Monday, December 2, 2013

बदहाल किसान और शाईनिंग इंडिया



किसानों की व्यथा-कथा इस देश में नई कतई नही है भिन्न-भिन्न प्रांतो के किसान अलग-अलग रुप से प्रताडित और शोषित है विदर्भ का किसान आत्महत्या कर रहा है तो यूपी का किसान अपनी बहन-बेटी की शादी और रोजमर्रा के खर्चो के लिए सरकार का मूँह ताक रहा है कि वह चीनी मिल मालिकों के साथ सख्ती से पेश आए और उसके बकाया का भुगतान कराये लेकिन हालत जस की तस बनी हुई है।
दोआब क्षेत्र के जिस गांव से मेरा ताल्लुक है वह पश्चिमी उत्तर प्रदेश के ‘शुगर बाऊल’ के रुप मे जाना जाता है। मेरे पिताजी भले ही गांव के बडे काश्तकार है लेकिन गन्ना किसान होने की वजह से वो भी उतने ही प्रताडित और शोषित है जितना कोई एक आम किसान होता है। पिछले कई सालों से हम गांव के बडे गन्ना उत्पादक रहे है लेकिन अब यह बेहद घाटे का सौदा लगने लगा है। गन्ना किसान की जिन्दगी बद से बदतर होती जा रही है एक समय था जब गन्ना पश्चिमी उत्तर प्रदेश की सबसे बडी कैश क्राप समझी जाती थी और इसी वजह से गन्ना उत्पादन की तरफ बेहताशा लोगो का रुझान भी बढा था लेकिन सरकार की चीनी मिल मालिकों से मिलीभगत होने की वजह अब गन्ना उत्पादन करना बेहद घाटे का सौदा बन कर रह गया है।
किसानों की दारुण कथा देखिए वह अपने बलबूते पर गन्ना उगाता है और उसको कटवा कर/छिलवा कर मिल के गेट तक अपने खर्चे पर पहूंचा कर आता है मिल प्रबंधन के लिए कोई टेंशन नही होती है उसे रॉ मैटेरियल अपने गेट तक फ्री मे मिल रहा है और गन्ने से चीनी के अलावा शीरा.खोई,ऐथनॉल का भी उत्पादन करता है लेकिन चीनी मिल मालिकों को चीनी की कीमतों का झूठा रोना रोने की ऐसी आदत पड गई है जिसके आधार पर वो जमकर कारपोर्टिया स्टाईल में ब्लैकमेलिंग करने में लग जाती है। सरकार के लिए किसान केवल मूर्ख किस्म का वोट बैंक है जो किसान होने से पहले अलग अलग जातियों में भी बटें हुए है इसलिए उनका उपयोग करना या उनको बहलाना सरकार के तुलनात्मक रुप से आसान काम है इसलिए उनकी तरजीह का हमेशा केन्द्र चीनी मिल मालिक ही रहते है।
सिस्टम की मार देखिए किसानों को कहने के लिए तो आसान ब्याज़ दर पर क्रेडिट कार्ड/क्राप लोन दिया जाता है लेकिन ये लोन लेना भी कम घाटे का सौदा नही है क्योंकि बैंक के लिए किसान बेहद घृणास्पद और मजबूर किस्म का ग्राहक है वह उसके जमीन की डीड के बदले बेहद कम राशि का लोन की मंजूर करते है और यह लोन लेने का भी कोई सीधा तंत्र नही है बीच मे दलालों की दूनिया है जिसके बिना आप लोन ले ही नही पाएंगे कुछ समय तक सरकारी बैकों के मैनेजर की केवल बेरुखी और बदतमीजी ही किसानों को बर्दाश्त करनी पडती थी अब हालत यह है कि बिना दलाल की मध्यस्ता के लोन ही नही मिल पायेगा और लोन के लिए उनके मौटे कमीशन भी तय है। यूपी मे सहकारी क्षेत्र का एक बैंक है भूमि विकास बैंक जिसके चैयरमेन मुलायम सिंह के भाई शिवपाल यादव है किसाने के दर्द के लिहाज़ यह भूमि हडप बैंक है यहाँ कमीशनखोर दलालों की 30 परशेंट का खुला रेट है मतलब यदि आपको 1 लाख का लोन चाहिए तो आपके हाथ इन कैश केवल 70 हजार ही लगेंगे बाकि के 30 हजार बैंक कर्मियों और दलालों में बतौर रिश्वत वितरित होंगे यह खुली व्यवस्था इसमे कोई भी लुका-छिपी का खेल नही है जहाँ जहाँ भूमि विकास बैंक है वहाँ वहाँ आपको ऐसे दलाल (जिन्हे डीलर कहा जाता है) के दफ्तर खुले मिलेंगे मेरी निजि पडताल यह भी पता चला कि यह एक सुनियोजित तंत्र है जिसमे पैसा जनपद और कस्बों से निकलकर राजधानी तक पहूंचता है।
किसानों की खून पसीने की कमाई का पैसा भले ही चीनी मिल मालिकों की तिजोरियों मे फंसा रहे उसकी कोई सुनवाई नही है अपने गन्ने के भुगतान का ब्याज़ की छोडिए मूलधन भी समय पर नही मिल पाता है  लेकिन जैसे ही इन बैंको की किस्त देने मे किसान असमर्थ होता है बैंको के द्वारा उसका मानसिक उत्पीडन शुरु हो जाता है दीगर बात यह भी है कोई भी किसान चालाकी से बैंक का लोन चुकाने से नही बचना चाहता है उसके लिए तो यह लोन नाक का भी सवाल होता है जिसके चलते वह अपने सामाजिक परिवेश से लेकर रिश्तेदारियों तक मे जिल्लत झेलता है लेकिन उसकी दिन ब दिन बिगडती आर्थिकी उसको मजबूर कर देती है और ऐसे मे बैंक मैनेजर दल बल सहित उस पर बैंक का पैसा जमा करने का तकादा करता है कई बार आर.सी काटने की धमकी के नाम पर भी छोटी छोटी राशि वसूलता है और जो लोन उसने इस करप्ट सिस्टम के चलते हासिल किया होता है जिसका एक एक हिस्सा भ्रष्ट अधिकारियों से लेकर दलालों तक ने चट किया होता है उसके देनदार के रुप में उसके गले में जिल्लत का ऐसा फंदा फंस जाता है कि वह उससे निकल ही नही पाता है। एक सीमा के बाद लोन की उगाही के लिए आर सी काट देता है फिर तहसील का राजस्व विभाग किसान की जान लेने पर उतारु हो जाता है संग्रह अमीन उसका किस हद तक मानसिक शोषण करता है आप अन्दाज़ा भी नही लगा सकते है और बहुत बार तहसीलदार उसको पुलिसिया बल के साथ उठाकर तहसील में कारागार में बंद भी करवा देता है। अभी हाल ही मै रिजर्व बैंक की एक रिपोर्ट के मुताबिक देश के विभिन्न बैंको का लगभग 14000 करोड रुपया उद्योगपति लोन के रुप मे दबाए बैठे है और बैंको ने इस बडी राशि की उगाही मे असमर्थता जाहिर कर दी है लेकिन इन कारपोरेटस को पकडने की कोई भी कार्यवाही बैंको के द्वारा नही की गई और उनकी कुल परिसम्पत्तियों से कई गुना राशि का लोन उन्हे दिया गया है इनमे से अधिकांश लोग  विदेश मे शिफ्ट हो गए है अब तंत्र देखिए एक तरफ एक मजबूर किसान है जो चालाक नही है और मंशा से भी लोन देना चाहता है  और दूसरी तरफ चालाक कारपोरेट्स है जिनके हिसाब से नीतियां तय होती है और जो देश का धन भी हडपे बैठे है।  
इन सब जिल्लतों को झेलने के बाद भी भारत का किसान बेहद आशावादी जीव है वह धैर्य नही खोता है वह हर साल इस उम्मीद पर फसल उगाता है कि इस बार उसके साथ छल नही होगा कभी प्रकृति की मार तो कभी सरकार की मार झेलता भारतीय किसान उत्पीडन और शोषण का केन्द्र बन कर रह गया है। किसानों की फिख्र न सत्ता पक्ष को है न ही विपक्ष को ही है दोनो के एजेंडे मे किसान नही दिखता है हाँ दिखता है तो केवल वोट जो लेना सभी पार्टियों को आता ही है। किसान असंगठित है सवर्ण और पिछडे के धडों मे भी बंटा हुआ है और शायद इसलिए सबसे अधिक शोषित भी है। 

Sunday, November 24, 2013

डायरी नोटस


डायरी नोट्स

(जो कागज़ की बजाए मन पर ही लिखे रह गए...)

