Saturday, September 25, 2010

यार मकन्दां

पश्चिमी उत्तर प्रदेश के देहात मे एक कहावत बडी प्रचलित है पता नही देश के अन्य देहात के हिस्सों मे यह कही-सुनी जाती है या नही कहावत यूं है अडी-भीड का यार मकन्दा मतलब समझा देता हूं जीवन मे ऐसा शख्स जो बुरे वक्त मे आपके साथ खडा रहे उसे आपकी सफलता-असफलता से कोई खास फर्क नही पडता हो, आप सबके जीवन मे भी ऐसे यार मकन्दें होंगे जाहिर सी बात है कि दोस्त तो हर कोई बनाता ही है लेकिन बुरे वक्त मे जो साथ खडा रहता वो भी बिना शर्त के वास्तव मे वही अपना यार मकन्दा होता है। वसीम बरेलवी साहब ने फरमाया भी है, शर्ते लगाई नही जाती दोस्ती के साथ कीजिए मुझे कबूल मेरी हर कमी के साथ,किस काम की रही ये दिखावे की ज़िन्दगी वादे किये किसी से गुजारी किसी के साथ...। शेर का ख्याल दिल को छू जाता है। दोस्ती दूनिया का सबसे विवादास्पद विषय है क्योंकि इसके कोई एक मानक तय नही किए जा सकते है ऐसा मेरा मानना है एक मौलिक सम्वेदना होती है जो दो अजनबी दिलों को करीब ले आती है और दोस्ती के बन्धन मे बांध देती है।

...फिर से यार मकन्दें पर लौटता हूं क्योंकि ऐसे यार ही वास्तव मे जीने की वजह बन जाते है वरना दूनियादारी मे सम्बन्धों को सम्वेदना के साथ सहज़ कर रखना सभी के बस की बात नही है। मेरा भी एक यार मकन्दा है जो मेरे गांव मे रहता है दसवीं से लेकर बी.ए. तक हम लंगोटिए किस्म के यार रहें है आज उसकी याद आयी कमी महसूस हुई तो उसका जिक्र इस डायरी मे ले आया हूं। ऐसा निस्वार्थ बन्दा मैने आजतक नही देखा आज वो गांव मे अपना एक प्राईमरी स्कूल चलाता है और मै विश्वविद्यालय मे मास्टरी कर रहा हूं कितना फर्क है दोनो के अध्यापन मे लेकिन दिल ऐसा लगता है कि आज भी एक ही है। एक रोचक बात आपको बता दूं कि मेरी काया कुछ दैत्याकार किस्म की है मसलन छ फीट दो इंच और मेरे दोस्त देवेन्द्र की लम्बाई पांच प्लस होगी कभी फीता लेकर तो नापा नही जब हम दोनो साथ-साथ पढने जाते थे लोग उस पर खुब व्यंग्यबाण और तंज कसा करते थे कि कहाँ ऊँट के साथ घूम रहा है,लेकिन मैने कभी उसके चेहरे पर शिकन नही देखी वो सब बातों को ऐसे नज़रअन्दाज़ कर जाता था जैसे उसे कोई फर्क ही न पडता हो इन सब दूनियादारी के पैमानों से...। मैने कभी उसमे ईगो नही देखा जैसा मैने निर्णय लिया उसी मे उसकी भी सहमति रहती थी। एक भी किस्सा मुझे ऐसा याद नही है जब उसने प्रतिरोध किया हो और ऐसा नही कि मै उस पर अपने विचार,सोच थोपता था बस एक सहज़ स्वीकृति थी उसके मन मे मेरे प्रति जो आजतक वैसी ही बनी हुई है जैसी कभी दसवीं मे हुआ करती थी जब हम साथ पास के कस्बें मे पढने के लिए कमरा लेकर रहते थे।

सर्दियों मे हमारा साप्ताहिक स्नान होता था मतलब हफ्ते में एक ही दिन रविवार को नहाने का आयोजन होता था और हमारी सामूहिकता और आपसी मौन समझ ऐसी बनी हुई थी कि उसके नहाने के लिए नीचे नल से पानी की बाल्टी मै भर कर लाता था और मेरे लिए वो...कितना सुख था और अपनापन भी यह सब करने में,रात मे पढतें समय चाय हमेशा वही बनाता था और बर्तन हम मिल-कर मांजते थे।

सच मे ऐसा यार मकन्दा मिलना अब मुश्किल ही है अब बहुत से बौद्दिक चवर्णा करने वाले,दूनियादारी का सबक सिखाने वाले मित्र तो बने या भावुक मन से कुछ से जुडाव हुआ लेकिन देवेन्द्र की तुलना मै किसी से भी नही कर पाता हूं।

हमारी दोस्ती की गहराई इस बात से पता चलती है कि मुझे बी.ए.के समय हम परीक्षा दिनों कमरा किरायें पर ले लेते थे और उस कमरे मे शौचालय की व्यवस्था नही होती थी खुले मे जंगल मे शौच के लिए जाना पडता था तथा मेरी आदत शौच मे निवृति के लिए समय लेने थी कब्ज़ की शिकायत नही थी बस समय लेता था जबकि देवेन्द्र की निवृति तुरन्त हो जाती थी लेकिन मेरे कहने पर वो मेरे साथ ही उठता था जंगल से ताकि मै ठीक से निवृत हो सकूं...।

एम.ए. करने मै हरिद्वार आ गया और वो वही गांव मे छूट गया उसके पिताजी ने बाहर रहकर पढाने मे अपनी आर्थिक असमर्थता जाहिर कर दी और इस तरह से मेरी अडी-भीड का यार मकन्दा गांव मे छूट गया। आज मैने भले ही उससे बडी डिग्री,पद,ओहदा हासिल कर लिया हो लेकिन आज भी जब उसके बिना शर्त के समर्पण के बारे मे सोचता हूं तो मन भारी हो जाता और शहरी रिश्तों से एक खास किस्म चिढ भी...। उसके समर्पण के सामने मै आज भी बौना हूं और विडम्बना की बात तो यह है कि अब मै अपनी आपा-धापी और ओढी हुई ज़िन्दगी में इतना मशरुफ हो गया हूं कि अब तो गांव जाता हूं तब भी उससे मिलना बमुश्किल ही हो पाता और वो अब भी कभी-कभी दोस्ती के एसएमएस फारवर्ड कर देता है जिनका मेरे पास कोई जवाब नही होता है....।
अभी इतना ही शेष फिर...
हरिद्वार मे भी अपना एक अडी-भीड का यार मकन्दा मिला है उसका जिक्र अगली पोस्ट मे करुंगा बाकि तो सब दूनियादारी के लोग ही मिले अब तक...।
डा.अजीत

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