Friday, December 9, 2011

अलविदा फेसबुक

आज तकरीबन एक हफ्ता होने जा रहा है मैने करीब-करीब छ महीने के अपने फेसबुकिया जनून को अलविदा कह दिया है कई सवाल सामने आ रहे है मेरे भी और मेरे परिचय के संसार में भी कि आखिर ऐसी कौन सी बात है जिसकी वजह से मैने फेसबुक पर अपना एकाउंट डिएक्टिवेट कर दिया है सच तो यह है कि एक कोई खास वजह मुझे भी नही पता है पहले मै बचता रहा कि एक खत्म हुए अध्याय पर लिखने बोलने का कोई फायदा नही है लेकिन आज मन मे आया कि इस लघुवृत्त एक बारे में जो कुछ मन मे अच्छा-बुरा या तटस्थ भाव है उसको यहाँ अभिव्यक्त कर ही दूँ।

फेसबुक पर यूँ तो मेरा अकाउंट पिछले दो सालों से था लेकिन मुझे पहले वहाँ का नेवीगेशन ज्यादा फैमिलियर नही लगता था मेरे एक छात्र ने उसकी काफ़ी तारीफ की तो मैने एकाध बार ट्राई भी किया लेकिन अधूरे मन से फिर एक दिन अपने ब्लॉगर मित्र शील गुर्जर जी से फेसबुक पर राफ्ता हो गया और ये मुलाकात ही वह घडी थी जब मै पूरे मन से फेसबुक से जुड गया उन्होने मुझे एक सजातीय ग्रुप गुर्जर प्रतिहार से भी जोड दिया।

अपनी आदत रही है कि जो भी काम करते है डूब कर करते है भले ही एक दिन करें या एक साल इससे कोई फर्क नही पडता है। धीरे-धीरे फेसबुक पर सम्बन्धों की हरी-भरी फसल लहरा उठी मुझे भी खुब मज़ा रहा था एक तरफ शेरो शायरी का अपना ग्रुप दिल-ए-नादाँ था तो दूसरी तरफ जातीय विमर्श का बडा मंच गुर्जर प्रतिहार इन सबके साथ वॉल पर भी तुकबंदी का दौर चलता रहता था दीगर बात यह है कि अब तक अपुन को कमेंटबाजी का पूरा चस्का लग चुका था, एकाध बार को छोडकर मै अपनी सभी पोस्ट पर विजयी भाव के साथ स्वीकार होने लगा था मनोविज्ञान की भाषा में जिस ईगो कहते है जो भी परम संतुष्ट अवस्था मे पहूंच गया था।

बीच-बीच मे मैने दो बार तथाकथित ब्रेक भी लिए लेकिन वो एक परिपक्व निर्णय की बजाए क्षणिक भावावेश की प्रतिक्रिया था जब भी मैने फेसबुक छोडने की घोषणा अपनी वॉल पर की लोगो के मनुहार के कमेंट आएं कुछ मित्रों ने फोन करके भी वजह जाननी चाही इन सब ड्रामेबाजी मे भी मुझे मज़ा आ रहा था और कमोबेश दो-तीन बाद फिर मै फेसबुक की वॉल पर लौट आया था।

स्वीकार और नकार दोनो का अपना अलग मज़ा है फेसबुक की खुबसूरती यही है कि यहाँ आपको त्वरित प्रतिक्रिया मिल जाती है जिससे संवाद में जीवंतता बनी रहती है। अभी पिछले चार-पांच दिन पहले अचानक मै फिर से चैतन्य हो गया हूँ फिर से एक इनर कॉल आयी कि बस अब बहुत हो गया यह चर्चाओं/वाह-वाह का दौर अब एक पूर्ण विराम लेना चाहिए ये मेरी बहुत पुरानी आदत रही है कि मै जल्दी ही बोरडम का शिकार हो जाता हूँ यहाँ तक कि मानवीय सम्बन्धों में भी मुझे बोरियत लगने लगती है वैसे ये बात बडी विरोधाभासी है कि मै कविता लिखता हूँ और खुद के सम्वेदनशील होने का दावा करता हूँ लेकिन एक खास सीमा के बाद मुझे हर चीज़ मे एक स्पेस एंड डिस्टेंस की जरुरत महसूस होती है और ये बात मेरे निजि जीवन पर भी लागू होती है मसलन साल भर साथ रहते-रहते मुझे पत्नि से भी डिस्टेंस की जरुरत पडती है वरना मै एक ही शक्ल देख कर बोरियत का शिकार हो जाता हूँ इसलिए अब मुझे लगता है फेसबुक पत्नि से ज्यादा जरुरी चीज़ तो हो नही सकती है सो अब इससे भी मुक्ति का समय आ गया है और मुझे ये भी लगता है कि यह चीज़ का एक चरम होता है अभिव्यक्ति के मामलें मे मैने फेसबुक का वह चरम भोग लिया है अब मुझे यहाँ कोई रस नही आ रहा था और ढोने के लिए ढोना मुझे कभी अच्छा नही लगा है चाहे वह रिश्ते हों या एप्लीकेशन।

फेसबुक छोडने के बाद अपने करीबी लोगो से लेकर परिचित और प्रशंसकों के दिल औ दिमाग मे कयासो का दौर जारी है सबके अपने अपने मत है मै उनके विस्तार मे नही जाना चाहता हूँ सबकी अपनी अपनी सोच और भावनाएं है लेकिन हाँ इतना जरुर कह सकता हूँ कि मैने फेसबुक किसी बाहरी वजह से नही छोडी इसकी वजह आंतरिक है और आंतरिक वजह के लिए स्पष्टीकरण देने का इसलिए कोई औचित्य नही बनता है क्योंकि पका हुआ दिमाग को यह एक बौद्धिक चोचला या शिगूफा नज़र आयेगा और जो आत्मीय जन है उसको स्पष्टीकरण देने की कोई जरुरत ही नही है वहाँ एक मौन समझ हर बात को खुद सम्प्रेषित कर देती है।

सो अब तो बस यही कहूंगा अलविदा फेसबुक और शुक्रिया फेसबुक अच्छे और कच्चे लोगो से मुलाकात कराने के लिए यदि कभी ख्वाहिश हुई तो फिर से तुम्हारे दर पर ये फकीर अलख जगाने जरुर आयेगा...।

बशीर बद्र साहब का एक शेर याद आ रहा है

मुसाफिर है हम भी मुसाफिर है तुम भी

किसी मोड पे फिर मुलाकात होगी...!

आमीन

डॉ.अजीत

Friday, November 25, 2011

बाईसकोप

जीवन मे अपनी प्रासंगिकता तलाशने के लिए कितने जतन करने पडते है इस बात का अन्दाज़ा आज तब लगा जब तमाम उपाधियों योग्यताओं के बाद भी एक अदद स्थाई नौकरी के लिए जद्दोजहद बढती ही जा रही है पिछले सप्ताह कश्मीर गया था श्रीनगर मे एक नई सेंट्रल यूनिवर्सिटी बनी है उसके पत्रकारिता विभाग में असि.प्रोफेसर पद के साक्षात्कार था। ओबीसी श्रेणी में अपना नाम था लेकिन दो दर्जन लोग आये थे लगभग कुल मिलाकर सामान्य और आरक्षित वर्ग के लोगो सहित कश्मीर मूल के लोगो से मिलना सुखद अनुभव रहा लेकिन पहली बार अपने देश मे परदेस का बोध भी हुआ जिस भारतीयता के तमगे को हम अपने माथे से चस्पा किए हुए गर्व के साथ घुमते रहते है वहाँ के बाशिन्दों के लिए वह एक जहीन से गाली से बेहतरीन कुछ नही है।

एक और बडी बात पता चली कि हिन्दी भाषी होना अपनी हिन्दी पट्टी तक तो ठीक है लेकिन शेष देश मे यह किसी काम की नही है जिस विश्वविद्यालय मे मेरा साक्षात्कार होना था वहाँ पढाई का अंग्रेजी माध्यम है और साक्षात्कार का भी ऐसे मे मेरे जैसे हिन्दी भाषी के सामने बडा धर्म सकंट था भले ही मेरे पास यूजीसी का नेट क्वालीफाई सर्टिफिकेट है लेकिन यदि अंग्रेजी मे धाराप्रवाह बोलना नही आता है तो वह महज़ एक कागज़ का टुकडा भर है।

अब उम्र के पकने की प्रक्रिया के साथ एक जतन यह भी करना कि अंग्रेजी बोलना आना चाहिए अपने आप मे बडी अजीब सी समस्या है मित्र भी सलाह दे रहें है कि यदि उच्च शिक्षा जमे रहना है तो अंग्रेजी पर अधिकार होना ही चाहिए उनकी बात तार्किक रुप से ठीक है लेकिन मेरी मानसिक स्थिति अभी तक इस बात के लिए तैयार नही है कि मै किसी इंगलिश स्पीकिंग कोर्स को ज्वाईन करुँ।

आज शाम ऐसे ही बेतरतीब ढंग से घुमता रहा अपनी कुछ खासो औ आम दोस्तों से अपनी फिक्रे तमाम करता रहा आज बहुत दिनों बाद आवारा की डायरी लिख रहा हूँ कमबख्त फेसबुक ने सारा वक्त और ऊर्जा चूस लिया है चाहकर भी वहाँ से मुक्त नही हो पा रहा हूँ जबकि वहाँ ऐसा कुछ भी नही है जिससे दिल को राहत मिलती हो बस कमेंटबाजी का चस्का है और कुछ भी नही....। मेरे करीबी दोस्त सुशील जी भी काफी निराश है कि मै ब्लॉग पर नियमित रुप से लिख नही रहा हूँ वें इस ब्लॉग के नियमित पाठक थे उनका कहना है कि फेसबुक पर लिखना अखबार में लिखने जैसा है जबकि ब्लॉग लेखन किताब लिखने जैसा है मै उनकी बात अक्षरश: सहमत हूँ। अब मेरी कोशिस रहेगी कि बिना गैरहाजिरी के लिख सकूँ।

आज मन अजीब सा बेबस और अनमना है सो ज्यादा नही लिख रहा हूँ कुछ ऊर्जा की जरुरत है जिसकी कमी लम्बे समय से महसूस कर रहा हूँ अपने को रिक्लेक्ट करके जल्दी ही हाजिर होता हूँ...!

