Monday, September 27, 2010

बात बेबात

ज़िन्दगी एक नशा है जब हल्का-हल्का शुरुर चढने लगता है तो रगो मे रौनक आ ही जाती है मन थिरकता है उस सरगम पर जिसका अर्थ समझने की जरुरत ही नही बस एक अहसास है उसको महसूस करने की कला आनी चाहिए। ये कोई प्रखर आशावाद का भाषण नही है और न ही पाजिटिव थिंककिंग की अभिप्रेरणा...। अभी-अभी जिम से लौटा हूं मेरे विश्वविद्यालय के कई बालक अपने शरीर सौष्ठव के लिए उसी ज़िम मे जाते है जब आज ज़िम के मालिक ने मेरे बारें मे उनको बताया कि मै उनका गुरुजी हूं तो वे झेंप गये और यस सर वाले मोड मे आ गये मै अपनी हालत तो क्या बताऊं? फिर मैने ही मौहाल सामान्य करने का प्रयास किया उनको फिटनेस मंत्रा देकर हालांकि वे सभी बी.टेक.के छात्र है लेकिन फिर भी गुरुकुल मे गुरुडम पसरा ही रहता है बाहर भी...।

आज का दिन भी कुछ खास नही बीता बस यूं अपने आपको व्यस्त रखनें के बहाने ढूंडता रहा मेरी आदत ठीक दस बजे विश्वविद्यालय पहूंचने की है जब से यह मास्टरी की नौकरी शुरु की निजि ज़िन्दगी मे मै ऐसा कोई ज्यादा अनुशासन का पालन करने वाला नही हूं लेकिन प्रयास करता हूं कि धन और समय के मामले मे अनुशासित रहूं। आजकल जो हमारे विभागाध्यक्ष जी है उन्हें मेरी शक्ल और अक्ल थोडी कम ही पसंद है लेकिन वो भी मेरी इस बात के कायल है कि मैने कभी लेटलतीफी नही की....आज एक साथी प्राध्यापक जो हमारे दल से ताल्लुक रखते है वें दस बजे अपनी क्लास मे नही आएं तो इस पर विभागाध्यक्ष जी ने उपस्थिति पंजिका मे उनकी हाजिरी की जगह पर एल(लीव) का बडा सा गोल घेरा बना दिया जिससे विभाग मे थोडी देर हलचल सी मची रही हालांकि उन्होनें अपने को न्यायप्रिय सिद्द करने के चक्कर मे अपने खेमे के भी एक अध्यापक जो संयोग से दो दिन से अनुपस्थित चल रहें थे उनको भी एल का प्रसाद दिया है अब खबरिया चैनल की भाषा मे कहूं तो बहरहाल देखने वाली बात यह होगी कि कल दोनो की पेशी जब विभागाध्यक्ष के सामने होगी तो मुझे अपने दल के डाक्टर साहब के बचाव मे गवाही देनी पड सकती है।

ये हाल है विश्वविद्यालय के विभागों का जहाँ पर मेरे जैसे तदर्थ असिस्टेंट प्रोफेसर अपने वजूद की लडाई रोजाना यूं ही लडते है मै पिछले चार सालो से लगातार मनोविज्ञान पढा रहा हूं और मनोविज्ञान मे भी क्लीनिकल साईकोलाजी पढाता हूं अपने छात्रों मे ठीक-ठाक लोकप्रिय भी हूं जितना जानता हूं उतना उनको बताने की कोशिस करता हूं ताकि वें किताबो के मनोविज्ञान से निकल से ज़िन्दगी के मनोविज्ञान का सबक याद कर सकें।

वर्सलटाईल होना भी किसी गुनाह से कम नही होता अब मुझे ही देखिए कि मै पढाता मनोविज्ञान हूं लिखता कविता,गजल और ये बक्कडबाजी,पढता कुछ भी नही और रुचि पत्रकारिता मे है सुबह उठ कर जब तक मै अखबार मे खबरों की प्रस्तुति से लेकर शैली तक की समीक्षा न कर लूं तब तक मुझे चैन नही मिलता। फक्कडी और यायावरी मेरा शगल है कभी सिद्दो से मिलना चाहता हूं तो कभी मित्रों की कुंडली बांचने बैठ जाता हूं उनको ज्योतिष पर परामर्श देने लगता हूं सभी को कुछ न कुछ धारण(रत्नादि) कराना चाहता हूं ताकि उनकी जिन्दगी मे खुशहाली आएं...।

अब आप समझ गये होंगे कि मै कितना कंफ्यूज्ड किस्म का बकवासी इंसान हूं साथ मे एक पत्नि और बच्चा भी है उनका भी ख्याल रखना है अपनी प्रयोगधर्मिता के बीच मे वें बेचारे हर बार पीसते रहते हैं,पत्नि की चुप्पी और बच्चे का अपने आप ने खोए रहना कई बार मुझे हैरत मे डाल देता है कि आखिर मै कर क्यां रहा हूं। मेरी पत्नि को भी मेरी यह वर्सलटाईल किस्म की लाईफ कोई खास पसंद नही है बेचारी सोचती रहती है किसी सामान्य मास्टर से शादी की होती तो खुब चाट-पकौडी खातें और सिनेमा देखा जाता है(एक राज की बात यह है कि मेरी पत्नि ने अभी तक पिक्चर हाल मे कोई फिल्म नही देखी है), सच मे एक आम आदमी बन कर रहना कितना मुश्किल है, और मै न आम हूं और न खास बस ऐसा ही हूं मै....।

मुसाफिर तेरी नादानी पे रस्ता मुस्कुराता है

सफर होता है कितना और तू कितना बताता है।(वसीम बरेलवी)

डा.अजीत

No comments:

Post a Comment