस का चरित्र वही मालिक और सेवक वाला होता है।
मुझे लगता है बैंड बजाना ठीक वैसा ही एक फन है जैसे कोई दूसरा म्यूजिक इंस्ट्रुमेंट बजाने का होता है मगर एक पेशे और रीत के रुप में यह उतना सम्मानजनक कभी नही रहा है ये बस खुशियों के बदलें मनुष्य के अधिकतम उपयोग के दर्शन पर चलता आया है। एक पेशे के रुप में बैंड बजाना भी समाज मे हाशिए पर जी रहे लोगो का पेशा रहा है इसलिए इससे जुडा सामाजिक सन्दर्भ भी सतत साथ चलता है।
आजकल तो डीजे वाले बाबू नें बैंड के काम को वैसे ही काफी कम दिया गया है मगर फिर भी जो लोग इस पेशे से सीजनल जुडे हुए है उनके जीवन में उन खुशियों का दशमांश भी नही होता है जिनके वो साक्षी होते है वो अनजाने लोगो के बीच अपने दुख छोड चमकीली ड्रेस जरुर पहनतें है मगर उसके नीचे उनके पैबंद लगे कपडे ही होते है वो सुर को जरुर साधते है मगर उनकी खुद की दुनिया के सपनें और सुख इतने बेसुरे होते है कि वो न उन्हें देख पाते है और न सुन पातें है।
श्रम का क्रुरतम रुप देखना तो कभी किसी उस बुजुर्ग से जरुर मिलिएगा जो जवानी के दिनों में क्या तो किसी बैंड मे काम कर चुका हो या फिर किसी आढत मे पल्लेदारी ( बोझ उठाने) क़ा काम कर चुका हो फिर आप शायद महसूस कर पाए कि बोझ जब कांधे और पीठ पर लदता है तब असल में नसों की कराह से कैसा संगीत बजता है हम तो धुन के फन में नाचकर मस्ती में झूमकर निकल लेते है मगर उस धुन को बजाने वाली ताउम्र किस तरह से अपनी ही बजाई धुन से सिसकता है इस हकीकत का हमें शायद कभी पता नही चल पाता है खुशियां अपनी कीमत जरुर वसूलती है ये सच बात है मगर किससे और किस रुप में इस सच की हमें जरुर पडताल करनी चाहिए। बैंड बाजे के पेशे में अधिक मानवीय हस्तक्षेप होना चाहिए साथ न्यूनतम श्रम/संविदा के कानूनों का भी पालन किया जाना चाहिए ताकि बैंड बजाने वाले सदस्य को उपयुक्त श्रम सुविधाएं मिल सकें इसके अलावा हमें भी अपने परिवेश के प्रति अधिक संवेदनशील होने की आवश्यकता है ताकि हम बैंड बाजे वाले को महज पैसा देकर अधिकतम उपयोग किया जाने वाले एक ह्युमन इंस्ट्रुमेंट भर न समझें तभी हमारे जीवन में उत्सवों और खुशियों का वास्तविक अर्थ अपने सही स्वरुप में प्रकट होगा।
डॉ.अजित