Sunday, November 24, 2013

डायरी नोटस


डायरी नोट्स

(जो कागज़ की बजाए मन पर ही लिखे रह गए...)

यह कोई संघर्ष कथा या पटकथा जैसी नही है न ही यह वंचित भाव से उपजे असंतोष की मानस गाथा है बल्कि अपने आप में यह एक विचित्र किस्म का प्रलाप है जो सम्पन्नता की दहलीज़ से रिसता हुआ विडम्बनाओं के गलियारें तक आ पहूंचा है।कथ्य के लिहाज़ से यह अपवाद का गल्प है जिसमे मेरी असफलतों के शिल्प से  सम्भावनाओं के षडयंत्रों और विकल्पों के रोजगार की कराह  छिपी हुई है। अभी तक यही स्थापित मान्यता रही है कि अभाव व्यक्ति के लिए संघर्ष की इबारत लिखता है लेकिन क्या कभी आपने सोचा कि कई बार सम्पन्नता भी आपके वजूद के खिलाफ खडी हो सकती है जहाँ आपको हमेशा दोहरी लडाई लडने के लिए तैयार रहना पडता हो एक अपने वर्ग के अन्दर और दूसरी बाहर की दूनिया से जिसकी नजरों में आपके लिए कुछ भी अपरिहार्य न रहा हो। अपनी स्मृतिबोध के साथ ऐसी लडाई लडता गिरता सम्भलता और लडखडाता मै यहाँ तक आ पहूंचा हूँ। इस कहानी में मेरी उदासी के किस्से है इस कहानी में एक बिखरे वजूद के बनने बिगडने की अनकही दास्तान है और शायद मेरे ऐसे होने की वजह भी जिस पर कम ही लोगो को यकीन आएगा।
अपने वय से आगे जिन्दगी जीने का चयन कभी किसी का नही होता है वक्त के हसीन मजाक के लिहाज़ से जब आपके पैरो मे जिम्मेदारी की जंजीर पडी होती है तब आपकी परिधि इतनी सीमित हो जाती है कि आप अपने ही जीवनवृत्त की त्रिज्या तक नही नाप पाते है ऐसे में किस्सागो दोस्तों की महफिल मे आप केवल श्रोता भर हो सकते है या फिर आपकी उपयोगिता सहमति तक ही सिमट आती है। कई बार बडी शिद्दत से सोचता हूँ कि ये अतिसम्वेदनशीलता या भावुकता कहाँ से उपजती है खुद की ही पडताल करने पर पाता हूँ इसकी जड दरअसल भावनात्मक अपवंचन ही है जब आप त्रासदी के नायक बन अपने आसपास बेहद कमजोर लोगो को पाते है जिनके पास खोखली सांत्वना भी नही होती है दरअसल वो परिवेशीय कुंठा और अपनी निजि असफलता से उपजी खीज़ मिटाने के लिए आपके मन के कोमल पक्ष की परवाह किए बिना चोट पर चोट किए जाते है और आप अपनी आसपास के करीबी लोगो की ऐसी खुदमुख्तयारी का शिकवा जीवनपर्यंत किसी से नही कर पाते है यह एक ऐसा बोझ है जिसको अपने साथ जीने-मरने के क्रम में हर हाल में ढोना पडता है।
