Sunday, May 29, 2016

गाँव की यादें

गाँव में गर्मियों की छुट्टियों में या फिर स्कूल से आकर पशुओं को चारा डालनें उनका गोबर हटाने और नहाने पानी पिलाने की जिम्मेदारी बच्चों पर आ जाती थी।
तब हाथ के हैंडपम्प (नलके ) से पानी खिंचा जाता था नल के सामनें एक कटा हुआ ड्रम रखा होता है हम बच्चें उसे मिलकर भरते थे फिर डांगरो (पशुओं) को पानी पिलाने और नहाने का काम करते थे।
सह अस्तित्व का इससे बढ़िया सामाजिक प्रशिक्षण कुछ और नही हो सकता था ये गतिविधि हमें संवेदनशील बनाती थी तथा पशुओं के प्रति करुणा को हमारे मन में विकसित करती थी।
पशुओं को बच्चों के नरम हाथों से नहाने में खूब मजा आता था मरखणी भैंस ( जो टक्कर मारती है) तब अकेली पड़ जाती थी हम उसको घूँटे पर ही बाल्टी से पानी पिलाते थे उसका नहाना भी प्रायः स्थगित रहता था।
जैसे ही पशु को खूंटे से खोलकर नलके के पास लातें वो पानी पीने में आना कानी करती तो हम छैया छैया (पानी पीने के नम्र निवेदन की कूट भाषा) कहते उसकी पीठ पर हाथ फेरते फिर वो आराम से पानी पीती। पानी पीते वक्त हम उसके सींग की जड़ के आसपास हाथ से खुजाते इससे भैंस को बहुत मजा आता वो आराम से पानी पीती जाती। नहाने के समय सबसे बड़ी चुनौति होती उनके शरीर पर जो गोबर सूख गया है उसको कैसे उतारा जाए हम उसको गीला करते और फिर जिस प्लास्टिक के डिब्बे से पानी डाल नहला रहे होते उसी से उस सूखे गोबर को रगड़कर उतारते थे इसके अलावा भैंस अपने थनों को लेकर अतिरिक्त संवेदनशील होती है वहां की साफ़ सफाई मुश्किल होती थी वो वहां हाथ न लगनें देती थी  मगर धीरे धीरे उन्हें बच्चों के हाथों की आदत हो जाती थी और वो आराम से थन साफ़ करवाती थी।
भैंसे की सवारी भी उन दिनों का एक बड़ा शगल हुआ करता था मैं भैंसे को खूंटे से खोलता और खोर (पशुओं के चारा डालने की जगह) पर चढ़कर उसकी पीठ पर सवार हो लेता था फिर नलके तक उसकी पीठ पर सवारी करके यमराज बनके पहुँचता था। पशुओं को नहलाते समय जो बच्चा नलका चला रहा होता वो चाहता कि पानी कम खर्च हो मगर हम खूब पानी से तर बतर करके पशुओं को नहलाते थे।
नहाने के बाद पशुओं के सींगो की जड़ में और सींग पर सरसों का तेल लगाते थे ताकि वो चमक उठे। नहाने से पहले पशुओं को चारा डाला जाता जिसके लिए सान्नी करनी पड़ती थी खल को भूसे और हरे चारे पर डालकर मिक्स करते थे धूप में सरसों की खल से हाथों में तेज जलन मचती थी फिर हम चोकर की बाल्टी में हाथ डालकर उसे शांत करते थे।
शाम तक काम निबटता था फिर घेर में धूल के ऊपर पानी छिड़कते थे और चारपाई बिछाकर बैठते थे उस वक्त पानी छिड़कने के बाद जो माटी की जो सोंधी खुशबू आती थी वो कमाल की होती थी।
हर घर में एक झोट्टी (भैंस) जरूर होती जो किसी के हात्तड़ पड़ जाती हात्तड़ का मतलब होता वो केवल एक उसी व्यक्ति को दूध निकालनें देती थी बाकि कोई बैठता था तो लात मारती थी ऐसे में वो शख्स यदि गाँव से बाहर जाता था तो उसे हर हाल में शाम तक घर आना पड़ता था वरना भैंस रींक-रींक कर ( रम्भाते हुए) बुरा हाल कर देती थी। मनुष्य और पशु के आपसी प्रेम का यह एक अद्भुत उदाहरण था।
हमारे यहां एक भैंस थी जो एक टाइम दूध देने लगी थी मैंने उसकी खूब सेवा की बढ़िया चारा डाला उसकी त्वचा से चिंचडी(परजीवी) हटाए उसके सींगो की मालिश की दो बार अलग से चोकर डालता था फिर उसनें शाम को भी दूध देना शुरू कर दिया था दूध निकालते समय मुझे उसके माथे पर हाथ फेरना होता था।
कुल मिलाकर बड़ी आत्मीय दुनिया था हम बच्चे पशुओं के साथ खूब घुल मिल जाते थे छोटे बछड़े और कटड़े/कटड़ी हमें देखकर उछलना शुरू कर देते थे मानों वो हमारे गहरे दोस्त हो।
शाम को हम बाल्टी भर दूध लेकर जब घर पहुँचते तो हमारी माँ हमें स्नेह और आदर से एक साथ देखती उन्हें लगता किसान का बेटा अपने मूल जीवन को जी कर आ रहा है वो चाहती थी हम खूब पढ़े लिखें आगे बढ़ें मगर एक अनिवार्य प्रशिक्षण के तौर पर और जीवनशैली के हिस्से के रूप में खेत खलिहान और पशुओं से जीवनपर्यन्त जुड़े रहें उनसे कभी मुंह न मोड़े।
अब जब सबकुछ छूट गया तब ये कुछ यादें ही है जिनके सहारे मेरे जैसे न जाने कितने लोग अपना वो बचपन जी सकते है जब हमारी दुनिया का एक बड़ा हिस्सा पशु रहें थे।

'यादें गाँव की'