Thursday, September 30, 2010

उलझन

आज का दिन उलझन सुलझने का रहा है राम जन्म भूमि विवाद पर बहुप्रतिक्षित हाईकोर्ट का फैसला आ गया है, हिन्दूओं मे जश्न का माहौल है लोग सुबह से टी.वी. से चिपके बैठे थे मानो भारत पाकिस्तान का मैच चल रहा हो...जिज्ञासा और आशंका का होना स्वाभाविक ही है इस देश के इतिहास की एक बडी घटना है यह भी राम जन्मभूमि विवाद। मैने आज दिन भर टी वी नही देखा वैसे भी मुझे टी.वी. देखने का कोई खास शौक नही है पहले बालक चिपका रहता है पोगो और कार्टून नेटवर्क पर फिर उसके हाथ से रिमोट लेकर पत्नि सास-बहूओं के रोने धोने और शोषण कथानक के साथ अपने को जोडकर रोती हंसती हुई टी.वी. पर कब्जा जमाए रहती है मेरा नम्बर कम ही आता है और ठीक भी है मेरे पास न रसीली कथाएं है न चूटीले किस्से जिससे पत्नि का दिल बहल सके। आज से रविवार तक विश्वविद्यालय मे अवकाश है सो मै यूं ही अवधूत और औघड बना रहूंगा..मंजन से लेकर स्नान सब कुछ तीसरे पहर होगा में केवल शौच आदि की निवृत्ति को छोडकर..।

आज का दिन वैसे मेरे लिए किसी और मायने मे खास है मेरे एक बहुत ही करीबी लगोंटिए किस्म के दोस्त के यहाँ एक नया मेहमान आने की तैयारी मे है भाभी जी अस्पताल मे भर्ती है प्रसव हेतु और मै यहाँ ब्लाग लेखन कर गाल बजाई कर रहा हूं कायदे प्लस कानून से ऐसे खास मौके पर मुझे अपने उस दोस्त के साथ होना चाहिए जीवन का बडा ही भावुक क्षण होता है पिता बनना...लेकिन दरअसल बात यह है दोस्त के पास अभी बहुत से दोस्त मौजूद है दूनियादारी की पकड और खबर रखने वाले मेरी इतनी जरुरत है ही नही। कभी हमने साथ- साथ छात्र राजनीति और संपादक के नाम पत्र वाली पत्रकारिता की थी बहुत कुछ साथ किया और जीया है मै लडिया कर उसे कभी नेता जी कहा करता था ठीक उतने सम्मान के साथ जितना आजाद हिन्द फौज का कोई भी सैनिक सुभाषचन्द्र बोस को नेता जी कहता होगा या कोई पक्का समाजवादी मुलायम सिंह यादव को जिस भाव के साथ नेताजी कहता है मेरे भी भाव वैसे ही हुआ करते थे उसे भी केवल मेरे ही मुख से नेताजी सुनना अच्छा लगता था अब आप हमारे प्रेम का अन्दाजा लगा सकते है।

वक्त बदला,मायने बदले और सम्बन्धों की परिभाषाएं बदल गई है आज मै उसके लिए उसका ज़िगरी दोस्त अजीत डाक्टर साहब बन गया हूँ और मेरे लिए नेता जी से योगी जी मतलब उनका नाम योगेश योगी है। शहर के जाने माने पत्रकार है इसी शहर मे ससुराल भी है रसूखदार लोगो मे ऊठना-बैठना है। उन्होनें कभी मुझे हीन समझा हो ऐसा भी नही है लेकिन पता ही नही चला कब वो एक समानांतर लकीर हमारे सम्बन्धों मे खीच गई जिसे दूनियादारी की भाषा मे औपचारिकता कहते है कभी बहुत आत्मीय हम कुछ भी निजी नही था हमारा सब कुछ सांझा था।

कभी इस शहर मे मेरी वजह वे आयें थे आज मेरी इस शहर मे होने की एक वजह वे है अभी-अभी फोन करके हालचाल जाना है दिन मे एकाध बार एसएमएस बाजी भी हुई हालांकि मुझे औपचारिक होना अच्छा नही लगता और न ही ऐसे भाव होते है लेकिन पता नही अब अधिकार नही रहा संदेश ऐसा ही आता-जाता है कि पारस्परिक औपचारिक हो गये है हम..।

एक टीस दिल मे अब भी हो रही है जब मैने उनसे पूछा कि कौन-कौन है साथ मे तो उन्होनें वे सब नाम गिनाए जो मेरे बाद आते है उसके जीवन मे लेकिन आज ऐसे मौके पर मुझ से पहले खडे है उसके साथ मुझे यह सोचकर आत्मग्लानि भी हो रही है और दुख भी...।

भले ही आज मै वहाँ नही हूं लेकिन दिन मे पता नही कितनी बार ख्याल आया अस्पताल के बारे मे सोचा चलूं ....लेकिन कदम खुद बखुद ठिठक गये अभी भी लग रहा है आज कि रात मुझे योगेश के साथ होना चाहिए अपने बच्चों को छोडकर...लेकिन खाली लगने से क्या होता अब मेरे अन्दर वो हौसला नही रहा जब मै अधिकारपूर्वक योगी के घर से लेकर जीवन मे घुस जाता था।

मन भावुक हो गया...अतीत सामने आकर खडा हो जाता है बार-बार ऐसे मै तो बस ईश्वर से यही प्रार्थना कर सकता हूं कि जीवन के इस महत्वपूर्ण पलों मे भले ही मै उसके साथ शरीर से नही हूं लेकिन मन की शक्ति वही पर है और उसे वो खुशी मिले जिसके लिए उसने नौ महीने इंतजार किया है.....हो सकता है कल तक कोई खुशखबरी आ जाए। मेरा कायर मन बार बार यही प्रार्थना कर रहा है कि आने वाले मेहमान की रोशनी के साथ हमारे सम्बन्धों पर पडी वक्त की वह बेदर्द धुन्ध भी छंट जाए जिसके कारण हम करीब रह कर भी दूर हो गये है।

ईश्वर मेरी मदद करें....

