tag:blogger.com,1999:blog-55638971058032208132024-03-12T18:15:20.141-07:00आपबीती... अपनी निजि गालबजाई...Dr.Ajithttp://www.blogger.com/profile/17632123454222628758noreply@blogger.comBlogger120125tag:blogger.com,1999:blog-5563897105803220813.post-61977307866139962612017-08-23T22:48:00.002-07:002017-08-23T22:48:44.183-07:00तंत्र का मंत्र <div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<div class="MsoNormal">
<span lang="HI" style="font-family: "Kokila","sans-serif"; font-size: 16.0pt; line-height: 115%;">भारत जैसे विकासशील देश के समक्ष बेरोज़गारी एक
बड़ी चुनौति है. दस-दस बरस या इससे भी अधिक समय हो गया है लोग अपनी उच्चतम डिग्री
लेकर बेरोजगार घूम रहे. शिक्षा में सुधार के नाम पर केन्द्रीय और राज्य स्कूली
बोर्ड ने किस्म-किस्म के परिवर्तन भी किए और शिक्षा के तीनों स्तरों
बेसिक.माध्यमिक और उच्च में बड़े बदलाव देखने को मिले है.</span><span style="font-family: "Kokila","sans-serif"; font-size: 16.0pt; line-height: 115%;"><o:p></o:p></span></div>
<div class="MsoNormal">
<span lang="HI" style="font-family: "Kokila","sans-serif"; font-size: 16.0pt; line-height: 115%;">मेरी पीढ़ी के लोगो ने जब आज से बीस-पच्चीस साल
पहले दसवीं की थी उस समय स्टेट बोर्ड के एग्जाम एक बहुत बड़ा हौव्वा हुआ करते थे
बोर्ड का रिजल्ट भी दस से पन्द्रह प्रतिशत ही रहा करता था. पूरे गाँव में पास होने
वाले इक्का-दुक्का बच्चे ही होते थे उन दिनों फर्स्ट डिवीज़न तो आना बहुत बड़ी उपलब्धि
हुआ करती थी, उस सिस्टम से पढ़े सेकंड डिवीज़न धारी बच्चे भी पढनें में ठीक ठाक
बुद्धिमान ही हुआ करते थे. </span><span style="font-family: "Kokila","sans-serif"; font-size: 16.0pt; line-height: 115%;"><o:p></o:p></span></div>
<div class="MsoNormal">
<span lang="HI" style="font-family: "Kokila","sans-serif"; font-size: 16.0pt; line-height: 115%;">बाद में बोर्ड ने अपनी शिक्षा पद्धति की
समीक्षा की और सीबीएसई की तर्ज पर मार्किंग सिस्टम को अपनाया अब बोर्ड एग्जाम में
स्टूडेंट्स अस्सी और नब्बे प्रतिशत से अधिक अंक लेकर पास होते है. यही हाल अब उच्च
शिक्षा में भी है. देश भर में सीबीसीएस सिस्टम लागू हो गया है जिसने 70 प्रतिशत
अंक लिखित परीक्षा के माध्यम से मिलते है और 30 प्रतिशत अंक सेशनल के माध्यम से
स्टूडेंट्स अर्जित करते है इस कारण अब यूजी और पीजी लेवल पर अस्सी और नब्बे फीसदी
अंको वाले स्टूडेंट्स खूब मिल जाएंगे. </span><span style="font-family: "Kokila","sans-serif"; font-size: 16.0pt; line-height: 115%;"><o:p></o:p></span></div>
<div class="MsoNormal">
<span lang="HI" style="font-family: "Kokila","sans-serif"; font-size: 16.0pt; line-height: 115%;">हमारे दौर में, हमारा कालेज एक राज्य
विश्वविद्यालय से सम्बन्धित था जिस पर एक बड़ी जनसंख्या की उच्च शिक्षा की
जिम्मेदारी था इसलिए वहां भी मार्किग सिस्टम कुछ ऐसा था कि आर्ट्स और सोशल साइंस
के सब्जेक्ट्स में हमेशा औसत श्रेणी के ही नम्बर मिलते थे. </span><span style="font-family: "Kokila","sans-serif"; font-size: 16.0pt; line-height: 115%;"><o:p></o:p></span></div>
<div class="MsoNormal">
<span lang="HI" style="font-family: "Kokila","sans-serif"; font-size: 16.0pt; line-height: 115%;">इस कहानी का जिक्र करने का मकसद यह है कि
पुराने सिस्टम से पढ़े लोगो को अभी तक सरकार नौकरी नही दे पाई है और इस नई सिस्टम से
पढ़े लोग अब उनके साथ नौकरी की कतार में लग गए है. इस नए सिस्टम से पढ़े लोगो की
मेरिट भी जाहिरी तौर पर ऊंची है इनकी दसवीं, बारहवीं, ग्रेजुएशन, पीजी में फर्स्ट
डिविजन है और न केवल फर्स्ट डिवीज़न है बल्कि बोरा भरकर इनके नम्बर आए हुए है. ऐसे
में जो पुराने बोर्ड और पुराने हायर एजुकेशन सिस्टम से पढ़ें है उनके समक्ष एक बड़ा
संकट खड़ा हो गया है क्योंकि जब मेरिट बनती है तो ये नए वाले बच्चे टॉप में आ जाते
है और पुराने सिस्टम से पढ़ें लोग खिसकते हुए आखिर में चले जाते है जबकी नौकरी की
कतार में ये उनसे पहले लगे है. </span><span style="font-family: "Kokila","sans-serif"; font-size: 16.0pt; line-height: 115%;"><o:p></o:p></span></div>
<div class="MsoNormal">
<span lang="HI" style="font-family: "Kokila","sans-serif"; font-size: 16.0pt; line-height: 115%;">बोर्ड और हायर एजुकेशन का सिस्टम सरकार ने
बदला है इसलिए इसमें उन लोगो का क्या दोष है जो पुराने सिस्टम से पढ़े है? जब साधन
भी कम होते थे और नम्बर भी कम ही मिला करते थे. आप उन्हें उनके समय में नौकरी नही
दे पाए और वर्तमान समय में नए सिस्टम से निकले लोग उनकी योग्यता को एकदम ही खारिज
कर रहे है. न्याय के सिद्धांत के अनुसार ये अन्याय है क्योंकि जो बदलाव आपने अब
किया है वो आप बीस-तीस साल पहले कर लेते कौन सा उन बच्चों ने मना किया था?
