Wednesday, December 24, 2014

ख़्वाब

कुछ ख़्वाब केवल
आँखें देखती है
उन्हें देखने की इजाज़त
दिल और दिमाग नही देते
ऐसी बाग़ी आँखों से
नींद विरोध में विदा हो जाती है
ऐसे ख़्वाब बहुत जल्द
नींद की जरूरत से बाहर निकल आते है
वो हमारी चेतना का हिस्सा बन
खुली आँखों हमें दिखते है
दिल अपनी कमजोरी दिखाता नही
दिमाग को जताता है अक्सर
और दिमाग की होती है एक ही जिद
वो देखना चाहता हमें हर हालत में
विजयी और सफल
दिल धड़कनों की आवाज़ सुनता है
सुनकर डरता है
वो भांप लेता है
मन के राग के आलाप
जो बज रहे होते है
बिना लय सुर ताल के
इन ख़्वाबों को देखते हुए
न रूह थकती है और न आँख
दोनों ही करती है इन्तजार
एक ऐसे ख़्वाब के सच होने का
यही इन्तजार बनता है जीने की वजह
मनुष्य को मनुष्य बनाए रखने में ऐसे ख़्वाब
ईश्वर के नियोजित षडयन्त्र का हिस्सा होते है
क्योंकि
ऐसे ख़्वाब कभी पूरे नही होते
बस उनका अधूरापन
उन्हें न कभी बूढ़ा नही होने देता
और न मरने देता है।

© डॉ. अजीत

Monday, December 8, 2014

दुःख का मनोविज्ञान

तमाम उम्र जो रिश्तों की तुरपाई करता रहा उसकी भूमिकाऐं बदली मगर न वो बदला और न उसके अंदर की अच्छाई ही। जिंदगी ने उसको बहुत जल्दी ही नट की तरह संतुलन साधने के लिए प्रशिक्षित कर दिया था। जिन्दगी ने उसको उम्मीदें दी मगर उसके बदले जो लिया वो उसके चाहने वालो का स्थाई दुःख बना रहेगा उम्र भर। सुख दुःख की धूप छाँव में उसके हिस्से तपती धूप ज्यादा आई मगर उसको धूप छाँव से ज्यादा अपना खुद का आसमान बुनने की धुन थी उसने सबको दिया अपने हिस्से का आकाश। उसका होना सबके लिए एक आश्वस्ति जैसा था उसके रहतें हर गलती छोटी और हर खुशी बड़ी हो जाती थी। उसकी डांट में फ़िक्र और दुआओं में अपने संचित कर्मों को बांटने की आदत शामिल थी।
वो जब तक आसपास था तब तक अपने कद का अकेला अहसास साथ नही चलता था परछाई पर उसकी परछाई की नजर साथ चलती थी। एक छोटी सी दुनिया के जितना बड़ा विस्तार हो सकता था उसका केंद्र था वो अकेला शख्स। नही देखा था कभी उसको बोझिल बातें करते हुए। वो कभी एक निरपेक्ष यात्री था तो कभी एक संघर्षरत योद्धा।
बाहर की दुनिया से लड़ते भिड़ते बनते बिगड़ते उसकी जो लड़ाई खुद से चल रही थी उसका किसी को भी आभास नही था और जब वो प्रकट हुई तो उसके बाद की दुनिया बेहद निःसहाय किस्म की हो गई थी।
उस आदर्श पुरुष को तयशुदा मौत की तरफ बढ़ते हुए देखना जीवन का सबसे अविस्मरणीय निसहायताबोध था। जब तक हम अपने हिस्से के सुख का दशमांश भी उसको लौटा पातें नियति ने उसके लेने के सारे केंद्र पर मनाही का ताला टांग दिया था।
किस्तों में अपने प्रियजन को पीड़ा त्रासदी और मौत के चक्र का हिस्सा बनते देखना सदी का सबसे बड़ा दुःख था और ये दुःख तब और भी गहरा जाता जब वो शख्स मेरा पिता था। तमाम वैचारिक असहमतियों के बावजूद और कथित ज्ञान अर्जन के बाद भी मेरा कद कभी इस काबिल न हो सकता है कि उनके किए कामों को अच्छा या बुरा कहकर सम्पादित कर सकूं।
जीवन का उत्तरार्द्ध जब सुख भोगने के लिए शास्त्रों ने अनुकूल बताया तब भी मुझे यकीन नही होता था मगर पिता का ऐसे आकस्मिक चलें जाना मेरे उस विश्वास को और पुष्ट कर गया कि कुछ लोगो के न पूर्वाद्ध में सुख नसीब होता है और उत्तरार्द्ध में वो जीवनपर्यन्त अपने हिस्से का दुःख जीने और सुख बांटने के लिए ही जन्म लेते है।
पिता का यूं चले जाना अपने साथ एक दुनिया ले जाता है जहां बहुत से ऐसे प्रश्न हमारें मन में घूमते रहते है जिनका कोई जवाब किसी के पास नही होता है।
वक्त भले ही सब सीखा देता है परन्तु एक निर्वात सदैव मन के अंदर बचा रह जाता है जहां कुछ वक्त से शिकायतें कुछ खुद से सवाल चलते रहतें गाहे बगाहे मनुष्य के रूप में इस निर्वात को जीना बेहद त्रासदपूर्ण लगता है क्योंकि हम केवल सोच कर भी मन को सांत्वना नही दे पातें है ऐसे दुःख बड़े अपरिहार्य और ढीठ किस्म के होते है कहने/लिखनें/बांटने से इनकी मात्रा और तीव्रता पर कोई फर्क नही पड़ता है।