शेष फिर...

डा.अजीत

Wednesday, September 29, 2010

निशब्द

अमिताभ बच्चन जी की इस फिल्म मे एक गीत है जो खुद उन्ही की आवाज़ मे है रोजाना जीएं....रोजाना मरे तेरी यादों मे...बहुत दमदार सोलो सांग है मैने कल ही यह गाना डाउनलोड किया है बार-बार सुनता रहता हूं जोकि मेरी आदत भी है एक गाना जब दिल पर सवार हो जाता है तो मै उसको जनून की हद तक सुनता हूं...। फिल्म का विषय विवादास्पद टाईप का था हालांकि थी समाज की सच्चाई ही प्रेम जब होता ऐसे ही होता है न उम्र का बन्धन देखता है न कुछ और...। प्रेम मेरा प्रिय विषय रहा है कविताओं के मामले मे मेरी अधिकांश कविताएं प्रेम विषयक ही रही है जबकि सच बात यह है कि मैने आज तक किसी से प्रेम नही किया बडा आत्ममुग्ध किस्म का आदमी हूं...। मेरे बहुत से करीबी दोस्तों को मुझ पर आज भी यह शक है कि मैने किसी कन्या से गुप्त प्रेम किया है कभी किसी को जाहिर नही होने दिया और वही मेरी कविता लेखन की प्रेरणा भी हैं,लेकिन मै सफाई देता-देता थक गया हूं कि भाई लोगो ज़िन्दगी की आपा-धापी और पारिवारिक जिम्मेदरियों ने वक्त से पहले इतन प्रोढ बना दिया कि कभी प्रेम जैसे विषय पर सोचने का मौका ही नही मिला। 21 साल की उम्र मे शादी हो गई और 22 मे एक बेटा जो अक्सर बीमार रहता है(माईल्ड सेरेब्रल पाल्सी नामक बीमारी से पीडित है)।

मेरे कहना है कि प्रेम करने से नही होता ये तो बस हो जाता है खुद बखुद। महफिल मे एक दिन एक मित्र ने कहा डाक्टर साहब एक दिन आपके जीवन मे वो जरुर आयेगा जब आपको किसी से प्रेम हो ही जाएगा...मै चौंका...अब! कही आप विवाहेत्तर प्रेम की बात तो नही कर रहें है,उनका इशारा शायद उसी तरफ था लेकिन अपनी पत्नि की भलीमानुसिता देखकर मुझे नही लगता कि कभी मै इस तरह से लडखडा सकता हूं...पति-पत्नि का प्रेम अलग किस्म का होता नो डिमांडिंग किस्म का और हम दोनो ही अन्तर्मुखी स्वभाव के है कभी एक दूसरे की सिलेक्टिव निजी लाईफ मे दखल भी नही देते है इसलिए आपस मे एक मौन समझ भी बनी हुई और वो स्पेस भी जो कोई भी संवेदनशील व्यक्ति चाहता भी है।

रोजाना जीएं...रोजाना मरें ये जरुर मेरे साथ होता रहता है रोजाना खुद को बहलाना पडता है, जिन्दा करना पडता है और रात को सोने से पहले खुद को मारना पडता है इसलिए यह गीत मुझे प्रिय है लेकिन किसी की याद मे नही अपनी वजूद की लडाई के रोजाना यह सब करना पडता है।

दरअसल एक अधुरेपन का मसला हमेशा जिन्दगी के साथ चलता रहता है राजन स्वामी जी की एक बहुत प्यारी सी एक गज़ल भी है कि अधुरेपन का मसला ज़िन्दगी भर हल नही होता... बहुत से लोगो से इस विषय पर बात कर चूका हूं हर आदमी जो कर रहा है वह उस काम को करके खुश नही है वह कुछ और करना चाहता है इसमे मै भी शामिल हूं पिछले चार सालों से विश्वविद्यालय मे मास्टरी कर रहा हूं ठीक ठाक सम्मान है अपने छात्रों मे भी लोकप्रिय हूं लेकिन रोज़ाना लगता है कि मै इस पेशे के लिए नही बना हूं मेरी मंजिल कुछ और है कभी लगता है कि अगर मै पत्रकारिता मे आ गया होता तो आज से बेहतर स्थिति मे होता मेरे बहुत से मित्र भी यही कहते है कि आप अच्छा लिखतें है काहे मास्टरी करतें है प्रिंट मीडिया मे क्यों नही आ जातें हो!और तस्वीर का दूसरा पहलू यह भी है कि मेरे एक मित्र जो एकाध साल में संपादक होते उनका पत्रकारिता से ऐसा मन भरा कि वें मान-सम्मान,रसूखदार लोगो मे ऊठ-बैठने का सुख छोड-छाड कर विश्वविद्यालय मे हिन्दी के मास्टर बन गयें है उनके अपने तर्क है पेशा बदलने के....।

अब आपको लग रहा होगा कि मै कितना विषयांतर कर देता हूं बात प्रेम से शुरु की थी और आ गया पेशेगत असंतुष्टि के स्तर पर...ऐसा नही है यह एक सतत बैचेनी है जो मै रोजाना महसूस करता हूं चूंकि मेरा विषय मनोविज्ञान है इसलिए मै इस बडप्पन मे नही जीना चाहता कि मै सर्वज्ञ हूं और लाईफ जीने का क्लीयर कट फंडा मुझे पता है,एक आम आदमी की तरह मै भी रोजाना खुद को ज़िन्दा करता हूं जिन्दगी का सामना करने के लिए और रात को उसी बैचेनी के साथ सोता हूं जो मेरी जीने की वज़ह बनती जा रही है...। ।इति सिद्दम।