उन्होंने तब के सिस्टम में संघर्ष किया और पास होकर आगे बढे और लगातार खुद को
अपडेट भी करते रहे मगर देश में बरोजगारी का आलम यह है कि उनको कोई भी सरकार नौकरी
नही दे सकी है ये उनका नही पूरे सिस्टम का फैल्योर है. </span><span style="font-family: "Kokila","sans-serif"; font-size: 16.0pt; line-height: 115%;"><o:p></o:p></span></div>
<div class="MsoNormal">
<span lang="HI" style="font-family: "Kokila","sans-serif"; font-size: 16.0pt; line-height: 115%;">गुड अकेडमिक रिकॉर्ड के नाम पर अब पुराने
सिस्टम से पढ़े लोग बेहद कमजोर स्थिति में आ गए है जबकि उस समय की पढ़ाई और आज की
पढ़ाई में बुनियादी अंतर है आज का स्टूडेंट् टेक्नोसेवी है और तब के स्टूडेंट की
चुनौति अलग किस्म की थी. अब बढ़िया ग्रेड और मेरिट है मगर नोलेज अब सेकंडरी हो गई
है पुराने समय के पढ़े लोगो के पास डिवीज़न भले ही सैंकड़ है मगर उनके पास ठोस ज्ञान
भी है. </span><span style="font-family: "Kokila","sans-serif"; font-size: 16.0pt; line-height: 115%;"><o:p></o:p></span></div>
<div class="MsoNormal">
<span lang="HI" style="font-family: "Kokila","sans-serif"; font-size: 16.0pt; line-height: 115%;">फिर मैं एक सवाल यह पूछता हूँ जब एक ख़ास समय
में एक प्रमाणित सिस्टम से पास हुए लोगो को सरकार नौकरी नही दे पाई है और अब
उन्हें उसी भीड़ का हिस्सा बना दिया गया है जिसमें नए सिस्टम से पढ़े और अधिक अंकधारी
लोग नौकरी की कतार में खड़े है, तब ऐसे में क्या उनको नौकरी मिल सकेगी? शायद नही. </span><span style="font-family: "Kokila","sans-serif"; font-size: 16.0pt; line-height: 115%;"><o:p></o:p></span></div>
<div class="MsoNormal">
<span lang="HI" style="font-family: "Kokila","sans-serif"; font-size: 16.0pt; line-height: 115%;">साक्षात्कार और मेरिट के झोल में वो स्वत:
बाहर होते चले जाएंगे जो पापुलेशन पिछले दो दशक से आपकी व्यवस्था का हिस्सा रही है
और जो इस आशा की प्रत्याशा पर काम करती रही कि एक न एक दिन उन्हें एक अदद सरकारी
नौकरी मिल जाएगी उनके लिए आपने एक ऐसा जाल बुन दिया है जिसमें वो खुद ही उलझकर
बाहर हो जाएंगे. </span><span style="font-family: "Kokila","sans-serif"; font-size: 16.0pt; line-height: 115%;"><o:p></o:p></span></div>
<div class="MsoNormal">
<span lang="HI" style="font-family: "Kokila","sans-serif"; font-size: 16.0pt; line-height: 115%;">नीति बनाने वाले लोग कभी अनजान नही होते है बस
वो कुछ मुद्दों पर जानबूझकर आँख बंद कर लेते है क्योंकि उन्हें लगता है इतना बड़ा
देश है इसलिए ऐसे में भीड़ में कुछ करोगे तो चल जाएगा और नौकरी की कतार में लगा
व्यक्ति सच में इतना कमजोर हो जाता है कि वो खुद के साथ हुए किसी किस्म के अन्याय
पर उफ़ तक नही करता है क्योंकि उन्हें लगता है कि एक न एक दिन उनके दिन जरुर
बदलेंगे. </span><span style="font-family: "Kokila","sans-serif"; font-size: 16.0pt; line-height: 115%;"><o:p></o:p></span></div>
<div class="MsoNormal">
<span lang="HI" style="font-family: "Kokila","sans-serif"; font-size: 16.0pt; line-height: 115%;">उनके दिन बदलते जरुर है और उन्हें इसका एहसास
तब होता है जब उनका पढ़ाया कोई स्टूडेंट उन्ही के साथ एक समान पद पर इंटरव्यू देने
पहुंचता है. तब समझ नही आता कि उसकी नमस्ते ली जाए कि उससे हाथ मिलाया जाए क्योंकि
सिस्टम ने दोनों के लिए जगह बना दी है.</span><span style="font-family: "Kokila","sans-serif"; font-size: 16.0pt; line-height: 115%;"><o:p></o:p></span></div>
<br />
<div class="MsoNormal">
<span lang="HI" style="font-family: "Kokila","sans-serif"; font-size: 16.0pt; line-height: 115%;">©डॉ. अजित <o:p></o:p></span></div>
</div>
Dr.Ajithttp://www.blogger.com/profile/17632123454222628758noreply@blogger.com9tag:blogger.com,1999:blog-5563897105803220813.post-65121964280378544342017-08-11T00:15:00.002-07:002017-08-11T00:15:13.855-07:00रेडियो: एक सच्ची सखी<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<div class="MsoNormal" style="line-height: normal; margin-bottom: .0001pt; margin-bottom: 0cm;">
<span lang="HI" style="font-family: "Kokila","sans-serif"; font-size: 16.0pt;">रेडियो:
एक सच्ची सखी </span><span style="font-family: "Kokila","sans-serif"; font-size: 16.0pt;"><o:p></o:p></span></div>
<div class="MsoNormal" style="line-height: normal; margin-bottom: .0001pt; margin-bottom: 0cm;">
<span lang="HI" style="font-family: "Kokila","sans-serif"; font-size: 16.0pt;">...........</span><span style="font-family: "Kokila","sans-serif"; font-size: 16.0pt;"><o:p></o:p></span></div>
