Wednesday, September 29, 2010

निशब्द

अमिताभ बच्चन जी की इस फिल्म मे एक गीत है जो खुद उन्ही की आवाज़ मे है रोजाना जीएं....रोजाना मरे तेरी यादों मे...बहुत दमदार सोलो सांग है मैने कल ही यह गाना डाउनलोड किया है बार-बार सुनता रहता हूं जोकि मेरी आदत भी है एक गाना जब दिल पर सवार हो जाता है तो मै उसको जनून की हद तक सुनता हूं...। फिल्म का विषय विवादास्पद टाईप का था हालांकि थी समाज की सच्चाई ही प्रेम जब होता ऐसे ही होता है न उम्र का बन्धन देखता है न कुछ और...। प्रेम मेरा प्रिय विषय रहा है कविताओं के मामले मे मेरी अधिकांश कविताएं प्रेम विषयक ही रही है जबकि सच बात यह है कि मैने आज तक किसी से प्रेम नही किया बडा आत्ममुग्ध किस्म का आदमी हूं...। मेरे बहुत से करीबी दोस्तों को मुझ पर आज भी यह शक है कि मैने किसी कन्या से गुप्त प्रेम किया है कभी किसी को जाहिर नही होने दिया और वही मेरी कविता लेखन की प्रेरणा भी हैं,लेकिन मै सफाई देता-देता थक गया हूं कि भाई लोगो ज़िन्दगी की आपा-धापी और पारिवारिक जिम्मेदरियों ने वक्त से पहले इतन प्रोढ बना दिया कि कभी प्रेम जैसे विषय पर सोचने का मौका ही नही मिला। 21 साल की उम्र मे शादी हो गई और 22 मे एक बेटा जो अक्सर बीमार रहता है(माईल्ड सेरेब्रल पाल्सी नामक बीमारी से पीडित है)।

मेरे कहना है कि प्रेम करने से नही होता ये तो बस हो जाता है खुद बखुद। महफिल मे एक दिन एक मित्र ने कहा डाक्टर साहब एक दिन आपके जीवन मे वो जरुर आयेगा जब आपको किसी से प्रेम हो ही जाएगा...मै चौंका...अब! कही आप विवाहेत्तर प्रेम की बात तो नही कर रहें है,उनका इशारा शायद उसी तरफ था लेकिन अपनी पत्नि की भलीमानुसिता देखकर मुझे नही लगता कि कभी मै इस तरह से लडखडा सकता हूं...पति-पत्नि का प्रेम अलग किस्म का होता नो डिमांडिंग किस्म का और हम दोनो ही अन्तर्मुखी स्वभाव के है कभी एक दूसरे की सिलेक्टिव निजी लाईफ मे दखल भी नही देते है इसलिए आपस मे एक मौन समझ भी बनी हुई और वो स्पेस भी जो कोई भी संवेदनशील व्यक्ति चाहता भी है।

रोजाना जीएं...रोजाना मरें ये जरुर मेरे साथ होता रहता है रोजाना खुद को बहलाना पडता है, जिन्दा करना पडता है और रात को सोने से पहले खुद को मारना पडता है इसलिए यह गीत मुझे प्रिय है लेकिन किसी की याद मे नही अपनी वजूद की लडाई के रोजाना यह सब करना पडता है।

दरअसल एक अधुरेपन का मसला हमेशा जिन्दगी के साथ चलता रहता है राजन स्वामी जी की एक बहुत प्यारी सी एक गज़ल भी है कि अधुरेपन का मसला ज़िन्दगी भर हल नही होता... बहुत से लोगो से इस विषय पर बात कर चूका हूं हर आदमी जो कर रहा है वह उस काम को करके खुश नही है वह कुछ और करना चाहता है इसमे मै भी शामिल हूं पिछले चार सालों से विश्वविद्यालय मे मास्टरी कर रहा हूं ठीक ठाक सम्मान है अपने छात्रों मे भी लोकप्रिय हूं लेकिन रोज़ाना लगता है कि मै इस पेशे के लिए नही बना हूं मेरी मंजिल कुछ और है कभी लगता है कि अगर मै पत्रकारिता मे आ गया होता तो आज से बेहतर स्थिति मे होता मेरे बहुत से मित्र भी यही कहते है कि आप अच्छा लिखतें है काहे मास्टरी करतें है प्रिंट मीडिया मे क्यों नही आ जातें हो!और तस्वीर का दूसरा पहलू यह भी है कि मेरे एक मित्र जो एकाध साल में संपादक होते उनका पत्रकारिता से ऐसा मन भरा कि वें मान-सम्मान,रसूखदार लोगो मे ऊठ-बैठने का सुख छोड-छाड कर विश्वविद्यालय मे हिन्दी के मास्टर बन गयें है उनके अपने तर्क है पेशा बदलने के....।

अब आपको लग रहा होगा कि मै कितना विषयांतर कर देता हूं बात प्रेम से शुरु की थी और आ गया पेशेगत असंतुष्टि के स्तर पर...ऐसा नही है यह एक सतत बैचेनी है जो मै रोजाना महसूस करता हूं चूंकि मेरा विषय मनोविज्ञान है इसलिए मै इस बडप्पन मे नही जीना चाहता कि मै सर्वज्ञ हूं और लाईफ जीने का क्लीयर कट फंडा मुझे पता है,एक आम आदमी की तरह मै भी रोजाना खुद को ज़िन्दा करता हूं जिन्दगी का सामना करने के लिए और रात को उसी बैचेनी के साथ सोता हूं जो मेरी जीने की वज़ह बनती जा रही है...। ।इति सिद्दम।

डा.अजीत

1 comment:

  1. ye aadat kuchh gano ke saath meri bhi achchhe lagne par baar baar sunna ,baat film ki hai to is vishya par kuchh kahna uchit nahi kyonki prem me mrayada ko napna thoda muskil hota hai ,ye vicharo aur samvednao ka rishta hai jo ulnghan jaise shabdo se anjaan hota hai .ise to hum dekhte hai samajik niymo ke aadhar par .

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