डा.अजीत

Tuesday, September 28, 2010

यार मकन्दां-पार्ट टू

यार मकन्दां के नाम से मै एक पोस्ट पहले भी लिख चूका हूं जिस पर एक भी टिप्पणी रुपी प्रसाद नही मिला शायद लोगो को निजी किस्म की बातें ज्यादा पसंद नही आती मेरे एक मित्र का कहना भी है कि मेरी रचनाओं के साथ साधारणीकरण होना थोडा कठिन काम होता है मै ज्यादा व्यक्तिनिष्ठ हो कर लिखता हूं...खैर ! सबके अपने-अपने मत हैं अब मेरी शैली ही ऐसी है तो मै क्या कर सकता हूं ? और रही बात कमेंट्स की तो उसके लिए मै पहले से ही ज्यादा आशावादी नही हूं क्योंकि मुझे पता है ब्लागजगत मे बिना पारस्परिक स्तुतिगान के कुछ नही मिलता है...न प्रशंसा और न आलोचना।

यार मकन्दां को दोबारा से परिभाषित करने की जरुरत नही है जिन महानुभावों ने मेरी पहली पोस्ट पढी होंगी वे अच्छी तरह से जानते है कि अडी-भीड का यार मकन्दां का क्या अर्थ है यदि आप यह पोस्ट पहली बार पढ रहें है तो कृपया इसका पहला पार्ट जरुर पढ लीजिए आपको पता चल जाएगा कि यार मकन्दां किस बला का नाम हैं।

मैने अपनी उस पोस्ट के अंत मे जिक्र किया था कि यहाँ हरिद्वार मे भी मेरा एक अडी-भीड का यार मकन्दां है आज उनके ही बारें मे लिखने जा रहा हूं। जब तक मै गुरुकुल कांगडी विश्वविद्यालय,हरिद्वार मे शोध अध्येता रहा तब तक मै उनको न नाम से जानता था और न ही शक्ल से लेकिन दिसम्बर-2007 मे जैसे ही नौकरी करनी शुरु की तभी से उनसे परिचय हुआ तब भी एक सामान्य सा परिचय जिसमे ढेर सारी औपचारिकता और संकोच भरा हुआ था।

धीरे-धीरे यह परिचय निकटता मे तब्दील होता गया और कैसे हुआ यह मुझे खुद भी नही पता वो शायद देहात की पृष्टभूमि एक वजह हो सकती है या एक आंतरिक परिपक्व संवेदना थी जो हमे करीब ले आयी और आज हम अच्छे परिपक्व मित्र है।

विस्तार से लिखने से पहले इन मित्र का नाम आदि आपको पता दूं जो अब मेरे यार मकन्दां श्रेणी के मित्र है। डा.अनिल कुमार सैनी जी मेरी ही नाम राशि के है और हमारे विश्वविद्यालय मे राजनीति विज्ञान के असिस्टेंट प्रोफेसर है मेरी ही तरह तदर्थ बिरादरी से हैं।

अनिल जी अवस्था,अनुभव और परिपक्वता से मुझ से बहुत बडे है लेकिन मानवीय सम्बन्धों की समझ के मामले मे मै उनका कायल हूं इसे आप मेरा अपेक्षाबोध कह सकते है या मानवीय आशा भी आज तक लगभग चार वर्ष हो गयें हमारी मित्रता को लेकिन मैने जब कभी भी उनसे कुछ चाहा चाहे वो मानसिक सम्बल हो या आर्थिक सहयोग उन्होने एक बार भी मुझे नही निराश नही किया है,मेरे सन्दर्भ में जैसे ना कहना उनके शब्दकोश मे ही नही है। जबकि मै उनके आजतक एक भी काम नही आ सका लेकिन फिर भी उन्होनें निस्वार्थ मेरे साथ उन मुश्किल पलों मे खडे होकर न केवल मेरा साथ दिया बल्कि वो हौसला भी जिसके बल पर मै मुश्किल हालात से बाहर निकल पाया।

बहुत ही सम्वेदनशील और परिपक्व बन्दां है,पारस्परिक सम्मान कैसे दिया जाता है ये मैने उनसे सीखा है एक बार नही हजार बार ऐसा हुआ है कि मै संकट मे था जिसमे मेरे आर्थिक संकट भी शामिल है उन्होनें बिना मांगे मदद की मेरी समस्या जैसे उनको सब पता हो कभी कहने की जरुरत ही नही पडी।

मै आज भी वो सुबह याद कर सिहरन से भर उठता हूं जब मेरी दादी जी (जो मेरे जीवन की सबसे बडी प्रेरणा है) को हार्ट अटैक आया था और पिताजी जी का हडबडाहट मे मुझे फोन आया कि जल्दी चले आओं मैने उनको एम्स मे भर्ती करने की व्यवस्था की और चूंकि मै खुद नौकरी कर रहा था इसलिए मेरा नैतिक फर्ज बनता था कि मै भी इस मुश्किल की घडी मे कुछ आंशिक ही सही आर्थिक सहयोग के साथ एम्स जाउं लेकिन आप यकीन नही करेंगे मेरी जेब एकदम खाली थी ऐसे मे मै घबरा भी गया था लेकिन तभी मेरे मन मे अनिल जी से सहयोग मांगने का विचार आया और ये उनका बडप्पन ही था कि मात्र पांच मिनट के नोटिस पर उन्होने जो बन पडा वो मुझे दे दिया और साथ ही ढांडस भी बधाया कि आप फिक्र न करें अगर और पैसो की जरुरत होगी आप फोन कर देना व्यवस्था हो जाएगी। उस घटना के बाद मेरे पास उनके प्रति कृतज्ञता ज्ञापित करने के लिए शब्द नही बचे है उन्होनें मेरे सामने ही अपनी मकान मालकिन से किराये की राशि वापस ले ली जो कल ही उन्होंने दी थी और मेरे हाथ मे जितना धन वो उस समय एकत्रित कर सकते थे वो करके दे दिया वो सिर्फ पांच मिनट में।

