Monday, September 27, 2010

प्रशंसा

स्व.हरिशंकर परसाई जी एक व्यंग्य लिखा था निन्दा रस के बारे मे जो मैने अपनी आठंवी की पाठय पुस्तक मे पढा था उस समय उसका कोई अर्थ नही था जीवन मे न मास्टरी जी को पढाने मे मज़ा आ रहा था और न हमे पढने में, मुझे याद है स्व.श्री केशव राम शर्मा जी (हमारे हिन्दी के अध्यापक) ने इस पाठ से एक ईमला लिखवाई थी देहाती स्कूलों वाले ईमला का अर्थ खुब समझतें है जिन्होनें तख्ती पोती हो खडिया से और कोयले से लाईने खींची हो फिर यह मल्ल युद्द मे यह तख्ती हथियार का भी काम करती थी।

खैर...निन्दा रस पर लौटता हूं हिन्दी मे पहले आलोचना आयी फिर समालोचना और इसी परम्परा मे नकार के रुप हम निन्दा को देखते है लेकिन मेरा ऐसा मानना है कि जिसकी निन्दा की जा रही है चाहे वह व्यक्तिगत रुप से हो अथवा सार्वजनिक वह कितना हीरो टाईप का होता जिसके न होने पर भी उसका जिक्र कईं लोगो की वाग्मिता की परीक्षा के ले रहा होता है तर्क पे तर्क और फिर काम न चले तो कुतर्क का भी सहारा लिया जा सकता है।

निन्दा सुनकर पीडा जरुर होती है लेकिन आत्मविश्लेषण का अवसर भी मिलता है बशर्तें कि आप थोडा तार्किक हो कर सोच सकें जबकि प्रशंसा की गहराई मापने का कोई पैमाना आज तक नही बना पता ही नही चलता कि सामने वाले के मुखारविंद से जो प्रशंसा की चासनी मे लिपटे शब्द टपक रहें है उनके पीछे का मंतव्य क्या है यहाँ मुझे प्रसिद्द दार्शिनिक देकार्ते का सिद्दांत कि संदेह करो विश्वास नही थोडा-थोडा सा ठीक लगने लगता है।

आजकल मुझे भी यह संदेह करने की एक आदत सी हो गई है जो हमने अपने गुरुजी से स्वत: ग्रहण की है उन्होने कभी नही सिखाया कि संदेह करो लेकिन मन अब मानता नही है जल्दी से विश्वास नही होता किसी की बातों पर और खास कर जब कोई आपकी मुक्तकंठ से प्रशंसा कर रहा हो,ये मुक्तकंठी प्रशंसा अपेक्षा का बोझ लेकर आती है जिस पर मेरे जैसे अज्ञानी के पैर पसर जाते हैं।

एक बार ऐसा मेरे साथ हुआ भी है मेरे एक अज़ीज मित्र अपने बडे ओहदेदार मित्र से मेरा परिचय कराया उपमाओं,विशेषणों को सुनकर जितना अच्छा लग रहा था बाद मे मेरी उतनी ही बोलती बंद हो गई मै अपने आप को ही आईडेंटिफाई नही कर पा रहा था कि आखिर क्या वास्तव मे मै वही हूं जैसा मेरा परिचय कराया गया है बस इसके बाद तो मै उन महोदय की हर बात से सहमत और आत्मसमर्पण की मुद्रा मे आ गया जो मुझे बाद मे पता लगा कि मेरे अजीज़ दोस्त को मेरा ऐसा व्यवहार बिल्कुल अच्छा नही लगा वें मेरे लिए वहाँ संभावना के बीज बोना चाह रहे थे और एक मै बंजर जमीन का बीहड बन गया था।

सो भाई मेरे अपनी समझ मे आजतक न निन्दा आई और न प्रशंसा...अब आप इसे पढ कर मुझे गरिया जरुर सकते है फिर भी आपका स्वागत है...।

मेरे सच ने ही अकेला मुझे करके छोडा

रफ्ता-रफ्ता मेरा लोगो पे असर खत्म हुआ...।(वसीम बरेलवी)

डा.अजीत

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