यह कोई संघर्ष कथा या पटकथा जैसी नही है न ही यह वंचित भाव से उपजे असंतोष की मानस गाथा है बल्कि अपने आप में यह एक विचित्र किस्म का प्रलाप है जो सम्पन्नता की दहलीज़ से रिसता हुआ विडम्बनाओं के गलियारें तक आ पहूंचा है।कथ्य के लिहाज़ से यह अपवाद का गल्प है जिसमे मेरी असफलतों के शिल्प से  सम्भावनाओं के षडयंत्रों और विकल्पों के रोजगार की कराह  छिपी हुई है। अभी तक यही स्थापित मान्यता रही है कि अभाव व्यक्ति के लिए संघर्ष की इबारत लिखता है लेकिन क्या कभी आपने सोचा कि कई बार सम्पन्नता भी आपके वजूद के खिलाफ खडी हो सकती है जहाँ आपको हमेशा दोहरी लडाई लडने के लिए तैयार रहना पडता हो एक अपने वर्ग के अन्दर और दूसरी बाहर की दूनिया से जिसकी नजरों में आपके लिए कुछ भी अपरिहार्य न रहा हो। अपनी स्मृतिबोध के साथ ऐसी लडाई लडता गिरता सम्भलता और लडखडाता मै यहाँ तक आ पहूंचा हूँ। इस कहानी में मेरी उदासी के किस्से है इस कहानी में एक बिखरे वजूद के बनने बिगडने की अनकही दास्तान है और शायद मेरे ऐसे होने की वजह भी जिस पर कम ही लोगो को यकीन आएगा।
अपने वय से आगे जिन्दगी जीने का चयन कभी किसी का नही होता है वक्त के हसीन मजाक के लिहाज़ से जब आपके पैरो मे जिम्मेदारी की जंजीर पडी होती है तब आपकी परिधि इतनी सीमित हो जाती है कि आप अपने ही जीवनवृत्त की त्रिज्या तक नही नाप पाते है ऐसे में किस्सागो दोस्तों की महफिल मे आप केवल श्रोता भर हो सकते है या फिर आपकी उपयोगिता सहमति तक ही सिमट आती है। कई बार बडी शिद्दत से सोचता हूँ कि ये अतिसम्वेदनशीलता या भावुकता कहाँ से उपजती है खुद की ही पडताल करने पर पाता हूँ इसकी जड दरअसल भावनात्मक अपवंचन ही है जब आप त्रासदी के नायक बन अपने आसपास बेहद कमजोर लोगो को पाते है जिनके पास खोखली सांत्वना भी नही होती है दरअसल वो परिवेशीय कुंठा और अपनी निजि असफलता से उपजी खीज़ मिटाने के लिए आपके मन के कोमल पक्ष की परवाह किए बिना चोट पर चोट किए जाते है और आप अपनी आसपास के करीबी लोगो की ऐसी खुदमुख्तयारी का शिकवा जीवनपर्यंत किसी से नही कर पाते है यह एक ऐसा बोझ है जिसको अपने साथ जीने-मरने के क्रम में हर हाल में ढोना पडता है।
यह एक ऐसी मनोदशा की मूल ग्रंथि के अकुंरित होने की कहानी है जिसमें शाम अक्सर बोझिल हो जाया करती है जहाँ मन से उत्सवधर्मिता का स्थाई विलोपन हो जाता है जहाँ मन और चेतना की यात्रा अवसाद और समझ के बीच उलझ कर रह जाती है जहाँ आप कई बार सामान्य से भी कई गुना अधिक सामान्य तथा कई बार कई गुना असामान्य प्रदर्शन करते पायें जातें हैं। मन के निर्वात में घुटते मानवीय सम्बंधो के धुंधले रेखाचित्र किस हद तक आपको विचलित कर सकते है इसका अनुमान भी लगाना कठिन काम है। अन्यथा ली जाने वाली बातों के प्रति समझ का प्रकटीकरण और बेहद सामान्य चुस्त जुमलेबाजी में भी गहरा व्यंग्य सूंघने की घ्राण शक्ति को कभी वरदान तो कभी अभिशाप समझना आपके लिए किसी गहरी पहेली से कम नही है।
मन के समानांतर कई स्तरों पर जिन्दगी को युक्तियों के सहारे जीने की कला विकसित करना सहज़ चुनाव का मसला नही है बल्कि  अपने अस्तित्व की मूल प्रकृति और बाह्य जगत की अपेक्षाओं के मध्य समन्वय में खर्च होती मानसिक ऊर्जा के क्षरण का क्षोभ वास्तव में कई बार ब्राह्मांड की अनंत गहराई से बडा प्रतीत होने लगता है।
यह बेहोशी की हालत में बडबडाने जैसा है जिसमे आप मन के आंतरिक बंधनों से मुक्त हो लोक में अपने मानसिक द्वन्द आरोपित करना चाहते है ताकि आप आंतरिक शांति महसूस कर सके लेकिन शांति की कीमत सकार और नकार की लौकिक परिभाषाओं से परे चुकाने की नियति एक खास किस्म की जिद आपके अन्दर पैदा कर देती है जहाँ अपनेपन को तलाशती आंखे सलाह से इसलिए बचने लगती है क्योंकि उसमे नसीहत की बू आती है।
यात्रा अकेले तय करनी है यह प्रज्ञा हमेशा कहती है लेकिन अपेक्षाओं और भावनाओं के वृहदजाल मे उलझा मन हमेशा साथ चाहता है और जिस साथ के आभासी होने की पूरी सम्भावना है उसी को साथ बनाये रखने का लोभ आपको तरह तरह पेश होने के लिए बाध्य करता है अंतोत्गत्वा अकेलेपन की सामाजिक नियति को स्वीकार करने के मानसिक बल को सुरक्षित करता हुआ उस दिशा में आगे निकल जाता है जहाँ कभी कुछ हमसफर बन रहबर साथ चले होते है वह पीछे मुडकर बार बार देखता है लेकिन दूरतलक भी कोई छाया नजर नही आती है लेकिन यात्रा नही रुकती है और हिज्र की ऐसी लम्बी यात्रा मै करके अब यहाँ आ गया हूँ थोडा सुस्ता रहा हूँ खुद को टटोल रहा हूँ ताकि मन की बैलेंसशीट में अटके दोस्तों को अपने दृष्टिबंधन से मुक्त कर आगे की यात्रा की तैयारी कर सकूँ लेकिन बेहद मुश्किल काम है बेहद ही मुश्किल....।

