Friday, December 9, 2011

अलविदा फेसबुक

आज तकरीबन एक हफ्ता होने जा रहा है मैने करीब-करीब छ महीने के अपने फेसबुकिया जनून को अलविदा कह दिया है कई सवाल सामने आ रहे है मेरे भी और मेरे परिचय के संसार में भी कि आखिर ऐसी कौन सी बात है जिसकी वजह से मैने फेसबुक पर अपना एकाउंट डिएक्टिवेट कर दिया है सच तो यह है कि एक कोई खास वजह मुझे भी नही पता है पहले मै बचता रहा कि एक खत्म हुए अध्याय पर लिखने बोलने का कोई फायदा नही है लेकिन आज मन मे आया कि इस लघुवृत्त एक बारे में जो कुछ मन मे अच्छा-बुरा या तटस्थ भाव है उसको यहाँ अभिव्यक्त कर ही दूँ।

फेसबुक पर यूँ तो मेरा अकाउंट पिछले दो सालों से था लेकिन मुझे पहले वहाँ का नेवीगेशन ज्यादा फैमिलियर नही लगता था मेरे एक छात्र ने उसकी काफ़ी तारीफ की तो मैने एकाध बार ट्राई भी किया लेकिन अधूरे मन से फिर एक दिन अपने ब्लॉगर मित्र शील गुर्जर जी से फेसबुक पर राफ्ता हो गया और ये मुलाकात ही वह घडी थी जब मै पूरे मन से फेसबुक से जुड गया उन्होने मुझे एक सजातीय ग्रुप गुर्जर प्रतिहार से भी जोड दिया।

अपनी आदत रही है कि जो भी काम करते है डूब कर करते है भले ही एक दिन करें या एक साल इससे कोई फर्क नही पडता है। धीरे-धीरे फेसबुक पर सम्बन्धों की हरी-भरी फसल लहरा उठी मुझे भी खुब मज़ा रहा था एक तरफ शेरो शायरी का अपना ग्रुप दिल-ए-नादाँ था तो दूसरी तरफ जातीय विमर्श का बडा मंच गुर्जर प्रतिहार इन सबके साथ वॉल पर भी तुकबंदी का दौर चलता रहता था दीगर बात यह है कि अब तक अपुन को कमेंटबाजी का पूरा चस्का लग चुका था, एकाध बार को छोडकर मै अपनी सभी पोस्ट पर विजयी भाव के साथ स्वीकार होने लगा था मनोविज्ञान की भाषा में जिस ईगो कहते है जो भी परम संतुष्ट अवस्था मे पहूंच गया था।

बीच-बीच मे मैने दो बार तथाकथित ब्रेक भी लिए लेकिन वो एक परिपक्व निर्णय की बजाए क्षणिक भावावेश की प्रतिक्रिया था जब भी मैने फेसबुक छोडने की घोषणा अपनी वॉल पर की लोगो के मनुहार के कमेंट आएं कुछ मित्रों ने फोन करके भी वजह जाननी चाही इन सब ड्रामेबाजी मे भी मुझे मज़ा आ रहा था और कमोबेश दो-तीन बाद फिर मै फेसबुक की वॉल पर लौट आया था।

स्वीकार और नकार दोनो का अपना अलग मज़ा है फेसबुक की खुबसूरती यही है कि यहाँ आपको त्वरित प्रतिक्रिया मिल जाती है जिससे संवाद में जीवंतता बनी रहती है। अभी पिछले चार-पांच दिन पहले अचानक मै फिर से चैतन्य हो गया हूँ फिर से एक इनर कॉल आयी कि बस अब बहुत हो गया यह चर्चाओं/वाह-वाह का दौर अब एक पूर्ण विराम लेना चाहिए ये मेरी बहुत पुरानी आदत रही है कि मै जल्दी ही बोरडम का शिकार हो जाता हूँ यहाँ तक कि मानवीय सम्बन्धों में भी मुझे बोरियत लगने लगती है वैसे ये बात बडी विरोधाभासी है कि मै कविता लिखता हूँ और खुद के सम्वेदनशील होने का दावा करता हूँ लेकिन एक खास सीमा के बाद मुझे हर चीज़ मे एक स्पेस एंड डिस्टेंस की जरुरत महसूस होती है और ये बात मेरे निजि जीवन पर भी लागू होती है मसलन साल भर साथ रहते-रहते मुझे पत्नि से भी डिस्टेंस की जरुरत पडती है वरना मै एक ही शक्ल देख कर बोरियत का शिकार हो जाता हूँ इसलिए अब मुझे लगता है फेसबुक पत्नि से ज्यादा जरुरी चीज़ तो हो नही सकती है सो अब इससे भी मुक्ति का समय आ गया है और मुझे ये भी लगता है कि यह चीज़ का एक चरम होता है अभिव्यक्ति के मामलें मे मैने फेसबुक का वह चरम भोग लिया है अब मुझे यहाँ कोई रस नही आ रहा था और ढोने के लिए ढोना मुझे कभी अच्छा नही लगा है चाहे वह रिश्ते हों या एप्लीकेशन।

फेसबुक छोडने के बाद अपने करीबी लोगो से लेकर परिचित और प्रशंसकों के दिल औ दिमाग मे कयासो का दौर जारी है सबके अपने अपने मत है मै उनके विस्तार मे नही जाना चाहता हूँ सबकी अपनी अपनी सोच और भावनाएं है लेकिन हाँ इतना जरुर कह सकता हूँ कि मैने फेसबुक किसी बाहरी वजह से नही छोडी इसकी वजह आंतरिक है और आंतरिक वजह के लिए स्पष्टीकरण देने का इसलिए कोई औचित्य नही बनता है क्योंकि पका हुआ दिमाग को यह एक बौद्धिक चोचला या शिगूफा नज़र आयेगा और जो आत्मीय जन है उसको स्पष्टीकरण देने की कोई जरुरत ही नही है वहाँ एक मौन समझ हर बात को खुद सम्प्रेषित कर देती है।

सो अब तो बस यही कहूंगा अलविदा फेसबुक और शुक्रिया फेसबुक अच्छे और कच्चे लोगो से मुलाकात कराने के लिए यदि कभी ख्वाहिश हुई तो फिर से तुम्हारे दर पर ये फकीर अलख जगाने जरुर आयेगा...।

बशीर बद्र साहब का एक शेर याद आ रहा है

मुसाफिर है हम भी मुसाफिर है तुम भी

किसी मोड पे फिर मुलाकात होगी...!

आमीन

डॉ.अजीत