इसी घटना के साथ एक मित्र और भी जुडे है जिनके प्रति भी आज मेरा कृतज्ञता ज्ञापित करना चाहता हूं मेरे गुरुभाई डा.ब्रिजेश उपाध्याय जी उनसे मैने उस दिन उनकी कार उधार मांगी सुबह-सुबह नींद मे ही उन्होने एक पल भी नही लगाया और कहा घर आ जाओं और कार ले जाओं।

डा.अनिल सैनी जी अब हरिद्वार मे मेरे वो यार मकन्दें है जिनके बल पर मै यह आश्वस्त रहता हूं कि यदि अचानक कोई संकट आ जाए तो वो मेरे साथ मेरे साथ बिना शर्त और बिना स्वार्थ के खडें रहेंगे। आज तक मैने उनके मुहं से मेरे किसी काम के लिए ना सुनी ही नही चाहे वह अचानक गैस सिलेंडर का खत्म हो जाना हो या और कोई सकंट...।जबकि मै उनके किसी काम का नही हूं और न ही आज तक उन्होनें मुझे कोई काम बताया है विश्वविद्यालय के आंतरिक मामलो मे मै अक्सर उनकी सलाह लेता हूं...।

अब वो स्थाई नौकरी के लिए प्रयासरत है और बाहर अन्य महाविद्यालयों और विश्वविद्यालयों मे प्रयास कर रहें है अपने विषय मे तो उनकी गज़ब की पकड है ही साथ अपने विषय के एक्सपर्ट के साथ भी उनकी मिलनसारिता के कारण निजी किस्म सम्बन्ध है...ईश्वर ने चाहा तो वें शीघ्र ही स्थाई रुप से नौकरी मे आ जाएंगे।

उनके हरिद्वार छोडने की कल्पना करके मेरा मन बैठ सा जाता है क्योंकि वैसे तो यहाँ पर परिचय की एक लम्बी कडी मौजूद है लेकिन डा.अनिल सैनी जी का विकल्प एक भी नही है इस शहर मे वें ही मेरे यार मकन्दें है।

ईश्वर उनको शीघ्र सफलता देते मेरी तो यही मनोकामना है लेकिन ऐसे बन्दे से बिछडने की कल्पना केवल मुझे चिंतित कर देती है बल्कि मेरे मित्रों के मामलों मे प्राय: तटस्थ और उदासीन रहने वाली मेरी पत्नि भी अक्सर यह सोच कर चिंतित हो जाती है ठीक मेरी तरह...

डा.अजीत

Monday, September 27, 2010

प्रशंसा

स्व.हरिशंकर परसाई जी एक व्यंग्य लिखा था निन्दा रस के बारे मे जो मैने अपनी आठंवी की पाठय पुस्तक मे पढा था उस समय उसका कोई अर्थ नही था जीवन मे न मास्टरी जी को पढाने मे मज़ा आ रहा था और न हमे पढने में, मुझे याद है स्व.श्री केशव राम शर्मा जी (हमारे हिन्दी के अध्यापक) ने इस पाठ से एक ईमला लिखवाई थी देहाती स्कूलों वाले ईमला का अर्थ खुब समझतें है जिन्होनें तख्ती पोती हो खडिया से और कोयले से लाईने खींची हो फिर यह मल्ल युद्द मे यह तख्ती हथियार का भी काम करती थी।

खैर...निन्दा रस पर लौटता हूं हिन्दी मे पहले आलोचना आयी फिर समालोचना और इसी परम्परा मे नकार के रुप हम निन्दा को देखते है लेकिन मेरा ऐसा मानना है कि जिसकी निन्दा की जा रही है चाहे वह व्यक्तिगत रुप से हो अथवा सार्वजनिक वह कितना हीरो टाईप का होता जिसके न होने पर भी उसका जिक्र कईं लोगो की वाग्मिता की परीक्षा के ले रहा होता है तर्क पे तर्क और फिर काम न चले तो कुतर्क का भी सहारा लिया जा सकता है।

निन्दा सुनकर पीडा जरुर होती है लेकिन आत्मविश्लेषण का अवसर भी मिलता है बशर्तें कि आप थोडा तार्किक हो कर सोच सकें जबकि प्रशंसा की गहराई मापने का कोई पैमाना आज तक नही बना पता ही नही चलता कि सामने वाले के मुखारविंद से जो प्रशंसा की चासनी मे लिपटे शब्द टपक रहें है उनके पीछे का मंतव्य क्या है यहाँ मुझे प्रसिद्द दार्शिनिक देकार्ते का सिद्दांत कि संदेह करो विश्वास नही थोडा-थोडा सा ठीक लगने लगता है।

आजकल मुझे भी यह संदेह करने की एक आदत सी हो गई है जो हमने अपने गुरुजी से स्वत: ग्रहण की है उन्होने कभी नही सिखाया कि संदेह करो लेकिन मन अब मानता नही है जल्दी से विश्वास नही होता किसी की बातों पर और खास कर जब कोई आपकी मुक्तकंठ से प्रशंसा कर रहा हो,ये मुक्तकंठी प्रशंसा अपेक्षा का बोझ लेकर आती है जिस पर मेरे जैसे अज्ञानी के पैर पसर जाते हैं।

एक बार ऐसा मेरे साथ हुआ भी है मेरे एक अज़ीज मित्र अपने बडे ओहदेदार मित्र से मेरा परिचय कराया उपमाओं,विशेषणों को सुनकर जितना अच्छा लग रहा था बाद मे मेरी उतनी ही बोलती बंद हो गई मै अपने आप को ही आईडेंटिफाई नही कर पा रहा था कि आखिर क्या वास्तव मे मै वही हूं जैसा मेरा परिचय कराया गया है बस इसके बाद तो मै उन महोदय की हर बात से सहमत और आत्मसमर्पण की मुद्रा मे आ गया जो मुझे बाद मे पता लगा कि मेरे अजीज़ दोस्त को मेरा ऐसा व्यवहार बिल्कुल अच्छा नही लगा वें मेरे लिए वहाँ संभावना के बीज बोना चाह रहे थे और एक मै बंजर जमीन का बीहड बन गया था।