Tuesday, November 19, 2013

अस्पताल: बैचेनी,अवसाद,आशंकाओं की ओवरडोज़



 लगभग एक सप्ताह अस्पताल मे बिताने के बाद आज अपने अकादमिक काम पर लौटा हूँ और पिछला एक सप्ताह मेरे लिए कितना भारी रहा उसकी व्याख्या करना मुश्किल काम है अपने प्रियजन को जीवन-मृत्यु के बीच झूलते देखना और फिर सम्भावनाओं और आशंकाओं के खेल मे खुद को फंसा देखना बेहद अजीब किस्म का अहसास है।
पंचकूला (हरियाणा) के एक अभिजात्य किस्म के अस्पताल की सुविधासम्पन्नता और बेहतरीन वास्तु भी मन को शांति नही दे पा रही थी दीवारों में म्यूट टंगे लम्बे-चौडे एलसीडी उतने ही बोझिल और नीरस थे जितने उस पर चलते क्रिकेट मैच या न्यूज़। अस्पताल में प्रार्थना ही एक मात्र सम्बल थी जो आस्तिकता/नास्तिकता से परे आपको इतनी दिलासा देती है कि आपके साथ कुछ बुरा नही होगा और इस दुखद घटनाक्रम का अंत सुखद होगा।
अस्पताल का मनोविज्ञान बेहद अजीब और दिलचस्प किस्म का है उदासी और चिंताओं मे सने चेहरे देखकर खुद पर से यकीन उठने लगता है डॉ की एक पॉजिटिव बात जहाँ राहत देती है वहीं एक मेडिकल जांच की छोटी से बढी हुई ईकाई भी निर्मूल आशंकाओं का पहाड खडा कर देती है। महंगे अस्पतालों में मौटे तौर पर दो किस्म के रोगी/परिचारक दिखते है एक हमारे जैसे जो छोटे मेडिकल सेंटर से रेफर होकर आएं है जिनके लिए यह अस्पताल किसी देवालय से कम नही है दूसरे समाज़ के ‘समझदार’ तबके के लोग समझदार इसलिए क्योंकि उन्होने पहले ही अपना कैशलैस मेडिक्लेम बीमा करवाया होता है इसलिए उनके लिए मुद्रा प्रबंधन कोई मुद्दा नही होता है वह आश्वस्त हुए अपने मरीज़ के आरोग्य के लिए लगे रहते है।
हमारे जैसे गांव-देहात किसान पृष्टभूमि के लोगो के लिए अकास्मिक बीमारी के लिए कोई बजटीय प्रावधान नही होता है और आकस्मिक बीमारी हमारे लिए एक बडे आर्थिक सकंट की भी द्योतक होती है। हमारे जैसे लोगो का दिमाग दोहरे रुप से प्रताडित रहता है एक तो अपने मरीज़ के स्वास्थ्य को लेकर और दूसरा ज्यों-ज्यों से जेब से कैश कम होता है हमारी चिताएं मुद्रा प्रबंधन पर भी केन्द्रित होती चली जाती है और समानांतर रुप से दोनो मोर्चो पर लडते हुए हम चाहते है जितनी जल्दी हो सके हमे इस त्रासदी से मुक्ति मिले।
इस बार की दादी जी की बीमारी के बाद पहली बार अहसास हुआ कि हमारे लिए मेडिक्लेम पॉलिसी का क्या महत्व हो सकता है यदि यह पॉलिसी है तो फिर हम अपने मरीज़ के सम्पूर्ण आरोग्य के लिए कम से कम आर्थिक रुप से प्रभावित हुए बिना उसको बेहतर मेडिकल सुविधाएं उपलब्ध करा सकते है। यह बात भी मुझे पहली बार ही पता चली कि सुपर स्पेशिलेटी अस्पताल मेडिक्लेम पॉलिसी धारकों को ज्यादा पसन्द करते है क्योंकि इससे उनकी अच्छी खासी कमाई हो जाती है।
अस्पताल आखिर अस्पताल ही है भले ही वह फाईव स्टार होटल की माफिक दिखता हो उसकी भव्यता आपको सुविधा के लिहाज़ से क्षणिक आश्वस्त कर सकती है लेकिन दिल को असली तसल्ली डॉ की पॉजिटिव कमेंट के बाद ही मिल पाती है। पिछले एक सप्ताह जो तनाव भोगा उसकी चर्चा नही कर रहा हूँ लेकिन दिन भर की अस्पताल की भागदौड और रात में मुझे दादी जी के अटेंडेंट के रुप में उनके साथ रुकने की स्थिति नें बेहद थका दिया था एक अरसे के बाद मैने शारीरिक और मानसिक थकान से उपजी नींद के दबाव को महसूस किया पहली बार खुली आंखो सोने की कोशिस की भावनात्मक रुप से मेरे लिए यह बेहद मुश्किल दौर था क्योंकि जिस महिला नें आपका मल-मूत्र साफ किया हो यदि आपको वही काम उसका करना पडे तो एक पूरा कालचक्र आंखो के सामने घूम जाता है जिसका होना भर आपका मनोबल बढायें रखता हो उसको आपको समझाना पडे कि सब ठीक हो जाएगा मै समझता सबसे मुश्किल काम है। मेरी तमाम मनोविज्ञान की पढाई तब-तब मुझे बौनी लगने लगती थी जब-जब मेरी दादी जी घोषणा करने लगती कि अब चलने का समय आ गया है। मृत्यु शाश्वत सत्य है सबको आनी है इसको क्षणिक स्थगित किया जा सकता है लेकिन स्थाई रुप से टाला नही जा सकता है लेकिन इसके बावजूद भी अपने प्रियजन को खोने का भय वास्तव मे इतना बडा होता है कि हम नही चाहते कि हम इसके स्वीकार्यता भाव के साथ जीने का अभ्यास विकसित कर सकें शायद यही जीवन का वह अनुराग है या आसक्ति है जिसे मोह-माया बंधन कहा गया है।
बहरहाल, अब जब सब कुछ सही होने की दिशा मे आगे बढ रहा है दादी जी घर पर आ गई है लेकिन फिर भी मन मे पिछले एक सप्ताह का चलचित्र लम्बे समय तक खुद ब खुद रिवाईंड होकर चलता रहेगा।

