Tuesday, June 14, 2011

मुखबिर...

परेशान दोस्तों के लिए एक कविता



चला जाऊँगा एक दिन
जैसे हर दिन चला जाता है कभी न लौटने के लिए
चला जाऊँगा जैसे चला जाता है सभा के बीच से उठाकर कोई
जैसे उम्र के साथ जिंदगी से चले जाते हैं सपने तमाम
जैसे किसी के होठों पर एक प्यास रख उम्र चली जाती है

इतने परेशान न हो मेरे दोस्तों
कभी सोचा था बस तुम ही होगे साथ और चलते रहेंगे क़दम खुद ब खुद
बहुत चाहा था तुम्हारे कदमो से चलना
किसी पीछे छूट गए सा चला जाऊँगा एक दिन दृश्य से
बस कुछ दिन और मेरे ये कड़वे बोल
बस कुछ दिन और मेरी ये छटपटाहट
बस कुछ दिन और मेरे ये बेहूदा सवालात
फिर सब कुछ हो जाएगा सामान्य
खत्म हो जाऊँगा किसी मुश्किल किताब सा
कितने दिन जलेगी दोनों सिरों से जलती यह अशक्त मोमबत्ती
भभक कर बुझ जाऊँगा एक दिन सौंपकर तुम्हें तुम्हारे हिस्से का अन्धेरा

उम्र का क्या है खत्म ही हो जाती है एक दिन
सिर्फ साँसों के खत्म होने से ही तो नहीं होता खत्म कोई इंसान
एक दिन खत्म हो जाऊँगा जैसे खत्म हो जाती है बहुत दिन बाद मिले दोस्तों की बातें
एक दिन रीत जाउंगा जैसे रीत जाते है गर्मियों में तालाब
एक मुसलसल असुविधा है मेरा होना
तिरस्कारों के बोझ से दब खत्म हो जायेगी यह भी एक दिन
दृश्य में होता हुआ हो जाऊँगा एक दिन अदृश्य
अँधेरे के साथ जिस तरह खत्म होती जाती हैं परछाईयाँ

एक दिन चला जाउंगा मैं भी
जैसे हर दिन चला जाता है कभी न लौटने के लिए....


अशोक कुमार पाण्डेय

ब्लॉग: http://asuvidha.blogspot.com/

(श्री अशोक कुमार पाण्डेय जी का हार्दिक धन्यवाद उन्होनें न केवल मेरी पीड़ा को शब्दों मे पिरोया बल्कि मुझे अपनी इस अमूल्य कविता को इस तरह से प्रयोग करने की अनुमति भी दी जिसके लिए मैं कृतज्ञता प्रकट करता हूँ....डॉ.अजीत)

Monday, June 13, 2011

ज़लसा

ज़िन्दगी के लगभग एक दशकीय उतार-चढाव भरे सफर में जिसमें मीठी यादों को बहाने से याद करना पडा हो और रिश्तों के बुनावट मे अपने वजूद को बचाए रखने की जद्दोजहद के साथ मिज़ाज अक्सर कडवा होता गया हो...ऐसे तमाम संघर्षो,चुनौतियों,रिक्तता और तिरस्कार को साक्षी भाव से स्वीकार मानकर आज एक छोटी सी उपलब्धि आपके साथ बांट रहा हूँ।

जनाब मसला यह है कि एक पत्रकार मित्र डॉ.सुशील उपाध्याय जी की प्ररेणा,मेरी अल्पज्ञता में भी संभावना के दर्शन और बिना शर्त के प्रेम ने मुझे एक कोशिस मे शामिल होने का हौसला दिया...आध्यात्मिक शिक्षक और यायावर ध्यानी मुकेश जी नें संबल देकर मुझे उस मोड तक जाने का ज़ज्बा दिया और इन सबके बीच पत्नि के उलाहने,मेरे ज्ञान पर संदेह और शुभचिंताओं के सामूहिक बल पर मैने यह दुस्साहस किया कि विश्वविद्यालय अनुदान आयोग द्वारा आयोजित राष्ट्रीय पात्रता परीक्षा (नेट) दिसम्बर,2010 में मै शामिल हुआ और किसी खानदानी राज़ की तरह इस बात को सभी से छुपाए रखने की चालाकी भी की जिसकी एकमात्र वजह खुद पर कम यकीन ही था।

...और आज शाम इसका परिणाम आ गया है सभी के सामूहिक बल से और अपनी कमअक्ली से मैने यह नेट की परीक्षा जनसंचार(मॉस कम्यूनिकेशन) में पास कर ली है वो भी अपने पहले प्रयास मे ही।

शाम को कुछ खास मित्रों को इसकी सूचना फोन से दे दी गई है...व्यक्तिगत तौर पर यह बात मेरे लिए एक बडी उमस भरी दुपहरी मे किसी बुढे बरगद ने नीचे सुस्तानें जैसी बात है शायद अब यात्रा इसी दिशा मे शुरु हो....।

किसी किताबी ज्ञान के बजाए पत्रकार मित्रों की सोहबत...ब्लॉग,न्यू मीडिया से जुडाव और सुबह उठतें ही दो अखबारों की खबरों की कटेंट से लेकर ले आउट तक की तुलना करने के चस्के नें मेरी इस परीक्षा को पास करनें मे बडी मदद की है तो भईया मेरा एक्ज़ाम सीक्रेट भी बस यही है।

मुझमे विश्वास प्रकट करने वाले मित्रों के प्रति मे कृतज्ञता प्रकट करता हूँ और उन सभी शुभचिंतको का भी आभार जिन्होनें मुझे कम गंभीरता से लिया तभी शायद में इस तरफ थोडा सा गंभीर हो पाया।
डॉ.अजीत