सो भाई मेरे अपनी समझ मे आजतक न निन्दा आई और न प्रशंसा...अब आप इसे पढ कर मुझे गरिया जरुर सकते है फिर भी आपका स्वागत है...।

मेरे सच ने ही अकेला मुझे करके छोडा

रफ्ता-रफ्ता मेरा लोगो पे असर खत्म हुआ...।(वसीम बरेलवी)

डा.अजीत

बात बेबात

ज़िन्दगी एक नशा है जब हल्का-हल्का शुरुर चढने लगता है तो रगो मे रौनक आ ही जाती है मन थिरकता है उस सरगम पर जिसका अर्थ समझने की जरुरत ही नही बस एक अहसास है उसको महसूस करने की कला आनी चाहिए। ये कोई प्रखर आशावाद का भाषण नही है और न ही पाजिटिव थिंककिंग की अभिप्रेरणा...। अभी-अभी जिम से लौटा हूं मेरे विश्वविद्यालय के कई बालक अपने शरीर सौष्ठव के लिए उसी ज़िम मे जाते है जब आज ज़िम के मालिक ने मेरे बारें मे उनको बताया कि मै उनका गुरुजी हूं तो वे झेंप गये और यस सर वाले मोड मे आ गये मै अपनी हालत तो क्या बताऊं? फिर मैने ही मौहाल सामान्य करने का प्रयास किया उनको फिटनेस मंत्रा देकर हालांकि वे सभी बी.टेक.के छात्र है लेकिन फिर भी गुरुकुल मे गुरुडम पसरा ही रहता है बाहर भी...।

आज का दिन भी कुछ खास नही बीता बस यूं अपने आपको व्यस्त रखनें के बहाने ढूंडता रहा मेरी आदत ठीक दस बजे विश्वविद्यालय पहूंचने की है जब से यह मास्टरी की नौकरी शुरु की निजि ज़िन्दगी मे मै ऐसा कोई ज्यादा अनुशासन का पालन करने वाला नही हूं लेकिन प्रयास करता हूं कि धन और समय के मामले मे अनुशासित रहूं। आजकल जो हमारे विभागाध्यक्ष जी है उन्हें मेरी शक्ल और अक्ल थोडी कम ही पसंद है लेकिन वो भी मेरी इस बात के कायल है कि मैने कभी लेटलतीफी नही की....आज एक साथी प्राध्यापक जो हमारे दल से ताल्लुक रखते है वें दस बजे अपनी क्लास मे नही आएं तो इस पर विभागाध्यक्ष जी ने उपस्थिति पंजिका मे उनकी हाजिरी की जगह पर एल(लीव) का बडा सा गोल घेरा बना दिया जिससे विभाग मे थोडी देर हलचल सी मची रही हालांकि उन्होनें अपने को न्यायप्रिय सिद्द करने के चक्कर मे अपने खेमे के भी एक अध्यापक जो संयोग से दो दिन से अनुपस्थित चल रहें थे उनको भी एल का प्रसाद दिया है अब खबरिया चैनल की भाषा मे कहूं तो बहरहाल देखने वाली बात यह होगी कि कल दोनो की पेशी जब विभागाध्यक्ष के सामने होगी तो मुझे अपने दल के डाक्टर साहब के बचाव मे गवाही देनी पड सकती है।

ये हाल है विश्वविद्यालय के विभागों का जहाँ पर मेरे जैसे तदर्थ असिस्टेंट प्रोफेसर अपने वजूद की लडाई रोजाना यूं ही लडते है मै पिछले चार सालो से लगातार मनोविज्ञान पढा रहा हूं और मनोविज्ञान मे भी क्लीनिकल साईकोलाजी पढाता हूं अपने छात्रों मे ठीक-ठाक लोकप्रिय भी हूं जितना जानता हूं उतना उनको बताने की कोशिस करता हूं ताकि वें किताबो के मनोविज्ञान से निकल से ज़िन्दगी के मनोविज्ञान का सबक याद कर सकें।

वर्सलटाईल होना भी किसी गुनाह से कम नही होता अब मुझे ही देखिए कि मै पढाता मनोविज्ञान हूं लिखता कविता,गजल और ये बक्कडबाजी,पढता कुछ भी नही और रुचि पत्रकारिता मे है सुबह उठ कर जब तक मै अखबार मे खबरों की प्रस्तुति से लेकर शैली तक की समीक्षा न कर लूं तब तक मुझे चैन नही मिलता। फक्कडी और यायावरी मेरा शगल है कभी सिद्दो से मिलना चाहता हूं तो कभी मित्रों की कुंडली बांचने बैठ जाता हूं उनको ज्योतिष पर परामर्श देने लगता हूं सभी को कुछ न कुछ धारण(रत्नादि) कराना चाहता हूं ताकि उनकी जिन्दगी मे खुशहाली आएं...।

अब आप समझ गये होंगे कि मै कितना कंफ्यूज्ड किस्म का बकवासी इंसान हूं साथ मे एक पत्नि और बच्चा भी है उनका भी ख्याल रखना है अपनी प्रयोगधर्मिता के बीच मे वें बेचारे हर बार पीसते रहते हैं,पत्नि की चुप्पी और बच्चे का अपने आप ने खोए रहना कई बार मुझे हैरत मे डाल देता है कि आखिर मै कर क्यां रहा हूं। मेरी पत्नि को भी मेरी यह वर्सलटाईल किस्म की लाईफ कोई खास पसंद नही है बेचारी सोचती रहती है किसी सामान्य मास्टर से शादी की होती तो खुब चाट-पकौडी खातें और सिनेमा देखा जाता है(एक राज की बात यह है कि मेरी पत्नि ने अभी तक पिक्चर हाल मे कोई फिल्म नही देखी है), सच मे एक आम आदमी बन कर रहना कितना मुश्किल है, और मै न आम हूं और न खास बस ऐसा ही हूं मै....।