Sunday, November 2, 2014

त्रिशंकु

धर्म को छोड कोई दूसरी एक भी चीज ऐसी नही थी जिसे मै बदल सकता था और धर्म के बदलने से मेरी किसी समस्या का समाधान नही हो सकता था। प्रज्ञा चेतना और सम्वेदना की यात्रा पर मै पैदल चलता चलता बहुत दूर निकल आया था इस मार्ग का चयन मेरा खुद का चयन नही था बल्कि इस मार्ग मे खुद मुझे चुन लिया था। वय वर्ग जाति धर्म सबके लिहाज़ से लगभग मै निष्काषित और निर्वासित था यह एक किस्म का स्व निर्वासन था। वर्ण संकरो दलितों अति पिछ्डो अल्पसंख्यकों की स्थिति मुझसे सम्मानजनक थी क्योंकि वें अपनी पहचान के साथ संगठित थे वे लड रहे थे अपने हिस्से की लडाईयां।
नितांत संयोग के चलते जिस धर्म जाति पृष्टभूमि में जन्म हुआ उसकी रवायतों मे मेरी दिलचस्पी किशोरावस्था के शुरु होने तक रही तब तक मेरा मस्तक भी गर्व से भरा रहता कभी अपने हिन्दू होने पर और कभी अपनी जाति के गौरवशाली इतिहास पर मगर शायद अस्तित्व का नियोजन दूसरे किस्म का था उसने मेरे हिस्से वर्ग निर्वासन/बहिष्कार लिख दिया था जैसे ही समझ जैसी किसी चीज का उदभव मन मे हुआ तो पता चला कि गर्व तो केवल उस चीज़ पर किया जा सकता है जो आपने अपने श्रम से अर्जित की हो बाकि तो संयोग की भीख में मिला हो उस पर गर्व करने का कोई औचित्य नही बनता है इसलिए तभी उस मिथ्याभिमान से मुक्त हुआ मेरे लिए हिन्दू होना और अपनी इस क्षत्रिय जाति में पैदा होना ठीक एक संयोग का मामला लगने लगा।
अपने अतीत से कटकर चलना आपकी आंतरिक यात्रा के लिए सहज हो सकता है मगर बाह्य जगत मे इतनी सहजता नही मिलती है एक तरफ तो मै अपने वर्ग से कटाव की प्रक्रिया से गुजर रहा था वहीं दूसरी तरफ तमाम संवेदनशीलता के बावजूद मेरे दलित और अति पिछ्डें मित्रों के लिए मुझे उसी सदाश्यता से स्वीकार कर पाना मुश्किल था जिस वर्ग से उनका प्रतिशोध का रिश्ता रहा हो उस वर्ग से निर्वासित किसी व्यक्ति को अपने समूह का हिस्सा बनाने से पहले उनके मन मे तमाम शंकाएं थी सच तो ये है सखा भाव से वो कभी आत्मसात कर भी नही पाए मेरे सम्वेदनशील रचनाधर्मी व्यक्तित्व के बावजूद मेरा कद और मेरा अक्स उन्हें घसीटता हुआ अपने अतीत मे ले जाता जहाँ सामंती शोषण के तमाम किस्से उनके जेहन मे विचर रहे होते उस वक्त उनका मन मुझे लेकर तीन हिस्सों में बंट जाता एक मन मुझे बिना शर्त और शंकारहित स्वीकारने की वकालत करता एक मन उन्हे सावधान करता कि सामंती चरित्र के षडयंत्र कभी नही समाप्त होते है इसे जब भी मौका मिलेगा ये तुम्हें तुम्हारी औकात बता देगा और तीसरा मन एक खास किस्म के सैडेटिव प्लीज़र मे जीता उसे लगता कि अब उनकी वैचारिकी और संघर्ष के परिणाम सामने आने लगे है एक खांटी सामंती परिवार का लडका उनकी सोहबत मे आकर राहत महसूस करता है वें उसके साथ हमप्याला होते समय गर्व और अभिमान से भर जाते उस समय वंचित वर्ग का सामंती मनोविज्ञान देखा जा सकता था वस्तुत: मनुष्य का स्वाभाविक चरित्र पावर सेंटर ही विकसित करना होता है।