यह एक ऐसी मनोदशा की मूल ग्रंथि के अकुंरित होने की कहानी है जिसमें शाम अक्सर बोझिल हो जाया करती है जहाँ मन से उत्सवधर्मिता का स्थाई विलोपन हो जाता है जहाँ मन और चेतना की यात्रा अवसाद और समझ के बीच उलझ कर रह जाती है जहाँ आप कई बार सामान्य से भी कई गुना अधिक सामान्य तथा कई बार कई गुना असामान्य प्रदर्शन करते पायें जातें हैं। मन के निर्वात में घुटते मानवीय सम्बंधो के धुंधले रेखाचित्र किस हद तक आपको विचलित कर सकते है इसका अनुमान भी लगाना कठिन काम है। अन्यथा ली जाने वाली बातों के प्रति समझ का प्रकटीकरण और बेहद सामान्य चुस्त जुमलेबाजी में भी गहरा व्यंग्य सूंघने की घ्राण शक्ति को कभी वरदान तो कभी अभिशाप समझना आपके लिए किसी गहरी पहेली से कम नही है।
मन के समानांतर कई स्तरों पर जिन्दगी को युक्तियों के सहारे जीने की कला विकसित करना सहज़ चुनाव का मसला नही है बल्कि  अपने अस्तित्व की मूल प्रकृति और बाह्य जगत की अपेक्षाओं के मध्य समन्वय में खर्च होती मानसिक ऊर्जा के क्षरण का क्षोभ वास्तव में कई बार ब्राह्मांड की अनंत गहराई से बडा प्रतीत होने लगता है।
यह बेहोशी की हालत में बडबडाने जैसा है जिसमे आप मन के आंतरिक बंधनों से मुक्त हो लोक में अपने मानसिक द्वन्द आरोपित करना चाहते है ताकि आप आंतरिक शांति महसूस कर सके लेकिन शांति की कीमत सकार और नकार की लौकिक परिभाषाओं से परे चुकाने की नियति एक खास किस्म की जिद आपके अन्दर पैदा कर देती है जहाँ अपनेपन को तलाशती आंखे सलाह से इसलिए बचने लगती है क्योंकि उसमे नसीहत की बू आती है।
यात्रा अकेले तय करनी है यह प्रज्ञा हमेशा कहती है लेकिन अपेक्षाओं और भावनाओं के वृहदजाल मे उलझा मन हमेशा साथ चाहता है और जिस साथ के आभासी होने की पूरी सम्भावना है उसी को साथ बनाये रखने का लोभ आपको तरह तरह पेश होने के लिए बाध्य करता है अंतोत्गत्वा अकेलेपन की सामाजिक नियति को स्वीकार करने के मानसिक बल को सुरक्षित करता हुआ उस दिशा में आगे निकल जाता है जहाँ कभी कुछ हमसफर बन रहबर साथ चले होते है वह पीछे मुडकर बार बार देखता है लेकिन दूरतलक भी कोई छाया नजर नही आती है लेकिन यात्रा नही रुकती है और हिज्र की ऐसी लम्बी यात्रा मै करके अब यहाँ आ गया हूँ थोडा सुस्ता रहा हूँ खुद को टटोल रहा हूँ ताकि मन की बैलेंसशीट में अटके दोस्तों को अपने दृष्टिबंधन से मुक्त कर आगे की यात्रा की तैयारी कर सकूँ लेकिन बेहद मुश्किल काम है बेहद ही मुश्किल....।