मुसाफिर तेरी नादानी पे रस्ता मुस्कुराता है

सफर होता है कितना और तू कितना बताता है।(वसीम बरेलवी)

डा.अजीत

Sunday, September 26, 2010

दर्द

अभी किशोर कुमार का एक गाना सुन रहा था कि जब दर्द नही सीने तब खाक मज़ा था जीने में...सच मे दर्द भी एक आंतरिक प्रेरणा है अपने करीब पहूंचने का एक ऐसा जरिया जिसे रुहानी कहा जा सकता है। आदरणीय हरिवंश राय बच्चन जी कविता है मै छिपाना जानता तो जग साधु समझता,बन गया शत्रु छल रहित व्यवहार मेरा...अब आप सोच रहें होंगे कि कभी किशोर कुमार के दर्द भरे नगमें मे प्रेरणा तलाश रहा तो कभी अपनी साफगौई की पीडा को जोड रहा हूं ,दरअसल मसला यह है कि पिछला एक महीने मेरे लिए भावनात्मक रुप से बहुत भारी था ज्योतिष की भाषा मे इसे राहू काल कहा जा सकता है। सारे रिश्तें नाते बिखर गये थे दोस्त सब छूट गये थें मन मे एक अजीब सी जुगुप्सा के भाव एकांतवास के,मौन के और अज्ञातवास मे जीने के....जीने की कोशिस भी की और जिया भी लेकिन अपने आपसे भागा नही जा सकता है यह एक ऐसी दौड है जिसमे जल्दी ही सम्वेदनशील व्यक्ति थक जाता है।

मै भी थक गया आत्म प्रवंचना से आत्म विश्लेषण सब किया मनोविश्लेषण भी किया कि कही ईगो की प्राब्लम तो नही है। नतीज़ा सिफर निकला जिन्दगी अपना रास्ता खुद तय करती है हम तो माध्यम मात्र है और रंगमंच की तरह अपने पात्र को जीने का अभिनय कर रहें है,मूल कुछ और है और आवरण कुछ् और...।

मेरा निजी अनुभव यही रहा कि पीडा मे सृजन खुब हुआ जब मै अन्दर टूट रहा था तो बाहर अभिव्यक्ति मे गज़ब की सम्वेदना निखर रही थी, अनिन्द्रा के रोग के कारण शामक दवाईयों के हल्के-हल्के शुरुर मे जो मन मे आया लिखा कविता,गज़ल या फिर अपनी पीडा सब कुछ उम्दा बन पडा और आज जब मैने पीछे मुडकर देखा तो दूनिया तो वैसे ही चल रही है जैसे चलनी थी मेरे अपने निजि तनाव,सम्बन्धों के परिभाषा और शायद समग्र रुप से अपेक्षा का टूटना मेरी बैचेनी की एक वजह था।

आजकल मै वो कर रहा हूं जो मैने कभी सोचा नही था...जागिंग क्योंकि भले ही मेरी काया ऐथेलेटिक किस्म है लेकिन मैने कभी अपनी फिटनैस पर ध्यान नही दिया है मसलन हेल्थ कांशेयस नही रहा हूं।

पहले मन से हांफ रहा था अब तन से हांफता हूं लेकिन एक फर्क समझ मे आया कि जाने क्यां ढूडें मन बावरा और गालिब का शेर हजारों ख्वाहिशे ऐसी कि हर ख्वाहिश पे दम निकले....का मतलब अब समझ मे आ गया है। एक मित्र अक्सर यह जुमला कह देते है कि वो देर से पहूंचा मगर वक्त पर पहूंचा... अब शायरी जीने की कोशिस करता हूं पढ तो बहुत ली है...।

अब आप भी मेरी इस बेवक्त की गालबजाई से बोर होने शुरु हो गये होंगे सो अभी आपसे विदा लेता हूं...शेष फिर कभी...!

मेरे प्रिय और आदरणीय शायर जनाब वसीम बरेलवी साहब का एक शेर याद आ गया है जाते-जाते सो आपको सुना देता हूं....शायद आपको मौजूं लगें।

मौजों से लडते तो रहे अब जीत लगे या हार लगे

कोई हमसे पूछ न लेना कैसे दरिया पार लगे..।

डा.अजीत

उधार

....वैसे तो वह मेरा गुरु भाई है मतलब मैने जिस गुरु जी के निर्देशन मे मनोविज्ञान मे पी.एच.डी. की उपाधि प्राप्त की है वह भी उन्ही के निर्देशन मे पी.एच.डी. कर रहा है लेकिन मुझे बडा भाई और गुरुपद के समान ही मान सम्मान देता है नाम है अमित शर्मा शोध प्रबन्ध जमा किया हुआ है जल्दी ही डाक्टर होने वाला है मेरी तरह से देहाती है लेकिन सपनें आसमान छूने के हैं काफी संघर्ष करके पढा है और सेल्फ मेड किस्म का भावुक लडका है,इसलिए मुझे प्रिय भी है छोटी आंखो मे बडे सपने देखने वाले दुस्साहसी लोग मुझे अच्छे लगते बशर्ते अपनी शर्तो पर जीतें हो..। अमित भी ऐसा ही है मुजफ्फरनगर के गांव से निकला है और इरादा मुबंई मे फिल्मजगत मे छाने का है उसी लगन,समर्पण और प्यास मुझे उसकी तारीफ करने को मजबूर कर रही है हालांकि अभी थोडा बचपना है लेकिन फिर भी हौसला बहुत है। उसकी हर दूसरी बात से फिल्मजगत का जिक्र बखुद निकल आता है एकाध देहाती फिल्में बना भी चूका है अब लम्बी रेस मे दौडने की तैयारी मे है, उसने अपनी आरकुट प्रोफाईल पर एक विचार के रुप कुछ पंक्तियां लिखी थी जो उसकी मौलिक नही है बकौल उसके उसने भिन्न-भिन्न पत्रिकाओं से सकंलित करके उनको एक विचार के रुप मे जोड दिया है। यह विचार मुझे भी बहुत अच्छा लगा और बेरंग ज़िन्दगी मे एक हल्का सा सतरंगी रेनबो बना जाता है सो बिना अमित से औपचारिक अनुमति लिए मै यह उधार का विचार यहाँ प्रकाशित कर रहा हूं...इस उम्मीद के साथ की आपको भी पसंद आयेगा...।