इन तीन किस्म के मन के बीच मै सच्चे दोस्तों के हाथ पकड उन्हें विश्वास दिलाने की कोशिस करता कि मै शोषक,उत्पीडक नही हूं चेतन स्तर पर वो इससे सहमत भी थे परंतु अर्द्धचेतन और अवचेतन के स्तर पर उनका भोगा हुआ यथार्थ मुझे समग्र रुप से कभी स्वीकार न कर पाता उस समय मेरी बडी विचित्र स्थिति हो जाती है एक तरफ मै अपना मूल खुद काटकर आया हूं वही दूसरी तरफ जो मेरा मित्र वर्ग है उसकी शंका सन्देह या ग्राह्यता मुझे स्वीकारने मे बाधा बनती जाती है मै त्रिशकुं की भांति बीच मे लटक जाता था।
अपने आसपास के आसमान को देखने पर पता चलता कि मै अकेला त्रिशकुं नही हूं यहां तो मेरे जैसे बहुत से लोग है जो अपने हिस्से का निर्वासन झेल रहे है अपने वर्ग मे उनकी दिलचस्पी और श्रद्धा नही बची है और जिन लोगो की तरफ वो उम्मीद और मानवीय दृष्टि से आए थे उनके पूर्वाग्रह और संघर्षो की आंच ने उन्हें कभी करीब नही आने दिया। मैने देखा इन त्रिशकुंओं मे कुछ ब्राहमण भी थे वो उदास होकर बताते कि उनके पूर्वजों ने चाहे जो किया हो मगर उन्होने कभी दलितों को नही सताया वो दलितों से मैत्री की अभिलाषा मे थें मगर दलित/पिछ्डे मित्रों को उनके आने से षडयंत्र और अपना आन्दोलन कमजोर पडने का भय था इसलिए उनको टांग दिया जाता था ऐसे ही आसमान में उनमे से कुछ सच्चे मुसलमान थे जिन्होनें लानत भेजी थी हिंसा पर जेहाद के बदले आंतक और इंसानों के कतले आम पर जिसके बदले मुसलमानों ने उन्हे काफिर कहा मगर हिन्दूओं के लिए वो कभी सहज न्ही रहे उन्हें लगता रहा कि ये मुसलमान पहले है इंसान बाद में।
खांचों मे बंटकर रहना इंसान की नियति है अपने लिए सुरक्षा तलाशना मनुष्य की अस्तित्व को बचाने की अपनी सबसे बडी युक्ति विचारधारा जिस ईमानदारी की मांग करती है वो ईमानदारी एक किस्म का पूर्वाग्रह साथ बांटती है जिसके चलते मेरे जैसे बहुत से लोग अपने अपने हिस्से का निर्वासन भोगते हुए ताउम्र यही बताते रहते है कि वो वैसे कतई नही है जैसे उनके पूर्वज़ रहे होंगे अपने बिना किसी दोष वो जीते है अपने हिस्से का अपराधबोध बार बार यह विश्वास दिलाते है कि मै अपने लोगो अपनी परम्पराओं के खिलाफ आपके नही मगर अविश्वास और भोगे हुए यथार्थ की चासनी इतनी गाढी होती है उसमे अपना संघर्ष हमेशा गाढा और मीठा दिखता है दूसरे व्यक्ति का उद्देश्यपूर्ण ! मनुष्य की समझ पर यह एक ऐसा प्रश्नचिंह है जो हाल फिलहाल तो मिटता नही दिखता है बाकि उम्मीद पर दुनिया कायम है और मै भी इसी उम्मीद पर कायम हूं शायद कल इंसान को उसके मौलिक वजूद से पहचाना जाए न कि उसकी धर्म,जाति,आर्थिक-सामाजिक पृष्टभूमि से उसकी सीमाएं निर्धारित की जाएं।