<div class="MsoNormal" style="line-height: normal; margin-bottom: .0001pt; margin-bottom: 0cm;">
<span lang="HI" style="font-family: "Kokila","sans-serif"; font-size: 16.0pt;">यह
कोई कोरी लिजलिजी भावुकता नही है और न ही यह देहात बनाम शहरी का कोई संसाधनमूलक विमर्श
की भूमिका है.यह रेडियो की यारी से जुडी
एक याद है जो अब लगभग अपने भूलने के कगार पर है मगर मैं अपनी कुछ हसीं यादों का
दस्तावेजीकरण करना चाहता हूँ. क्यों करना चाहता हूँ इसका भी मेरे पास कोई पुख्ता जवाब नही है मगर मुझे रेडियो से
प्यार रहा है यही कारण है कि मुझे रेडियो की बातें करना उतना ही सुकून देता
है जितना मैं अपने स्कूल के किसी मास्टर
जी का जिक्र करता हूँ और उनकी शिक्षाओं को गल्प समझने की अपनी नादानी पर
मुस्कुराता हूँ.</span><span style="font-family: "Kokila","sans-serif"; font-size: 16.0pt;"><o:p></o:p></span></div>
<div class="MsoNormal" style="line-height: normal; margin-bottom: .0001pt; margin-bottom: 0cm;">
<span lang="HI" style="font-family: "Kokila","sans-serif"; font-size: 16.0pt;">रेडियो
के साथ एक भरोसे का रिश्ता था और ये सूचना और मनोरंजन की सबसे किफायती सखी थी
किफायती और सखी शब्द दोनों एक साथ प्रयोग करना एक किस्म की ज्यादती है मगर फिर मैं
दोनों को एक साथ इसलिए याद कर रहा हूँ
रेडियो साथ भी देती थी और इसकी आवाज़ सुनने के लिए मुझे मेरी जेब पर कभी
अधिक जोर भी नही पड़ा एक बार उसके सेल ( बेट्री) डलवाओ और फिर तीन महीने के लिए भूल
जाओ. उन दिनों जेब खर्च जैसा कुछ कांसेप्ट गाँव में नही हुआ करता था इसलिए बुआ
मामा के दिए पांच दस रुपये को जोड़कर मैं रेडियो की बेट्री का बंदोबस्त किया करता
था. </span><span style="font-family: "Kokila","sans-serif"; font-size: 16.0pt;"><o:p></o:p></span></div>
<div class="MsoNormal" style="line-height: normal; margin-bottom: .0001pt; margin-bottom: 0cm;">
<span lang="HI" style="font-family: "Kokila","sans-serif"; font-size: 16.0pt;">आल
इंडिया रेडियो से समाचार सुनता था रोज़ सुबह कलियर नाग,विमलेन्दु पांडे की आवाज़ से
हम देश दुनिया में की खबरों से रूबरू होते थे आज भी उस आवाज़ की खनक मेरे कानों में
बसी हुई है. रेडियो के साथ अच्छी बात यह थी कि ये आपका हाथ पकड़कर बैठाने की जिद
नही करती थी ये हवा में घुल कर आपके साथ साथ फिरने की कुव्वत रखती थी. इसलिए
रेडियो सुनते समय पशुओं को चारा डाला जा सकता था उन्हें नहलाया जा सकता था यहाँ तक
गणित के सवाल भी हल किये जा सकते है मानो रेडियो खुद में इतनी बेफिक्र और मुस्तैद
थी कि उसे और किसी से कोई सौतिया डाह नही था, वो किसी काम में व्यवधान नही बल्कि
उस काम को और दिल से करने की प्रेरणा देती थी. </span><span style="font-family: "Kokila","sans-serif"; font-size: 16.0pt;"><o:p></o:p></span></div>
<div class="MsoNormal" style="line-height: normal; margin-bottom: .0001pt; margin-bottom: 0cm;">
<span lang="HI" style="font-family: "Kokila","sans-serif"; font-size: 16.0pt;">छुट्टी
के दिनों में मैं सुबह से रेडियो बजा देता था उन दिनों मुझे सुबह साढ़े नौ बजे विविध
भारती पर आने वाले प्रायोजित कार्यक्रम का इन्तजार रहता था फ़िल्मी गानों से अपडेट
रहने का एक वही जरिया था. गर्मी की दोपहर में घर का एक अन्धेरा कमरा और रेडियो दोनों मिलकर क्या गजब की सोफी रचती थी
उस मदहोशपन को शब्दों से ब्यान नही किया जा सकता है. रेडियो तब मेरी छाती पर सवार
रहती और मैं तब ट्यून करता था कि विविध भारती उस पर नई नई रिलीज़ हुई फिल्मों पर आधारित
प्रायोजित कार्यक्रम आया करते थे. मुझे आज भी याद आता है कि कैसे उस प्रोग्राम में
एक डायलोग आता था ‘दक्षिण से आया है ममूती’ ममूती दक्षिण के अभिनेता थे और
उन्होंने किसी हिंदी फिल्म से डेब्यू किया था. </span><span style="font-family: "Kokila","sans-serif"; font-size: 16.0pt;"><o:p></o:p></span></div>
<div class="MsoNormal" style="line-height: normal; margin-bottom: .0001pt; margin-bottom: 0cm;">
<span lang="HI" style="font-family: "Kokila","sans-serif"; font-size: 16.0pt;">इसके
अलावा क्षेत्रीय रेडियो केन्द्रों से ‘सैनिको के लिए’ और सदाबहार नगमे आते थे उन्हें सुनते हुए मैं नींद
के आगोश में चला जाता था. मैं दावे के साथ कह सकता हूँ रेडियो जिस तरह से लोरी के
जैसा काम करती है ऐसा और कोई ऑडियो का मीडियम नही कर सकता है. रेडियो तब हमारी माँ
की भूमिका में आ जाती थी और रेडियो सुनते-सुनते क्या गहरी नींद आती थी मानो गहरे
तनाव के समय एक स्लीपिंग पिल ले ली लो, वैसी नींद अब नही आती है. फिर ढाई बजे मेरी
आँख अंग्रेजी समाचार बुलेटिन से पहले बजने वाली बीप-बीप की आवाज़ से खुलती थी.