Tuesday, November 19, 2013

अस्पताल: बैचेनी,अवसाद,आशंकाओं की ओवरडोज़



 लगभग एक सप्ताह अस्पताल मे बिताने के बाद आज अपने अकादमिक काम पर लौटा हूँ और पिछला एक सप्ताह मेरे लिए कितना भारी रहा उसकी व्याख्या करना मुश्किल काम है अपने प्रियजन को जीवन-मृत्यु के बीच झूलते देखना और फिर सम्भावनाओं और आशंकाओं के खेल मे खुद को फंसा देखना बेहद अजीब किस्म का अहसास है।
पंचकूला (हरियाणा) के एक अभिजात्य किस्म के अस्पताल की सुविधासम्पन्नता और बेहतरीन वास्तु भी मन को शांति नही दे पा रही थी दीवारों में म्यूट टंगे लम्बे-चौडे एलसीडी उतने ही बोझिल और नीरस थे जितने उस पर चलते क्रिकेट मैच या न्यूज़। अस्पताल में प्रार्थना ही एक मात्र सम्बल थी जो आस्तिकता/नास्तिकता से परे आपको इतनी दिलासा देती है कि आपके साथ कुछ बुरा नही होगा और इस दुखद घटनाक्रम का अंत सुखद होगा।
अस्पताल का मनोविज्ञान बेहद अजीब और दिलचस्प किस्म का है उदासी और चिंताओं मे सने चेहरे देखकर खुद पर से यकीन उठने लगता है डॉ की एक पॉजिटिव बात जहाँ राहत देती है वहीं एक मेडिकल जांच की छोटी से बढी हुई ईकाई भी निर्मूल आशंकाओं का पहाड खडा कर देती है। महंगे अस्पतालों में मौटे तौर पर दो किस्म के रोगी/परिचारक दिखते है एक हमारे जैसे जो छोटे मेडिकल सेंटर से रेफर होकर आएं है जिनके लिए यह अस्पताल किसी देवालय से कम नही है दूसरे समाज़ के ‘समझदार’ तबके के लोग समझदार इसलिए क्योंकि उन्होने पहले ही अपना कैशलैस मेडिक्लेम बीमा करवाया होता है इसलिए उनके लिए मुद्रा प्रबंधन कोई मुद्दा नही होता है वह आश्वस्त हुए अपने मरीज़ के आरोग्य के लिए लगे रहते है।
हमारे जैसे गांव-देहात किसान पृष्टभूमि के लोगो के लिए अकास्मिक बीमारी के लिए कोई बजटीय प्रावधान नही होता है और आकस्मिक बीमारी हमारे लिए एक बडे आर्थिक सकंट की भी द्योतक होती है। हमारे जैसे लोगो का दिमाग दोहरे रुप से प्रताडित रहता है एक तो अपने मरीज़ के स्वास्थ्य को लेकर और दूसरा ज्यों-ज्यों से जेब से कैश कम होता है हमारी चिताएं मुद्रा प्रबंधन पर भी केन्द्रित होती चली जाती है और समानांतर रुप से दोनो मोर्चो पर लडते हुए हम चाहते है जितनी जल्दी हो सके हमे इस त्रासदी से मुक्ति मिले।