‘एक त्रिशकुं की आपबीती

Friday, October 3, 2014

हैदर

'हैदर' रिश्तों की सच्चाई और कश्मीर वादी की स्याह हकीकत की महीन पड़ताल करती फिल्म है। फिल्म में दो यात्राएं समानांतर रूप से चलती है एक कश्मीर में पूछताछ के नाम पर उठाए गए लोगो के परिवार की दारुण कथा है दूसरी रिश्तों की महीन बुनावट में उलझे प्यार की पैमाइश की कोशिस फिल्म करती दिखती है। फिल्म की गति थोड़ी स्लो है मगर एक बार जुड़ने के बाद आप फिल्म के सिरे जोड़ पाते है। विशाल भारद्वाज की फिल्मों में स्त्री किरदार को काफी रहस्यमयी ढंग से विकसित किया जाता है हैदर में भी तब्बु के मिजाज़ को पढ़ने के लिए मन जीने से नीचे तहखाने में उतरना पड़ता है।
फिल्म मां-बेटे और भाभी-देवर के रिश्तें को काफी अलग एंगल से दिखाया गया है। हैदर और उसकी मां यानि तब्बु के रिश्तें में एक अलग किस्म की टोन भी है जो कभी कभी विस्मय से भरती है।फिल्म उम्मीद,बेरुखी,इश्क और धोखे के जरिए कश्मीर की अवाम के एक जायज मसले पर बात करती नजर आती है। केके मेनन गजब के एक्टर है तब्बु के देवर खुर्रम मियाँ के रूप में उनका काम पसंद आया। श्रद्धा कपूर भी फिल्म में काफी नेचुरल लगी है वो काफी आगे तक जाएँगी। शाहिद कपूर फिल्म में एक अपने रोल का एक फ्लेवर मेंटन नही रख पाते है कहीं बहुत भारी हो जाते तो कहीं थोड़े कमजोर निजी तौर पर फिल्म में श्रीनगर के लाल चौक पर एक कश्मीर की हालात पर एक पोलिटिकल स्टायर करने के सीन में बेहद गजब की परफोर्मेंस देते दिखे ओवरआल ठीक ही है। फिल्म में इरफ़ान खान और नरेंद्र झा का रोल काफी छोटा है मगर इरफ़ान खान तो इरफ़ान खान वो गागर में सागर भर देते है नरेंद्र झा का काम भी बहुत क्लासिक किस्म का है।
फिल्म में गीतों में गुलजार ने कश्मीर की खुशबू भर दी है उनमें आंचलिकता का पुट है फिल्म में फैज़ की शायरी फिल्म को असल मुद्दे से जोड़े रखती है।
फिल्म की कमजोरी स्लो होना है जिन दर्शकों के पास सब्र नही है उन्हें फिल्म नही देखनी चाहिए हैदर को महसूस करने के लिए दिमाग का खुला और दिल का जला होना जरूरी है मौज मस्ती के लिए कोई और स्क्रीन देखी जा सकती है। विशाल भारद्वाज ने एक संवेदनशील मसलें पर एक काफी प्रासंगिक फिल्म बनाई है इसके लिए वो बधाई के पात्र है।

(आज घुटने में दर्द के बावजूद यह फिल्म बड़े बेटे राहुल के साथ देखी राहुल की मल्टीप्लेक्स स्क्रीन की यह पहली फिल्म थी इसलिए उसके लिए यह फिल्म और भी महत्वपूर्ण हो जाती है। दोस्तों के साथ बहुत से फ़िल्में देखी है मगर आज बेटे को दोस्त के रूप फिल्म दिखाकर एक अलग किस्म का सुख मिला इसलिए भी हैदर ताउम्र मेरे लिए एक यादगार फिल्म रहेगी)