हमारे लिए तब यही अलार्म था. </span><span style="font-family: "Kokila","sans-serif"; font-size: 16.0pt;"><o:p></o:p></span></div>
<div class="MsoNormal" style="line-height: normal; margin-bottom: .0001pt; margin-bottom: 0cm;">
<span lang="HI" style="font-family: "Kokila","sans-serif"; font-size: 16.0pt;">ऐसा
कई बार हुआ अतिशय गर्मी में हमने चारपाई नीम के पेड़ के नीचे डाल ली और रेडियो
सुनते-सुनते सो गये और उसके बाद धूप और इस
बीप की आवाज़ की सांझी नींद से हमें जगाया. </span><span style="font-family: "Kokila","sans-serif"; font-size: 16.0pt;"><o:p></o:p></span></div>
<div class="MsoNormal" style="line-height: normal; margin-bottom: .0001pt; margin-bottom: 0cm;">
<br /></div>
<div class="MsoNormal" style="line-height: normal; margin-bottom: .0001pt; margin-bottom: 0cm;">
<br /></div>
<div class="MsoNormal" style="line-height: normal; margin-bottom: .0001pt; margin-bottom: 0cm;">
<span lang="HI" style="font-family: "Kokila","sans-serif"; font-size: 16.0pt;">अपना
विविध भारती कनेक्शन</span><span style="font-family: "Kokila","sans-serif"; font-size: 16.0pt;"><o:p></o:p></span></div>
<div class="MsoNormal" style="line-height: normal; margin-bottom: .0001pt; margin-bottom: 0cm;">
<span lang="HI" style="font-family: "Kokila","sans-serif"; font-size: 16.0pt;">तीसरे
पहर मेरी ड्यूटी प्राय: पशुओं को पानी पिलाने की होती थी तब मैं रेडियो नल के पास
के पेड़ पर टांग देता था और एक तरफ गाने बजते रहते और दूसरी तरफ मैं नल चलाकर पानी
भरता जाता. 4 बजे आने वाला हेल्लो फरमाइश मेरा प्रिय प्रोग्राम रहा है और हेल्लो
फरमाइश में भी मंगलवार को जब विविध भारती के उद्घोषक कमल शर्मा जी की खनक आवाज़ और
उनके हंसी सुनता तो मेरा दिल बाग़-बाग़ हो जाता था. मैंने बहुत बार गाँव के लैंडलाइन
फोन से मुम्बई स्टूडियो में काल लगाने की कोशिश की मगर कभी सफल न हो पाया. </span><span style="font-family: "Kokila","sans-serif"; font-size: 16.0pt;"><o:p></o:p></span></div>
<div class="MsoNormal" style="line-height: normal; margin-bottom: .0001pt; margin-bottom: 0cm;">
<span lang="HI" style="font-family: "Kokila","sans-serif"; font-size: 16.0pt;">कमल
शर्मा जी से मेरी बात करने की बड़ी तमन्ना थी जो आज भी बाकी है वो कमाल के एनाउंसर
है आवाज़ से ही लगता है कि वो कितने भद्र और सहृदय होंगे. </span><span style="font-family: "Kokila","sans-serif"; font-size: 16.0pt;"><o:p></o:p></span></div>
<div class="MsoNormal" style="line-height: normal; margin-bottom: .0001pt; margin-bottom: 0cm;">
<span lang="HI" style="font-family: "Kokila","sans-serif"; font-size: 16.0pt;">इसके
अलावा यूनूस खान को युवाओं पर केन्द्रित कार्यक्रम भी नियमित सुनता था और ममता
सिंह , निम्मी मिश्रा को रेडियो सखी के जरिए सुनना ठीक वैसा अनुभव था जैसे अपनी गली मुहल्ले में बैठकर बैठकी की जा रही
हो. </span><span style="font-family: "Kokila","sans-serif"; font-size: 16.0pt;"><o:p></o:p></span></div>
<div class="MsoNormal" style="line-height: normal; margin-bottom: .0001pt; margin-bottom: 0cm;">
<span lang="HI" style="font-family: "Kokila","sans-serif"; font-size: 16.0pt;">आज
यूनूस जी और ममता जी फेसबुक पर मित्र है तब के रेडियो के दिनों को याद करते हुए यह
एकदम अविश्ववसनीय सी ही बात लगती है. </span><span style="font-family: "Kokila","sans-serif"; font-size: 16.0pt;"><o:p></o:p></span></div>
<div class="MsoNormal" style="line-height: normal; margin-bottom: .0001pt; margin-bottom: 0cm;">
<span lang="HI" style="font-family: "Kokila","sans-serif"; font-size: 16.0pt;">रात
में छाया गीत, हवा महल सुनना एक स्प्रिचुअल प्लीजर जैसा अनुभव था. </span><span style="font-family: "Kokila","sans-serif"; font-size: 16.0pt;"><o:p></o:p></span></div>
<div class="MsoNormal" style="line-height: normal; margin-bottom: .0001pt; margin-bottom: 0cm;">
<br /></div>
<div class="MsoNormal" style="line-height: normal; margin-bottom: .0001pt; margin-bottom: 0cm;">
<span lang="HI" style="font-family: "Kokila","sans-serif"; font-size: 16.0pt;">एफ
एम का आना और रेडियो का बदलना</span><span style="font-family: "Kokila","sans-serif"; font-size: 16.0pt;"><o:p></o:p></span></div>
<div class="MsoNormal" style="line-height: normal; margin-bottom: .0001pt; margin-bottom: 0cm;">
<br /></div>
<div class="MsoNormal" style="line-height: normal; margin-bottom: .0001pt; margin-bottom: 0cm;">
<span lang="HI" style="font-family: "Kokila","sans-serif"; font-size: 16.0pt;">हालांकि
गाँव में एफ एम को सुनना आसान काम न था मगर ये रेडियो की दुनिया में एक बड़ा बदलाव
था इसने विविध भारती के श्रोता सबसे पहले अपने कब्जे में लिए मगर फिर भी विविध
भारती से प्यार में कोई खास कमी नही आई. आज तो प्राइवेट एफ एम की बाढ़ आई हुई है
एकाध आर जे को छोड़ दे बाकी को सुनने में कोई ख़ास मजा नही आता है निजी कंपनियों के एफएम
पर बाजार के अपने दबाव है मगर शुरुवाती दौर में आल इंडिया रेडियो का एफएम ने गाँव
