Sunday, September 26, 2010

दर्द

अभी किशोर कुमार का एक गाना सुन रहा था कि जब दर्द नही सीने तब खाक मज़ा था जीने में...सच मे दर्द भी एक आंतरिक प्रेरणा है अपने करीब पहूंचने का एक ऐसा जरिया जिसे रुहानी कहा जा सकता है। आदरणीय हरिवंश राय बच्चन जी कविता है मै छिपाना जानता तो जग साधु समझता,बन गया शत्रु छल रहित व्यवहार मेरा...अब आप सोच रहें होंगे कि कभी किशोर कुमार के दर्द भरे नगमें मे प्रेरणा तलाश रहा तो कभी अपनी साफगौई की पीडा को जोड रहा हूं ,दरअसल मसला यह है कि पिछला एक महीने मेरे लिए भावनात्मक रुप से बहुत भारी था ज्योतिष की भाषा मे इसे राहू काल कहा जा सकता है। सारे रिश्तें नाते बिखर गये थे दोस्त सब छूट गये थें मन मे एक अजीब सी जुगुप्सा के भाव एकांतवास के,मौन के और अज्ञातवास मे जीने के....जीने की कोशिस भी की और जिया भी लेकिन अपने आपसे भागा नही जा सकता है यह एक ऐसी दौड है जिसमे जल्दी ही सम्वेदनशील व्यक्ति थक जाता है।

मै भी थक गया आत्म प्रवंचना से आत्म विश्लेषण सब किया मनोविश्लेषण भी किया कि कही ईगो की प्राब्लम तो नही है। नतीज़ा सिफर निकला जिन्दगी अपना रास्ता खुद तय करती है हम तो माध्यम मात्र है और रंगमंच की तरह अपने पात्र को जीने का अभिनय कर रहें है,मूल कुछ और है और आवरण कुछ् और...।

मेरा निजी अनुभव यही रहा कि पीडा मे सृजन खुब हुआ जब मै अन्दर टूट रहा था तो बाहर अभिव्यक्ति मे गज़ब की सम्वेदना निखर रही थी, अनिन्द्रा के रोग के कारण शामक दवाईयों के हल्के-हल्के शुरुर मे जो मन मे आया लिखा कविता,गज़ल या फिर अपनी पीडा सब कुछ उम्दा बन पडा और आज जब मैने पीछे मुडकर देखा तो दूनिया तो वैसे ही चल रही है जैसे चलनी थी मेरे अपने निजि तनाव,सम्बन्धों के परिभाषा और शायद समग्र रुप से अपेक्षा का टूटना मेरी बैचेनी की एक वजह था।

आजकल मै वो कर रहा हूं जो मैने कभी सोचा नही था...जागिंग क्योंकि भले ही मेरी काया ऐथेलेटिक किस्म है लेकिन मैने कभी अपनी फिटनैस पर ध्यान नही दिया है मसलन हेल्थ कांशेयस नही रहा हूं।

पहले मन से हांफ रहा था अब तन से हांफता हूं लेकिन एक फर्क समझ मे आया कि जाने क्यां ढूडें मन बावरा और गालिब का शेर हजारों ख्वाहिशे ऐसी कि हर ख्वाहिश पे दम निकले....का मतलब अब समझ मे आ गया है। एक मित्र अक्सर यह जुमला कह देते है कि वो देर से पहूंचा मगर वक्त पर पहूंचा... अब शायरी जीने की कोशिस करता हूं पढ तो बहुत ली है...।

अब आप भी मेरी इस बेवक्त की गालबजाई से बोर होने शुरु हो गये होंगे सो अभी आपसे विदा लेता हूं...शेष फिर कभी...!

मेरे प्रिय और आदरणीय शायर जनाब वसीम बरेलवी साहब का एक शेर याद आ गया है जाते-जाते सो आपको सुना देता हूं....शायद आपको मौजूं लगें।

मौजों से लडते तो रहे अब जीत लगे या हार लगे

कोई हमसे पूछ न लेना कैसे दरिया पार लगे..।

डा.अजीत

3 comments:

  1. बहुत खूबसूरती के साथ शब्दों को पिरोया है इन पंक्तिया में आपने .......

    पढ़िए और मुस्कुराइए :-
    आप ही बताये कैसे पार की जाये नदी ?

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  2. DR. SAHAB APKI KALAM SHABDON BAHUT HI ACHCHHE TARIKE SE PIROTI HAI. APKA LEKHAN MANN KO BAHUT HI ACHCHHA LAGA. UMEED HAI KI AAGE BHI APKE DWARA RACHE GAYE SHBDON KO PADHNE KA MOUKA NASEED HOGA.
    HARDDHIK SHUBHKAMNAO KE SATH
    UMMAID SINGH GURJAR

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