Wednesday, January 14, 2015

परिवर्तन

प्रायः साधना को आध्यात्म से जोड़कर देखा जाता है। व्यापक सन्दर्भों में इसकी जड़े दर्शन और आध्यात्म से ही पोषित होती है। ये स्वयं को साधने से सम्बंधित है इसलिए साधना कहा गया है और जरूरी नही प्रत्येक साधना रहस्यमयी ही हो हम रोजमर्रा की जिंदगी में भी किसी न किसी स्तर पर साधनारत होते ही है। आध्यात्म,रहस्यवाद,साधना इनसे आत्म उन्नयन की दिशा में आगे बढ़ सकते बशर्ते आप होशपूर्वक खुद को देख सके और जो भी कदम इस दिशा में आगे बढ़ाएं उससे आपके ईगो को खुराक न मिल पाये बल्कि ईगो के प्रति अपनी प्रतिक्रिया को विलम्बित करते हुए लगभग स्तंभित कर दिया जाना चाहिए।
बिना किसी उपलब्धि सरीखी स्प्रिचुअल ग्लैमराईजेशन और महानताबोध के मैंने एक प्रयोग खुद के साथ किया वास्तव इस प्रयोग के पीछे न साधना जैसे भाव थे न उस तरह किसी लक्ष्य का निर्धारण किया था। लम्बें समय से मेरी आदत पकी हुई थी भोजन के समय प्रिय आहार देख आह्लादित हो जाना और नापसन्द की चीज़ बनी देख कर हद दर्जे का खिन्न हो जाना कई दफा प्रतिक्रिया स्वरूप दाल/सब्जी चिढ कर छोड़ देता और केवल नमक से रोटी खाता था। इसकी वजह से प्रायः घर पर वही बनता जो केवल मुझे पसन्द होता था और मेरी पसन्द बेहद सीमित किस्म थी मसलन सब्जियां लगभग ना के बराबर खाता था। इसके अलावा आहार व्यवहार से जुडी एक आदत और थी भूख लगी होने की स्थिति में मेरी इच्छा होती कि घर पर सबसे पहले भोजन मुझे मिलें।
पिछले 9 महीने से गाँव में हूँ इन आदतों के चलते शुरुवात में थोड़ी असुविधा हुई परन्तु बाद में स्वत: ही खुद में यह परिवर्तन आ गया कि अब भोजन के प्रति एक साक्षी भाव उत्पन्न हो गया है। अमूमन जब माताजी मुझसे यह पूछती कि आज क्या बनाये तो मै घर के अन्य सदस्यों की पसन्द के अनुरूप खाना बनाने की बात कहता हूँ। अब मुझे न सबसे पहले भोजन चाहिए और न केवल खुद की पसन्द अब न बेस्वाद भोजन बनने पर मेरी कोई नकारात्मक प्रतिक्रिया होती है। अब जिस समय और जैसा भी भोजन मिल जाए मुझे रुचिपूर्ण लगता है। अब मुझे इस बात से कोई ख़ास फर्क नही पड़ता कि भोजन मेरी पसन्द का बना है या मेरी नापसन्द का बस उसे शरीर की एक जरूरत समझ साक्षी भाव से ग्रहण करता हूँ और इससे मुझे बेहद संतोष भी मिलता है। अब समझ की यात्रा भोजन/स्वाद से आगे निकल गई है अब जो भी जिस समय मिल जाए वो ही सहर्ष स्वीकार है। खाने के मामलें में मेरी नगण्य प्रतिक्रिया हो गई है इस बात पर परिजन भी हैरान है कि एक चूजी और चटोरा शख्स ऐसे कैसे बदल गया है। यह बदलाव बेहद सुखद है।
गौरतलब हो यह कोई विशिष्ट बात नही है कोई उपलब्धि है जिसका ग्लेमराईजेशन करके मै अपने ईगो को पुष्ट करना चाह रहा हूँ यहां इसका उल्लेख केवल इस भाव से किया है कि अपने कंडीशण्ड जीवन में कुछ रेडिकल चेंज लाकर कई दफा चेतना की जड़ता टूटती है जिसका अपना एक सुख है।
प्रयोग के रूप में आप अपनी किसी आग्रही आदत के उलट जाकर साक्षी या स्वीकार भाव विकसित कर सकते है। देखिए एक रेडिकल चेंज आपको कितनी सुखद अनुभूति देता है।

'रेडकिल चेंज'