Saturday, March 5, 2011

दीक्षांत समारोह के बहानें

आज हमारे विश्वविद्यालय में 111 वां दीक्षांत समारोह था।लोकसभा अध्यक्ष डा.मीरा कुमार मुख्य अतिथि थी साथ दिल्ली विधान सभा अध्यक्ष डा.योगानंद शास्त्री विशिष्ट अतिथि थें। गत शैक्षणिक सत्र के पीएचडी,पोस्ट ग्रेजुएट्स तथा ग्रेजुएट्स को उपाधि दी गई भिन्न-भिन्न रंग के गाउन मे छात्र-छात्राएं आज अपनी शिक्षा पूर्ण होने की खुशी मे मस्त नज़र आ रहे थें। मुझे अपना दीक्षांत समारोह याद आ रहा था जब हम तीन अभिन्न मित्रों ने एक साथ अपनी डिग्री प्राप्त की थी जिसमे से हम दो पी.एच.डी थें एक पत्रकारिता मे गोल्ड मैडल प्राप्त करने वाले उपाधिपत्र धारक। हमने अपने-अपने गुरुजनों के साथ भी एक-एक फोटो खिचवाया था ठीक आज ऐसा ही नज़ारा था गुरुकुल के आचार्यगण(प्रोफेसर) अपने प्रिय विद्यार्थियों के साथ क्लोज़ अप फ्रेम के स्नैपस खिचवातें नज़र आ रहे थे। भले ही गुरुकुल मे कई प्रकार की तकनीकि अव्यवस्थाएं साल भर चलती रहती है लेकिन एक बात यह यहाँ के अकादमिक माहौल को खास बनाती है वह है यहाँ की गुरु-शिष्य परम्परा।शोध करने वाले छात्रों का अपने गुरु के साथ एक ऐसा आत्मीय संबन्ध बन जाता है जो कई अर्थों मे यूनिक किस्म का है। मै यह बात दावे के साथ इसलिए कह सकता है कि मैने अन्य विश्वविद्यालयों मे देखा है कि वहाँ के प्रोफेसर एक खास किस्म की पर्सनल डिस्टैंस बना कर चलते है अपने स्टूडेंट्स सो वहाँ एक औपचारिक रिश्ता होता है ब्रितानी किस्म का।
अब अपनी कुछ बात....मेरी ड्यूटी विश्वविद्यालय के सीनेट हाल की भोजन व्यवस्था मे थीं मै और मेरे एक मित्र डा.अनिल सैनी दोनो वही दिन भर डटे रहें, वैसे तो बडा ही बोझिल किस्म का काम था लेकिन कभी-कभी कुछ काम अनिच्छा से भी करने पडतें है, वक्त काटने के लिए हमने समालोचना-निन्दारस का खुब पान किया साथ ही अपने भविष्य को लेकर अपनी चिंताएं सांझा की। हमारे कोर ग्रुप के वरिष्ठ प्रोफेसर को हमारी ईज़ी गोईंगनेस से तकलीफ भी होती रही वो बार-बार बडबडाकर अपने वरिष्ठ होने और हमारें तदर्थ होने का बोध संज्ञा,सर्वनाम और विशेषणों के माध्यम से कराते रहें जिसका भी हमने लुत्फ ही लिया।
कुल मिलाकर दिन सामान्य रुप से कट गया जैसे रोज़ाना कटता है आज मैने शाम को दूध लेने जाते समय अतीत की स्मृतियों को सायास दफन किया मुझे लगता है कि ये आदत मेरे लिए तकलीफ की बडी वजह बनती जा रही है। वैसे तो परिपक्वता के मामले मे मेरे कुछ मित्रों के हिसाब से मै अभी शिशु ही हूँ इसलिए दूनियादारी का सबक सीख रहा हूँ मैच्योर होने और प्रेक्टिकल होने की कोशिस भी कर रहा हूँ।
गत 28 फरवरी को एक सामूहिक उत्सव का मै भी हिस्सा बना था, कार्यक्रम तो बेहद मज़ेदार किस्म का रहा दो दोस्तों के लिहाज़ से यह एक अविस्मरणीय था लेकिन समापन के बाद कुछ एकाध घटना ऐसी घट गई जिसने मुझे बैचेनी से भर दिया है क्या हुआ था इसकी चर्चा नही करुंगा क्योंकि इससे अनावश्यक निज़ता का हनन हो सकता है। बस सांकेतिक रुप से यही कहूंगा कि जो भी हुआ मुझे कतई अच्छा नही लगा। मुझे अपनी छवि की कोई खास परवाह नही है लेकिन पता नही कैसा बुरा वक्त चल रहा है मै करता हूँ अच्छा और अंत मे मुझे मिलती है बुराई ही है। खैर!अधिकार,स्नेह,छवि,अपनापन,मित्र,परिवार,सम्बन्ध,परिपक्वता,मैच्योरटी इन सभी शब्दों के इर्द-गिर्द अपने वजूद को तलाश रहा हूँ। उस रात की एक घटना को सोचकर अभी भी भयभीत हो जाता हूँ साथ भी आत्मप्रवंचना,ग्लानि जैसे भावों से भी भर जाता हूँ।
पिछले कुछ दिनों से आवारा की डायरी पर नियमित लेखन नही हो रहा है जिसका मुझे भी खेद है। भले ही यह ब्लाग कमेंट्स के मामले मे एक दम निर्धन किस्म का है लेकिन एक वेबसाईट के आंकडों के हिसाब से मेरी कविताओं के ब्लाग शेष फिर जो तीन साल पुराना है से ज्यादा लोकप्रिय है मतलब ज्यादा बार देखा जाता है। यह बात दिल को सुकून देती है।
अभी इतना ही...शेष फिर
डा.अजीत

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