शब्बा खैर !

डॉ.अजीत

Tuesday, August 9, 2011

फेसबुक:उधडते-बुनतें रिश्तों की पाठशाला

अभी शायद एक महीने से ज्यादा हो गया है कि मै फेसबुक पर लगातार नज़र आ रहा हूँ एकाउंट तो दो साल पहले ही बना लिया था लेकिन पहले मुझे फेसबुक इतनी ज्यादा जंचती नही थी लेकिन अब ऐसा हो गया है दिन मे जब भी ऑनलाईन होता हूँ तभी नज़र फेसबुक पर अटक जाती है। बहुत से नये लोगो से मिलना हुआ है दिन भर मैसज़बाजी/कमेंटबाजी चलती रहती है। अपने एक सजातीय मित्र के आग्रह पर मैने अपनी बिरादरी के एक ग्रुप को भी ज्वाइन किया हुआ है उस पर दिन भर बडी सक्रिय किस्म की चर्चाएं चलती रहती है जिसमे चाहते न चाहते हुए भी मै भी हिस्सा ले लेता हूँ अभी दो दिन पहले मैने पातंजलि योगपीठ के आचार्य बालकृष्ण के बारें मे कुछ लिखा तो अपने ही समाज़ के जिम्मेदार लोग मेरे पीछे पड गये मुझे कांग्रेसी बता दिया गया पहली बार अहसास हुआ कि रामदेव के भक्त लोग काफी है। खैर! ये सब मतभिन्नता तो चलती ही रहती है कोई पक्ष मे होता है तो विपक्ष मे...। फेसबुक के माध्यम से कुछ अच्छे लोगो से भी परिचय हुआ है यह इस सोशल नेटवर्किंग का सबल पक्ष है कि इसमे समान विचारधारा के लोग आसानी से एक साथ जुड जाते हैं...।

अभी विश्वविद्यालय मे मेरी सैकिंड् इनिंग शुरु नही हुई है इसलिए अधिकांशत: घर पर ही पडा रहता हूँ अभी तबीयत भी ज्यादा ठीक नही है कुछ दिन पहले वायरल फीवर हुआ था तब से अभी तक शरीर का मामला अपने ट्रैक पर नही आ पाया है अब पत्नि और बच्चे भी इसके शिकार हो गए है...सो सारा घर बीमारु टाईप का हो गया है।

मेरा छोटा भाई जनक पिछले एक साल से अदद नौकरी के लिए हाथ-पैर मार रहा है पहले सरकारी के चक्कर मे अपनी टेलीकॉम की नौकरी को अलविदा कह दिया और जब सरकारी मे बात बनती नही दिखी तो अब फिर से प्राईवेट सेक्टर मे प्रयासरत है लेकिन पता नही कौन सा प्रारब्ध उसका सामने आ रहा है कि बात बनतें-बनतें बिगड जाती है मै भी अपने यथा सामर्थ्य प्रयास उसके लिए कर चुका हूँ यथा सामर्थ्य क्या अपनी सीमाओं का अतिक्रमण करके अपने कुछ ऐसे रसूखदार मित्रों को बोल चुका हूँ अनुरोध की भाषा मे विनती कर चूका हूँ कि वें किसी भी तरह से उसे एक अदद नौकरी दिलानें मे मदद करें...सभी ने अपने-अपने स्तर से प्रयास भी किए है लेकिन सफलता नही मिली है इस बात से आजकल मन बहुत खिन्न रहता है। आप अपनी असफलता एकबारगी बर्दाश्त कर सकते है लेकिन जब कोई आपसे छोटा आपके सामने असहायता के भाव के साथ खडा नज़र आता है तब अपने ऐसे होने पर बडी कोफ्त होती है मुझे ऐसे में अपना एक पुराना मित्र याद आता है जो अक्सर कहा करता था कि मै अपने मित्रों के माथें पर शिकन नही देखना चाहता हूँ वो कहता कि हे! ईश्वर मुझे व्यक्तिगत रुप से कुछ दे न दें इसका मुझे कोई मलाल नही लेकिन इतनी ताकत जरुर दें कि यदि कोई मेरा मित्र मुझे मुसीबत मे याद करें तो मै उसकी समस्या का निवारण कर सकूँ... वास्तव में ये ज़ज्बा ही अपने आप मे काबिल-ए-तारीफ है दीगर बात यह भी है मेरा वही मित्र आजकल गर्दिश का शिकार होकर गुमनामी ज़िन्दगी जी रहा है वो किसी की क्या मदद करता कोई मित्र उसकी ही कोई मदद नही कर पा रहा है...।

इस बार मेरे विश्वविद्यालय मे यूजीसी के नये नियमों का हवाला दे कर एडहॉक नियुक्ति के लिए साक्षात्कार आयोजित किए जाने के समाचार आ रहें है समाचार क्या आ रहें है इस बार ऐसा हो कर ही रहेगा पिछले सालों मे तो विभागाध्यक्ष की संस्तुति से ही नियुक्ति पत्र मिल जाया करतें है लेकिन इस बार यह व्यवस्था बदली जा रही है वैसे तो यह भी कहा जा रहा है कि इस बार असि.प्रोफेसर को पूरा वेतनमान दिया जायेगा सो इस लिहाज़ से तो यह खबर ठीक ही है लेकिन मेरे जैसे मास्टर के लिए थोडी मुश्किल की बात यह है कि मेरा विभागाध्यक्ष मुझे कतई पसंद नही करता है क्योंकि मै दूसरे प्रोफेसर का चेला रहा हूँ इसलिए इस बार साक्षात्कार के नाम पर उसके पास एक मौका भी है मुझे बाहर का रास्ता दिखा सकें....लेकिन सबके अपने-अपने समीकरण होतें है सो मै भी यथायोग्य समीकरण फिट करने मे लगा हुआ हूँ चाहे वह सिफारिश हो या कुछ और...क्या करें पापी पेट का सवाल है अब साथ मे पत्नि और दो बच्चे भी है और फिर गांव की एक पुरानी कहावत अक्सर याद आती है कि भाई मरोड के लिए करोड चाहिए... अब करोड तो पास है नही इसलिए किसी न किसी स्तर पर समझोता तो करना ही पडेगा...।

अब देखतें है कि वक्त कब तक अपने साथ ये पैतरेबाज़ी का खेल खेलता है मुझे लगता है कि अब वो वक्त करीब ही है जब इस पार या उस पार वैसे अब मै भी थक गया हूँ जल्दी ही तदर्थ जीवन का स्थाई समाधान चाहता हूँ क्योंकि जब साथ चलने वाले लोग आगे निकल जाते है और आपको नसीहत के अन्दाज़ मे सलाह देते है तो उन शब्दों का बोझ कितना भारी होता है उसको ब्याँ नही किया जा सकता है...आज के लिए बस इतना ही बाकी बातें बाद मे होंगी...।

डॉ.अजीत

Wednesday, August 3, 2011

इन दिनों...

15 मई के सेवा विश्राम के बाद से ये समय आ गया है करीब-करीब तीन महीने होने को जा रहें है...कुल मिलाकर काफी मिला जुला किस्म का वक्त गुजरा पिछले साल के जितनी यात्राएं तो नही कर सका लेकिन फिर भी केदारनाथ के दर्शन हो गए साथ एकाध और जगह भटका गया है।

साफगौई और ईमानदारी का यही तकाज़ा है कि ये मान लिया जाए कि इन दिनों दिन बडे ही बेतरतीब और नीरस किस्म से कट रहें है गुलज़ार साहब की उस गज़ल की तरह जिन्दगी अपना फलसफा रोज पढा जाती है...दिन कुछ ऐसे गुजारता है कोई, अहसान जैसे उतारता है कोई... कमोबेश यही मन:स्थिति बनी हुई है। थिंक पाजिटिव जैसे जुमलो और मोटिवेशनल कायदों से परे मै मनोविज्ञान का विद्यार्थी होने के बावजूद जैसा महसूस कर रहा हूँ वैसा ही ब्याँ कर रहा हूँ वरना दिल बहलाने के ख्याल बहुत से अच्छे मेरे पास भी हैं।

कल प्रेमनगर आश्रम पर डॉ.सुशील उपाध्याय जी मुलाकात हुई अपनी कुछ सामयिक चिंताएं उनके साथ सांझा की कुल मिलाकर अपनी कही उनकी सुनी। उपाध्याय जी अभी चीन की यात्रा से लौटे से है सो उनसे चीन के मनो-सामाजिक जगत के बारे मे जानने का अवसर मिला.. उपाध्याय जी ने समग्रता के साथ अपनी चीन यात्रा का संक्षेप मे वृतांत कहा साथ मुझे हौसला भी दिया कि बदले हुए हालात मे कुछ बीच का रास्ता निकाल लिया जायेगा वो आत्मीयता से सुनतें है तथा सुख-दुख मे तुरंत ही शामिल हो जाते है मै इसलिए भी उनका कद्रदान हूँ वरना आजकल लोग कुछ ज्यादा ही आत्ममुग्ध होते जा रहे हैं बस यदि आप सहमत है तो ठीक है वरना आप आउटडेटड...। इन सब बातों के बीच फिलवक्त मन की बैचेनी दूसरी दिशा मे जा रही है किसी भी तरह से एक दशक से बनी हुई यथास्थिति को तोडने की जुगत दिल मे पल भी रही है और साथ जल भी रही है लेकिन मंजिल का पता रहबर से कैसे पता चले जब रहजन ही तनकीद मे माहिर मे हो..! ऐसी आधी-अधूरी मन:स्थिति मे ही दिन गुजर जाता है पिछले एक हफ्ते से तबीयत भी नासाज़ रही है सो उसका भी असर है दिल बोझिल और मन थका-थका सा रहता है।