Monday, November 11, 2013

मेरे मित्र-2.... डॉ सुशील उपाध्याय


अपने गांव के बौद्धिक मित्र से जीवन की पहली नसीहत मिली थी जो उस वक्त थोडी अजीब लगी थी लेकिन बाद में वो एक नजीर के जैसी लगने लगी वो सलाह देने वाले मे शख्स थे मेरे मित्र डॉ सुशील उपाध्याय। उन दिनों मुझे पढने का चस्का लगा हुआ था इसलिए किताबों की तलाश रहती थी मै आठवीं में पढता था उसी चस्के में डॉ.सुशील उपाध्याय जी से किताब मांग बैठा तब उन्होने किताब तो दी लेकिन साथ ही एक सलाह भी दी कि ‘ किताबें इंसान को मांग कर नही खरीदकर पढनी चाहिए तभी वह उनका मूल्य समझ पाता है’ उनकी इस नसीहत में छिपा हुआ सन्देश यह भी था मै किताबों को पढने के बाद सुरक्षित वापिस कर दूँ। आज जब अपने पुस्तक संग्रह में से दर्जनों किताबें गायब पाता हूँ तो याद करने की कोशिस करता हूँ कौन कौन सी किताब किस मित्र/परिचित को पढने के लिए दी थी लेकिन आज तक वापिस नही आयी तब मुझे सुशील जी की नसीहत दीगर लगने लगती है।
डॉ.सुशील उपाध्याय मुझसे उम्र मे दस साल बडे है और गांव के रिश्ते-नातें के लिहाज़ से मै उनका चाचा लगता हूँ लेकिन उनसे मेरे रिश्तें सदैव ही मित्रवत रहें है सुशील जी मेरे जीवन के उन लोगो मे शुमार है जिन्होने मुझे बीज रुप मे देखा है मुझे याद आता है कि जब सुशील जी हरिद्वार के गुरुकुल कांगडी विश्वविद्यालय से एम.ए. (हिन्दी) और पीजी डिप्लोमा पत्रकारिता में दोनो में स्वर्ण पदक प्राप्त करके गांव पहूंचे थे जो मेरे मन में उनके प्रति ठीक वही भाव थे जैसे देश का खिलाडी कॉमनवेल्थ खेलों में गोल्ड मैडल जीत कर आता है हालांकि उस समय समझ के लिहाज़ से मै उतना विकसित नही था कि अकादमिक स्वर्ण पदक के महत्व को समझ सकूँ लेकिन फिर भी ‘ स्वर्ण’ शब्द का व्यामोह ही उपलब्धि से जुडा हुआ देखकर मेरे लिए सुशील जी प्रेरणा के स्रोत लगने लगे थे।
उन दिनों मेरे पास एटलस की बीस इंची साईकल हुआ करती थी मै उस पर सवार होकर सुशील जी के घर पहूंच जाता था और उनसे पत्र-पत्रिकाओं में छपने के गुर सीखने की कोशिस करता था हालांकि उस दौर मे सुशील जी के भी संघर्ष के दिन थे वो अमर उजाला मे प्रशिक्षु पत्रकार के रुप मे काम कर रहे थे उनके पास एक ब्लैक एंड व्हाईट कैमरा हुआ करता था जिसको लेकर वो प्रतिदिन पास के कस्बे थानाभवन में रिपोर्टिंग के लिए चले जाते थे।
मै अपनी स्मृतियों को टटोलता हूँ तो मुझे गांव मे सुशील जी लकडी की काले पेंट मे पुती कुर्सी, एक हार्डबोर्ड का पैड और अखबार की तरफ से मिलने वाला पीलिमा युक्त कागज याद आता है वो पीला अखबारी कागज मेरे जैसे नौसिखिए के लिए किसी  भोजपत्र से कम नही हुआ करता था उसके छूने भर का अहसास बडा होता था।  मै सुशील जी के घर जिज्ञासु और साधक भाव से जाता था कई बार ऐसा होता था कि सुशील जी दिल्ली प्रेस समूह की पत्रिकाओं के लिए लेख लिख रहे थे मै चुपचाप उनके पास चारपाई पर बैठा रहता था एकाध घंटे बीतने के बाद या लेख समाप्त होने के बाद सुशील जी मुझसे बतियाते थे उस वक्त उनके मुख से निकला एक एक शब्द मेरे ब्रहम वाक्य से कम नही होता था। जीवन मे बहुत कुछ मैने उनसे सीखा और आज भी सीखता रहता हूँ। सुशील जी उस समय एक सवाल लगभग मुझसे रोज ही पूछते थे कि आप मेरे यहाँ अपने घर बता कर आते है या नही उन्हे ऐसा लगता था कि कहीं मै उनके यहाँ घंटो बैठा रहता हूँ और उधर मेरे घर वाले मुझे ढूंड रहे होते हो।
वैचारिक पृष्टभूमि के लिहाज़ से हम दोनों मे कोई साम्य नही था सुशील जी का झुकाव वामपंथ की तरफ था और मेरी उस समय कोई विचारधारा ही नही थी  लेकिन मेरे अन्दर की जिज्ञासु प्रवृत्ति ने सुशील जी के सामंती पृष्टभूमि के प्रति सामाजिक आक्रोश को थोडा शांत अवश्य कर दिया था उन्होने मुझे एक स्वतंत्र चेतना के रुप मे हालांकि बाद मे स्वीकार किया लेकिन उनकी आत्मीयता ने मुझे सदैव आप्लावित किया है।
एक वंचित पृष्टभूमि से निकल अपनी अपनी बौद्धिक क्षमता के बल पर सुशील जी ख्याति प्राप्त की है फिलहाल वो विश्वविद्यालय में असि.प्रोफेसर है लेकिन इससे पहले अमर उजाला,हिन्दूस्तान जैसे बडे अखबारों में चीफ रिपोर्टर के रुप में कार्य कर चुके थे हालांकि आज भी मेरी नजर वो पहले पत्रकार है बाद में असि.प्रोफेसर। मैने जीवन मे कभी सक्रिय पत्रकारिता नही की लेकिन एक पाठक के रुप में जो मेरी समझ अखबारी दूनिया के बारें में है उसके आधार पर मै दावे से कह सकता हूँ सुशील जी ने जब तक अमर उजाला,हिन्दूस्तान मे काम किया तब तक उनकी कवर की गई खबरों में ‘एक्सक्लूसिवनैस’ के अलावा तथ्यात्मक पुष्टता भी होती थी एक पाठक के रुप उच्च शिक्षा की स्पेशल स्टोरीज़ को मै आज तक दोनो ही अखबारों में आज भी मै मिस्स करता हूँ उनके जाने के बाद उनकी कमी आज भी खलती है।
हमारी उम्र मे दस साल का मोटा अंतर होने के बावजूद भी हमारे बीच मे एक खास किस्म का चेतना और सम्वेदना का रिश्ता बना हुआ है मै जब भी दूनियादारी के झगडो मे उलझ जाता हूँ या कुछ ऐसे मानसिक सवाल जो मुझे निजी स्तर पर परेशान करने लगते है तब शहर मे उन्हे शेयर करने के लिए मेरे जेहन में जो पहला नाम आता है वह डॉ.सुशील उपाध्याय ही है। हालांकि सुशील जी बाह्य रुप से कई बार रुखे या ईमोशनली ड्राई प्रतीत हो सकते है या प्रशंसा करने के मामलें मे कंजूस भी लेकिन उनके पास अनुभव की थाती है साथ ही समचेतना भी जो हमें सवेंदना के एक ऐसे रिश्ते में बांधे रखती है जिसकी जड कई साल पहले हमारे गांव में जम गई थी आज हमारी मित्रता का वटवृक्ष उसी का परिणाम है जिसकी छांव में हम दोनो बारी बारी से सुस्ताते रहते है।  

( और भी बहुत से संस्मरण है लेकिन आज इतना ही शेष फिर....)