इस बार की दादी जी की बीमारी के बाद पहली बार अहसास हुआ कि हमारे लिए मेडिक्लेम पॉलिसी का क्या महत्व हो सकता है यदि यह पॉलिसी है तो फिर हम अपने मरीज़ के सम्पूर्ण आरोग्य के लिए कम से कम आर्थिक रुप से प्रभावित हुए बिना उसको बेहतर मेडिकल सुविधाएं उपलब्ध करा सकते है। यह बात भी मुझे पहली बार ही पता चली कि सुपर स्पेशिलेटी अस्पताल मेडिक्लेम पॉलिसी धारकों को ज्यादा पसन्द करते है क्योंकि इससे उनकी अच्छी खासी कमाई हो जाती है।
अस्पताल आखिर अस्पताल ही है भले ही वह फाईव स्टार होटल की माफिक दिखता हो उसकी भव्यता आपको सुविधा के लिहाज़ से क्षणिक आश्वस्त कर सकती है लेकिन दिल को असली तसल्ली डॉ की पॉजिटिव कमेंट के बाद ही मिल पाती है। पिछले एक सप्ताह जो तनाव भोगा उसकी चर्चा नही कर रहा हूँ लेकिन दिन भर की अस्पताल की भागदौड और रात में मुझे दादी जी के अटेंडेंट के रुप में उनके साथ रुकने की स्थिति नें बेहद थका दिया था एक अरसे के बाद मैने शारीरिक और मानसिक थकान से उपजी नींद के दबाव को महसूस किया पहली बार खुली आंखो सोने की कोशिस की भावनात्मक रुप से मेरे लिए यह बेहद मुश्किल दौर था क्योंकि जिस महिला नें आपका मल-मूत्र साफ किया हो यदि आपको वही काम उसका करना पडे तो एक पूरा कालचक्र आंखो के सामने घूम जाता है जिसका होना भर आपका मनोबल बढायें रखता हो उसको आपको समझाना पडे कि सब ठीक हो जाएगा मै समझता सबसे मुश्किल काम है। मेरी तमाम मनोविज्ञान की पढाई तब-तब मुझे बौनी लगने लगती थी जब-जब मेरी दादी जी घोषणा करने लगती कि अब चलने का समय आ गया है। मृत्यु शाश्वत सत्य है सबको आनी है इसको क्षणिक स्थगित किया जा सकता है लेकिन स्थाई रुप से टाला नही जा सकता है लेकिन इसके बावजूद भी अपने प्रियजन को खोने का भय वास्तव मे इतना बडा होता है कि हम नही चाहते कि हम इसके स्वीकार्यता भाव के साथ जीने का अभ्यास विकसित कर सकें शायद यही जीवन का वह अनुराग है या आसक्ति है जिसे मोह-माया बंधन कहा गया है।
बहरहाल, अब जब सब कुछ सही होने की दिशा मे आगे बढ रहा है दादी जी घर पर आ गई है लेकिन फिर भी मन मे पिछले एक सप्ताह का चलचित्र लम्बे समय तक खुद ब खुद रिवाईंड होकर चलता रहेगा।

