Thursday, July 30, 2015

बाग़ का ब्याह

बाग़ का ब्याह
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बाग़ का ब्याह सुननें में काफी विचित्र लगता है मगर सच है बाग़ का भी ब्याह किया जाता है। जब मैंने बाग़ के ब्याह की बात सुनी तो मुझे भी बड़ा अचरज हुआ था। हमारा आम का बाग़ है आज से लगभग पचास साल पहले मेरी माँ (दादी) ने इस बाग़ को लगवाया था इस बाग़ में पहला आम का पेड़ माँ के हाथों रखा गया था। लोक जीवन में एक बड़ी विचित्र मान्यता है कि बाग़ को लगाने वाला तब अपने बाग़ का फल नही खा सकता है जब तक वह बाग़ का ब्याह न कर दें। मानन्यता यह भी थी कि यदि कोई बिना ब्याह के अपने बाग़ का फल खा लेता है तो उस बाग़ के फल में कीड़े पड़ने शुरू हो जायेंगे। हमारे घर पर जब भी आम आतें तो माँ उन्हें बिलकुल नही खाती थी उनके लिए किसी दुसरे बाग़ के आम मंगवाए जाते थे। सुननें में बड़ा विचित्र सा है कि जो फलदार पेड़ लगाए वही उसका फल न खा सके। जब मैंने माँ से पूछा कि बाग़ का ब्याह कैसे किया जाएगा तब उन्होंने बताया बकायदा खेत पर हवन होगा तथा दो पेड़ के शाखाओं को लाल कपड़े से आपस में बांधा जाएगा इसके बाद अपनी सामर्थ्य अनुसार गाँव भर के लोगो को प्रीतिभोज कराया जाएगा और यह प्रीतिभोज ठीक वैसा ही होगा जैसे घर के किसी बच्चे की शादी में आयोजित किया जाता है।
बाग़ का ब्याह करनें के बाद माँ अपने बाग़ के आम खाने की अधिकारी हो जाऐंगी।
हमनें कई बार बाग़ का ब्याह करनें का मन बनाया मगर अपरिहार्य कारणोंवश वो महूर्त न सध सका आज भी माँ अपने बाग़ के आम नही खाती है। मैं कई बार मजाक में कह देता हूँ कि माँ अब तो बाग़ बूढा यानि पचास पचपन साल का हो गया है अब इस उम्र इसका ब्याह करनें से क्या फायदा रहनें देते है इसे यूं ही कुंआरा माँ चूंकि अब अपनी यात्रा के अंतिम चरण में है इसलिए वो भी दार्शनिक भाव से कह देती है अब क्या बाग़ का ब्याह करोगे ! मगर फिर भी कहीं न कहीं उनके मन में अपने बाग़ का ब्याह न कर पाने की पीड़ा ठीक वैसे ही दिख जाती है जैसे माँ बाप का कोई बच्चा अविवाहित रह जाने की नजर आ जाती है।
लोक मान्यताओं के इतर इस तरह की परम्पराओं के व्यापक समाजशास्त्रीय अर्थ भी है यह मनुष्य और प्रकृति के सम्वेदना के रिश्तें को मजबूत करने की एक लोकरीति भी समझी जा सकती है। भले ही इस तरह की मान्यताओं का कोई वैज्ञानिक आधार न हो मगर सामाजिक जीवन में वानिकी और मनुष्य के रिश्तें को मजबूत करने की कड़ी में इस तरह की परम्पराओं का एक विशिष्ट महत्व है। ये परम्पराएं भी अंतिम दौर में है इसलिए हम भले ही इन्हें बचाने में असमर्थ है मगर इन्हें याद करकें इनका दस्तावेजीकरण तो कर ही सकते है।
© डॉ. अजित