Sunday, November 10, 2013

मेरे मित्र..... सुनील सत्यम


एक सामंती जमीदार परिवार में जन्म फिर खांटी दबंगई और मदिरा के तांडव और उसके प्रभावों की सामाजिक आंच में तपता हुआ बचपन जीते हुए मै कब लेखन की तरफ मुड गया इसकी मुझे पुख्ता वजह अभी भी याद नही है हाँ शायद मन के अन्दर संवेदनशीलता के बीज प्रारब्ध से ही मिले थे इसलिए हमेशा अपने वय से आगे की जिन्दगी जीता रहा आज भी जी रहा हूँ आज भी सभी मित्र वय में मुझसे बडे है।
बचपन बाहर से जितना अशांत किस्म का रहा है अन्दर से मै उतना ही विलग और एकाकी होता चला जब अनुकूल माहौल न मिला तो अपने एकांत को अपनी दूनिया बना लिया और मेरे एकांत की जडता तोडने तथा मन मे उपजे अपरिपक्व रचनात्मक कौतुहल को आश्रय देने वाले मेरे पहले मित्र बने आज के पीसीएस अधिकारी और मेरे बचपन के मित्र सुनील सत्यम।
ये उन दिनों की बात है जब मै कक्षा सात में पढता था सुनील सत्यम मुझसे पांच साल बडे है वो उस साल इंटरमीडिएट में थे मेरे एक खेल सखा अमनीष कौशिक ने मुझे बताया कि सुनील जी ( संघ परम्परा के होने की वजह से नाम के बाद जी लगना आदत थी) के पास कॉमिक्स का अकूत भंडार है बस मेरा कॉमिक्स पढने का लोभ ही मुझे सुनील सत्यम के दर तक ले गया। सुनील सत्यम के पास अपनी पुस्तकों का ठीक ठाक निजि संग्रह था उन्होने एक वीर सावरकर सांस्कृतिक पुस्ताकालय भी बनाया हुआ था उनसे मैने पहले चाचा चौधरी, बिल्लू,नागराज़ ये सब कॉमिक्स पढे उसके बाद मुझे उनके सत्संग का चस्का लग गया वो उन दिनों बीमार थे और बैड रेस्ट पर थे सुनील सत्यम को पहली बार डंकल प्रस्ताव के विरोध मनमोहन सिंह का हाथ में कटोरा लिए (आर्थिक उदारीकरण) कार्टून बनाते देखा बस तभी उनकी रचनात्मकता को मन ही मन आदर्श मान लिया और खुद को उनका प्रशिक्षु आज मै जो भी कुछ लिख लेता हूँ जिसकी आप सब तारीफ कर देते है उस लेखकीय वृत्ति के पीछे सुनील सत्यम की प्रेरणा रही है यह बात मै आजीवन भी सार्वजनिक रुप से स्वीकार करने में कोई संकोच नही करुंगा।
हम दोनों में निकटता बेहद तेज गति से विकसित हुई फिर अपने घर के अलावा मेरा ठिकाना सुनील सत्यम की दहलीज़ ही हुआ करता था। हमारी यह अडडेबाजी धीरे-धीरे रचनात्मक रुप लेने लगी थी फिर हमने तमाम बाल प्रयास किए यथा युवा स्वत्ंत्र लेखक विकास मंच, जन उत्थान समिति आदि बनाना।
मै कक्षा आठ में था जब मेरा लिखा पहला सम्पादक के नाम पत्र प्रकाशित हुआ उससे पहले एक साल तक मै लगातार पोस्टकार्ड पर पत्र लिख कर भेजता रहा लेकिन नही छपे वजह एक तो वैचारिक अपरिपक्वता दूसरा बिना लाईन के लिखने का अभ्यास भी नही थी और हस्तलेख भी कोई खास नही था।
एक बार छपने के बाद छपास रोग लग जाता है फिर दिल करता है कि मै रोज अखबारों में छपूँ मै भी इसी फिराक में था इसलिए मै अपने सम्पादक के नाम लिखे पत्र सत्यम भाई को दिखाया करता था वो उसमे वर्तनी की गलती सुधारते थे ( मै उस वक्त भी वर्तनी की खूब गलतियां करता था जैसा आज भी करता हूँ) और कई बार अपने सुन्दर हस्तलेख में भी लिख कर भेजते थे। लेखन के मामलें सुनील सत्यम मेरे वरिष्ठ रहे है और उन्होने मेरे अन्दर बौद्धिक जिज्ञासा के बीज रोपित किए इसके लिए मै उनके प्रति आजीवन कृतज्ञ रहूंगा। विचारधारा,चेतना और सम्वेदना की सबकी अपनी-अपनी यात्रा होती है जो व्यक्ति का खुद का चयन होता है यह बात सच है कि मै बचपन में संघ की वैचारिकी से निकला और एक खास दौर तक कट्टर हिन्दूवादी भी रहा हूँ लेकिन बाद में जब सही-गलत विचार विश्लेषण की क्षमता विकसित हुई तब मेरा मार्ग सत्यम भाई की वैचारिकी से अलग हो गया। हमारी मित्रता में एक बात जो खास रही वह यह थी कि भले ही साल में एकाध बार ही संवाद होता हो लेकिन हम जब भी एक दूसरे मिलें तो तब-तब हम एक दूसरे शिद्दत से मिलें।
सिविल सेवा की तैयारी के सिलसिले में सुनील सत्यम दिल्ली चले गए और मै अपने गांव में ही रह गया लेकिन पत्राचार के जरिए भी हम एक दूसरे से जुडे रहे यदा-कदा मुलाकात भी हो जाया करती थी। ग्रेजुएशन के बाद मै पीजी के लिए हरिद्वार आ गया और फिर यही पीएचडी और तदर्थ नौकरी में लग गया।
एक वक्त ऐसा भी आया जब मेरी और सुनील सत्यम का साल-साल भर बात न होती थी लेकिन फिर सखा भाव हमेशा बना रहा इधर मै अपनी अलग दूनिया में सीखने समझने की धारा से गुजर रहा था। एक रोचक बात और जो बताना चाहता हूँ कक्षा आठ की वार्षिक परीक्षा में मेरे थोडे नम्बर कम आ गये थे मेरे पिताजी को उनके एक मित्र ने भडका दिया कि यह इस पत्रकारिता के भूत और सुनील सत्यम की संगत की वजह से हो रहा है वो साल मेरे जीवन के दुरुहतम वर्षों में से एक था घर,परिवार यहाँ तक भाई-बहन सभी के सहयोग के मोर्चे पर मै नितांत ही अकेला पड गया था मुझे पर चौतरफा वार हो रहे थे यहाँ तक सुनील सत्यम को भी मेरे से अलग बैठाकर मेरे उज्ज्वल भविष्य की दुहाई देकर मुझसे एक सुरक्षित दूरी बनाने की सलाह दी जा रही थी हालांकि हम दोनों के संज्ञान में यह सब था लेकिन हमनें कभी पारस्परिक इस बात की चर्चा नही की यह तो आज मैने लिख दिया है।
लेखन,पत्रकारिता मेरी पारिवारिक पृष्टभूमि के लिहाज़ से भी सम्मानित कर्म नही समझा जाता था देहात के क्षेत्रों में पत्रकारिता का श्रमजीवी स्वरुप न होना मेरे लिए बडा भारी साबित हुआ और मुझ पर लेखन कर्म तत्काल छोडने दबाव बना दिया था कुछ दिनों तक अपने बौने भावनात्मक तर्कों से लडने के बाद आखिर पिताजी के अहंकार के समक्ष मैने हथियार डाल दिए और मन ही मन संकल्प लिया कि अब कक्षा 12 तक मै कलम नही उठाऊंगा और यह सच है कि मैने चार साल तक एक अक्षर नही लिखा।
मेरे लेखकीय कर्म पर जहाँ परिजनों को प्रसन्न होना चाहिए था वही उन्हे वह मेरे व्यक्तित्व का विकार नजर आने लगा था उन्हे लगा कि लडका पढाई मे पिछड जाएगा इसलिए मुझसे लिखना बलात छुडवा दिया गया....मेरे लिए यह सब एक बडा मानसिक सदमा था।
सुनील सत्यम की एक खासियत यह भी रही कि उन्होने मेरे क्रमिक बौद्धिक विकास को हमेशा से सहज स्वीकृति और सकारात्मक दृष्टि से लिया और मुझे कभी अपना ‘चेला’ नही समझा सामान्यत: लोग उन लोगो की प्रगति या बौद्धिक रुपांतरण को सहज रुप से स्वीकार नही कर पाते है जिन्होने आपसे लिखना-पढना सीखा हो। यही वजह है कि सुनील सत्यम मेरे लिए आज भी उतने ही सम्मानीय और ग्राह्य है जितने कभी बचपन में हुआ करते थे हाँ अब मै अपनी कलंदरी से इतनी आजादी जरुर ले लेता हूँ कि जहाँ मै उनसे असहमत हूँ तो अपनी असहमति उन्हे जता देता हूँ और शायद उनके द्वारा दिए गए लौकतांत्रिक स्पेस की वजह से ही यह सम्भव है उन्होने सदैव मेरा हौसला ही बढाया है इसलिए आज भी जब वो मेरे लिखी किसी चीज़ की तारीफ करते है तो मुझे बडी सच्ची खुशी मिलती है क्योंकि उस वक्त यह लगता है यह तारीफ वो शख्स कर रहा है जिससे मैने कलम पकडना सीखा है....लिखना तो खैर अभी भी नही सीख पाया हूँ।

(वर्तमान डॉ अजीत की निर्माण प्रक्रिया के हिस्सेदार रहे ऐसे मित्र के प्रति कृतज्ञता भाव के रुप में यह पोस्ट समर्पित है)

Thursday, October 17, 2013

यादों के सहारे बचत की बातें......



