Sunday, March 6, 2011

निजता: जिसका मैने हनन किया

निजता को बचाए रखना मेरी अकेले की जिम्मेदारी थी ऐसा वें सब सोचतें है जो मेरे आस पास है। ग्रामीण पृष्टभूमि से निकल कर जब शहर मे आया तब मन में इतने सारें संकोच थे कि उनका जिक्र करुँ तो अलग से एक पोस्ट लिखनी पड जायेगी। वें सारे किंतु-परंतु और मनोवैज्ञानिक डर जिस आप मेरी हीन भावना भी कह सकतें है दिल-दिमाग पर इस कदर हावी थी कि बस बता नही सकता। ऐसा नही है कि आर्थिक रुप वंचित परिवेश से आया था और शहर की तथाकथित कुलीनता और अभिजात्यता से भयभीत था मेरे पिताजी गांव के सबसे बडे जमीदार है, एक प्रकार से सामंतवादी व्यवस्था का परिवार रहा है बडी जायदाद और कई कामगार आदि-आदि। ये एक लम्बी दास्तान है कि कैसे एक जमीदार के घर मे पैदा हुआ लडका कविता की बात करने लगा,दर्शन पढने लगा और फिर अतंत: मनोविज्ञान की मास्टरी करने लगा जिसकी चर्चा मै कभी फिर करुंगा।

बहरहाल, मुझ पर यह इलजाम है कि मै दोस्तों के बीच की नितांत ही निजी किस्म की बातों को भी अपने इस ब्लाग के माध्यम से सार्वजनिक कर देता हूँ जो सबको नागवार गुजरता है कुछ लोगो का यह भी कहना है कि मै ऐसा इसलिए करता हूँ कि खुद को महान सिद्द कर सकूँ और दूसरो को हीन जबकि मेरी मंशा ऐसी कभी नही रही। मेरे एक पूर्व मित्र नें मेरी कुछ पोस्ट्स पढने के बाद मुझ पर यह आरोप लगाया था कि मै ब्लाग पर भावनात्मक मुज़रा करता हूँ। यें सब मेरी शख्सियत के वें पहलु हैं जिन पर गाहे-बगाहे बातें बनती ही रहती है।

मेरे लिए यह सौभाग्य की बात है कि मुझे समझदार दोस्त मिलें है जिन्हें और किसी बात की फिक्र हो न हो लेकिन मेरी छवि की बडी परवाह रहती है। यहाँ एक और अभिन्न मित्र का जिक्र याद आ रहा है जिनके हिसाब से मेरे मित्र बनने की हैसियत किसी मेरे परिचित के पास नही है उनका आशय मानसिक हैसियत से था उनका मानना रहा है कि लोग मेरे प्रशंसक हो सकतें है मित्र नही वें भी मेरी ऐसे ही मित्र टर्न प्रशंसक बन गये हैं।

कुछ ऐसे भी चेहरे है जिनसे मेरा वास्ता तकरीबन मेरे होश मे जीने के बराबर से ही रहा है हम लोग साथ ही मन्जिल के लिए निकले थे....उनमें कुछ ने अपनी मंजिल पा ली है कुछ ने मंजिल का पता बदल दिया और कुछ रास्तें मे ही खो गये हैं। मै अभी तक मुसाफिर ही हूँ मंजिल क्या है इसका न मुझे पता था है न है और न ही निकट भविष्य मे होने वाला है। मेरे अन्दर इतने सारे ख्याल,वजूद ,ख्वाब सिमटे हुएं है कि पता नही कौन सा मेरा अपना निकलेगा।

दिल वालो की सोहबत ढूंडता हुआ मै अपने घर से बहुत दूर निकल आया हूँ यह एक ऐसा सफर है जिसमे मीलों नंगे पांव चलने के बाद भी रास्तें मे सुस्तानें के लिए कोई ठौर-ठिकाना नज़र नही आता है। अपनी कमजोरियों के साथ जो भी मुझसे गल्तियां हुई है उन सबका अफसोस मुझे जरुर है लेकिन सबसे ज्यादा अफसोस बस इस बात का है कि जिस तरह का लहू मेरी नसों मे दौड रहा है जो हकबात और ज़ज्बात का मुफीद है उसके जैसे कदावर लोगो से अभी मुलाकात नही हो पाई है। अपने देहात मे एक कहावत प्रचलित है कि जिसकी भी पूंछ उठाई वही मादा निकला बस ऐसी ही कुछ-कुछ हालत से मेरा वास्ता पडा है। मुझे पता है यह बात जानकर कुछ मेरे अज़िजों को बदहज़मी हो सकती है उन्हे अपने वजूद पर भी सवालिया निशान नज़र आयें लेकिन यह अपने जीवन की वो सच्चाई है जिसे मै रोज़ाना महसूस करता हूँ।

मै यह स्वीकार करता हूँ कि मै मित्रों की निज़ता का हनन किया है अपनी निजता का तो कोई अर्थ ही नही है क्योंकि मै जब तक विरेचित न हो जाउं मुझे चैन नही आता है अब यें सब दूनियादारी के किस्से है जो ज़िन्दगी से जुडे हुए सो किरदार के रुप मे किसी न किसी का जिक्र होने लाजिमी ही है ऐसे में अगर कुछ बातें ऐसी लिखी गई हो जिससे किसी को असहज़ लगा हो या अपनी निज़ता का हनन लगा हो तो मेरे पास क्षमा याचना के भी शब्द नही है बस अपनी बात जनाब वसीम बरेलवी साहब के शेर के माध्यम से कहना चाहूंगा...अर्ज़ किया है:

मेरे शेरों को तेरी दूनिया में

मेरे दिल का गुबार लाया है

मेरे शेरों गौर से मत सुन

उनमें तेरा भी जिक्र आया है।

फिर भी मै यही कहूंगा कि सायास किसी को अपमानित,हीन या क्रुर सिद्द करने के लिए मैने कभी नही लिखा जैसा भी महसूस किया ठीक वैसा लिखा बिना किसी लाग-लपेट के और शायद यही मेरी मौलिकता है।

अपने दौर के बेहतरीन लोगो के बीच वक्त बितानें के बावजूद भी कुछ सवालात ऐसे है जिनका कोई जवाब किसी के पास नही है,मुझे अब किसी से कोई शिकवा-शिकायत भी नही पहले कई दिन परेशान रहता था खुद को कोसता रहता था लेकिन अब थोडी देर के लिए मलाल होता है ज़ज्बातों का एक ज्वार भाटा आता है और उतर जाता है और जिन्दगी अपनी धुन मे अपनी गति से फिर से चलने लगती है।

अब विश्राम लेता हूँ वसीम बरेलवी साहब के इस उम्दा ख्याल के साथ जो शायद मेरे तज़रबे की एक कतरन हैं....।

किसी को मीर कहतें हैं किसी के साथ चलतें हैं

पढे लिक्खों का अपना ही कोई चेहरा नही होता

मगर ये मैले कपडों मे सीधे सादे अनपढ लोग
उन्हें पहचानने में कोई भी धोखा नही होता....।
॥आमीन॥
डा.अजीत

No comments:

Post a Comment