देहात में जरुर तेजी से लोकप्रियता हासिल की. कुछ ख़ास ब्रांड के रेडियो सेट गाँव
में लोग खरीदते थे क्योंकि वो दिल्ली का एफएम बढ़िया पकड़ते थे. एफएम में मुझे ओपी
राठौड की आवाज़ बेहद पसंद थी बाद में वो टीवी पर भी आए मगर टीवी पर वो करिश्मा नही
कर सके.</span><span style="font-family: "Kokila","sans-serif"; font-size: 16.0pt;"><o:p></o:p></span></div>
<div class="MsoNormal" style="line-height: normal; margin-bottom: .0001pt; margin-bottom: 0cm;">
<br /></div>
<div class="MsoNormal" style="line-height: normal; margin-bottom: .0001pt; margin-bottom: 0cm;">
<span lang="HI" style="font-family: "Kokila","sans-serif"; font-size: 16.0pt;">रेडियो
को लेकर मेरे पास इतने किस्से है कि लेख बहुत बड़ा हो जाएगा रेडियो मेरे दिल की सच्ची
साथी रही है अब जब स्मार्ट फोन की दुनिया ने सबको बेहद नजदीक बैठा दिया तब भी मुझे
रेडियो की वो दूरी वाली दुनिया शिद्दत से याद आती है और मुझे जब भी मौक़ा मिलता है
मैं रेडियो जरुर सुनता हूँ. </span><span style="font-family: "Kokila","sans-serif"; font-size: 16.0pt;"><o:p></o:p></span></div>
<div class="MsoNormal" style="line-height: normal; margin-bottom: .0001pt; margin-bottom: 0cm;">
<span lang="HI" style="font-family: "Kokila","sans-serif"; font-size: 16.0pt;">रेडियो मेरे जीवन में फ्रेंड, फिलासफर और गाइड की
भूमिका में रही है समसामयिक मुद्दों को जानने और समझने के लिए शोर्ट वेव्ज पर
बीबीसी को सुनना आज भी शिद्दत से याद आता है यदि बीबीसी न होती तो मैं तटस्थता से
सोचने की कला न सीख पाता.</span><span style="font-family: "Kokila","sans-serif"; font-size: 16.0pt;"><o:p></o:p></span></div>
<div class="MsoNormal" style="line-height: normal; margin-bottom: .0001pt; margin-bottom: 0cm;">
<br /></div>
<div class="MsoNormal" style="line-height: normal; margin-bottom: .0001pt; margin-bottom: 0cm;">
<span lang="HI" style="font-family: "Kokila","sans-serif"; font-size: 16.0pt;">...और
अंत में इस लेख को लिखने के लिए मुझे मोटिवेट करने के लिए विविध भारती की मेधावी
उद्घोषिका नेहा शर्मा को जरुर धन्यवाद कहूंगा नेहा के कारण ही मैं इन भूली बिसरी
यादों का दस्तावेजीकरण कर पाया. नेहा अब नई पीढ़ी की उम्मीद है.</span><span style="font-family: "Kokila","sans-serif"; font-size: 16.0pt;"><o:p></o:p></span></div>
<div class="MsoNormal" style="line-height: normal; margin-bottom: .0001pt; margin-bottom: 0cm;">
<span lang="HI" style="font-family: "Kokila","sans-serif"; font-size: 16.0pt;">मैं
दुआ करूंगा कि जीवन की आपाधापी में रेडियो का सुकून और रेडियो की दीवानगी दोनों
बरकरार रहें साथ ही वो खूबसूरत आवाजें भी सलामत रहें जिन्हें हमे खुद से ईमानदारी
से बातचीत करने का सलीका और शऊर सिखाया. </span><span style="font-family: "Kokila","sans-serif"; font-size: 16.0pt;"><o:p></o:p></span></div>
<div class="MsoNormal" style="line-height: normal; margin-bottom: .0001pt; margin-bottom: 0cm;">
<span lang="HI" style="font-family: "Kokila","sans-serif"; font-size: 16.0pt;">©
डॉ. अजित </span><span style="font-family: "Kokila","sans-serif"; font-size: 16.0pt;"><o:p></o:p></span></div>
<div class="MsoNormal" style="line-height: normal; margin-bottom: .0001pt; margin-bottom: 0cm;">
<br /></div>
<br />
<div class="MsoNormal" style="line-height: normal; margin-bottom: .0001pt; margin-bottom: 0cm;">
<br /></div>
</div>
Dr.Ajithttp://www.blogger.com/profile/17632123454222628758noreply@blogger.com6tag:blogger.com,1999:blog-5563897105803220813.post-20986911060264911612017-07-11T08:19:00.001-07:002017-07-11T08:44:09.911-07:00मां (दादी)<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
<a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjqXabTYFY3IzE6Cr4sLww9SToDUt5kmmBDRGZTXL1T5lgSA6VEUu29MynW_oTcLalyOgJNWhgbUr6oLok1VAl9HHGZiiwpvnDpJmfXvcCHDAHAbBQEWU5sKzKBRQoQttNCB2202I-2EHc/s1600/FB_IMG_1499787678949.jpg" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" data-original-height="1280" data-original-width="960" height="320" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjqXabTYFY3IzE6Cr4sLww9SToDUt5kmmBDRGZTXL1T5lgSA6VEUu29MynW_oTcLalyOgJNWhgbUr6oLok1VAl9HHGZiiwpvnDpJmfXvcCHDAHAbBQEWU5sKzKBRQoQttNCB2202I-2EHc/s320/FB_IMG_1499787678949.jpg" width="240" /></a></div>
श्रीमति बिशम्बरी देवी ‘नम्बरदारनी’ <br />
<br />
सबसे मुश्किल काम होता है खुद के किसी परिजन के विषय में निष्पक्ष एवं तथ्यात्मक रुप से संतुलित होकर लिखना मगर मै खुद की दादी ( जिन्हें सम्बोधन में मैं मां ही कहता हूं) के विषय में लिखते हुए किचिंत भी दुविधा में नही हूं जिसकी एक बडी वजह यह है कि वो मेरे लिए महज़ मेरी दादी (मां) नही है बल्कि एक आदर्श मातृछवि भी है इसलिए जीवनपर्यंत संघर्षरत रही ऐसी लौह महिला के विषय में लिखकर मै खुद को न केवल गौरवांवित महसूस कर रहा है बल्कि उन पर लिखना अपना एक नैतिक कर्तव्य भी समझता हूं। मेरे मन मे यदि कोई दुविधा है तो केवल इतनी है कि उनके विशद जीवन को एक लेख में समेट पाना तमाम शब्द सामर्थ्य के बावजूद भी बेहद मुश्किल काम है उनका जीवन स्वतंत्र रुप से एक जीवनी लेखन का विषय है।<br />
