Monday, March 28, 2011

अस्पताल का अवसाद

आज अस्पताल मे आयें 13 दिन हो गयें है। दिनभर यहाँ मरीज़ो की आवाजाही रहती है प्राय: प्रतिदिन एक डिलिवरी तो हो ही जाती है ओ.टी. के बाहर खडे परिजनों के चेहरे डाक्टर की सुरक्षित प्रसव की सूचना और साथ मे यदि बेटा हुआ है तो उसकी खबर लोगो के चेहरो पर एक खास किस्म की खुशी बिखेर देती है,फिर शुरु होता है बधाईयां...मिठाई का दौर कुछ चेहरे ऐसे भी होते है जो पहली बार बाप बने होते है उनकी बाडी लेंग्वेज़ अलग ही किस्म की होती है।

जिस अस्पताल मे मै पिछले एक पखवाडे से रह रहा हूँ उसके स्वामी डाक्टर दम्पत्ति अपने बच्चों के पास अमेरिका गये हुए हैं संभवत: एक अप्रैल को लौटेंगे सो यहाँ के कर्मचारियों के अंदर के खास किस्म की स्वतंत्रता को भाव छाया हुआ है चाहे वह सिस्टर हो या रिसेप्शनिस्ट सभी मुक्त भाव से अपने काम का मज़ा ले रहें है मुझे कल कैमिस्ट ने बताया कि जब डाक्टर साहब यहाँ होतें है तो यहाँ का माहौल ही अलग किस्म का होता है एक खास किस्म का सन्नाटा और आंतरिक अनुशासन पसरा रहता है।

रोज़ाना इतने चेहरे सामने से गुजरते है कि कभी-कभी लगने लगता है कि दूनिया मे दुख कितना बडा सामाजिक यथार्थ है ऐसे भी भगवान बुद्द भी याद आतें है। जीवन-मरण,हानि-लाभ,नियति-प्रारब्ध जैसे शब्द मन मे दस्तक देते रहतें हैं। अस्पताल का जीवन इतना बोझिल और मानसिक थकान से भरा होता है कि सारा दिन अपना बोझ ढोने के बाद जब रात को मै लेटता हूँ तो पडकर यह पता नही रहता है कि कहाँ पडा हूँ। पत्नि को भी हर तीन घंटे के बाद बच्चें को दूध पिलानें के लिए छत पर जाना पडता है(एन.आई.सी.यू. छ्त पर ही है) वो भी थकी-थकी सी रहती है क्योंकि रात मे नींद पूरी नही हो पाती है और बच्चे के स्वास्थ्य को लेकर मानसिक तनाव अलग से रहता है।

दुख और इससे उपजी आत्मीयता का संसार अस्पताल मे बखुबी देखा जा सकता है मै दिन मे कईं बार नर्सरी के चक्कर लगाता हूँ बालक को शीशे से देखकर लौट आता हूँ नर्सरी के बाहर मेरे जैसे और भी कई लोग अपने बच्चे की स्वास्थ्य लाभ की कामना से बाहर बैठे रहते हैं खासकर ऐसी माएं जिनका बच्चा नर्सरी में भर्ती है उनके आंखों मे हर समय पानी तैरता रहता है जैसी ही किसी ने उनसे यह पूछा कि आपका बच्चा कैसा है वें बडी मुश्किल से अपने आप को संभाल पाती है गला रुंध जाती है और पलको के कोने से एकाध बूंद टपक ही पडती है। यह देखकर मन द्रवित हो जाता है और बस यही दुआ करता हूँ कि ईश्वर ऐसा मानसिक कष्ट किसी दुश्मन को भी न दें। सभी एक दूसरे के बच्चों का हाल चाल जानकर परस्पर सांत्वना देते रहते है तथा एक दूसरे का ढांडस बंधाते रहतें है जिसके बच्चे को छूट्टी मिल जाती है वो यहाँ से जितनी जल्दी हो सके भागना चाहता है और यही उम्मीद करता है कि वो फिर कभी यहाँ लौट कर न आयें। सभी को अपनी-अपनी बारी का इंतजार है बाल रोग विशेषज्ञ दिन मे दो बार राउंड लेते है जिस समय वो आतें है सभी पेरेंट्स की हालात देखने वाली होती है अपने बच्चे को लेकर इतनी शंकाए इतने सवाले उनके मन मे होते है कि बेचारे डाक्टर के समक्ष डरते-डरते थोडा बहुत ही कह पातें है जिस दिन डाक्टर बेबी के ठीक होने की बात कह देता है उस दिन उनके बोझिल चेहरों पर उत्साह से एक इंच मुस्कान बरबस ही आ जाती है और जिन बच्चों को तकलीफ अभी भी जारी है तथा संकट नही टला है वें चिंतित हो जाते है और भगवान की शरण मे जा कर खुद की एक आस बंधाते हैं।

पता नही ईश्वर का अस्तित्व है या नही है लेकिन मुझे इतना जरुर लगने लगा है कि विज्ञान की कडवी सच्चाई से भागकर यदि कही शरण मिल सकती है तो वह ईश्वर की शरण ही है हो सकता है कि यह एक झुठी आस ही हो लेकिन जब डाक्टर नकारात्मक बातें बताता है तो पेरेंट्स बस यही प्रार्थना करते है कि हे! ईश्वर हमारें बच्चे की मदद कर मै भी उन्ही मे से एक हूँ।यदि यह ईश्वर की अवधारणा न होती तो संकट की घडी में न जाने कितने लोग आत्महत्या कर चुके होतें कुछ और मिले न मिलें ईश्वर की प्रार्थना से एक संबल तो मिलता ही है भले ही वह सच्चा न हो।

सर्व: भवन्तु सुखिन:

डा.अजीत

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