Monday, November 11, 2013

मेरे मित्र-2.... डॉ सुशील उपाध्याय


अपने गांव के बौद्धिक मित्र से जीवन की पहली नसीहत मिली थी जो उस वक्त थोडी अजीब लगी थी लेकिन बाद में वो एक नजीर के जैसी लगने लगी वो सलाह देने वाले मे शख्स थे मेरे मित्र डॉ सुशील उपाध्याय। उन दिनों मुझे पढने का चस्का लगा हुआ था इसलिए किताबों की तलाश रहती थी मै आठवीं में पढता था उसी चस्के में डॉ.सुशील उपाध्याय जी से किताब मांग बैठा तब उन्होने किताब तो दी लेकिन साथ ही एक सलाह भी दी कि ‘ किताबें इंसान को मांग कर नही खरीदकर पढनी चाहिए तभी वह उनका मूल्य समझ पाता है’ उनकी इस नसीहत में छिपा हुआ सन्देश यह भी था मै किताबों को पढने के बाद सुरक्षित वापिस कर दूँ। आज जब अपने पुस्तक संग्रह में से दर्जनों किताबें गायब पाता हूँ तो याद करने की कोशिस करता हूँ कौन कौन सी किताब किस मित्र/परिचित को पढने के लिए दी थी लेकिन आज तक वापिस नही आयी तब मुझे सुशील जी की नसीहत दीगर लगने लगती है।
डॉ.सुशील उपाध्याय मुझसे उम्र मे दस साल बडे है और गांव के रिश्ते-नातें के लिहाज़ से मै उनका चाचा लगता हूँ लेकिन उनसे मेरे रिश्तें सदैव ही मित्रवत रहें है सुशील जी मेरे जीवन के उन लोगो मे शुमार है जिन्होने मुझे बीज रुप मे देखा है मुझे याद आता है कि जब सुशील जी हरिद्वार के गुरुकुल कांगडी विश्वविद्यालय से एम.ए. (हिन्दी) और पीजी डिप्लोमा पत्रकारिता में दोनो में स्वर्ण पदक प्राप्त करके गांव पहूंचे थे जो मेरे मन में उनके प्रति ठीक वही भाव थे जैसे देश का खिलाडी कॉमनवेल्थ खेलों में गोल्ड मैडल जीत कर आता है हालांकि उस समय समझ के लिहाज़ से मै उतना विकसित नही था कि अकादमिक स्वर्ण पदक के महत्व को समझ सकूँ लेकिन फिर भी ‘ स्वर्ण’ शब्द का व्यामोह ही उपलब्धि से जुडा हुआ देखकर मेरे लिए सुशील जी प्रेरणा के स्रोत लगने लगे थे।
उन दिनों मेरे पास एटलस की बीस इंची साईकल हुआ करती थी मै उस पर सवार होकर सुशील जी के घर पहूंच जाता था और उनसे पत्र-पत्रिकाओं में छपने के गुर सीखने की कोशिस करता था हालांकि उस दौर मे सुशील जी के भी संघर्ष के दिन थे वो अमर उजाला मे प्रशिक्षु पत्रकार के रुप मे काम कर रहे थे उनके पास एक ब्लैक एंड व्हाईट कैमरा हुआ करता था जिसको लेकर वो प्रतिदिन पास के कस्बे थानाभवन में रिपोर्टिंग के लिए चले जाते थे।
मै अपनी स्मृतियों को टटोलता हूँ तो मुझे गांव मे सुशील जी लकडी की काले पेंट मे पुती कुर्सी, एक हार्डबोर्ड का पैड और अखबार की तरफ से मिलने वाला पीलिमा युक्त कागज याद आता है वो पीला अखबारी कागज मेरे जैसे नौसिखिए के लिए किसी  भोजपत्र से कम नही हुआ करता था उसके छूने भर का अहसास बडा होता था।  