बहरहाल, बदली हुई परिस्थितियों मे सामंजस्य स्थापित करने की एक कवायद चल रही है वक्त बदला है...लोग बदले है और हालात भी सो बसी इन्ही के बीच से मध्य मार्ग तलाश रहा हूँ गुजर जाने के लिए....। आवारा की डायरी के एकाध नियमित पाठकों के लिए इस पर लिखी तज़रबों की तहरीरें निराशा की गवाह बनती जा रही है जबकि हकीकत मे ऐसा नही है मै कतई निराश नही हूँ और न ही हताश बस थोडा मिज़ाज ही ऐसा कडवा हो गया है कि चाह कर भी दिलकश बातें पेश नही कर पाता हूँ...वरना किस्से और भी बहुत है।

अर्ज़ किया है:

हमारे दिल में भी झांखो अगर मिले फुरसत हम अपने चेहरो से इतने नज़र नही आतें... (प्रो.वसीम बरेलवी)

डॉ.अजीत

Sunday, July 10, 2011

आमद

15 मई के सेवा विश्राम के बाद से अब फिर गुरुकुल मे अपने को स्थापित होने की जद्दोजहद शुरु होने की तैयारी चल रही है संभवत: अगस्त की प्रथम सप्ताह मे ही मेरे जैसे तदर्थ असि.प्रोफेसरगणो के भविष्य की नियुक्ति के लिए प्रक्रिया शुरु होगी हर साल का वही पुराना झंझट...जिसमें अपने विभागाध्यक्ष की अनिच्छा के बावजूद भी मै किसी तरह से सेंध मारकर विभाग मे घुसने की जुगत मे लगा रहता हूँ पिछले साल तो एंट्री मिल गई थी इस बार किस मोर्चे पर लडाई लडी जाएगी इसके बार मे अभी कुछ कहा नही जा सकता है।

फिलवक्त घर मे छोटे बच्चे को संभालने मे भी मेरा छदम वक्त कट रहा है हालांकि पत्नि को इस बात की शिकायत है कि मुझे जितना गृहस्थी मे सहयोग करना चाहिए उतना मै नही कर पा रहा हूँ, उसे लगता है कि मै घरेलू कामों मे इसलिए हाथ नही बंटाता हूँ क्योंकि इसमे मेरा पुरुषवादी अह्म आडे आता है जबकि मै अकेला होता हूँ तो सारा काम खुद ही करता हूँ अब उसको कौन बताए कि जब मै अकेला होता हूँ तो प्रमादवश बमुश्किल एक वक्त ही खाना खाता हूँ...।

आजकल छोटा भाई भी साथ ही रह रहा है वो भी नौकरी की तलाश मे दर-बदर भटक रहा है मेरे एक रसूखदार मित्र की बिनाह पर मैने उसको यहाँ बुला लिया था ताकि कुछ सिफारिश से ही काम बन जाए लेकिन जब वक्त ठीक न हो तो अधिकांश प्रयास अकारथ चले जाते है ऐसा ही उसके साथ हो रहा है प्रदेश के एक प्रभावशाली काबीना मंत्री की सिफारिश के बाद भी काम नही बन सका है....बस यही कहूंगा कि सबका अपना भाग्य होता है उसके साथ ऐसा अक्सर होता रहा है कि ज़ाम लबो तक आतें-आतें छलक जाते है सो वह अब इसका अभ्यस्त हो चुका है। मेरे लिए यह एक मुश्किल वक्त मे प्रार्थना करने के जैसा है क्योंकि मै अपनी कनिष्ठजनों को परेशान देखकर कुछ ज्यादा ही परेशान हो जाते हूँ कुछ ऐसी ही फितरत है अपनी...।

मॉस कम्यूनिकेशन मे नेट पास होने के बाद से एक दूसरा भी विकल्प उभर रहा है सो अगर इस तरफ अवसर मिला तो कारंवा अब इसी दिशा मे कूच करेगा...वैसे मै भी अब उकता गया हूँ यहाँ मुझे वसीम बरेलवी साहब का एक शेर याद आ रहा है कि तुझे पाने की कोशिस इतना खो चूका हूँ मै कि अब तु मिल जाए तो मिल जाने का गम होगा...

येन-केन-प्रकारेण यह यथास्थिति खत्म होनी चाहिए...बस यही एक अभिलाषा है...।

आज बहुत दिनों बाद लिखा है इसलिए थोडी सी रौ नही बन पा रही है जल्दी ही अपनी औकात पर आता हूँ...।

डॉ.अजीत

Tuesday, June 14, 2011

मुखबिर...

परेशान दोस्तों के लिए एक कविता



चला जाऊँगा एक दिन
जैसे हर दिन चला जाता है कभी न लौटने के लिए
चला जाऊँगा जैसे चला जाता है सभा के बीच से उठाकर कोई
जैसे उम्र के साथ जिंदगी से चले जाते हैं सपने तमाम
जैसे किसी के होठों पर एक प्यास रख उम्र चली जाती है

इतने परेशान न हो मेरे दोस्तों
कभी सोचा था बस तुम ही होगे साथ और चलते रहेंगे क़दम खुद ब खुद
बहुत चाहा था तुम्हारे कदमो से चलना
किसी पीछे छूट गए सा चला जाऊँगा एक दिन दृश्य से
बस कुछ दिन और मेरे ये कड़वे बोल
बस कुछ दिन और मेरी ये छटपटाहट
बस कुछ दिन और मेरे ये बेहूदा सवालात
फिर सब कुछ हो जाएगा सामान्य
खत्म हो जाऊँगा किसी मुश्किल किताब सा
कितने दिन जलेगी दोनों सिरों से जलती यह अशक्त मोमबत्ती
भभक कर बुझ जाऊँगा एक दिन सौंपकर तुम्हें तुम्हारे हिस्से का अन्धेरा

उम्र का क्या है खत्म ही हो जाती है एक दिन
सिर्फ साँसों के खत्म होने से ही तो नहीं होता खत्म कोई इंसान
एक दिन खत्म हो जाऊँगा जैसे खत्म हो जाती है बहुत दिन बाद मिले दोस्तों की बातें
एक दिन रीत जाउंगा जैसे रीत जाते है गर्मियों में तालाब
एक मुसलसल असुविधा है मेरा होना
तिरस्कारों के बोझ से दब खत्म हो जायेगी यह भी एक दिन
दृश्य में होता हुआ हो जाऊँगा एक दिन अदृश्य
अँधेरे के साथ जिस तरह खत्म होती जाती हैं परछाईयाँ

एक दिन चला जाउंगा मैं भी
जैसे हर दिन चला जाता है कभी न लौटने के लिए....


अशोक कुमार पाण्डेय

ब्लॉग: http://asuvidha.blogspot.com/

(श्री अशोक कुमार पाण्डेय जी का हार्दिक धन्यवाद उन्होनें न केवल मेरी पीड़ा को शब्दों मे पिरोया बल्कि मुझे अपनी इस अमूल्य कविता को इस तरह से प्रयोग करने की अनुमति भी दी जिसके लिए मैं कृतज्ञता प्रकट करता हूँ....डॉ.अजीत)

Monday, June 13, 2011

ज़लसा

ज़िन्दगी के लगभग एक दशकीय उतार-चढाव भरे सफर में जिसमें मीठी यादों को बहाने से याद करना पडा हो और रिश्तों के बुनावट मे अपने वजूद को बचाए रखने की जद्दोजहद के साथ मिज़ाज अक्सर कडवा होता गया हो...ऐसे तमाम संघर्षो,चुनौतियों,रिक्तता और तिरस्कार को साक्षी भाव से स्वीकार मानकर आज एक छोटी सी उपलब्धि आपके साथ बांट रहा हूँ।

जनाब मसला यह है कि एक पत्रकार मित्र डॉ.सुशील उपाध्याय जी की प्ररेणा,मेरी अल्पज्ञता में भी संभावना के दर्शन और बिना शर्त के प्रेम ने मुझे एक कोशिस मे शामिल होने का हौसला दिया...आध्यात्मिक शिक्षक और यायावर ध्यानी मुकेश जी नें संबल देकर मुझे उस मोड तक जाने का ज़ज्बा दिया और इन सबके बीच पत्नि के उलाहने,मेरे ज्ञान पर संदेह और शुभचिंताओं के सामूहिक बल पर मैने यह दुस्साहस किया कि विश्वविद्यालय अनुदान आयोग द्वारा आयोजित राष्ट्रीय पात्रता परीक्षा (नेट) दिसम्बर,2010 में मै शामिल हुआ और किसी खानदानी राज़ की तरह इस बात को सभी से छुपाए रखने की चालाकी भी की जिसकी एकमात्र वजह खुद पर कम यकीन ही था।

...और आज शाम इसका परिणाम आ गया है सभी के सामूहिक बल से और अपनी कमअक्ली से मैने यह नेट की परीक्षा जनसंचार(मॉस कम्यूनिकेशन) में पास कर ली है वो भी अपने पहले प्रयास मे ही।

शाम को कुछ खास मित्रों को इसकी सूचना फोन से दे दी गई है...व्यक्तिगत तौर पर यह बात मेरे लिए एक बडी उमस भरी दुपहरी मे किसी बुढे बरगद ने नीचे सुस्तानें जैसी बात है शायद अब यात्रा इसी दिशा मे शुरु हो....।

किसी किताबी ज्ञान के बजाए पत्रकार मित्रों की सोहबत...ब्लॉग,न्यू मीडिया से जुडाव और सुबह उठतें ही दो अखबारों की खबरों की कटेंट से लेकर ले आउट तक की तुलना करने के चस्के नें मेरी इस परीक्षा को पास करनें मे बडी मदद की है तो भईया मेरा एक्ज़ाम सीक्रेट भी बस यही है।

मुझमे विश्वास प्रकट करने वाले मित्रों के प्रति मे कृतज्ञता प्रकट करता हूँ और उन सभी शुभचिंतको का भी आभार जिन्होनें मुझे कम गंभीरता से लिया तभी शायद में इस तरफ थोडा सा गंभीर हो पाया।
डॉ.अजीत