Tuesday, September 30, 2014

वो तीन

मोहम्मद अजीज़ शब्बीर कुमार अनवर ये तीन ऐसे गायक है जो अस्सी-नब्बे के दशक में बेहद लोकप्रिय रहें है यूपी और बिहार में आज भी मोहम्मद अजीज़ के चाहने वालो की कमी नही है उनके रोमांटिक ड्युटस आज भी ऑटो/बस ने सुने जा सकते है इस दौर की पढ़ी लिखी पीढ़ी को न उनमे नाम याद होंगे और न उनके गाए सुपरहिट गीत हाँ उनको एक वर्ग विशेष की पसंद में जरुर टाइप्ड कर दिया गया है। मोहम्मद अजीज़ को बस/ऑटो ड्राईवर रिक्शा चालको की पसंद का गायक समझा जाने लगा है। मगर ये तीनो अपने अपने किस्म के अजीम फनकार रहें है सभी नही तो कुछ गीत मोहम्मद अजीज़ ने बेहद दिलकश आवाज में गाएं है चाहे वह कर्मा फिल्म का कालजयी गीत दिल दिया है जान भी देंगे ऐ वतन तेरे लिए या फिर फिल्म मुद्दत का रोमांटिक गीत प्यार हमारा अमर रहेगा याद करेगा ये जहां हो...ठीक ऐसे ही शब्बीर कुमार और अनवर के भी बेहद दिलकश गीत मौजूद है।
बदलते वक्त ने इस फनकारों को हमारी याददाश्त से बाहर कर दिया है मै कभी कभी इनके एकाकी जीवन की कल्पना करता हूँ तो सिहर जाता हूँ मोहम्मद अजीज़ ने खासी लोकप्रियता का समय भी जिया है अब जब उन्हें इंडस्ट्री में कोई नही पूछता है तब वो कैसे निर्वासन में जिन्दगी जीते होंगे ऐसे गुमनामी जिन्दगी जीना बेहद मुश्किल होती होगी पिछले दिनों कहीं पढ़ा था वो आर्थिक बदहाली से भी गुजर रहें है। फ़िल्मी दुनिया की कितनी छोटी याददाश्त होती है कल तक जो आपका स्टार गायक था आज गुमनाम है यही बात हम श्रोताओं की भी है हम आगे बढ़ते चले जाते है एक दौर कुमार शानू अलका याज्ञनिक सोनू निगम का था अब वो भी ढलान पर है अब अरजित मोहित चौहान या नए लोगो का दौर है। कुमार शानू को अब मै मोहम्मद अजीज की जगह जाता देखता हूँ उनके मेलोडियस सोंग्स भी अब एक वर्ग विशेष तक सीमित होकर रह गए वरना एक समय था जब रोमांटिक ट्रैक का मतलब की कुमार शानू था पुरानी आशिकी फिल्म के गीतों ने क्या धमाल मचाया था।
कुल मिलाकर मेरी तो आदत अतीत में जीने की रही है इसलिए गाहे बगाहे इन पुराने दौर के फनकारो को याद करता रहता हूँ। किशोर-रफी-मुकेश त्रयी की दुनिया से भी अलग फनकारों की एक दुनिया रही है जिन्होंने अपने फन की ताकत से अपने चाहने वाले पैदा किए अब आप उन्हें लोअर मीडिल क्लास समझ मूल्यवान न समझे तो यह आपकी समझ की सीमा हो सकती है। बड़े चेहरों के बीच खुद को जमाना बहुत हिम्मत की बात होती है हिन्दी फ़िल्मी गायकी के इन सर्वहारा का मै बड़े दिल से सम्मान करता हूँ और उन्हें उनके गीतों के माध्यम से शिद्दत से याद भी करता हूँ। भले वो आज हाशिए की जिन्दगी जी रहें है मगर मेरे लिए वो सदैव मेरे दिल के करीब ही रहेंगे उनको यादों में बचाकर रखना दरअसल उस दौर को बचाकर रखना था जब हम गुनगुनाने की सच्ची वजह अपने दिल में रखते थे आज की तरह नही कि गायक का नाम भी मुश्किल से याद रह पाता है। 