मै सुशील जी के घर जिज्ञासु और साधक भाव से जाता था कई बार ऐसा होता था कि सुशील जी दिल्ली प्रेस समूह की पत्रिकाओं के लिए लेख लिख रहे थे मै चुपचाप उनके पास चारपाई पर बैठा रहता था एकाध घंटे बीतने के बाद या लेख समाप्त होने के बाद सुशील जी मुझसे बतियाते थे उस वक्त उनके मुख से निकला एक एक शब्द मेरे ब्रहम वाक्य से कम नही होता था। जीवन मे बहुत कुछ मैने उनसे सीखा और आज भी सीखता रहता हूँ। सुशील जी उस समय एक सवाल लगभग मुझसे रोज ही पूछते थे कि आप मेरे यहाँ अपने घर बता कर आते है या नही उन्हे ऐसा लगता था कि कहीं मै उनके यहाँ घंटो बैठा रहता हूँ और उधर मेरे घर वाले मुझे ढूंड रहे होते हो।
वैचारिक पृष्टभूमि के लिहाज़ से हम दोनों मे कोई साम्य नही था सुशील जी का झुकाव वामपंथ की तरफ था और मेरी उस समय कोई विचारधारा ही नही थी  लेकिन मेरे अन्दर की जिज्ञासु प्रवृत्ति ने सुशील जी के सामंती पृष्टभूमि के प्रति सामाजिक आक्रोश को थोडा शांत अवश्य कर दिया था उन्होने मुझे एक स्वतंत्र चेतना के रुप मे हालांकि बाद मे स्वीकार किया लेकिन उनकी आत्मीयता ने मुझे सदैव आप्लावित किया है।
एक वंचित पृष्टभूमि से निकल अपनी अपनी बौद्धिक क्षमता के बल पर सुशील जी ख्याति प्राप्त की है फिलहाल वो विश्वविद्यालय में असि.प्रोफेसर है लेकिन इससे पहले अमर उजाला,हिन्दूस्तान जैसे बडे अखबारों में चीफ रिपोर्टर के रुप में कार्य कर चुके थे हालांकि आज भी मेरी नजर वो पहले पत्रकार है बाद में असि.प्रोफेसर। मैने जीवन मे कभी सक्रिय पत्रकारिता नही की लेकिन एक पाठक के रुप में जो मेरी समझ अखबारी दूनिया के बारें में है उसके आधार पर मै दावे से कह सकता हूँ सुशील जी ने जब तक अमर उजाला,हिन्दूस्तान मे काम किया तब तक उनकी कवर की गई खबरों में ‘एक्सक्लूसिवनैस’ के अलावा तथ्यात्मक पुष्टता भी होती थी एक पाठक के रुप उच्च शिक्षा की स्पेशल स्टोरीज़ को मै आज तक दोनो ही अखबारों में आज भी मै मिस्स करता हूँ उनके जाने के बाद उनकी कमी आज भी खलती है।
हमारी उम्र मे दस साल का मोटा अंतर होने के बावजूद भी हमारे बीच मे एक खास किस्म का चेतना और सम्वेदना का रिश्ता बना हुआ है मै जब भी दूनियादारी के झगडो मे उलझ जाता हूँ या कुछ ऐसे मानसिक सवाल जो मुझे निजी स्तर पर परेशान करने लगते है तब शहर मे उन्हे शेयर करने के लिए मेरे जेहन में जो पहला नाम आता है वह डॉ.सुशील उपाध्याय ही है। हालांकि सुशील जी बाह्य रुप से कई बार रुखे या ईमोशनली ड्राई प्रतीत हो सकते है या प्रशंसा करने के मामलें मे कंजूस भी लेकिन उनके पास अनुभव की थाती है साथ ही समचेतना भी जो हमें सवेंदना के एक ऐसे रिश्ते में बांधे रखती है जिसकी जड कई साल पहले हमारे गांव में जम गई थी आज हमारी मित्रता का वटवृक्ष उसी का परिणाम है जिसकी छांव में हम दोनो बारी बारी से सुस्ताते रहते है।  