Monday, May 16, 2011

वीआरएस

वीआरएस शब्द केन्द्र की समवर्ती सूची का विषय हो सकता है लेकिन अपने लिए एक सस्ता प्रहसन है जिसमें एक आत्म व्यंग्य छिपा हुआ है । तो जनाब मसला यह है कि जिस विश्वविद्यालय मे बतौर असि.प्रोफेसर मै पिछले चार सालों से पढा रहा हूँ वहाँ पर 15 मई को शैक्षणिक सत्र का आधिकारिक अवसान हो जाता है सो काम के बदले अनाज़ योजना की भांति इस तारीख के बाद विश्वविद्यालय के पास न हमारे लिए कोई काम बचता है और इसके बदले हमे दाम देने की जिजिविषा सो विश्वविद्यालय की छदम गौरवमयी साढे नौ महीने की नौकरी के बाद मेरे जैसे लगभग 100 तदर्थ लोगो को विश्राम दे दिया जाता है। यह विश्राम अवैतनिक होता है फिर से नये शैक्षणिक सत्र में विभागाध्यक्ष की कृपा/अनिच्छा/षडयंत्रों और एक लम्बी सस्ती किस्म की लडाई लडने के बाद फिर से अगस्त मे हमें सेवा मे ले लिया जाता है। इस दो ढाई महीने मै तो खानाबदोशी करता हूँ क्योंकि खुद को समय मिल जाता है एक नई लडाई और जद्दोजहद से लडने के लिए ऊर्जा समेट लेता हूँ। हर बार जिस दिन यह सत्रावसान का यज्ञ होता है मै संकल्प लेता हूँ कि ईश्वर करें मेरा यह आखिरी सत्र हो और मित्रों के बीच मे बैठ कर बडे-बडे दावें करता हूँ कुछ हठकर करने के....लेकिन अंतोत्गत्वा फिर से यही लौट आता हूँ और पुनश्च: नौकरी पाने की कुकर परिक्रमा में सबसे आगे कृपांकाक्षी बनकर घुमता हूँ।

सो कल एक दिन पहले ही अपना वीआरएस विश्वविद्यालय ने थमा दिया था क्योंकि आज रविवार था। दिन भर कुछ जबरदस्ती की व्यस्तता के बोध को बनाए हुए कुछ आम काम निबटाए फिर बेतरतीब ढंग से पसर गया घर आकर आजकल बालक गांव गये हुए है सो निपट अकेला हूँ वैसे तो अब अकेलेपन मे भी मज़ा आने लगा वरना एक वक्त हुआ करता था कि मूतने भी अकेले नही जाता था नहाने-हगने-मूतने का काम सामूहिक ही हुआ करता था और ऐसा कभी सोचा ही नही था कि ज़िन्दगी इस मोड पर ले आयेगी कि गिनती के लिए एक भी दोस्त का नाम जबान पर नही मिलेगा।

जिन्दगी अप्रत्याशित होने की जिद पर उतर आयी है मै भी देख रहा हूँ कि कैसे-कैसे रंग देखेने को मिलतें हैं। आज का दिन भी यूं ही बैठे बिठाए कट गया 18 को लखनऊ जाना है एक कानूनी लडाई के सन्दर्भ में फिर उसके बाद कारंवा किस दिशा मे जायेगा अभी कुछ नही पता है हाँ अभी केवल एक निर्धारित कार्यक्रम है कि संभवत: 25 मई को मै और डॉ.अनिल सैनी जी लुधियाना जा सकतें क्योंकि हमारा गोरखपुर जाने का पूर्ववर्ती कार्यक्रम निरस्त हो गया है। बातें तो सुशील जी से भी कुमायूं क्षेत्र मे जाने की हो रही है अब देखा जायेगा कि कब कार्यक्रम मूर्त रुप लेता है। मैने अभी तक अपने अनुभवों से यही सिखा है कि कुछ भी नियोजित मत करों जो भी होना होता है वह अपनी गति से घटित होता है उसमे अपना कुछ बस नही चलता है।

आज शाम एक पुराने हॉस्टल के परिचित का फोन आया था उसने एक मित्र की क्षेम-कुशल मुझ से जाननी चाही जिसका मुझे खुद भी नही पता है मै अब किस-किस की खबर रखुँ जबकि मैं खुद ही बेखबर जी रहा हूँ... फिर उसने एक बात ऐसी बताई जो सुनकर मै आधे घंटे तक बैचेन रहा...आखिरी ये दिन भी देखना था...!

खैर! अब मै ज्यादा विस्तार मे जाना नही चाहता हूँ क्योंकि अपने रिश्तों का ताना-बाना इस कदर उलझा हुआ है कि क्या सही है क्या गलत है इसका अभी फैसला करना मुमकिन ही नही है बस वैट एंड वाच की हालात ही बेहतर है।

आजकल अकेला रह रहा हूँ सो बडा अस्त-व्यस्त जी रहा हूँ न वक्त से ब्रेकफास्ट होता है और न ही डीनर बस सब कुछ अवसर और संयोग के सहारे पर निर्भर करता है। कल शाम को मै और मेरे मित्र डॉ.सुशील उपाध्याय जी का एक आत्मीय संवाद सत्र आयोजित होने जा रहा है फिर इसके बाद वे कल रात मेरी ही कुटिया पर प्रवास करेंगे सो कल ये वीरान चमन किस्सागोई से आबाद रहेगा...ये सोच कर आज रात नींद अच्छी आने के आसार हैं बशर्तें कोई पुरानी याद न छेड जाएं....।

शुभ रात्री( रात्री 11.02, 15/05/2011)

डॉ.अजीत

Friday, April 22, 2011

वृत्त परिक्रमा

धीरे-धीरे एक साल बीत गया है। पिछले साल इन दिनों की बात है जब मैं बहुत सी बडी-बडी बातें कर रहा था एक निर्णायक निर्णय लेने के जोश मे आंतरिक बंधन के तोडने का दर्शन भी बघार रहा था। यात्रा,फक्कडी करने के लिए जोश-जोश में एक ब्लॉग खानाबदोश भी बना दिया था जिस पर लगभग तीन महीनें तक नियमित लेखन भी किया लेकिन जैसे ही यात्रा से दूनियादारी मे लौट आया तब से ही उस ब्लॉग पर सन्नाटा पसरा हुआ हैं।

मैने यात्रा इस उद्देश्य से शुरु की थी कि कुछ आत्मिक ऊर्जा का संचार होगा मन के बंधन टूटेंगे तथा मैं अपनी यथास्थितिवादी मन:स्थिति को तोडकर कुछ सार्थक और अभिनय निर्णय ले सकूंगा जिससे जीवन की दिशा एवं दशा बदलेगी। इस यात्रा के शुरुवाती तज़रबे बडे ही कडवे किस्म के रहें थे जिनकी कडवाहट अभी तक जेहन मे बसी हुई है कुछ आत्मिक,सम्वेदनशील और लाईफटाईम किस्म के दोस्तों का साथ छूट गया अब मै उनको भी कुछ दोष नही देना चाहता हूँ शायद उनकी मानसिक चेतना और परिपक्वता के मै ही काबिल नही था फिर विरोधाभाषों का समूह कब तक एक साथ रह सकता था। पहले कुछ दिनों तक इस दोस्ती के त्रिकोण के बिखरने को लेकर मै भयंकर किस्म के मानसिक तनाव मे रहा था लेकिन धीरे-धीरे सब कुछ अपनी गति से स्थापित हो गया वक्त बदला मिजाज़ बदला और रिश्तों की परिभाषा बदल गई अब केवल मन मे एक हल्की सी टीस बची है जिसके रफा-दफा होने मे अभी थोडा सा वक्त और लगेगा।

पिछले साल इन दिनों मै जिस मन:स्थिति से गुज़र रहा था अब फिर से वही दौर शुरु हो गया है बदलाव,जीवन,दिशा,दशा और भी बहुत से भारी भरकम शब्दों मे मन उलझा रहता है। आज मेरे एक विद्यार्थी ने सवाल पूछा कि सर,लाईन कब चेंज़ कर रहे हो? मेरा जवाब उसके लिए निराशाजनक था लेकिन उसने कहा कि आपकी बार व्यवहारिक है। मैने उसको बताया कि ज़िन्दगी एक ऐसे मुकाम पर है जहाँ पर अब मैं अपनी व्यक्तिगत अभिरुचि और प्रयोगधर्मिता के चक्कर मे अपने परिवार का भविष्य और अस्तित्व दांव पर नही लगा सकता हूँ मेरे पीछे एक आशा के साथ अब तीन-तीन जिन्दगीयां सांसे ले रही है। जिन्दगी जोखिम लेने और खुद से खेलने का एक मौका सभी को देती है मुझे भी दिया था लेकिन अफसोस! कि मैने वो वक्त दोस्त,दोस्ती और विश्वास के भरोसे काट दिया है अब मेरे पास सिमटने और फैलाव के बडे ही सीमित विकल्प बचे है सो मै अब उसी दायरें मे रह कर खुद को बचाने की जद्दोजहद मे लगा हुआ हूँ।

यात्रा इस बार भी करने का मन है लेकिन कहाँ,कब,कैसे और किसके साथ होगी इसका अभी कुछ पता नही है। 15 मई को विश्वविद्यालय की तदर्थ सेवा से मुक्त हो जाउंगा इसके बाद मुझे तीन प्रमुख जगह व्यक्तिगत काम के लिए जाना है ये स्थान हैं देवरिया,गोरखपुर और जालंधर। देवरिया अकेले ही जाउंगा तथा गोरखपुर और जालन्धर अपने मित्र डॉ.अनिल सैनी जी के साथ जाने का कार्यक्रम हैं जिसके लिए तिथि अभी निर्धारित नही हुई है।

इसके बाद अपनी पिछली यात्रा के साथी डॉ.सुशील उपाध्याय जी का मानस टटोला जाएगा यदि पिछले साल की भांति वे इस बार भी जाने के लिए तत्पर रहेंगे तो फिर उनका साथ थाम कर मै भी निकल पडूंगा किसी अनजानी से ठौर के लिए....उपाध्याय जी के साथ यात्रा जीवंत एवं प्रेरक किस्म की रहती है वें बन्दे को बोर नही होने देते है उनकी किस्सागोई का मै कायल हूँ साथ उनके राजकाज़ के सम्बन्धों का लाभ यात्रा मे बराबर मिलता रहता है जिससे एक वीआईपी होने का अहसास भी यात्रा में रस भर देता हैं।