<br />
गांव के पुरुष प्रधान समाज़ और जन-धन बल के जीवन में जिस प्रकार से उन्होनें संघर्षपूर्ण जीवन को अपने आत्मबल से जीया है वह न केवल अनुकरणीय है बल्कि व्यापक अर्थों में चरम विपरीत परिस्थितियों में ऐसा जीवन जीना अकल्पनीय भी है।<br />
<br />
मात्र छब्बीस साल की उम्र में मां विधवा हो गई थी मेरे बाबा जी का मात्र 28 वर्ष की उम्र में टायफायड बुखार की वजह से आकस्मिक निधन हो गया था। चूंकि बाबा जी अकेले थे और गांव के बडें ज़मीदार घर में उनके जाने के बाद एकदम से सन्नाटा पसर गया था लगभग साढे तीन सौ बीघा जमीन और घर पर वारिस के नाम कोई व्यक्ति न बचा था। गांव में कोई कुटम्ब कुनबा भी नही था ऐसें मे बाबा जी के निधन से जो रिक्तता आई थी उसको भर पाना असम्भव कार्य था। गांव के समाजशास्त्रीय ढांचे में यह स्थिति बेहद जटिल किस्म की थी। इतनी बडी सम्पत्ति की देखरेख के लिए कोई पुरुष परिवार में नही था अमूमन तब यही अनुमान लगाया जा रहा था कि मेरी मां यहां की जमीन को औने-पौने दामों में बेच कर अपने मायके रहने चली जाएगी।<br />
<br />
इस बेहद प्रतिकूल और आशाविहीन परिस्थिति में मां के इस निर्णय नें बुझती उम्मीदों को एक नई रोशनी दी जब उन्होनें तय किया वो कहीं नही जाएंगी और यही गांव में रहेंगी। यहां बताता चलूं जिस वक्त बाबा जी का निधन हुआ मेरे पिताजी दादी (मां) के गर्भ में थे। अतिशय चरम तनाव और अनिश्चिता के दौर में भी मां ने महस छब्बीस साल की उम्र में उस साहस का परिचय दिया जिसकी कल्पना आज भी सम्भव नही हो पाती है।<br />
<br />
गांव की चौधरी परम्परा में पुरुषविहीन परिवार में इतनी बडी सम्पत्ति खेती-बाडी का संरक्षण कोई आसान काम नही थी उनका यह निर्णय कुछ पक्षों के लिए नागवार गुजरने जैसा था क्योंकि अमूमन यह मान लिया गया था कि अब यह परिवार बर्बाद हो गया है मगर मां नें अपनी हिम्मत,आत्मबल और सूझ-बूझ से एक पुरुष प्रधान समाज़ में अपनें परिवार को वो आधार प्रदान किया जिसकी वजह से आज भी मां न केवल गांव में बल्कि पूरे क्षेत्र में बेहद सम्मानीय है। शायद ही आसपास का कोई गांव ऐसा होगा जो लम्बरदारनी ( नम्बरदारनी) को न जानता होगा।<br />
<br />
पिताजी के जन्म के बाद एक आशा का संचार हुआ कि परिवार में एक पुरुष वारिस पैदा हो गया है परंतु गांव की कुछ शक्तियों के लिए यह बहुत पाच्य किस्म खबर नही थी। पिताजी किशोरावस्था तक जाते जातें कुसंग का शिकार हो गए ( एक एजेंडे के तहत यह सब किया गया था फिलहाल वह उल्लेखनीय नही है)। पिताजी मदिरा व्यसनी हो गए जिसके फलस्वरुप उनकी भूमिका अपना वह आकार न ले सकी जिस उम्मीद से परिवार उनकी तरफ देख रहा था। कालांतर में उन्होने उस अवस्था में मदिरा त्यागी जब शरीर व्याधियों की शरण स्थली बन गई थी। मां की प्ररेणा से वो गांव के प्रधान और जिला सहकारी बैंक के डायरेक्टर भी रहें।<br />
<br />
मेरी मां नें आजीवन संघर्ष किया गांव के पितृसत्तात्मक और जनबल के समाज़ के समक्ष वो अकेली वैधानिक लडाई लडती रही। जिस वक्त घर पुरुषविहीन हो गया था उन्होनें अपने मायके से कहकर अपना एक भाई स्थाई रुप से गांव में रखा वो खेती बाडी दिखवाते है। इन सब के पीछे की ऊर्जा प्ररेणा और सच्चाई की लडाई लडने वाली मां ही रही है।<br />
<br />
उनके अन्दर गजब की जीवटता भरी थी नेतृत्व उनके खून में था इतने प्रतिशोध उन्होनें सहे कि सभी की चर्चा की जाए तो एक बडी कथा लिखी जा सकती है। जमीन से जुडे और अन्य फौजदारी के कई कई मुकदमें उन्होनें लडे क्योंकि उनको इस आशय से परेशान किया जाता था कि उनका मनोबल कमजोर हो जाए और वो गांव से भाग खडी हो। तहसील और जिले स्तर पर अधिकारियों से ,नेताओं से,जजों से मिलना उनके जीवन का हिस्सा बन गया था उनके अन्दर गजब का आत्मविश्वास रहा है जो आज भी कायम है। गांव में चाहे डीएम आया हो या एसएसपी उनके अन्दर कभी स्त्रियोचित्त संकोच मैने नही देखा है।<br />
<br />
मेरी मां कक्षा तीन पढी थी उन्हें अक्षर ज्ञान था वो पढ भी लेती थी और आज भी हस्ताक्षर ही करती है। उनके संस्कार और मूल्य हम तीन भाई और एक बहन के अन्दर स्थाई रुप से बसे हुए है। मां ने हमें बताया कि अपने परिश्रम से अर्जित सम्पत्ति का यश भोग ही मनुष्य का नैतिक अधिकार होता है पैतृक सम्पत्ति के अभिमान में नही रहना चाहिए इसमें हमारी भूमिका मात्र हस्तांतरण भर की होती है। निजी तौर पर मेरे अन्दर सामंतवादी मूल्य नही विकसित हुए इसकी बडी वजह मां के दिए संस्कार ही थे। उन्होनें सदैव मानवता,करुणा और शरणागत वत्सल का पाठ पढाया इतनी बडी जमीदारन होने के बावजूद भी वो वंचितों के शोषण के कभी पक्ष में नही रही बल्कि ऐसा कई बार हुआ गांव ने अन्य शक्तिशाली ध्रूवों के द्वारा सताए गए लोगों की उन्होनें अपनी सीमाओं का अतिक्रमण करके मदद की। वो संकट में पडे किसी भी व्यक्ति की मदद के लिए सदैव तत्पर रहती थी।<br />
<br />
अपने दैनिक जीवन में मां बेहद अनुशासित और आध्यात्मिक चेतना वाली महिला रही है। आज भी लगभग ब्यासी साल की उम्र में नित्य पूजा कर्म और यज्ञ करना उनके जीवन का अभिन्न हिस्सा बना हुआ है। मां को कभी कमजोर पडते मैने नही देखा अपनी याददाश्त के आधार पर कह सकता हूं कभी उनको शिकायत करते हुए नही देखा ना ही उनके अन्दर स्त्रियोचित्त अधीरता मुझे कभी नजर आई। मां के मन के संकल्प इतने मजबूत किस्म के रहे है कि उन्होने जो तय किया वो उन्होने प्राप्त भी किया है।<br />
<br />