Monday, September 29, 2014

सच के आर-पार


विज्ञान के डर से आध्यात्म की शरण व्यक्ति को एक मानसिक सांत्वना तो देती ही है साथ ही जीवन के मिथ्या होने के बोध से साक्षात्कार करा कर उसे आपदा को भोगने के लिए मानसिक रुप से तैय़ार भी करती है।
गांव में स्कूल से लेकर बीए तक मेरा साथ देने वाला मेरा एकमात्र लंगोटिया यार है देवेन्द्र। अभी परसो मेरे पास आया था मिलनें के लिए दोपहर में कई घंटे सत्संग चला देवेन्द्र के साथ एक त्रासद कथा यह है उसकी पत्नि के गले मे भोजन नली में पिछले तीन साल से संकुचन हो रखा है जिससे भोजन निगलने मे उसे खासी दिक्कत होती है चंडीगढ पीजीआई में उसका उपचार भी करवाया मगर आशातीत सफलता नही मिली है डॉ वास्तविक बीमारी को भी नही खोज पाए थे दबे स्वरों और बुरी कल्पना में कुछ डॉ को यह भी सन्देह है कि यह गले का कैंसर हो सकता है। जब से पत्नि बीमार हुई है देवेन्द्र के लिए यह बेहद तनाव भरा वक्त रहा है उसका एक बेटा है घर भाई माता-पिता से भावनात्मक और मोरल सपोर्ट लगभग शून्य है। देवेन्द्र ने अपनी पत्नि के उपचार के लिए अपनी सामर्थ्य के हिसाब यथा सम्भव सब प्रयास किए कई कई दिन अकेले चंडीगढ पडा रहा जो जहां भी डॉक्टर बताता वही दिखाने चला जाता मगर कई से कोई उल्लेखनीय राहत नही मिली जब विज्ञान से राहत नही मिली तो उसने झाड फूंक वालों को भी खूब पत्नि को दिखाया मगर वहां के पाखंड से वह शीघ्र ही वाकिफ हो गया कहते है न जब आदमी परेशान होता है वह भी तर्कातीत हो किसी भी चमत्कार की उम्मीद लगा बैठता है इसी मनस्थिति में देवेन्द्र ने न जाने कहां कहां चक्कर न काटे मगर अंत मे हुआ वही ढाक के तीन पात।
फिलहाल एक साल देवेन्द्र की पत्नि का उपचार एक होम्योपैथ कर रहा है उससे उसे काफी आराम है अब वह एक-दो रोटी खा लेती है वरना एक बार तो नौबत तो यह भी आ गई थी कि वो तरल पदार्थ भी नही निगल पा रही थी। परसों मैने डरते-डरते देवेन्द्र से कहा भाई अगर यह कैंसर ही निकला तो क्या होगा एक पल के लिए देवेन्द्र भी सहम गया उसे सबसे ज्यादा फिक्र अपने पांच साल के बेटे की है भगवान न करें कुछ ऐसा वैसा हो जाए तो बच्चें का जीवन तबाह हो जाएगा..खैर मैने उसको कैंसर के कुछ एडवांस सेंटर पर जाकर टेस्ट वगैरह करवाने की सलाह दी है वो सहमत है मगर उसने बताया पत्नि बडे सेंटर पर जाने से डरती है कहीं कैसर की पुष्टि हो गई तो उसका क्या होगा फिलहाल वो इस भ्रम मे जीवन जी रही है कि होम्योपैथी से उसको आराम मिल रहा है और यही डॉक्टर उसको ठीक कर देगा।
इस त्रासद कथा का एक दूसरा पक्ष है जो मै बताने जा रहा हूं जब मै पीजी के लिए हरिद्वार आ गया देवेन्द्र गांव मे ही रह गया उसने प्राईवेट एम ए किया उस वक्त देवेन्द्र एक सामान्य गांव देहात का युवा था जिसकी अपनी लौकिक रुचियां थी धर्म और आध्यात्मिकता को बेकार की चीज़ समझता था उन दिनो मै वेदपाठी हुआ करता था वह मेरी भी मजाक बनाया करता था मगर अब पत्नि के इस स्वास्थ्य संकट के बाद जब मुसीबत ने चारो तरफ से घेर लिया अपने रक्त संम्बंधियों नें मूंह फेर लिया तब उसने आध्यात्म और ईश्वर को जानने समझने मे वक्त बिताना शुरु किया रामचरितमानस,गीता आदि का स्वाध्याय किया दैनिक पूजा आदि करने लगा है परसों उसने लगभग एक घंटे गीता के दार्शनिक पक्ष पर गजब का दार्शनिक व्याख्यान मुझे दिया स्थिर प्रज्ञ,जीवात्मा, सृष्टि चक्र, जीवन मरण, ईश्वर, माया,मोह. राग इन सब बिन्दूओं पर उसने धाराप्रवाह और तर्क सम्मत अपनी बात रखी है मै उसको अपलक सुनता रहा एक बार तो मुझे यकीन नही हुआ कि ये वही देवेन्द्र है जिस बीए पास को मै गांव छोड गया था जो धार्मिक कर्मकांड और व्रत रखने पर मेरा मजाक बनाया करता था।
गांव के जीवन और सीमित साधनों के साथ स्वाध्याय के बल पर उसने गीता के बारें जो समझ विकसित की है वो मेरे लिए हैरत मे डालने वाली थी उसने मुझसे कहा कि आप तो ज्ञानी ध्यानी आदमी है ( उसकी मान्यता है) कुछ और पुस्तकों का नाम बताईये ताकि ईश्वर को समझने मे मदद मिल सके मैने अपनी जानकारी के हिसाब से उसको कुछ नाम बताएं भी बल्कि यह भी आश्वासन दिया कि शहर से कुछ किताबें लाकर दूंगा।
इस पूरे प्रकरण का सारांश यही है कि कई बार विज्ञान जब इंसान को डराता है तब वह अपने मन की सांत्वना के लिए ईश्वर की शरण मे जाता है उसके अस्तित्व पर सवाल खडे करके उसे खोजता है मै दावे से कह सकता हूं यदि देवेन्द्र ने इस आपदकाल मे खुद को गीता के स्वाध्याय मे न लगाया होता तो वह मानसिक रुप से टूट चुका होता आज वह मजबूत होकर एक जीवनहंता बीमारी से लड रहा है साथ ही मानसिक रुप से दृढ हो रहा है। धर्म इस रुप मे जरुर उपयोगी हो सकता है।
परसों मै उसको अपलक होकर सुनता रहा है एकाध बिन्दूओं पर असहमत होते हुए भी उसका प्रतिकार नही किया गीता के तत्व दर्शन पर वह जितने अनुभूत अधिकार से बोल रहा था वह मेरे लिए चमत्कृत करने जैसा था उसकी बातों मे गीता के कर्म योग के तत्व दर्शन की बेहद प्रभावी और सरल भाषा मे व्याख्या थी। अपनी आंतरिक अनुभूतियों की बात कहूं तो उस दिन मै अर्जुन रुप में था और देवेन्द्र कृष्ण रुपी जीवन के तत्व का भाष्याकार...!
अज्ञेय ने सच ही कहा है दुख व्यक्ति को मांझता है..! मेरी दिल से यही कामना है कि यदि वास्तव मे ईश्वर जैसी कोई सत्ता विद्यमान है तो मेरे इस युद्धरत मित्र की पत्नि को सम्पूर्ण आरोग्य प्रदान करें ताकि विश्वास करने की वजह प्रज्ञा मे बची रहें।