जैसा भी कार्यक्रम होगा उसकी चर्चा यहाँ पर समय रहतें हुए की जाएगी। एक नई खबर यह भी है मैने पिछली 12 अप्रैल को अपने पान मसाला खाने के लगभग डेढ दशक पुराने व्यसन को त्याग दिया है और इसके त्यागने के साथ ही मैने अपने दांतो की स्कैलिंग भी करायी है अब मेरे दांत एक दम साफ स्वच्छ है तथा मोती जैसे दमक भी रहें है वैसे यदि इस व्यसन के समय के बारें मे सोचे तो थोडा सा मुश्किल लग रहा था लेकिन मुझे जरा सी भी तकलीफ नही हुई है बस एक कठोर विल पॉवर आपके अन्दर होनी चाहिए फिर कुछ भी छोडना कुछ मुश्किल काम नही हैं। मैने इस बदलाव को अपने यहाँ पैदा हुए नये बेटे के जन्म के साथ जोडकर देखना शुरु किया जिससे मुझे आंतरिक प्ररेणा भी मिली और एक मानसिक संबल भी...।

बस आज के लिए इतना ही पहले ही बहुत विस्तार हो गया है...।

शेष फिर

डॉ.अजीत

Tuesday, April 12, 2011

साधन-प्रसाधन

पिछले एक साल से संगीत से लगभग नाता टूट ही गया था जिसकी एक बडी वजह यह भी रही थी कि जबसे मैने अपना पीसी सेल किया और उसकी जगह लेपटाप खरीदा तब से मेरे पास कोई अच्छे स्पीकर भी नही थे। मेरे पास जो स्पीकर थें वे पीसी के साथ विदा हो गये अब मै कभी कभार मोबाईल पर हेडफोन लगा कर गज़ल,गीत वगैरह सुन लिया कर लिया था क्योंकि लेपटाप पर स्पीकर मे आवाज़ की क्वालिटी बेकार ही आती है।
खैर! आज मैने जी कडा करके(क्योंकि बजट अभी इसकी अनुमति नही देता था) इंटैक्स कम्पनी के 5.1 चैनल के स्पीकर खरीद लिए हैं इसे खरीदने मे मेरे मित्र डा.ब्रिजेश उपाध्याय जी ने बडा सहयोग किया इस बैगाने शहर में ब्रिजेश मेरे ऐसे अपने है जिनको मै अधिकार के साथ अपने साथ खडा कर लेता हूँ मेरी याद मे मैने अभी तक जितने भी कम्प्यूटर या इससे सम्बन्धित कोई भी सामान अकेले नही खरीदा जब भी कुछ खरीदना होता डा.ब्रिजेश जी को बोल देता हूँ वे इस तरह के मामलो के जानकार भी है और फिर उनके मित्र भी इस फील्ड में सो उनकी वजह से वाजिब दाम पर सामान भी मिल जाता है इसके लिए मै उनका भी आभारी हूँ।
आज दोपहर मे उनकी बुलट पर जाकर शिवालिक नगर से यें स्पीकर खरीदें गये हालांकि वहाँ आवाज़ सुनने में मुझे कुछ ज्यादा एक्सक्लूसिव नही लगी थी और कीमत भी ठीक ठाक ही थी लेकिन जब घर पर आकर ढंग से इंस्टाल किए तो आवाज़ सुनकर दिल खुश हो गया। आज सारी दोपहर मुझे इन स्पीकर की सेटिंग करने मे गुज़र गई मेरे साथ मेरा बेटा राहुल भी लगा रहा उसके लिए भी यह कौतुहल का विषय रहा लेकिन जब मैने उसकी पंसद के कुछ गाने तेज़ आवाज़ मे बजाए तो उसने भी जमकर ठुमके लगाए।
...तो इस तरह से आज का छुट्टी का दिन गुज़र गया अभी भी जगजीत सिंह की मीठी आवाज़ मे गज़ल सुन रहा हूँ... जख्म कैसे भी हो कुछ रोज़ मे भर जाते हैं.....। जब मै पीएचडी कर रहा था तब मेरे पास एक स्टीरियो हुआ करता था और एक अटैची भर कर कैसेट्स हुआ करती थी साथी लोग मुझसे डिफरेंट् मूड के लिए गाने रिकार्ड कराने के लिए लिखवा कर ले जाया करते थे और मेरे पास भी अपना एक बढिया कलेक्शन हुआ करता था। मेरे जेबखर्च का एक बडा हिस्सा संगीत और साहित्य पर ही खर्च हुआ करता था अब तो सब कुछ आनलाईन और यू ट्यूब पर ही मिल जाता है।
कल विश्वविद्यालय खुलेगा फिर परसो की छुट्टी है इस तरह से अभी आराम ही चल रहा है बाकि जिन इंटरव्यूव को लेकर मै अतिरिक्त रुप से जिज्ञासु था अब उसके बारें में जो खबरे सुत्रों के माध्यम से छन-छन कर आ रही हैं वो बडी निराशा पैदा करने वाली है अब सुना जा रहा है कि विश्वविद्यालय प्रशासन अब 3 मई के बाद ही साक्षात्कार के बारे कुछ फैसला लेगा क्योंकि अब विश्वविद्यालय का एक वाद सुप्रीम कोर्ट में लंबित है जिसमें 3 मई सुनवाई की तारीख लगी हुई है सो अब प्रशासन का प्राईम फोकस अपनी पैरोकारी पर है सो अब पता नही साक्षात्कार आयोजित होंगे भी या नही...यानि कुल मिलाकर कहानी का लब्बो लुआब यह है कि अभी जीवन में अनिश्चितता के बादल जल्दी छंटने वाले नही हैं...। यह खबर मेरे समेत मेरे शुभचिंतको/हितचिंतको को भी इतना ही निराश करने वाली ही लेकिन क्या किया जा सकता है सिवाय प्रतिक्षा के...।
अब विश्राम लेता हूँ....बाकी बातें बाद में।
डा.अजीत

Friday, April 8, 2011

अंतिम दौर

विश्वविद्यालय के इस शैक्षणिक सत्र में यह अंतिम समय चल रहा है और साथ में अपनी तदर्थ सेवाओं का भी ये अंतिम चरण है आगामी 15 मई को मेरे जैसे 126 तदर्थ असि.प्रोफेसर विश्वविद्यालय की शैक्षणिक सेवाओं से विमुक्त हो जायेंगे फिर अगले सत्र मे तकरीबन 15 अगस्त के आसपास फिर से हमें तमाम उत्कर्ष-अपकर्ष के उपरांत दया के आधार पर फिर से विश्वविद्यालय की मुख्य धारा मे शामिल किया जायेगा इस तरह का जीवन मै पिछले चार साल से जी रहा हूँ और मेरे बहुत से बन्धु 8-10 साल से भी तदर्थ रुप से गुरुकुल की सेवा कर रहे हैं।

आजकल विश्वविद्यालय में वार्षिक परीक्षाएं चल रही है और मै इस बार परीक्षा ड्यूटी नही कर रहा हूँ सो दिन मे लगभग एक बजे के आसपास मै विश्वविद्यालय से फ्री हो जाता हूँ फिर इसके बाद सीधा घर आता हूँ क्योंकि नवजात शिशु के साथ थोडी बहुत व्यस्तताएं बनी ही रहती हैं इसी वजह से मैने परीक्षा मे ड्य़ूटी करने से भी मना कर दिया है वरना पिछले चार सालो से सबसे अधिक परीक्षा डयूटी करने का रिकार्ड मेरे ही नाम था जिससे बहुत से लोगो को जलन होती थी लेकिन इस बार मैने खुद ही सबका कलेज़ा ठंडा कर दिया है।

आज विश्वविद्यालय के एकमात्र सजातीय प्रोफेसर जो आजकल डीन भी हैं के गांव में एक कार्यक्रम मे शिरकत करने गया था अवसर था उनके गृह प्रवेश का उनकी हार्दिक ख्वाहिश है कि वें रिटायरमेंट के बाद अपने गांव में ही रहे और जैसाकि आज उन्होनें बताया कि वें गांव मे बच्चों के निशुल्क कोचिंग शुरु करेंगे। यह जानकर बहुत अच्छा लगा पता नही जो लोग अपने जडों के प्रति प्रतिबद्द दिखतें है उनका खुद बखुद सम्मान करने का मन होता है। इसकी एक वजह यह भी है कि मुझे भी अंत मे अपने गांव ही लौटना है वही जाकर कुछ सार्थक करने की अभिलाषा है। अभी तो दूनियादारी के चक्कर में उलझा हुआ हूँ लेकिन जैसे ही ज़िन्दगी से फुरसत मिली और हालातों ने मुझे इजाज़त दी मै अपने गांव भाग जाउंगा क्योंकि शहर की जीवनशैली में मुझे कभी ग्लैमर नज़र नही आया और मेरी क्षणिक भी शहर मे बसने की इच्छा नही हैं बाकि आने वाला वक्त ही बतायेगा कि क्या,कब और कैसे होना है।

कल अपने बुरे वक्त के अच्छे साथी डा.सुशील उपाध्याय जी से वार्ता हुई थी अब मेरे सिमटते दायरे में उपाध्याय जी एकमात्र ऐसा किरदार बचे हुए है जिनसे मै चेतना,सम्वेदना और अनुभूति के स्तर पर जैसा महसुस करता हूँ शेयर कर सकता हूँ इसके लिए उनका आभारी हूँ वैसे उपाध्याय जी की सबसे बडी खासियत यही है कि वें प्राय: संतुलित रहते है और बिना शर्त का धनात्मक सम्मान देते हैं।विश्वविद्यालय में मेरे स्थाई होने की प्रक्रिया को लेकर वें लगभग मेरे समान ही चिंतित दिखाई पडतें है और आत्मीय सम्बंधो मे भी प्राय: सिफारिश से गुरेज़ करने वाले उपाध्याय जी मेरे लिए अपनी सीमाओं का भी अतिक्रमण करने के लिए तत्पर दिखाई देते हैं उनकी इस आत्मीयता के प्रति मैं अपनी कृतज्ञता ही ज्ञापित कर सकता हूँ। यदि विश्वविद्यालय मे मेरा स्थाई रुप मे चयन होता है तो इसके लिए प्रेरणा के रुप मे उपाध्याय जी और योगेश योगी दो नाम ऐसे होंगे जिनको मील का पत्थर कहा जा सकता है।