मेरे बडे भाई डॉ.अमित सिंह सर्जन ( एम.एस.) है मै पीएचडी (मनोविज्ञान) हूं और मुझसे छोटा भाई जनक बी टेक है हम तीनों भाई अपनी मां की वजह से ही उच्च शिक्षित और दीक्षित हो पाए है। एक बेहद लापरवाह किस्म के पारिवारिक परिवेश में मेरी मां अपने अपने पोत्रों के जीवन में मूल्यों और संस्कारों का निवेश किया है और उसी के बल पर हम एक बेहतर इंसान बनने की दिशा में आगे बढ पाएं है।<br />
<br />
गत वर्ष पिताजी का लीवर की बीमारी के चलते आकस्मिक निधन हो गया यह सदमा जरुर मां के लिए अपूरणीय क्षति है इकलौते पुत्र के निधन नें उन्हे अन्दर से तोड दिया है मगर आज भी वो हमें हौसला देती रहती है। उनका होना भर एक बहुत बडी आश्वस्ति है। ये मां के संस्कारों का आत्मबल था कि पिताजी के निधन के उपरांत हम बहुत आत्मश्लाघी होकर न सोच पाए और मै अपनी स्थापित अकादमिक दुनिया और छोटा भाई अपनी एमएनसी की जॉब छोडकर गांव में खेती बाडी के प्रबंधन के लिए चले आए।<br />
<br />
<br />
<br />
सदियों में ऐसी जीवट और जिजिविषा वाली महिला का जन्म होता है उनका जीवन स्वयं में एक अभिप्ररेणा की किताब है जिसको पढतें हुए जिन्दगी आसान और मुश्किलें कमजोर लगने लगती है। ऐसी दिव्य चेतना से मेरा रक्त सम्बंध जुडा हुआ है यह निश्चित रुप से मेरे प्रारब्ध और पूर्व जन्म के संचित् कर्मों का फल है। मेरे अन्दर संवेदना,सृजन,करुणा आदि कोमल भावों के बीज रोपण में मां की अभूतपूर्व भूमिका है। सार्वजनिक जीवन के हिसाब से मां महज़ मेरी दादी नही है बल्कि गांव की एक आदर्श महिला है जिसके व्यक्तित्व और कृतित्व से गांव का इतिहास अनेक वर्षो तक प्रकाशित होता रहेगा। निसन्देह उनका होना हमारे लिए एक सामाजिक गौरव का विषय है उनका व्यक्तित्व सदैव यही पाठ पढाता रहेगा कि परिस्थितियां चाहे कितनी भी प्रतिकूल क्यों न हो मनुष्य को अपने आत्मबल पर भरोसा रखना चाहिए। नीयत नेक हो तो मंजिल अवश्य ही मिलती है।<br />
<br /></div>
Dr.Ajithttp://www.blogger.com/profile/17632123454222628758noreply@blogger.com9tag:blogger.com,1999:blog-5563897105803220813.post-69733964156618966082016-07-31T21:56:00.002-07:002016-07-31T21:56:36.540-07:00कांवड़ यात्रा<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
कांवड़ यात्रा : एक मनो-सामाजिक पड़ताल<br />
__________________________________<br />
<br />
आज कांवड़ यात्रा शिवलिंग पर गंगाजल के अभिषेक के उपरान्त समाप्त हो जायगी. पिछले एक हफ्ते से हरिद्वार शहर अति कोलाहल से बैचैन है. डांक कांवड़ पर बजते कानफोडू डीजे और अंधाधुंध चौपहिया,दुपहिया वाहनों की रफ़्तार ने शहर की नब्ज़ को रोक दिया है. ये हर साल की कहानी है जब हफ्ते दस दिन के लिए हरिद्वार शहर स्थानीय लोगो के लिए बैगाना हो जाता है.<br />
पुलिस प्रशासन के लिए भी ये धार्मिक आयोजन कम बड़ी चुनौती नही होती है. एक नागरिक के तौर में जब मैं उनकी कार्यशैली देखता हूँ तो मुझे आश्चर्य और करुणा दोनों के मिश्रित भाव आते है आश्चर्य इस बात के लिए कैसे उमस भरी गर्मी में वो 16 से 18 घंटो की नियमित ड्यूटी करते है और करुणा इस बात के लिए कि बाद के तीन दिनों में उनका सारा प्रशिक्षण ध्वस्त हो जाता है फिर सब कुछ कांवडियो के नैतिक और अराजक बल से संचालित होता है. पुलिस और अर्द्धसैनिक बल तब महज दर्शक बनकर रह जाते है.<br />
कांवड़ यात्रा की समाप्ति पर प्रशासन के चेहरे पर ठीक वैसे ही भाव होते है जैसे कोई जंग जीतने के बाद भारतीय सेना के चेहरे पर होते है. अब यहाँ सवाल यह उठता है कि कोई धार्मिक यात्रा इतनी बड़ी चुनौती बन सकती है क्या? हकीकत यही है कि ये बन चुकी है.<br />
इस यात्रा का धार्मिक महत्व क्या है उसकी पड़ताल करना मेरा क्षेत्र नही है मैं दरअसल भीड़ का मनोविज्ञान देखकर उनका मनोसामाजिक विश्लेषण करने की कोशिस करता हूँ कि आखिर कौन लोग है ये जो साल में एक बार जबरदस्त यूफोरिया में भरकर इस शहर में आते है?<br />
<br />
आंकड़े क्या कहते है:<br />
<br />
कल अख़बार में छपी एक खबर के मुताबिक़ वर्ष 2007 में हरिद्वार में 50 लाख लोग कांवड़ लेने आए उसके बाद अख़बार ग्राफिक्स के जरिये साल दर साल इनकी संख्या में हुई अनापेक्षित बढ़ोतरी बताता है और लिखता है कि 2015 में कांवड़ ले जाने वालो की संख्या लगभग ढाई करोड़ थी. इस साल भीड़ देखकर अंदाज़ा लगाया जा सकता है ये आंकड़ा दो गुना भी हो सकता है. मैं आंकड़ो की तथ्यात्मक सच्चाई नही जानता हूँ हो सकता है इसमें कुछ अतिरंजना भी हो मगर भीड़ हर साल बेहताशा बढ़ रही है इस बात का मैं खुद साक्षी हूँ.<br />
<br />
कौन है ये कांवड़ लें जाने वाले लोग?<br />
<br />
आस्था बेहद संवेदनशील चीज़ है और निजी भी. हमारे देश में सबसे जल्दी खंडित होने वाली चीज भी आस्था ही है.आस्था के नाम पर खूब क़त्ल ए आम भी हुआ है इसका इतिहास साक्षी है. मेरा मनोविश्लेषक मन कम से कम ढाई करोड़ भीड़ को आस्थावान मानने से इनकार करता है.<br />
मनौती पूरी होने पर कांवड़ ले जाने वाले लोग इस भीड़ का दस प्रतिशत भी नही होंगे ऐसा मेरा अनुमान है. असल की जो कांवड़ यात्रा है वो पैदल कंधो पर जल लेकर जाने की यात्रा है उसमें देह का एक कष्ट भी शामिल है इसलिए उसको एकबारगी आस्था के नजरिये से समझा जा सकता है मगर जो ट्रेक्टर ट्रोली, ट्रक, डीसीएम आदि पर लदे डीजे और गैंग बनाकर चलते युवाओं की टोलियों की कांवड़ यात्रा है उसका मनोसामाजिक चरित्र पैदल चलने वालो से भिन्न है. पैदल चलने वाले कांवडिए अपेक्षाकृत एकान्तिक और शांत रहते है मगर साईलेंसर निकली बाइक और चौपहिया वाहनों वाले कांवडिए हिंसक और अराजक है.<br />