डॉ.अजीत

Thursday, July 10, 2014

बजट का गजट

लगभग सभी सरकारों की नजर में सस्ती ब्याज दरों पर फसली ऋण उपलब्ध कराना किसानों के हित एवं कल्याण का सबसे बड़ा कदम है। मुझे अफ़सोस होता है कि कर्जे के मकडजाल और सहकारी/सरकारी क्षेत्रों के बैंको में व्याप्त भ्रष्टाचार के चक्रव्यूह में किसान किस कदर फंसा हुआ है किसी को इसकी सुध लेने का समय नही है।
जेटली साहब ! महज सस्ता कर्ज किसानों की मदद नही करता है इससे तो उनका शोषण और बढ़ता है पहले तो आप अपने मंत्रालय के अधीन बैंको के कार्मिको और मेनेजरों का रिफ्रेशर कोर्स करवाईए उनको यह तमीज सिखाइए कि देश के अन्नदाता से किस तरह बात की जाती है आपकी ब्याज दर घटाने से उनकी खीझ और बढ़ती है ( न जाने क्यूं, शायद खुद को वेतनभोगी-टैक्स दाता अभिमान होता होगा) और उन्हें किसान में फ्री में लोन लेंने वाला दरिद्र जीव लगता है।
मै आर्थिक मामलों का जानकार नही हूँ परन्तु मेरी समझ में किसानों को सस्ती ब्याज दर पर ऋण देने की घोषणा सुनने पढ़ने में जरुर राहत भरी/लोकप्रिय लग सकती है परन्तु इससे कोई लाभ नही होगा। अगर मोदी सरकार सच में किसानों का भला करना चाहती है तो इन कुछ बिंदूओ पर जरुर सोचना चाहिए था गौरतलब है इन सुझावों को राज्य या केंद्र के अधिकार क्षेत्र में उलझाकर नही बल्कि एक कॉमन पालिसी के जरिए लागू करना चाहिए--
1. गन्ना मिल मालिकों पर गन्ना भुगतान के नियमित भुगतान की जवाबदेही बनाने के लिए एक केन्द्रीय आयोग/ट्रिब्यूनल बनाया जाए।
2. कृषि यंत्रो/कीटनाशक/अन्य कृषि रसायन पर सब्सिडी दी जाए तथा प्राइवेट कम्पनीयों की लूट रोकने के लिए इनके विपणन में सहकारी क्षेत्र को शामिल किया जाए।
3. ग्रामीण क्षेत्रों में सिचाई हेतु विद्युत आपूर्ति सुनिश्चित की जाए और नहर/राजवाहों को फिर से पुनर्जीवित किया जाए।
4. कृषि उत्पादन के लिए मंडियों में आढतियों पर प्राइस मोनोपोली रोकने के लिए आवश्यक कदम उठाए जाए ( अधिकाँश आढ़ती किसान की उपज का मनमुताबिक़ भाव तय करवाते है और किसान को किस्तों में भुगतान करते है यदि किसान को अपनी कृषि उपज का तुरंत भुगतान चाहिए तो दो रूपये प्रति सैंकड़ा काट कर भुगतान करते है)
5. किसानों को विशेष पहचान पत्र जारी किए जाए तथा उन्हें कृषि कार्यो हेतु सब्सिडी पर डीजल उपलब्ध कराया जाए।
6. गाँव के स्तर पर एक प्रशिक्षित एग्री काउंसलर नियुक्त किया जाए जो किसानों को रोग,उर्वरक,कीटनाशक,जैविक खेती के बारें में परामर्श प्रदान करें। मिट्टी के परीक्षण के लिए ब्लॉक स्तर पर एक मोबाइल वेन हो जिसमे वैज्ञानिक खुद खेत पर जाकर मृदा के नमूनें एकत्रित करें और रिपोर्ट खुद किसानों तक पहूंचाए।

....बाकि आपके पास आईएएस/ कृषि आर्थिकी के जानकार लोगो की लम्बी फौज है उनको वातानुकूलित कमरों/ फर्जी सर्वो के आंकड़ो और गूगल की रिसर्च से बाहर निकलने के लिए कहिए ताकि वो किसानों की दरिद्र हालत से रुबरु हो सके ऐसे दिल्ली में बैठ कंप्यूटर पर बजट छापने से न आपकी सरकार का भला होगा और न किसानों का।

(बजट में किसानों के हित के मीडिया प्रचार पर एक किसान की गैर विशेषज्ञ टिप्पणी )