बाकि इन दिनों कुछ ऐसा कुछ खास नही घट रहा है जिसका विशेष रुप से उल्लेख किया जाए जैसा ही कुछ सार्थक/निरर्थक होता है मै यहाँ चर्चा करुंगा।
एक विराम और...
डा.अजीत

Wednesday, April 6, 2011

फुरसत के बहाने

आज हमें अस्पताल से आएं पांच दिन हो गये है। हरिद्वार आने पर बच्चे को लेकर कुछ ऐसी व्यस्तताएं बनी की आज थोडी फुरसत मिली तो आपसे रुबरु होने का अवसर मिला है। जब मेरा पहला बेटा हुआ था तब मै गांव मे ही रहता था तब मुझे पता नही चला था कि एक नवजात शिशु के लिए किन-किन जरुरी चीज़ो की जरुरत पडती है परिवार मे रहते सब कुछ मैनेज़ हो जाता है लेकिन इस बार सब कुछ खुद ही मैनेज़ करना था। पहली बार बच्चे के लिए कपडे वगैरह की खरीददारी की जिसमे अपने मित्र डा.अनिल सैनी जी का सहयोग मिला शापिंग और विशेषकर बच्चो की शापिंग के मामले में उनकी विशेष योग्यता हैं।

वैसे तो डाक्टर ने हाईजिन के पाईंट आफ व्यूव से बच्चे को कम से कम सोशल इंटरएक्शन मे रखने की सिफारिश की थी लेकिन फिर कुछ खास लोग ऐसे थे जो बच्चे को देखने के लिए आ ही गये उनका प्यार,आशीर्वाद इतना महत्वपूर्ण था कि डाक्टरी सिफारिश को भी नज़र अन्दाज़ करना पडा। अब बच्चा ठीक है अस्पताल मे जो कष्ट भोगा उसके बाद अब हालात सामान्य की तरफ बढ रहें हैं अभी 10 तारीख को फिर से देहरादून जाना है फालो-अप के लिए तभी बच्चे की वैक्सीनेशन की प्रक्रिया भी शुरु की जायेगी।

जब तक आप किसी कारज़ मे व्यस्त रहतें है तब तक मन भी एक अपनी टाईप्ड मनोदशा से बाहर नही निकलता है बस सारा ओरियंटेशन एक तरफ ही बना रहता है जिसके अपने फायदे है और थोडे नुकसान भी...। अब मै उस तरह की भागादौडी वाली व्यस्तता से बाहर निकल आया हूँ थोडा फुरसत मे हूँ तो मन फिर से एक खास किस्म का निर्वात महसुस कर रहा है जो घटना घटित होनी थी उससे मन उलझता-सुलझता बाहर निकल आया है और धीरे-धीरे फिर से जीवन की प्रासंगिकता के सवाल पर टाल-मटोल कर रहा हैं मसले कई है लेकिन आपस में इतने गुथे हुए है कि किस एक निर्णय पर पहूंच पाना मुश्किल है।

शाम का वक्त हमेशा से ही मेरे लिए अवसादी और बोझिल किस्म का हो जाया करता रहा है गर्मीयों की शामें अक्सर चिढचिढी हो जाया करती है। मौसम के बदलने पर मन नही बदल पाता या ऐसा समझ लीजिए कि मन हर बदलाव का विरोधी है चाहें को मन का हो या तन का।

अपने विश्वविद्यालय मे इंटरव्यूव भी पैंडिंग पडे हुई है जिसमे मेरे भाग्य का भी फैसला होना है पहले मार्च के अंतिम सप्ताह में होने की उम्मीद थी अब अप्रैल के अंतिम सप्ताह मे होने के कयास लगाए जा रहें है। इस तरह से विश्वविद्यालय की इस लेटलतीफी ने मेरी मानसिक उलझने और बढा दी है अब मन यही चाहत है कि जितनी जल्दी हो सके गुरुकुल में अपने दाना-पानी की स्थिति स्पष्ट होनी चाहिए क्योंकि तदर्थ जीते-जीते अपने जीवन का अर्थ कही खो सा गया है अब क्या तो यहाँ स्थाई हो जाएं वरना फिर यहाँ से बाहर।

मेरा मन बार बार यही कह रहा है कि यदि गुरुकुल मे इस बार स्थाई नियुक्ति नही हो पाती है तो फिर अगले सत्र से यहाँ पर काम नही करुंगा...फिर क्या करुंगा? ये अभी तय नही है हो सकता है कि अपने गांव लौट जांउ और डिग्री.पद.पदवी और ओहदे को एकतरफ रख कर खेती-बाडी करुं। मनोवैज्ञानिक-किसान....! सोचने में ही अजीब है जब हकीकत मे होगा तो कैसा होगा।

बहरहाल,जीवन लंबे अरसे से एक ठहराव में चल रहा है यह भी उसी ठहराव का एक हिस्सा है जिसमे मुझे कुछ बडे निर्णय लेने है अपने तथाकथित करियर के सम्बन्ध में...। मेरे कुछ चाहने वाले मित्र है जो मुझे अपने आसपास देखना चाहते है सो इस बार उन पर दबाव है कि कैसे मुझे शहर मे रुकने के लिए सहयोग कर सके मैं निर्लिप्त भाव से चीज़ो से गुजरना चाहता हूँ जो भी होगा ठीक ही होगा हाँ ये सच है कि अगर मै बैक तो पवेलियन (गांव) गया तो फिर ये मेरा पुनर्जन्म होगा फिर ये कवि/समीक्षक/मनोवैज्ञानिक/लेखक और तथाकथित बुद्दिजीवी के चोले उतर जायेंगे और वहाँ का जीवन होगा एकदम शांत,क्लांत,सम्पर्कविहिन और निर्वासित किस्म का जिसका जिक्र मै पहले भी अपनी एक पोस्ट मे कर चुका हूँ...। अब उसकी महिमामंडन की जरुरत भी नही है।

अब विराम लेता हूँ....शेष फिर

डा.अजीत

Thursday, March 31, 2011

दोस्त,दोस्ती और बुरा वक्त

सबसे पहले एक राहत भरी खबर यह है कि कल यानि 1 अप्रैल को हमारी अस्पताल से छुट्टी हो रही हैं आज डाक्टर साहब ने डिस्चार्ज़ पेपर तैयार कर लिए है अभी थोडी देर पहले बालक का एक अल्ट्रासाउंड करवाया है जिसकी रिपोर्ट शाम को डाक्टर देखेंगे उसके बाद कल सुबह संभावना हैं कि हमको छुट्टी मिल ही जायेगी।

पिछले तकरीबन 10-15 दिनों से मैने अस्पताल का मानसिक थकान से भरा तनावपूर्ण जीवन जीया है जिसकी मैने कभी सपनें में भी कल्पना नही की थी बच्चे की भावी स्वास्थ्य को लेकर दुश्चिंताएं अभी तक मन के एक कोने मे बनी हुई है और वें तब तक बनी रहेगी जब तक बच्चा अपनी रुटीन जिन्दगी के काम यथासमय करना शुरु न कर दें हालांकि पहले अस्वस्थ बच्चे ने बहुत कुछ सिखा दिया है लेकिन फिर भी मन मे शंकाए बनी ही रहती है लेकिन अभी मैने सब कुछ ईश्वर पर छोड दिया है इसके अलावा मेरे पास कोई चारा भी नही है...अब जो भी होगा उसको भी देखा,भोगा जाएगा।

कहते है कि जब आपका जीवन का सबसे बुरा दौर चल रहा हो तब आपको अपने सच्चे मित्र याद आतें हैं ताकि आप उनसे अपनी पीडा बांट कर थोडा हल्का महसुस कर सकें। जिन्दगी में खुशियों मे शामिल करने के लिए अनगिनत नये पुराने चेहरे हो सकते है लेकिन आप अपने दुख मे कुछ चुनिंदा लोगो के साथ ही अपनी मन:स्थिति शेयर कर सकतें है। संवेदना के व्यापक संसार मे दुनिया मे लोग मिलते बिछडते रहते है कुछ का साथ मिलता है तो कुछ की बेरुखी...यही दुनिया का एक दस्तूर भी है। एक वक्त था कि मैं बडे फख्र के साथ सीना चौडा करते हुए यह बात कहा करता था कि मेरे पास दूनिया के सर्वश्रेष्ठ आत्मीय एवं संवेदनशील परिपक्व मित्र है लेकिन वास्तव मे वो सब मेरी अपेक्षाओं के संसार का बुना हुआ भ्रमजाल था जिसमे फंसकर ऐसा प्रतीत होता था।

आज के दौर में परिपक्व होने के जो दो बडे फलसफे है वो यह है कि सम्बन्धों में अपेक्षाएं नही रखनी चाहिए और अतीत का व्यसन एक मानसिक रोग है इसके अतिरिक्त कुछ भी नही सो वर्तमान मे जीओं, दुख की बात बस यही है कि मै आजतक इन दोनो बातों न समझ पाया हूँ और न ही आत्मसात कर पाया हूँ मुझे यह स्वीकार करने मे भी कोई परहेज़ नही है कि हो सकता है कि यह मेरी व्यक्तिगत कमजोरी हों...।

तो जनाब मसला यह है कि जिन लोगो के साथ सपनों का संसार बनाया था तथा जीया था वें धूल के गुबार की तरफ गर्द बन कर कब के उड गयें बाकि रह गये है तो उन कदमों के कुछ निशान जो हमारी मंजिल की तरफ साथ बढे थें।