12 वी दर्जे में अर्थशास्त्र की किताब में पढ़ा था की ब्याज बचत का पुरस्कार है उस वक़्त केवल परीक्षा के लिहाज़ से केवल परिभाषा याद कर ली थी उस वक़्त इस परिभाषा में छिपी नसीहत को नही समझ पाया था और आज भी बचत के मामले में एकदम से निबट बुद्धू इंसान हूँ कहने को तो दो बैंक अकाउंट है लेकिन दोनों में जिस दिन मुद्रा आती है बेचारी उसके एकाध घंटे बाद ही एटीएम के हलक से मैं निगलवा लेता हूँ हाँ बस काम चल रहा है जैसे तैसे इसलिए सोचता नहीं हूँ सच तो यह भी है कि अभी आमदनी इतनी है भी नहीं कि बचत के रूप में इन्वेस्ट कर सकूँ अभी तो गाँव की एक कहावत के हिसाब से 'गेल गल्ला गेल पल्ला' (तुरंत आमंदनी और तुरंत खर्च ) करके जिंदगी चल रही है कभी कभी कुछ भाई-बंधू और दोस्त सलाह देते है कि कम से कम एक मेडिक्लैम पालिसी तो ले ही लो क्योंकि बुरा वक़्त बता कर नहीं आता है उस वक्त उनकी बात ठीक लगती है लेकिन बाद में सायास भूल जाता हूँ. आज बचत पुराण बांचने की एक वजह और भी है आज मुझे अपने माँ (दादी जी ) की एक आदत याद आ रही थी वैसे तो हम गाँव के बड़े जमीदार रहे है लेकिन कभी उस किस्म साहूकार कभी नहीं रहे कि हमारा पैसा गाँव में ब्याज पर चलता हो बस अपना काम चलता रहा है वजह एक यह भी थी कि मेरे पिताजी हद दर्जे के खर्चीले इंसान रहे है उनकी इस आदत से बहुत से लोगो को प्रश्रय मिलता रहा है....मेरी माँ (दादी जी ) को हमने बचपन से छोटी छोटी बचत करते देखा है उनके पास अनुभव था एक प्रतिबद्धता थी कि हमे आत्मनिर्भर बनाना है और हमे इस भाव से बड़ा करना है कि कभी अपनी पैतृक संपत्ति पर अभिमान नही करना है उन्होंने हमने यह सिखाया कि खुद के श्रम से अर्जित मुद्रा पर ही हमारा अधिकार होता है हम उसे अपने मन के मुताबिक़ खर्च कर सके उनकी मान्यता रही है कि पैतृक संपत्ति को लेकर हमारी दो ही जिम्मेदारियां है एक तो वह सुरक्षित रहे दूसरा उसको हम अपनी अगली पीढ़ी को यथारूप में स्थानांतरित कर सके.
मैं जब शायद पांचवी पढता था तब उन्होंने मेरे नाम से 25 रूपये महीने की गाँव के डाकघर में आरडी शुरू करवाई थी मेरी ही नहीं मेरे बाकि भाई बहनों के नाम से भी ही उन्होंने यही खाता खुलवाया था...वो हर महीने जमा करती रहती है और हमे याद भी नहीं था कि हमारे नाम से ऐसे कोई खाते भी है. वो साल दर साल जमा करती रही और जब वो राशि दो हजार हो गयी फिर उन्होंने उसके हमारे नाम से किसान विकास पत्र खरीद लिए बाद में हर पांच साल में वो रकम दुगनी होने पर उसको बदलवा देती थी...उन्होंने हमे भी नहीं बताया था कि ऐसी कोई बचत हमारे नाम से हो रही है...फिर एक दिन उन्होंने मुझे अपने पास बुलाया और कहा कि ये मैंने तुम सब के नाम थोड़ी सी बचत की है अब ये कागज़ तुम सब अपने अपने पास रखो...और जब जीवन में ऐसी भीड़ आ पड़े कि कंही से पैसे न मिल रहे हो और बेहद वाजिब ढंग से तुम्हे पैसो कि सख्त जरुरत हो तब इनको तुडवा कर अपना काम चला लेना ये पैसा तुम्हारे तब काम आएगा....उनके ये वचन किसी आशीर्वाद की तरह से एकदम से सही सच हुए आप यकीन नहीं करेंगे की एक वक्त मुझ पर ऐसा ही आन पड़ा था की कही से भी पैसा नहीं मिल पा रहा था और मुझे पैसो की सख्त जरुरत थी तब मुझे अपनी माँ के दिए किसान विकास पत्र की याद आयी और वो 25 रूपए महीने की मासिक बचत से बने किसान विकास पत्र ने मेरी पूरे 15000 की मदद की....और मेरे बड़े छोटे भाई-बहन के भी ऐसे ही वक्त में वो पैसा काम आया....तब मुझे एहसास हुआ की घर के बड़े बुजुर्ग वास्तव में कितने दूरदर्शी होते हैं और वो धन की उपयोगिता हम से बेहतर समझते थे क्योंकि उन्होंने अभाव देखा होता था... आज जब हम बचत के नाम पर सोचते है कि क्यों अपनी जरूरतों का गला घोंटा जाए ऐसे में उस दौर के लोग याद आते है जो अपने वर्तमान को संघर्ष की चक्की में पीस कर हमारा भविष्य सुरक्षित कर रहे थे.

Wednesday, October 16, 2013

मुसाफिर और अमीर कनबतियां....