आई आई ऍम अहमदाबाद से पी.एच.डी. करने वाली नृत्यांगना मल्लिका साराभाई हो, या आई आई टी दिल्ली से स्नातक करने वाले उपन्यासकार चेतन भगत, इंजीनयरिंग ग्रेजुएट से गायक बने शंकर महादेवन हो, या पलाश सेन का डॉक्टर से गायक में तब्दील हो जाना, इतिहास से ऍम फिल करने वाले रोड्स स्कॉलर महमूद फारूकी का दास्तानगो बनना हो या फिर ट्विंकल खन्ना का अभिनेत्री से इंटीरिअर डेकोरेटर बन जाना, इंजीनिअर रघु रॉय का फोटोग्राफर बनना, या क्लासिकल डांसर से मिताली राज का क्रिकेटर बनना या फिर इंटरनेशनल अफेयर से पी.एच.डी. करने वाले दिलीप कपूर की लग्जरी बैग का बिजनेस शुरू करने की कहानी हो, ये सब एक ही बात की ओर इशारा करते हैं कि आज ये लोग जिस मुकाम पर हैं उसमे उनकी डिग्री से ज्यादा उनकी रूचि ने भूमिका अदा की. आपका अपना फैसला ही तय करेगा कि आप अपने आपको किस मुकाम पर देखना चाहते हैं..... आप खास आदमी बनना चाहते हैं या फिर आम आदमी, दुनिया के 95% लोगो में शामिल होना चाहते हैं या 5% में ?”

डा.अजीत

Saturday, September 25, 2010

यार मकन्दां

पश्चिमी उत्तर प्रदेश के देहात मे एक कहावत बडी प्रचलित है पता नही देश के अन्य देहात के हिस्सों मे यह कही-सुनी जाती है या नही कहावत यूं है अडी-भीड का यार मकन्दा मतलब समझा देता हूं जीवन मे ऐसा शख्स जो बुरे वक्त मे आपके साथ खडा रहे उसे आपकी सफलता-असफलता से कोई खास फर्क नही पडता हो, आप सबके जीवन मे भी ऐसे यार मकन्दें होंगे जाहिर सी बात है कि दोस्त तो हर कोई बनाता ही है लेकिन बुरे वक्त मे जो साथ खडा रहता वो भी बिना शर्त के वास्तव मे वही अपना यार मकन्दा होता है। वसीम बरेलवी साहब ने फरमाया भी है, शर्ते लगाई नही जाती दोस्ती के साथ कीजिए मुझे कबूल मेरी हर कमी के साथ,किस काम की रही ये दिखावे की ज़िन्दगी वादे किये किसी से गुजारी किसी के साथ...। शेर का ख्याल दिल को छू जाता है। दोस्ती दूनिया का सबसे विवादास्पद विषय है क्योंकि इसके कोई एक मानक तय नही किए जा सकते है ऐसा मेरा मानना है एक मौलिक सम्वेदना होती है जो दो अजनबी दिलों को करीब ले आती है और दोस्ती के बन्धन मे बांध देती है।

...फिर से यार मकन्दें पर लौटता हूं क्योंकि ऐसे यार ही वास्तव मे जीने की वजह बन जाते है वरना दूनियादारी मे सम्बन्धों को सम्वेदना के साथ सहज़ कर रखना सभी के बस की बात नही है। मेरा भी एक यार मकन्दा है जो मेरे गांव मे रहता है दसवीं से लेकर बी.ए. तक हम लंगोटिए किस्म के यार रहें है आज उसकी याद आयी कमी महसूस हुई तो उसका जिक्र इस डायरी मे ले आया हूं। ऐसा निस्वार्थ बन्दा मैने आजतक नही देखा आज वो गांव मे अपना एक प्राईमरी स्कूल चलाता है और मै विश्वविद्यालय मे मास्टरी कर रहा हूं कितना फर्क है दोनो के अध्यापन मे लेकिन दिल ऐसा लगता है कि आज भी एक ही है। एक रोचक बात आपको बता दूं कि मेरी काया कुछ दैत्याकार किस्म की है मसलन छ फीट दो इंच और मेरे दोस्त देवेन्द्र की लम्बाई पांच प्लस होगी कभी फीता लेकर तो नापा नही जब हम दोनो साथ-साथ पढने जाते थे लोग उस पर खुब व्यंग्यबाण और तंज कसा करते थे कि कहाँ ऊँट के साथ घूम रहा है,लेकिन मैने कभी उसके चेहरे पर शिकन नही देखी वो सब बातों को ऐसे नज़रअन्दाज़ कर जाता था जैसे उसे कोई फर्क ही न पडता हो इन सब दूनियादारी के पैमानों से...। मैने कभी उसमे ईगो नही देखा जैसा मैने निर्णय लिया उसी मे उसकी भी सहमति रहती थी। एक भी किस्सा मुझे ऐसा याद नही है जब उसने प्रतिरोध किया हो और ऐसा नही कि मै उस पर अपने विचार,सोच थोपता था बस एक सहज़ स्वीकृति थी उसके मन मे मेरे प्रति जो आजतक वैसी ही बनी हुई है जैसी कभी दसवीं मे हुआ करती थी जब हम साथ पास के कस्बें मे पढने के लिए कमरा लेकर रहते थे।