बुरे वक्त में ऐसे भगौडे मित्र अक्सर याद आतें है और बहुत टूट कर याद आतें है क्योंकि ऐसे दोस्तों का परिचय आप तक ही सीमित नही रहता है आपके परिवार के वजूद और वजह का एक हिस्सा रहें होते है ये जालिम दोस्त और जब कोई घर वाला आपसे पूछता है कि भई अब कहाँ हैं आपके......जी तब कोई भी शब्द उनकी रिक्तता को भर नही सकता है। कहने के लिए सबकी अपनी-अपनी मजबूरियां है लेकिन मेरे ये दुर्भाग्य रहा कि अक्सर मुझे मजबुर दोस्त ही मिलें है...बस इससे ज्यादा मुझे कुछ नही कहना है।

अब जिक्र उन चेहरों को जो मेरी ज़िन्दगी में बेहद आम किस्म परिचित श्रेणी के लोग थें जिनसे कभी कोई मदद की अपेक्षा न रखी और न खुद ही उनके किसी काम आयें लेकिन अब मेरा तज़रबा यह कहता है है बुरे वक्त में ऐसे आम लोग बेहद खास बन जातें है और उनकी आत्मीयता की जितनी तारीफ की जाए उतनी ही कम है मेरे पास ऐसे कुछ आम चेहरों के प्रति कृतज्ञता ज्ञापित करने के लिए शब्द नही है..और उनके आत्मीय,संवेदनशील वजूद के सामने मै बहुत बौना हूँ।

शालू: मेरे पहला दोस्त

शालू वो शख्स है जिसका नाम मेरी तुच्छ जिन्दगी के सबसे पहले दोस्त के रुप में शामिल है। ये वो किरदार है जब मै बमुश्किल पांच साल का रहा हूंगा तब इसने दोस्त के रुप मे मेरा हाथ थामा था गांव मे बैठक के चौतरे पर हम दोनो अक्सर साथ साईकिल (ट्राईसाईकिल) साथ चलाया करते थे...फिर कुछ बडे हुए तो साथ मिलकर गांव की एक क्रिकेट टीम बना ली खुब मैच खेले वो हमारे गांव के बेहतरीन बेट्समैन और बोलर के रुप मे उभर गया था और मै विकेट कीपर हुआ करता था।

दूनियादारी में ऐसे उलझे की धीरे-धीरे गांव से वो शहर चला गया और फिर बचपन की यह पहली दोस्ती धीरे-धीरे एक सामान्य परिचय मे तबदील हो गया हालांकि जब भी हम गांव मे मिलते थे तब बडी आत्मीयता से मिलते थें लेकिन उतना आत्मीय अनुराग नही रहा जैसा कभी पहले हुआ करता था।

अब शालू देहरादून मे रहता है पिछले कई सालों से वह यही पर रह कर बिजनेस कर रहा है एकाध बार मिलना भी हुआ था कुछ साल पहले लेकिन उस तरह ही घनिष्ठा नही रही कि पारिवारिक रुप से आना जाना रहा हो। मेरी बेशर्मी और ढीठता का अन्दाजा इस बात से भी लगाया जा सकता है कि पिछले एक साल में ऐसा कई बार हुआ है कि शालू ने फोन किया और मैने उसको किसी वजह से रिसीव नही किया था फिर से यह जानने की जेहमत भी नही उठाई कि आखिर वो क्यों फोन कर रह था? उसने इस बात कि एकाध बार औपचारिक रुप से शिकायत भी की लेकिन मैने गंभीरता से नही लिया...।

खैर ! अब आप हालात देखिए देहरादून के जिस अस्पताल में हम लोग भर्ती है वह शहर से एकदम बाहर ही है और आसपास शाकाहारी भोजन का कोई विकल्प भी नही था मैने बडा प्रयास किया कि आसपास कोई होटल मिल जाए लेकिन निराशा ही हाथ लगी। मेरे साथ मेरी बडी बहन भी अस्पताल मे पत्नि की देखभाल के लिए रुकी हुई है सो उसके खाने के लिए मै तनाव में था चलो एक बार खुद तो कुछ भी खाकर जीया जा सकता है।

जब यहाँ खाने का कुछ रास्ता न सूझा तो मुझे अपने बचपन को दोस्त शालू याद आया लेकिन अपने पूर्व के व्यवहार से थोडा सा संकोच भी हो रहा था फिर भी पता नही किस अधिकार से शालू को फोन किया और अधिकाबोध के साथ कह दिया कि शालू भाई आपकी मदद की जरुरत है एक टाईम अस्पताल मे खाना भिजवाओं अब शालू का ये बडप्पन ही था कि उसने एक सैकेंड भी नही लगाया और मुझे आश्वस्त किया कि भाई आप बिल्कुल भी खाने की चिंता न करें मै डेली खाना भिजवा दिया करुंगा...। मै निशब्द हो गया था...। शालू का घर मेरे घर के बिल्कुल पास ही है एक तरह से वह मेरा पडौसी भी है उसने दोस्ती और पडौसी दोनो का धर्म इतनी बखुबी से निभाया है कि मै उसके वजूद के समक्ष नतमस्तक हो गया हूँ।

आज लगभग 10 दिन हो गयें है शालू के घर से डेली दोपहर का बेहतरीन किस्म का भोजन आ रहा है जबकि उसका घर यहाँ लगभग 15 किमी.तो होगा ही।खाने को देखने के बाद यही लगता है कि जिसने भी भेजा है बडी आत्मीयता के साथ भेजा है,जबकि शालू बनिया है जिसको हम कंजूस कौम के रुप मे सुनते आयें है। शालू के यहाँ से भोजन दाल,चावल,रोटी,अचार और स्वीट डिश के साथ आता है। मै निशब्द हूँ...अभिभूत हूँ और अपने वजूद के बौनेपन पर ग्लानि से भी भरा हुआ हूँ।

ऐसे बुरे वक्त मे जब मेरे तथाकथित अजीज़ो का कुछ अता पता नही है ऐसे भी शालू जैसा मेरा आम दोस्त बेहद खास हो कर अपनी दोस्ती के फर्ज़ को निभा रहा है उसके इस बडप्पन को मै सलाम करता हूँ....।

अनुरागी जी/सुशील उपाध्याय जी/योगी जी/डा.कृष्ण रोहिल जी

यें चार लोग और है जिन्होनें इस बुरे दौर मे मेरा हौसला अफजाई की है और भले ही उतना प्रत्यक्ष समय न दे पाएं हो लेकिन सूक्ष्म रुप से इनकी हितचिंताएं और शुभकामनाएं मुझे मानसिक बल देती रही इसके लिए मै इनका भी तहे दिल से शुक्र गुज़ार हूँ....।

...बस अब यह मित्र पुराण यही बंद करता हूँ जिसे अक्सर भावनात्मक मुज़रे का तमगा दिया जाता रहा है और भी कुछ नाम है जिन्होनें आम होते हुए भी अपने खास होने का अहसास कराया है मै उनके प्रति भी अपनी कृतज्ञता ज्ञापित करता हूँ...।

उन अजीज़ दोस्तों का भी शुक्रिया जिन्होनें मुझे बुरे वक्त में नितांत अकेला छोड दिया तभी मैं उनके व्यामोह से मुक्त होकर अपने आस पास फैले हुई अच्छे इंसानो को दोस्त के रुप में महसुस कर पाया....।

अपने निरापद अपराधों की क्षमा याचना सहित....
डा.अजीत

Tuesday, March 29, 2011

हास्पिटल के कुछ पात्र



भले ही मैं यहाँ अपना सबसे बुरा वक्त गुजार रहा हूँ लेकिन फिर भी अस्पताल की भागदौड में जब भी फुरसत में सुस्ताने बैठता हूँ तो अस्पताल के कुछ चेहरे मेरी आखों के सामने बरबस दौड जातें हैं कहते हैं कि दूनिया मे भांति-भांति के लोग रहते है इसी तरह अस्पताल मे भी काम करने वालों कर्मचारियों की भी एक अलग ही वैरायटी है यहाँ मै उनमे से कुछ पात्रों का जिक्र कर रहा हूँ।

सोनाली सिस्टर

सोनाली सिस्टर इस अस्पताल की सबसे अनुभवी नर्स में से एक है जिस दिन हमारा बालक बालक पैदा हुआ यही सिस्टर नाईट ड्यूटी पर थी।जब लेबर पेन शुरु हुआ तब हम लोग बडे घबरायें हुए थें लेकिन सोनाली सिस्टर एकदम कूल थी वैसे तो यें प्रतिदिन इन सब चीज़ो की अभ्यस्त रहती है लेकिन वो आत्मविश्वास से पूर्ण थी उसने डिलिवरी को बडे परिपक्व ढंग से सम्पन्न करवाया दीगर बात यह रही कि जब पत्नि ओ.टी. में थी तब सोनाली सिस्टर नें सब कुछ मैनेज़ किया अस्पताल की गाईनिकोलाजिस्ट तो उस समय ओ.टी. मे पहूंची जब बच्चा पैदा हो चुका था हालांकि उसने अपनी फीस पूरी ली है। सोनाली सिस्टर का प्रोफेशनल पक्ष उज्ज्वल है लेकिन पर्सनल रुप से वह उतनी ही अमानवीय,संवेदनहीन,रुखी और तथाकथित रुप से हार्डकोर प्रेक्टिकल नर्स है। जब तक पत्नि प्राईवेट रुम में प्रसूति के रुप मे भर्ती रही तब तक सोनाली सिस्टर की नजरे इनायत रही वो अपना काम बखुबी करती रही लेकिन जैसे मैने अस्पताल का प्रसव संबन्धी कार्य का भुगतान किया तो अस्पताल ने हमे डिस्चार्ज़ स्लिप थमा दी अब समस्या यह बनी कि चूंकि अभी बच्चा नर्सरी मे रहेगा तो फिर बालक की मम्मी कहाँ रहेगी? मैने अस्पताल के मैनेजर से बात करके जिस प्राईवेट रुम मे हम भर्ती थें उसको ही रुम चार्ज़ पर ही ले लिया। इसके बाद सोनाली सिस्टर का नजरिया ही बदल गया कल तक सेवा की प्रतिमूर्ति और निपुण कर्तव्यनिष्ठ नर्स अब कायदा प्लस कानून बताने वाली कठोर प्रशासक बन गई उसे हमारा इस तरह से अस्पताल मे रुकना नागवार गुज़रा।