दो दिन पहले अचानक गाजियाबाद जाना पडा छोटे भाई को डेंगू का डंक लगा है मै घर से निकला और सिंहद्वार (जहाँ से दिल्ली-गाजियाबाद की बस मिलती है) पर बस की प्रतिक्षा करने लगा एकाध बस आयी भी लेकिन उनकी हालत देखकर बैठने की हिम्मत न हुई है मेरे दो मन हो रहे थे कि क्या तो वापिस घर चला जाऊँ और ट्रेन मे रिजर्वेशन होने पर जाने पर विचार करुँ या फिर किसी कार मे लिफ्ट मिल जाएं इस उधेडबुन में मन ही मन संकल्प करने लगा कि कार मे ही जाना है....इसी क्रम मे एक इनोवा कार आती दिखी तो मैने संकोच के साथ हाथ दे दिया उसने थोडी दूर जाकर गाडी रोक दी सामने की सीट पर एक सफारी सूट पहने लाला टाईप का इंसान बैठा था रुकते ही बोला कहाँ जाना है मैने कहा दिल्ली फिर उसने पूछा कि भाडा कितना दोगे मैने कहा 240 हालांकि बाद वापसी मे पता चला कि गाजियाबाद-हरिद्वार का बस का किराया 176 रुपये है...खैर नई इनोवा कार मे एसी में यात्रा करने की एवज़ मे मुझे 240 भी ज्यादा नही लगे।
कार मे बैठने के बाद मेरे अनुमान तंत्र ने काम करना शुरु कर दिया पहले मुझे लगा कि आगे की सीट पर बैठा शख्स गुजराती है शायद वाणिक बुद्धि के चलते लालच में मुझे बैठा भी लिया जब तक हमारे बीच मे मौन रहा तब तक रहस्य बना रहा उन्होने एक बार पूछा कि आप हरिद्वार मे क्या करते है मैने बता दिया कि एक विवि मे मास्टरी करता हूँ...गाजियाबाद तक मै प्राय:चुप रहा या एकाध अपने फोन रिसीव किए लेकिन आगे की सीट पर बैठे शख्स और ड्राईवर में यदा-कदा बात होती रही उनकी बातों मे मैने पहले तो कोई रुचि प्रदर्शित नही की लेकिन बाद मे मै खुद ब खुद उनकी बातचीत मे दिलचस्पी लेने लगा वजह साफ थी उनकी बातों में एक खास किस्म की दूनिया का जिक्र हो रहा था जो मेरे लिए अपरिहार्य किस्म की थी या यूँ कहिए कि अभिजात्य किस्म के लोगो की बतकही में मध्यमवर्गीय मन की रुचि पैदा हो जाना स्वाभाविक ही थी।
पहली बात तो मै यहाँ गलत हुआ कि आगे की सीट पर बैठा गुजराती व्यापारी है वह उस कार का मालिक नही था बल्कि वह कार के मालिक का वफादार सेवक (पीए टाईप ) था उस इनोवा कार का मालिक कोई मिलेनियर/बिलेनियर किस्म उद्योगपति था जो देहरादून में अपने बिजनेस के सिलसिले में आता-जाता रहता था वह भी प्लाईट से  कार तो उसके सेवक ही ले जाते है दिल्ली से देहरादून ताकि उसका जरुरी सामान ले जाया सके।
आगे की सीट पर बैठे पीए टाईप के शख्स और कार ड्राईवर की बातों से अमीर लोगो की दूनिया की कुछ रोचक बातें सुनने को मिली उसका सारांश इस प्रकार है---
1.      वो दोनो लोग किसी मिलेनियर/बिलेनियर किस्म के उद्योगपति के माहताहत काम करेंगे वाले कारिन्दे थे...उनके मालिक का बिजनेस आस्ट्रेलिया से लेकर स्पेन तक फैला हुआ है स्पेन की महारानी के साथ उनके व्यापारिक सम्बंध है वो अक्सर देश से बाहर ही रहते है। साहब अक्सर विदेश मे रहते है।
2.      उस बिजनेसमैने के बेटे ने सातवीं मंजिल से कूदकर आत्महत्या कर ली थी क्योंकि उसकी पत्नि उसकी जासूसी करती है उसे सन्देह था कि उसके किसी अन्य महिला से सम्बंध है वो उसके दोस्तों से पूछताछ करती थी कि यह ऑफिस न जाकर कहाँ घूमता है यह बात उसको नागवार गुजरी और उसने आत्महत्या कर ली...हालांकि उसके किसी हिमाचल की महिला से विवाहेत्तर सम्बंध थे यह बात पीए साहब ने बताई।
3.      बिजनेसमैने की पत्नि भी तुनकमिज़ाज़ ‘बुढिया’ है यह बात ड्राईवर ने बताई उसने बताया कि मैडम के ड्राईवर ने उसको बताया कि एक बार वह घर से नाराज़ होकर आधी रात को एयरपोर्ट चली गई थी।
4.      उनके साहब के पास प्राडो,ओडी,बीएमडब्ल्य़ू और मर्सडिज़ कारें है साहब को स्पीड से प्यार है यमुना एक्सप्रेस हाईवे पर प्राडो कार 240 किमी/घंटा ही दौड पायी इसलिए इससे नाखुश होकर साहब ने उसी दिन उसको बेचने का ऐलान कर दिया था फिर 1 करोड 56 लाख की ओडी विदेश से मंगवाई।
5.      बिहार मे किसी कार्यक्रम में वहाँ के एक मंत्री के साथ उनके साहब गए थे और मंत्री ने साहब की प्राडो कार मे ही बैठने की इच्छा व्यक्त की इसके बाद मंत्री और साहब को मिली पुलिस एस्कोर्ट पीछे छूट गई क्योंकि उनके पास केवल महिन्दा की जीप था और साहब अपनी प्राडो को दौडा रहे थे।
6.      साहब के यहाँ मंत्री/संत्री का आना जाना लगा रहता है साहब के रिश्तेदार भी रसूखदार लोग कोई सुप्रीमकोर्ट का सीनियर वकील है तो कोई किसी राज्य का एडवोकेट जनरल।
7.      साहब का देहरादून/मसूरी में कोई अभिजात्य किस्म का स्कूल भी है या फिर उनका कोई बच्चा पढता है (जैसा बातों से अनुमान लगा )
8.      साहब दरियादिल भी है अपनी किसी परिचित महिला के बेटो की शादी मे उन्होने उनकी बारात अपनी मर्सडिज़ गाडी मे निकलवाई थी।

..तो साहब इन सब बतकही के बीच मै गाजियाबाद पहूंच गया है बाहर से चमकीली दिखने वाली अमीरों की दूनिया मे भी काफी झोल होते है मुझे तब बशीर बद्र साहब का एक शे’र याद आ रहा था...
कुछ बडे लोगो की मरहूमियाँ न पूछ के बस
गरीब होने का अहसास अब नही होता....
हाँ एक बात मानवीय स्वभाव की जरुर लगी कि अमीर लोगो के सेवक भी भले ही हाई प्रोफाईल दिखते हो लेकिन उनके मन का लालच उन्हे हमेशा प्रभावित कर ही देता है तभी तो मेरे जैसे मुसाफिर को बडे लोगो की कार मे लिफ्ट मिल जाती है और आप सभी को सुनने को ऐसे अंजान किस्म की बतकही...। 

Thursday, May 30, 2013

उच्च शिक्षा

उच्च शिक्षा में लगभग एक दशक बीता दिया पहले पढाई की और पिछले साल से एक विश्वविद्यालय में तदर्थ रूप से पढ़ा भी रहा हूँ चूंकि मेरी नौकरी तदर्थ किस्म की रही है इसलिए स्थायी होने के लिए इधर उधर भी हाथ पैर मारता रहा मसलन देश के प्रमुख विश्वविद्यालयों में साक्षात्कार देने जाता रहा हूँ प्रभु कृपा से मनोविज्ञान के अतिरिक्त पत्रकारिता और हिंदी साहित्य में भी नौकरी पाने की  अकादमिक योग्यता रखता हूँ (यूजीसी-नेट होने के कारण). स्थायी नौकरी पाने के अपने आरंभिक संघर्षो में मुझे लगता था की उच्च शिक्षा में पिछड़े /दलित/अल्पसंख्यक वर्ग  से होना सबसे बड़े अपात्रता हैं क्योंकि नियोक्ता अधिकांश सवर्ण हैं और एक गाँव देहात तथा किसान परिवार की पृष्टभूमि का होने के नाते एक सवर्ण मानसिकता कभी स्वीकार नही कर पाती की इस वर्ग का बच्चा वहां तक पहुंचे जहाँ उनका जन्मसिद्ध अधिकार एवं वर्चस्व रहा है,लेकिन धीरे-धीरे जब मैंने विश्लेषण करना शुरू किया तो पाया कि अपने इस महान देश भारत में केवल जाति के ही मोर्चे पर लडाई नही लड़ी जाति है और भी बहुत से मोर्चे है जिनसे आपको लड़ना होता है और यह विरल संयोग की बात होती है कि इन सबसे आप लड़ते खपते वहां तक पहुँच जाएँ जिसकी आप पात्रता रखते हैं ऐसे ही कुछ मोर्चो की बानगी देखिए:-