Sunday, June 15, 2014

कुछ वर्जन

नौकरी क्यों छोडी?
नौकरी नही छोड़नी चाहिए थी कुछ बीच का रास्ता निकालना चाहिए था।
इमोशनल होकर निर्णय लिया प्रेक्टिकल होकर सोचना चाहिए था तुम्हारा करियर सामने था सात साल की यूनिवर्सिटी में एडहोक जॉब रूपी साधना थी अब परमानेंट होने का नम्बर था।
तुम एक अतिसम्वेदनशील एकांतप्रिय चिन्तनशील प्राणी हो गाँव में जल्दी खुद को इररेलिवेंट फील करना शुरू कर दोगे।
तुम्हारा बड़ा बेटा शारीरिक चुनौतियों से जूझता है उसके पुनर्वास में तुम्हारी महत्वपूर्ण भूमिका है महान बनने के चक्कर में अपनी खुद की फैमली को क्यों दांव पर लगा रहे हो।
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(पिताजी के निधन और मेरी गाँव वापसी पर कुछ दोस्तों की सलाह,हितचिंता और नसीहतों के कुछ वर्जन )

---- रिश्तेदारों के वर्जन :
गाँव में तुम ही मेनेजमेंट देख सकते हो बड़ा भाई डॉक्टर है वो कुछ नही कर सकता है छोटे वाला इंजीनियर है उसको नौकरी करने दो तुम गाँव में रहो।
रिश्तेदारी में आना-जाना शुरू करो लोगो के जीने-मरने में शामिल हुआ करो अब मूंह मोडकर काम नही चलेगा।
जमीन में पोपलर के पेड़ लगवा दो।
बच्चें गाँव में रखो अपने साथ हरिद्वार अकेले छोड़ने ठीक नही है।
जीते जी जो पिताजी के विरोधी रहे अब पिताजी के जीवन से उदाहरण खोजकर हमारे लिए अपेक्षाओं के मानक तैयार करते है।

गाँववालों के वर्जन:
गली में आते-जाते सबसे राम-राम करते चला करो।
लोगो के सुख दुःख में शामिल हुआ करो।
लोगो के यहाँ उठ-बैठ के लिए जाया करो।
एक बड़ा वर्ग आपके परिवार में निष्ठा रखता है उनका हालचाल पूछते रहा करो।
इस पंचायत चुनाव में प्रधान का चुनाव लड़ना है उसकी तैयारी रखो।

देख लीजिए मित्रों,
एक पिता के जीवन से यकायक चले जाने से आपका जीवन किन-किन वर्जनों से घिर जाता है ये सारे वर्जन कल्पनातीत थे मेरे लिए अब इनके बीच रहकर इनसे जूझते हुए जीने और आगे बढ़ने का कौशल विकसित कर रहा हूँ सही क्या है गलत क्या है नही जानता हूँ बस हाल फिलहाल तो कुछ चुनौतियों से निबटने में लगा हुआ हूँ वक्त इतना कम है कि खुद की कमजोरी पर सोचने की फुरसत भी है।

Friday, June 6, 2014

ताप

दोस्तों ! इस बात यकीन करना मुश्किल है कि गाँव में दिन यदि चार घंटे लाइट लगातार आ जाए तो उस दिन हम इस बात की खुशी में रहते है कि आज बिजली बढ़िया चली है। याददाश्त के बिनाह पर कह सकता हूँ कि यदा कदा ही शाम को गाँव में लाइट देखी है सुबह घर के बुजुर्ग बताते है कि रात लाइट आई थी।
उत्तर प्रदेश के सम्पन्न कहे जाने वाले पश्चिमी उत्तर प्रदेश के उस गाँव का किस्सा कह रहा हूँ जिसकी आबादी लगभग बारह हजार है और गाँव में बिजलीघर भी है शेष यूपी के देहात का क्या हाल होगा समझा जा सकता है नेताजी के जिले या संसदीय क्षेत्र की रोशनी अपवाद हो सकती है।
सूर्य के प्रचंड ताप से खेत पर किसान खलिहान में पशु और घर पर बच्चे तप कर अपनी अपनी साधना में लीन है वातानुकूलित कक्षों के कहकहों में उनका जिक्र भी कहां शामिल होगा।
घर के एक से तीन साल के वय के बच्चें महीने भर में तीन से चार बार दस्त/बुखार की शिकायत से डॉक्टर के यहाँ जा चुके है अब बच्चा शाम को प्यार से लिपटना चाहता है तो गर्मी की आंच उसको मिनट भर में खुद से अलग कर देती है।
तपती दुपहरी में देह से टपकते पसीने की गंध को मिटा देना किसी भी देशी विदेशी डियो के बसकी बात नही है।
दो बखत स्नान और रात में छत पर मच्छरदानी लगाकर लेटने से थोड़ी राहत मिलती है रात को बारह से सुबह के पांच बजे तक जो बेसुध नींद आती है बस वही गाँव के जीवन का बोनस है इसकी तुलना एसी/कूलर और बंद कमरों की नींद से नही की जा सकती है।