Tuesday, August 9, 2011

फेसबुक:उधडते-बुनतें रिश्तों की पाठशाला

अभी शायद एक महीने से ज्यादा हो गया है कि मै फेसबुक पर लगातार नज़र आ रहा हूँ एकाउंट तो दो साल पहले ही बना लिया था लेकिन पहले मुझे फेसबुक इतनी ज्यादा जंचती नही थी लेकिन अब ऐसा हो गया है दिन मे जब भी ऑनलाईन होता हूँ तभी नज़र फेसबुक पर अटक जाती है। बहुत से नये लोगो से मिलना हुआ है दिन भर मैसज़बाजी/कमेंटबाजी चलती रहती है। अपने एक सजातीय मित्र के आग्रह पर मैने अपनी बिरादरी के एक ग्रुप को भी ज्वाइन किया हुआ है उस पर दिन भर बडी सक्रिय किस्म की चर्चाएं चलती रहती है जिसमे चाहते न चाहते हुए भी मै भी हिस्सा ले लेता हूँ अभी दो दिन पहले मैने पातंजलि योगपीठ के आचार्य बालकृष्ण के बारें मे कुछ लिखा तो अपने ही समाज़ के जिम्मेदार लोग मेरे पीछे पड गये मुझे कांग्रेसी बता दिया गया पहली बार अहसास हुआ कि रामदेव के भक्त लोग काफी है। खैर! ये सब मतभिन्नता तो चलती ही रहती है कोई पक्ष मे होता है तो विपक्ष मे...। फेसबुक के माध्यम से कुछ अच्छे लोगो से भी परिचय हुआ है यह इस सोशल नेटवर्किंग का सबल पक्ष है कि इसमे समान विचारधारा के लोग आसानी से एक साथ जुड जाते हैं...।

अभी विश्वविद्यालय मे मेरी सैकिंड् इनिंग शुरु नही हुई है इसलिए अधिकांशत: घर पर ही पडा रहता हूँ अभी तबीयत भी ज्यादा ठीक नही है कुछ दिन पहले वायरल फीवर हुआ था तब से अभी तक शरीर का मामला अपने ट्रैक पर नही आ पाया है अब पत्नि और बच्चे भी इसके शिकार हो गए है...सो सारा घर बीमारु टाईप का हो गया है।

मेरा छोटा भाई जनक पिछले एक साल से अदद नौकरी के लिए हाथ-पैर मार रहा है पहले सरकारी के चक्कर मे अपनी टेलीकॉम की नौकरी को अलविदा कह दिया और जब सरकारी मे बात बनती नही दिखी तो अब फिर से प्राईवेट सेक्टर मे प्रयासरत है लेकिन पता नही कौन सा प्रारब्ध उसका सामने आ रहा है कि बात बनतें-बनतें बिगड जाती है मै भी अपने यथा सामर्थ्य प्रयास उसके लिए कर चुका हूँ यथा सामर्थ्य क्या अपनी सीमाओं का अतिक्रमण करके अपने कुछ ऐसे रसूखदार मित्रों को बोल चुका हूँ अनुरोध की भाषा मे विनती कर चूका हूँ कि वें किसी भी तरह से उसे एक अदद नौकरी दिलानें मे मदद करें...सभी ने अपने-अपने स्तर से प्रयास भी किए है लेकिन सफलता नही मिली है इस बात से आजकल मन बहुत खिन्न रहता है। आप अपनी असफलता एकबारगी बर्दाश्त कर सकते है लेकिन जब कोई आपसे छोटा आपके सामने असहायता के भाव के साथ खडा नज़र आता है तब अपने ऐसे होने पर बडी कोफ्त होती है मुझे ऐसे में अपना एक पुराना मित्र याद आता है जो अक्सर कहा करता था कि मै अपने मित्रों के माथें पर शिकन नही देखना चाहता हूँ वो कहता कि हे! ईश्वर मुझे व्यक्तिगत रुप से कुछ दे न दें इसका मुझे कोई मलाल नही लेकिन इतनी ताकत जरुर दें कि यदि कोई मेरा मित्र मुझे मुसीबत मे याद करें तो मै उसकी समस्या का निवारण कर सकूँ... वास्तव में ये ज़ज्बा ही अपने आप मे काबिल-ए-तारीफ है दीगर बात यह भी है मेरा वही मित्र आजकल गर्दिश का शिकार होकर गुमनामी ज़िन्दगी जी रहा है वो किसी की क्या मदद करता कोई मित्र उसकी ही कोई मदद नही कर पा रहा है...।

इस बार मेरे विश्वविद्यालय मे यूजीसी के नये नियमों का हवाला दे कर एडहॉक नियुक्ति के लिए साक्षात्कार आयोजित किए जाने के समाचार आ रहें है समाचार क्या आ रहें है इस बार ऐसा हो कर ही रहेगा पिछले सालों मे तो विभागाध्यक्ष की संस्तुति से ही नियुक्ति पत्र मिल जाया करतें है लेकिन इस बार यह व्यवस्था बदली जा रही है वैसे तो यह भी कहा जा रहा है कि इस बार असि.प्रोफेसर को पूरा वेतनमान दिया जायेगा सो इस लिहाज़ से तो यह खबर ठीक ही है लेकिन मेरे जैसे मास्टर के लिए थोडी मुश्किल की बात यह है कि मेरा विभागाध्यक्ष मुझे कतई पसंद नही करता है क्योंकि मै दूसरे प्रोफेसर का चेला रहा हूँ इसलिए इस बार साक्षात्कार के नाम पर उसके पास एक मौका भी है मुझे बाहर का रास्ता दिखा सकें....लेकिन सबके अपने-अपने समीकरण होतें है सो मै भी यथायोग्य समीकरण फिट करने मे लगा हुआ हूँ चाहे वह सिफारिश हो या कुछ और...क्या करें पापी पेट का सवाल है अब साथ मे पत्नि और दो बच्चे भी है और फिर गांव की एक पुरानी कहावत अक्सर याद आती है कि भाई मरोड के लिए करोड चाहिए... अब करोड तो पास है नही इसलिए किसी न किसी स्तर पर समझोता तो करना ही पडेगा...।