( और भी बहुत से संस्मरण है लेकिन आज इतना ही शेष फिर....)

Sunday, November 10, 2013

मेरे मित्र..... सुनील सत्यम


एक सामंती जमीदार परिवार में जन्म फिर खांटी दबंगई और मदिरा के तांडव और उसके प्रभावों की सामाजिक आंच में तपता हुआ बचपन जीते हुए मै कब लेखन की तरफ मुड गया इसकी मुझे पुख्ता वजह अभी भी याद नही है हाँ शायद मन के अन्दर संवेदनशीलता के बीज प्रारब्ध से ही मिले थे इसलिए हमेशा अपने वय से आगे की जिन्दगी जीता रहा आज भी जी रहा हूँ आज भी सभी मित्र वय में मुझसे बडे है।
बचपन बाहर से जितना अशांत किस्म का रहा है अन्दर से मै उतना ही विलग और एकाकी होता चला जब अनुकूल माहौल न मिला तो अपने एकांत को अपनी दूनिया बना लिया और मेरे एकांत की जडता तोडने तथा मन मे उपजे अपरिपक्व रचनात्मक कौतुहल को आश्रय देने वाले मेरे पहले मित्र बने आज के पीसीएस अधिकारी और मेरे बचपन के मित्र सुनील सत्यम।
ये उन दिनों की बात है जब मै कक्षा सात में पढता था सुनील सत्यम मुझसे पांच साल बडे है वो उस साल इंटरमीडिएट में थे मेरे एक खेल सखा अमनीष कौशिक ने मुझे बताया कि सुनील जी ( संघ परम्परा के होने की वजह से नाम के बाद जी लगना आदत थी) के पास कॉमिक्स का अकूत भंडार है बस मेरा कॉमिक्स पढने का लोभ ही मुझे सुनील सत्यम के दर तक ले गया। सुनील सत्यम के पास अपनी पुस्तकों का ठीक ठाक निजि संग्रह था उन्होने एक वीर सावरकर सांस्कृतिक पुस्ताकालय भी बनाया हुआ था उनसे मैने पहले चाचा चौधरी, बिल्लू,नागराज़ ये सब कॉमिक्स पढे उसके बाद मुझे उनके सत्संग का चस्का लग गया वो उन दिनों बीमार थे और बैड रेस्ट पर थे सुनील सत्यम को पहली बार डंकल प्रस्ताव के विरोध मनमोहन सिंह का हाथ में कटोरा लिए (आर्थिक उदारीकरण) कार्टून बनाते देखा बस तभी उनकी रचनात्मकता को मन ही मन आदर्श मान लिया और खुद को उनका प्रशिक्षु आज मै जो भी कुछ लिख लेता हूँ जिसकी आप सब तारीफ कर देते है उस लेखकीय वृत्ति के पीछे सुनील सत्यम की प्रेरणा रही है यह बात मै आजीवन भी सार्वजनिक रुप से स्वीकार करने में कोई संकोच नही करुंगा।
हम दोनों में निकटता बेहद तेज गति से विकसित हुई फिर अपने घर के अलावा मेरा ठिकाना सुनील सत्यम की दहलीज़ ही हुआ करता था। हमारी यह अडडेबाजी धीरे-धीरे रचनात्मक रुप लेने लगी थी फिर हमने तमाम बाल प्रयास किए यथा युवा स्वत्ंत्र लेखक विकास मंच, जन उत्थान समिति आदि बनाना।
मै कक्षा आठ में था जब मेरा लिखा पहला सम्पादक के नाम पत्र प्रकाशित हुआ उससे पहले एक साल तक मै लगातार पोस्टकार्ड पर पत्र लिख कर भेजता रहा लेकिन नही छपे वजह एक तो वैचारिक अपरिपक्वता दूसरा बिना लाईन के लिखने का अभ्यास भी नही थी और हस्तलेख भी कोई खास नही था।
एक बार छपने के बाद छपास रोग लग जाता है फिर दिल करता है कि मै रोज अखबारों में छपूँ मै भी इसी फिराक में था इसलिए मै अपने सम्पादक के नाम लिखे पत्र सत्यम भाई को दिखाया करता था वो उसमे वर्तनी की गलती सुधारते थे ( मै उस वक्त भी वर्तनी की खूब गलतियां करता था जैसा आज भी करता हूँ) और कई बार अपने सुन्दर हस्तलेख में भी लिख कर भेजते थे। लेखन के मामलें सुनील सत्यम मेरे वरिष्ठ रहे है और उन्होने मेरे अन्दर बौद्धिक जिज्ञासा के बीज रोपित किए इसके लिए मै उनके प्रति आजीवन कृतज्ञ रहूंगा। विचारधारा,चेतना और सम्वेदना की सबकी अपनी-अपनी यात्रा होती है जो व्यक्ति का खुद का चयन होता है यह बात सच है कि मै बचपन में संघ की वैचारिकी से निकला और एक खास दौर तक कट्टर हिन्दूवादी भी रहा हूँ लेकिन बाद में जब सही-गलत विचार विश्लेषण की क्षमता विकसित हुई तब मेरा मार्ग सत्यम भाई की वैचारिकी से अलग हो गया। हमारी मित्रता में एक बात जो खास रही वह यह थी कि भले ही साल में एकाध बार ही संवाद होता हो लेकिन हम जब भी एक दूसरे मिलें तो तब-तब हम एक दूसरे शिद्दत से मिलें।