सर्दियों मे हमारा साप्ताहिक स्नान होता था मतलब हफ्ते में एक ही दिन रविवार को नहाने का आयोजन होता था और हमारी सामूहिकता और आपसी मौन समझ ऐसी बनी हुई थी कि उसके नहाने के लिए नीचे नल से पानी की बाल्टी मै भर कर लाता था और मेरे लिए वो...कितना सुख था और अपनापन भी यह सब करने में,रात मे पढतें समय चाय हमेशा वही बनाता था और बर्तन हम मिल-कर मांजते थे।

सच मे ऐसा यार मकन्दा मिलना अब मुश्किल ही है अब बहुत से बौद्दिक चवर्णा करने वाले,दूनियादारी का सबक सिखाने वाले मित्र तो बने या भावुक मन से कुछ से जुडाव हुआ लेकिन देवेन्द्र की तुलना मै किसी से भी नही कर पाता हूं।

हमारी दोस्ती की गहराई इस बात से पता चलती है कि मुझे बी.ए.के समय हम परीक्षा दिनों कमरा किरायें पर ले लेते थे और उस कमरे मे शौचालय की व्यवस्था नही होती थी खुले मे जंगल मे शौच के लिए जाना पडता था तथा मेरी आदत शौच मे निवृति के लिए समय लेने थी कब्ज़ की शिकायत नही थी बस समय लेता था जबकि देवेन्द्र की निवृति तुरन्त हो जाती थी लेकिन मेरे कहने पर वो मेरे साथ ही उठता था जंगल से ताकि मै ठीक से निवृत हो सकूं...।

एम.ए. करने मै हरिद्वार आ गया और वो वही गांव मे छूट गया उसके पिताजी ने बाहर रहकर पढाने मे अपनी आर्थिक असमर्थता जाहिर कर दी और इस तरह से मेरी अडी-भीड का यार मकन्दा गांव मे छूट गया। आज मैने भले ही उससे बडी डिग्री,पद,ओहदा हासिल कर लिया हो लेकिन आज भी जब उसके बिना शर्त के समर्पण के बारे मे सोचता हूं तो मन भारी हो जाता और शहरी रिश्तों से एक खास किस्म चिढ भी...। उसके समर्पण के सामने मै आज भी बौना हूं और विडम्बना की बात तो यह है कि अब मै अपनी आपा-धापी और ओढी हुई ज़िन्दगी में इतना मशरुफ हो गया हूं कि अब तो गांव जाता हूं तब भी उससे मिलना बमुश्किल ही हो पाता और वो अब भी कभी-कभी दोस्ती के एसएमएस फारवर्ड कर देता है जिनका मेरे पास कोई जवाब नही होता है....।
अभी इतना ही शेष फिर...
हरिद्वार मे भी अपना एक अडी-भीड का यार मकन्दा मिला है उसका जिक्र अगली पोस्ट मे करुंगा बाकि तो सब दूनियादारी के लोग ही मिले अब तक...।
डा.अजीत

आवारागर्दी

खुद को आवारा कहने का जो सुख है उसे शब्दों से बखान नही किया जा सकता हैं। एक उम्र थी जब घर वाले सोचते थे कि बेटा आवारा न हो जाए सो इसे कुसंग से बचाया जाए,एक आज है जो मै खुद को आवारा घोषित करते हुए बडा फख्र महसूस कर रहा हूँ। इंटरनेट की आभासी दूनिया मे मै पिछले तीन सालो से ब्लाग लेखन कर रहा हूँ,पहला ब्लाग कविता,गज़ल का लिखना शुरु किया था फिर उसके बाद अपनी फक्कडी के किस्से सुनाने के लिए खानाबदोश लिखना शुरु किया और उसके बाद परामनोविज्ञान और परलोकवाद पर आधारित ब्लाग परामनोविज्ञान का जन्म हुआ। पूर्णरुपेण मुक्ताकाशी लेखन करने के बाद भी मे मेरे अग्रज ब्लागर बन्धुओं की टिप्पणियों के मामले मे निर्धन ही रहा हूं। किसी भी ब्लाग पर एक दर्जन से ज्यादा कमेंट्स कभी नही मिले उसी एक वजह यह भी रही है कि ब्लागजगत के टिप्पणी आदान-प्रदान परम्परा के मामले मे मै थोडा प्रमादी और ढीठ किस्म का हूँ। इसलिए आवारा की डायरी से भी मुझे कुछ ज्यादा उम्मीद नही है लेकिन बस लोग पढते रहें ये ही काफी मेरे लिए जो टिप्पणी रुपी प्रसाद देना चाहे उसका स्वागत है।

दरअसल,मेरे कुछ अज़ीज दोस्तो को मुझ से यह शिकायत है कि मै सम्बन्धो का भावनात्मक मुजरा ब्लाग पर पेश करता हूँ मतलब निजी बातें लिखता हूं जबकि ब्लाग का विषय अलग है, सो मैने अब फैसला किया है कि एक ब्लाग अलग से इसी काम के लिए लिखा जाएगा जिसमे मेरी निजता के किस्से होंगे,बद से बदनाम बुरे वाली बात है।

मेरा उद्देश्य किसी का अपमान,निजता का हनन कतई नही है और न ही किसी व्यक्ति विशेष से कोई खुन्नस है जो मै उमराव जान अदा बन कर लखनवी अंदाज मे मुजरा करुं।

ये ब्लाग मेरी खुली डायरी है इसमे निजी जैसा कुछ भी नही है मेरी रोजमर्रा की जिन्दगी मे जो मेरे अहसास होंगे वे इस पर बेखौफ लिखे जाएंगे ये अलग बात है कि वो अहसास सुखद हो सकते है और कडवे भी...।

जनाब वसीम बरेलवी के इस शेर के साथ आगाज़ करता हूं...

मेरे शेरों को तेरी दुनिया में

मेरे दिल का गुबार लाया है

मेरे शेरों को गौर से मत सुन

उनमें तेरा भी ज़िक्र आया है...।

अभी इतना ही शेष फिर....

डा.अजीत