अब देखतें है कि वक्त कब तक अपने साथ ये पैतरेबाज़ी का खेल खेलता है मुझे लगता है कि अब वो वक्त करीब ही है जब इस पार या उस पार वैसे अब मै भी थक गया हूँ जल्दी ही तदर्थ जीवन का स्थाई समाधान चाहता हूँ क्योंकि जब साथ चलने वाले लोग आगे निकल जाते है और आपको नसीहत के अन्दाज़ मे सलाह देते है तो उन शब्दों का बोझ कितना भारी होता है उसको ब्याँ नही किया जा सकता है...आज के लिए बस इतना ही बाकी बातें बाद मे होंगी...।

डॉ.अजीत

Wednesday, August 3, 2011

इन दिनों...

15 मई के सेवा विश्राम के बाद से ये समय आ गया है करीब-करीब तीन महीने होने को जा रहें है...कुल मिलाकर काफी मिला जुला किस्म का वक्त गुजरा पिछले साल के जितनी यात्राएं तो नही कर सका लेकिन फिर भी केदारनाथ के दर्शन हो गए साथ एकाध और जगह भटका गया है।

साफगौई और ईमानदारी का यही तकाज़ा है कि ये मान लिया जाए कि इन दिनों दिन बडे ही बेतरतीब और नीरस किस्म से कट रहें है गुलज़ार साहब की उस गज़ल की तरह जिन्दगी अपना फलसफा रोज पढा जाती है...दिन कुछ ऐसे गुजारता है कोई, अहसान जैसे उतारता है कोई... कमोबेश यही मन:स्थिति बनी हुई है। थिंक पाजिटिव जैसे जुमलो और मोटिवेशनल कायदों से परे मै मनोविज्ञान का विद्यार्थी होने के बावजूद जैसा महसूस कर रहा हूँ वैसा ही ब्याँ कर रहा हूँ वरना दिल बहलाने के ख्याल बहुत से अच्छे मेरे पास भी हैं।

कल प्रेमनगर आश्रम पर डॉ.सुशील उपाध्याय जी मुलाकात हुई अपनी कुछ सामयिक चिंताएं उनके साथ सांझा की कुल मिलाकर अपनी कही उनकी सुनी। उपाध्याय जी अभी चीन की यात्रा से लौटे से है सो उनसे चीन के मनो-सामाजिक जगत के बारे मे जानने का अवसर मिला.. उपाध्याय जी ने समग्रता के साथ अपनी चीन यात्रा का संक्षेप मे वृतांत कहा साथ मुझे हौसला भी दिया कि बदले हुए हालात मे कुछ बीच का रास्ता निकाल लिया जायेगा वो आत्मीयता से सुनतें है तथा सुख-दुख मे तुरंत ही शामिल हो जाते है मै इसलिए भी उनका कद्रदान हूँ वरना आजकल लोग कुछ ज्यादा ही आत्ममुग्ध होते जा रहे हैं बस यदि आप सहमत है तो ठीक है वरना आप आउटडेटड...। इन सब बातों के बीच फिलवक्त मन की बैचेनी दूसरी दिशा मे जा रही है किसी भी तरह से एक दशक से बनी हुई यथास्थिति को तोडने की जुगत दिल मे पल भी रही है और साथ जल भी रही है लेकिन मंजिल का पता रहबर से कैसे पता चले जब रहजन ही तनकीद मे माहिर मे हो..! ऐसी आधी-अधूरी मन:स्थिति मे ही दिन गुजर जाता है पिछले एक हफ्ते से तबीयत भी नासाज़ रही है सो उसका भी असर है दिल बोझिल और मन थका-थका सा रहता है।

बहरहाल, बदली हुई परिस्थितियों मे सामंजस्य स्थापित करने की एक कवायद चल रही है वक्त बदला है...लोग बदले है और हालात भी सो बसी इन्ही के बीच से मध्य मार्ग तलाश रहा हूँ गुजर जाने के लिए....। आवारा की डायरी के एकाध नियमित पाठकों के लिए इस पर लिखी तज़रबों की तहरीरें निराशा की गवाह बनती जा रही है जबकि हकीकत मे ऐसा नही है मै कतई निराश नही हूँ और न ही हताश बस थोडा मिज़ाज ही ऐसा कडवा हो गया है कि चाह कर भी दिलकश बातें पेश नही कर पाता हूँ...वरना किस्से और भी बहुत है।

अर्ज़ किया है:

हमारे दिल में भी झांखो अगर मिले फुरसत हम अपने चेहरो से इतने नज़र नही आतें... (प्रो.वसीम बरेलवी)

डॉ.अजीत