सिविल सेवा की तैयारी के सिलसिले में सुनील सत्यम दिल्ली चले गए और मै अपने गांव में ही रह गया लेकिन पत्राचार के जरिए भी हम एक दूसरे से जुडे रहे यदा-कदा मुलाकात भी हो जाया करती थी। ग्रेजुएशन के बाद मै पीजी के लिए हरिद्वार आ गया और फिर यही पीएचडी और तदर्थ नौकरी में लग गया।
एक वक्त ऐसा भी आया जब मेरी और सुनील सत्यम का साल-साल भर बात न होती थी लेकिन फिर सखा भाव हमेशा बना रहा इधर मै अपनी अलग दूनिया में सीखने समझने की धारा से गुजर रहा था। एक रोचक बात और जो बताना चाहता हूँ कक्षा आठ की वार्षिक परीक्षा में मेरे थोडे नम्बर कम आ गये थे मेरे पिताजी को उनके एक मित्र ने भडका दिया कि यह इस पत्रकारिता के भूत और सुनील सत्यम की संगत की वजह से हो रहा है वो साल मेरे जीवन के दुरुहतम वर्षों में से एक था घर,परिवार यहाँ तक भाई-बहन सभी के सहयोग के मोर्चे पर मै नितांत ही अकेला पड गया था मुझे पर चौतरफा वार हो रहे थे यहाँ तक सुनील सत्यम को भी मेरे से अलग बैठाकर मेरे उज्ज्वल भविष्य की दुहाई देकर मुझसे एक सुरक्षित दूरी बनाने की सलाह दी जा रही थी हालांकि हम दोनों के संज्ञान में यह सब था लेकिन हमनें कभी पारस्परिक इस बात की चर्चा नही की यह तो आज मैने लिख दिया है।
लेखन,पत्रकारिता मेरी पारिवारिक पृष्टभूमि के लिहाज़ से भी सम्मानित कर्म नही समझा जाता था देहात के क्षेत्रों में पत्रकारिता का श्रमजीवी स्वरुप न होना मेरे लिए बडा भारी साबित हुआ और मुझ पर लेखन कर्म तत्काल छोडने दबाव बना दिया था कुछ दिनों तक अपने बौने भावनात्मक तर्कों से लडने के बाद आखिर पिताजी के अहंकार के समक्ष मैने हथियार डाल दिए और मन ही मन संकल्प लिया कि अब कक्षा 12 तक मै कलम नही उठाऊंगा और यह सच है कि मैने चार साल तक एक अक्षर नही लिखा।
मेरे लेखकीय कर्म पर जहाँ परिजनों को प्रसन्न होना चाहिए था वही उन्हे वह मेरे व्यक्तित्व का विकार नजर आने लगा था उन्हे लगा कि लडका पढाई मे पिछड जाएगा इसलिए मुझसे लिखना बलात छुडवा दिया गया....मेरे लिए यह सब एक बडा मानसिक सदमा था।
सुनील सत्यम की एक खासियत यह भी रही कि उन्होने मेरे क्रमिक बौद्धिक विकास को हमेशा से सहज स्वीकृति और सकारात्मक दृष्टि से लिया और मुझे कभी अपना ‘चेला’ नही समझा सामान्यत: लोग उन लोगो की प्रगति या बौद्धिक रुपांतरण को सहज रुप से स्वीकार नही कर पाते है जिन्होने आपसे लिखना-पढना सीखा हो। यही वजह है कि सुनील सत्यम मेरे लिए आज भी उतने ही सम्मानीय और ग्राह्य है जितने कभी बचपन में हुआ करते थे हाँ अब मै अपनी कलंदरी से इतनी आजादी जरुर ले लेता हूँ कि जहाँ मै उनसे असहमत हूँ तो अपनी असहमति उन्हे जता देता हूँ और शायद उनके द्वारा दिए गए लौकतांत्रिक स्पेस की वजह से ही यह सम्भव है उन्होने सदैव मेरा हौसला ही बढाया है इसलिए आज भी जब वो मेरे लिखी किसी चीज़ की तारीफ करते है तो मुझे बडी सच्ची खुशी मिलती है क्योंकि उस वक्त यह लगता है यह तारीफ वो शख्स कर रहा है जिससे मैने कलम पकडना सीखा है....लिखना तो खैर अभी भी नही सीख पाया हूँ।

(वर्तमान डॉ अजीत की निर्माण प्रक्रिया के हिस्सेदार रहे ऐसे मित्र के प्रति कृतज्ञता भाव के रुप में यह पोस्ट समर्पित है)