वैसे तो सोनाली सिस्टर कुछ कर नही सकती थी लेकिन जो उसके बस में था उसका उसका खुब प्रयोग किया मसलन हम लोग जच्चा के भोजन के लिए दाल/खिचडी अभी तक अस्पताल मे ही पका रहे थे और चाय वगैरह भी अस्पताल के चूल्हे पर ही बना लेते थे,सोनाली सिस्टर नें अपना तुगलकी फरमान जारी कर दिया कि यह गैस अस्पताल के अंदरुनी कामों के लिए है खाने बनानें के लिए नही इसका प्रयोग ओ.टी के उपकरणो को उबालनें के लिए किया जाता है सो आप यहाँ खाना मत बनाया करें। उसके इस ब्यान के बाद हम एकाध दिन सहमें-सहमें से रहें क्योंकि यहाँ देहरादून मे और कोई ऐसा जरिया नही था जहाँ से जच्चा के लिए हल्का भोजन बन कर आ सके।

अगले दिन मैने अस्पताल के मैनेजर से अपनी समस्या का जिक्र किया तो उसने बडी आत्मीयता से कहा कि कौन रोकता है आपको? आप खाना पका सकतें है,चाय बना सकतें है वो भी साधिकार। बस इसके बाद हमने सोनाली सिस्टर को उपेक्षित करते हुए खाना-पकाना जारी कर दिया इस बात से वह और भी चिढ गई और एक दिन फिर हमें टोक दिया बोली आप तो अपने लिए एक छोटे चूल्हे की व्यवस्था करने वाले थें क्या हुआ चूल्हा आया नही क्या? चूंकि मैं इस मसले पर अस्पताल के मैनेजर से विधिवत रुप अनुमति ले ली थी सो अब मैनें सोनाली सिस्टर को थोडा सख्त लहज़े में बता दिया कि हम लोग वैसे ही परेशान है आप और परेशानी खडी करने की कोशिस न करें लेकिन वो ढीठता से अपनी बात अडी रही और विदेश गये अस्पताल के मालिक डाक्टर का हवाला देते हुए कहा कि डाक्टर साहब यहाँ खाने-पकाने की किसी को परमिशन नही देतें है साथ ही उसने ओ.टी.के लिए चूल्हे की उपयोगिता का तर्क भी दिया हमनें उसको पुरी तरह से इगनोर कर दिया। अब सोनाली सिस्टर रोज़ाना नाईट ड्यूटी पर आती हैं और हमारी शक्ल देखकर भुन कर रह जाती है साथ रोज़ाना हमारी यहाँ से जल्दी विदाई की भी दुआ करती है जिसके हमें सख्त जरुरत भी है।

अस्पताल के मैनेजर-नेगी जी

अस्पताल के कर्मचारियों के लिए वें एक कठोर प्रशासक है सुबह आतें ही सभी की क्लास लेतें है। कर्मचारी की गल्ती पर सीधे उसके मुँह पर ही डांट देना उनकी प्रशासनिक कार्यकुशलता का परिचायक है। जब मैने उनसे अपनी वास्तविक समस्या बताई कि इस शहर में मै एकदम अंजान हूँ कुछ मित्रादि हैं भी तो वें यहाँ से भौगोलिक रुप से ज्यादा दूरी पर रहतें है तो उन्होनें ने अस्पताल में वही कमरा हमें दे रुम चार्ज़ पर दे दिया जिसमें हम रुके हुए थें साथ ही गैस पर खाने-पकाने की भी अनुमति दे दी जिससे हमें बडी राहत मिली। सोनाली सिस्टर के रुखे व्यवहार पर जब मैने उनके समक्ष आपत्ति जताई तो उन्होनें व्यक्तिगत रुप से सोनाली सिस्टर को आदेश दिया कि हमें खाना बनाने में चकल्लस न करें हालांकि सोनाली सिस्टर को यह बात भी नागवार ही गुजरी और उसने अस्पताल के आंतरिक अनुशासन का सहारा लेकर डाक्टर साहब का सन्दर्भ दे दिया जिससे यह पता चल सके कि मैनेजर से भी उपर वह डाक्टर साहब के विश्वसनीय लोगों मे से एक हैं। नेगी जी एक खासियत और है वें सुबह आतें ही सभी मरीज़ो के कमरों मे जातें है और सभी कि कुशल-क्षेम पुछतें है यह उनके नित्यक्रम का एक हिस्सा है।

भूषण,रुपाली,शशि सिस्टर और अन्य....

भूषण लगभग बाईस साल का नौजवान है कान में ईयरफोन और जेब मे मोबाईल अक्सर रहता है उसका काम अस्पताल मे भर्ती होनें वालें मरीज़ो का बिलिंग आदि का काम करने का है ड्यूटी के समय वह आक्सीज़न का सिलेंडर भी मेन सप्लाई रुम मे बदलता है। अभी युवा है थोडा मसखरा है साथ ही मुझे लगता है कि प्रेम मे भी पडा हुआ है क्योंकि मै उसको फोन कर अक्सर गुप्त भाषा मे घंटो बाते करता और फुसफुसाता देखता हूँ अस्पताल के कैमिस्ट से भी उसकी अच्छी ट्यूनिंग है शाम को अक्सर उसके केबिन मे का जाकर नीचे ही बैठ जाता है। प्रेम की बात पर मुझे इसलिए भी शक हुआ कि एक दिन मैने उसके कैमिस्ट के केबिन मे अपने फोन से किसी को गाना सुनाते हुए सुन लिया सब उसका मज़ा ले रहे थें और गाना भी कौन सा भींगे होंठ तेरे....प्यासा दिल मेरा...बस फिर इसके बाद मुझे लगा कि भूषण भईया की जरुर किसी से आंखे चार हो रखी हैं।

रुपाली सिस्टर कम रिसेप्शनिस्ट है यह भी युवा है साथ ही काम भी काफी करती है लेडी डाक्टर के मरीजो का हिसाब किताब यह ही रखती है पत्नि की डिस्चार्ज़ स्लिप भी रुपाली नें ही बनायी थी, भूषण के साथ भी इसका सखा भाव ही झलकता है दोनो अक्सर मोबाईल पर फनी रिंगटोनस और गाने सुनते देखे जा सकतें है।

शशि सिस्टर भी अस्पताल की वरिष्ठ नर्स में से एक ही दिन मे ड्यूटी पर रहती है। शशि सिस्टर सौम्य,सभ्य,संवेदनशील और एक ममत्व से पूर्ण एक परिपक्व नर्स है इन्होनें हमारा बडा ख्याल रखा है ऐसे लोगो का सम्मान करने का मन करता है।

एक सिस्टर और है मैं इनका नाम नही जान पाया हूँ अक्सर रिसेप्शन पर बैठा देखता हूँ चूंकि इनकी शक्ल यूपी की मुख्यमंत्री सुश्री मायावती से काफी मिलती है और देखने में उनकी बडी बहन लगती है सो मैने इनका नाम खुद ही माया सिस्टर रख लिया है। माया सिस्टर भी भद्र,सौम्य और सम्वेदशील महिला है मै उनको हमेशा विन्रम ही देखता हूँ भले ही सामने वाला कितना उत्तेजित अवस्था मे न हो। माया सिस्टर भी लगभग प्रतिदिन ही मुझसे बच्चे की कुशल क्षेम पुछती है साथ ही अधिकार के साथ कहती है कि भईया अब नीलम की तबीयत कैसी है? उनकी इसकी आत्मीयता का बडा प्रशंसक हूँ।

कृष्णा दीदी

अगर इस पोस्ट मे मै कृष्णा दीदी का जिक्र नही करुंगा तो खुद के साथ नाइंसाफी होगी। कृष्णा दीदी अस्पताल में सफाईकर्मीं है लेकिन उनकी कर्तव्यपरायणता काबिल-ए-तारीफ है दिन मे कईं बार हमारे रुम से लेकर अस्पताल के कोने-कोने झाडु-पोंछा लगाती है वह भी निष्ठाभाव के साथ ऐसा नही कि बस खानापूर्ति के लिए यह सब कर रही हो दिन भर मैं कृष्णा दीदी को सम्पूर्ण ऊर्जा के साथ काम करते देखता हूँ जबकि नाईट ड्यूटी पर जो सफाई करने वाली आती है वो एक नंबर की कामचोर और बातूनी महिला है जिस दिन हमारा बच्चा पैदा हुआ उसी सुबह रुम मे आ गई थी बोली कि हमारा ईनाम लाओं जबकि उसको पता था कि इस बच्चे के साथ प्राब्लम है क्योंकि रात में वो भी ओ.टी. में थी लेकिन बडी बेशर्म महिला है साथ मे फैशनपरस्त भी उम्र पचास के पार की होगी और धुप मे जब निकलती है तो युवा लडकी की तरह छाता लेकर चलती है ताकि झुलस न जाएं।

खैर! कृष्णा दीदी की जितनी तारीफ की जाएं उतनी ही कम हैं ऐसे लोगो के सहारे ही दूनिया में काम चल रहा है जो अपने कर्तव्यों के पक्के हैं। जिस दिन मै यह अस्पताल से जाउंगा मेरा मन है कि उसको जरुर इनाम दे कर जाउंगा बिन मांगा इनाम जोकि मेरी एक कृतज्ञता होगी उनकी कार्यशैली के प्रति....।
अब विराम देता हूँ कुछ जरुरत से ज्यादा ही बडी पोस्ट हो गई है लेकिन इतने सारे पात्रों को समेटना कोई आसान काम नही था ये जब है कि मैने नर्सरी के नर्सिंग स्टाफ का जिक्र भी नही किया है जिनसे मुझे हर तीन घंटे बाद मिलना पडता है उनके भी किस्से अजीब ही हैं....लेकिन फिर कभी।
डा.अजीत