.पहला मोर्चा हिंदी बनाम अंग्रेजी का इस देश में बहुत बड़ा है जो मेरे जैसे प्राथमिक पाठशाला में पढ़े बच्चो को झेलना पड़ता है चूंकि हम सरकारी स्कूल में पढ़े है जहाँ कक्षा में पहले बार एबीसीडी सिखाई जाती है हमने तख्ती पोतकर,ईमला लिखकर पढना,लिखना सीखा है इसलिए हम अंग्रेजी भाषा के मामले में हमेशा एक दोयम दर्जे के ही रहते है और जनाब अपने देश में तो अंग्रेजी में बोलना आना मानो कुफ्र है मैं सभी विषयो के अध्यापन में अंग्रेजी के महत्व को नही नकार रहा हूँ लेकिन पत्रकारिता जैसे हिंदी अधिकार के विषय की भी पढाई हमारे विश्वविद्यालयो में अंग्रेजी में होती है इस बात का मुझे तब पता चला जब एक केन्द्रीय विवि के साक्षात्कार में अच्छा इंटरव्यू होने के बाद भी महज़ इसलिए मेरा चयन नही हो पाया क्योंकि मैंने हिंदी में बात की और मैं धाराप्रवाह अंग्रेज़ी बोलना नहीं जानता था. ऐसे में कान्वेंट शिक्षित लोगो को तरजीह दी जाती है और हम हिंदी भाषी कतार से बाहर हो जाते हैं.

. दूसरा मोर्चा साहब संस्थानों का है मेरी इस बात से मेरे कुछ जेएनयू,बीएचयू,डीयू के दोस्त खफा हो सकते है लेकिन यह भी एक कड़वा सच है कि आपको नौकरी दिलाने में आपका संस्थान भी बेहद मददगार साबित होता है मसलन अगर आप जेएनयू,बीएचयू,डीयू,इलाहाबादविवि से पढ़े है तो समझिये आपकी आधी मुश्किल कम हो गयी है इन बड़े संस्थानों का ठप्पा आपके बड़े को पार लगा देता है ऐसे में जो लोग अपेक्षकृत छोटे संस्थानों से पढ़े हैं उनके साथ दोयम दर्जे का व्यवहार होता है मै पात्रता/योग्यता की बात नहीं कर रहा हूँ वो हर संस्थान में हर किस्म के लोग आपको मिल जायेंगे मानता हूँ कि उक्त संस्थान देश के अकादमिक क्षेत्र के बड़े माने हुए संस्थान हैं लेकिन दोस्तों महज़ इस वजह से देश के हर अवसर पर यदि वही के लोगो को अगर तरजीह दी जाने लगेगी तो देश के बाकी विवि के पढ़े लिखे बेरोजगारों का क्या होगा क्या ऐसे सांस्थानिक श्रेष्टता पूर्वाग्रहों का होना न्यायोचित है?

.तीसरा मोर्चा साहब क्षेत्र का है उच्च शिक्षा में आपके क्षेत्र भी आपकी बौद्धिकता तय करता है मसलन जैसे कि मै पश्चिम उत्तर प्रदेश से ताल्लुक रखता हूँ ऐसे में उच्च शिक्षा के क्षेत्र मठाधीश यह बात हजम ही नहीं कर पाते है कि इस क्षेत्र का कोई आदमी कविता,साहित्य,पत्रकारिता,दर्शन,मनोविज्ञान आदि की बात कर सकता है उन्हें लगता है इस क्षेत्र में केवल दबंग और लट्ठबाज ही पैदा हो सकते या फिर अपराधी मुझे कई बार ऐसे असहज स्थिति का सामना करना पड़ा है जब मै किसी महफ़िल में अपनी कविता सुनाई और लोगो को अघोर किस्म का आश्चर्य हुआ है कि मुज़फ्फरनगर का कोई बन्दा वह भी किसान पुत्र कविता कर सकता है या शुद्ध हिंदी में बात कर सकता है इसी पूर्वाग्रह का सामना विभिन्न विवि में इंटरव्यू के दौरान भी करना पड़ता है.

.मैंने आरटीआई के माध्यम से यूजीसी से यह पता किया की देश के प्रमुख विवि के कुलपति कहाँ से सम्बंधित है वहां से जो जानकारी मिली वह हैरत में डालने वाली थी देश प्रमुक विवि और नए बने केंद्रीय विवि में जेएनयू,बीएचयू,डीयू,इलाहाबादविवि,आईआईटी के प्रोफेसर ही कुलपति बने हुए है ऐसे में जब उनके मातृ संस्थान का कोई बंदा इंटरव्यू देने आता है तो उनका अपनी मातृसंस्था के प्रति प्रेम स्वत: ही जागृत हो जाता है और उनकी भरपूर कोशिस यही रहती है कि हम अपने प्रोडक्ट को नौकरी दे सकें.यह ऐसी कडवी सच्चाई है जिसको बुद्धिजीवी दिल जरुर स्वीकार करेगा दिमाग करें या ना करें.

. उच्च शिक्षा में आप जिसके निर्देशन में अपना शोध प्रबंध पूर्ण करते है उन प्रोफेसर साहब का अपना अलग महत्व यांकी अगर आपका पीएचडी गाइड अपने विषय की जानी मानी शख्सियत है तो फिर भी आप के लिए मंजिल आसन हो जायेगी मसलन जब कोई प्रोफेसर अपने विषय का इतना बड़ा विशेषज्ञ होता है तब वह प्रमुख विवि में सब्जेक्ट एक्सपर्ट भी नामित होता हैं फिर जहाँ भी पोस्ट निकलेगी वो आपको इशारा कर देगा बस उसके बाद आपकी नौकरी पक्की ऐसे कम जान पहचान वाले प्रोफेसर के चेले बेचारे ऐसे ही झोला उठाये घूमते रहते है सिलेक्शन कमेटी भी यह पहले से मान लेती है कि जब यह बंदा इतने बड़े ज्ञानी का चेला है तो यह भी ज्ञानी ही होगा ऐसे में बेचारे सामान्य बैकग्राउंड के लोग स्वत: ही बाहर हो जाते हैं.

....दोस्तों और भी बहुत से मोर्चे अगर मैं सभी का जिक्र करना शुरू करूँ तो ये पोस्ट बहुत बड़ी हो जाएगी बाकी आप खुद समझदार हैं. इन सब मोर्चो से लड़ते-भिड़ते सुप्रीम कोर्ट के आरक्षण के आरक्षण लागू करने के  डंडे के चलते अगर आप को नौकरी मिल जाये तो मै आपको परम सौभाग्यशाली कहूँगा..इन मोर्चो के चलते तमाम वाद प्रभावी रहते हैं मैं किसी एक का नाम नहीं लूँगा आप सभी जानते ही हैं ऐसे में स्टेट यूनिवर्सिटीज और डीम्ड यूनिवर्सिटीज के पढ़े गाँव देहात के  लोग उस अवसर की तलाश में दर बदर भटकते रहते है क्योंकि उनका कोई रहनुमा मेज़ की उस तरफ नहीं बैठा होता है जो कह सके कि नौकरी देने में एक ही बात देखी जाए कि बंदा काबिल है या नहीं...