<br />
भीड़ का मनोविज्ञान और मनोसामाजिक पृष्ठभूमि:<br />
<br />
भारत जैसे विकासशील देश के पास जो कुछ चंद गर्व करने की चीज़े प्रचारित की जाती है उनमे से एक यह भी है हमारे पास सबसे ज्यादा युवा जनसँख्या है. मगर जिस देश का युवा हुक्के कि चिलम भरे या भांग का सुट्टा लगाया हरिद्वार से अपनी घर की तरफ वाहनों के आगे डाकिया बना दौड़ रहा है उस युवा पर मुझे थोडा कम गर्व होने लगता है. मुझे उसकी ऊर्जा अब उस रूप में प्रभावित नही कर पाती है जिसमे देश का आत्मबल झलकता हो.इस बार कि कांवड़ यात्रा में तिरंगा भी खूब दिखाई दिया धर्म और देशभक्ति का ये कॉकटेल सच में डराता भी है. यदि किसी को किसी कांवडिए के किसी क्रियाकलाप पर ऐतराज़ है तो उसके हाथ में झन्डा और डंडा दोनों है मौका पड़ने पर वो झंड सर पर कफ़न की तरह बाँध लेगा और डंडे को भीड़ में भांजने से भी गुरेज़ नही करेगा.<br />
अपने देश के युवाओं का ये मानसिक धरातल बहुत उत्साहित नही करता है बल्कि ये काफी निराशाजनक है. ये देश के वो युवा है जिनका दावा मिटटी से जुड़े होने का है ये सोशलाईटस टाइप के यूथ नही है जो गूगल के जरिये देश को जानते हो ना ही ये टेबलायड पढ़कर बड़े हुए युवा है इसलिए इनके इस उत्साह को देखकर चिंता बढ़ जाती है.<br />
जब मैं कांवड यात्रा में दौड़ते युवाओं को देखता हूँ तो मौटे तौर पर भीड़ को मनोवैज्ञानिक दृष्टिकोण से इस प्रकार से वर्गीकृत कर पाता हूँ:<br />
<br />
1.यह भीड़ देश के मध्यमवर्गीय युवाओं की भीड़ है जिसमे बहुतायत में किसान जातियों के युवा है. यदि इनके रोजगार का आंकलन किया जाए तो अधिकांश भीड़ का संदर्श मौसमी बेरोज़गारी से भी जुड़ा मिलेगा.<br />
<br />
2.चेतना या विजन की दृष्टि से ये युवा वर्ग ठीक उसी निराशा से गुजर रहा है जिस से देश का पढ़ा लिखा युवा भी गुजर रहा है.<br />
<br />
3.इस युवा वर्ग के निजी जीवन में एकान्तिक नीरसता और निर्वात बसा हुआ है तभी ये जीवन की अर्थवेत्ता इस किस्म के आयोजनों में तलाश रहा है.<br />
<br />
4.इस युवा वर्ग के पास ऐसे अधेड़ वर्ग के लोगो का संरक्षण है जो अपने जीवन में कुछ ख़ास नही कर पायें हैं जिन्होंने जीवन का अधिकतम आनंद मेहमान बनकर या शादियों में शामिल होकर उठाया है.<br />
<br />
5.निसंदेह इस भीड़ में स्पोर्ट्समेन स्प्रिट है मगर उसका उपयोग सही दिशा में न कर पाने के लिए ‘स्टेट’ बड़ा दोषी है.<br />
<br />
6.लक्ष्य विहीन सपने विहीन पीढ़ी अक्सर ऐसे निरुद्धेश्य दौडती पाई जाती है. उनका अपना कोई विवेक या यूटोपिया नही होता है और यह कांवड जैसी यात्रा साफ़ तौर पर हमें भारत के ऐसे युवाओं को एक साथ देखने का अवसर देती है. ये भारत के युवाओं के अंदरूनी हालात का एक बढ़िया साइकोलॉजिकल प्रोजेक्शन है.<br />
<br />
7.साल भर मनमुताबिक जिंदगी न जीने की कुंठा में जीते लोगो को जब साल में एक अवसर दिखता है तब वे उत्साह के चरम पर होते है और यही उत्साह उन्हें हिंसक और अराजक बनता है.<br />
<br />
8.इस यात्रा के युवाओं में जो हिंसा और अराजकता दिखती है ( जिसमे महिलाओं पर अश्लील फब्तियां कसना भी शामिल है) वो दरअसल उनके बेहद मामूली और सतही जीवन से उपजी एक खीझ है इस यात्रा के जरिये वे खुद का ‘ख़ास’ होना महसूसते है और अक्सर अपना आपा खो बैठते है. पितृ सत्तात्मक और सामंती चेतना भी इसकी एक अन्य बड़ी वजह मुझे नजर आती है<br />
<br />
...और अंत में यही कहना चाहता हूँ धर्म और आस्था हमें एक बेहतर मनुष्य बनाये तभी इनकी उपयोगिता है यदि आस्था किसी अन्य की असुविधा का कारण बनती है तब इसे आपकी निजी कमजोरी के रूप में देखा जाना चाहिए.दस दिन से अस्त व्यस्त शहर जब कल सुबह जगेगा तब उसकी छाती पर असंख्य कूड़े का ढेर होगा साथ ही अच्छी खासी मात्रा में गंदगी होगी कांवडिए तो शहर छोड़ जाएंगे मगर उनकी गंध एक पखवाड़े तक इस शहर का पीछा करेगी यदि बारिश न बरसे तो इनके मल-मूत्र से शहर में संक्रमित बीमारियां फ़ैल सकने की सम्भावना से इनकार नही किया जा सकता है.<br />
<br />
कल से स्कूल कालेज खुलेगे बच्चे जो घरो में कैद हैं उन्हें स्कूल जाने का मौका मिलेगा ये सब चीज़े सोच कर सुख मिल रहा है और इस यात्रा को याद करने की एक भी सुखद वजह मै नही तलाश पा रहा हूँ इसलिए इंसान के रूप में भोले बने शिव तत्वों ये आपकी बडी नैतिक पराजय है. हो सके तो इस यात्रा ये चरित्र बदलिए हालांकि मै एक बेमैनी उम्मीद रख रहा हूँ मगर फिलहाल रख सकता हूँ क्योंकि आपकी तरह मै भी इस देश का एक संघर्षरत युवा हूँ.<br />
<br />
बोल बम ! बम ! बम !<br />
खोल लब कि लब आजाद है तेरे....!<br />
<br />
© डॉ. अजित</div>
Dr.Ajithttp://www.blogger.com/profile/17632123454222628758noreply@blogger.com3tag:blogger.com,1999:blog-5563897105803220813.post-46092776357476091892016-05-29T20:00:00.002-07:002016-05-29T20:00:57.544-07:00गाँव की यादें<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
गाँव में गर्मियों की छुट्टियों में या फिर स्कूल से आकर पशुओं को चारा डालनें उनका गोबर हटाने और नहाने पानी पिलाने की जिम्मेदारी बच्चों पर आ जाती थी।<br />
तब हाथ के हैंडपम्प (नलके ) से पानी खिंचा जाता था नल के सामनें एक कटा हुआ ड्रम रखा होता है हम बच्चें उसे मिलकर भरते थे फिर डांगरो (पशुओं) को पानी पिलाने और नहाने का काम करते थे।<br />
सह अस्तित्व का इससे बढ़िया सामाजिक प्रशिक्षण कुछ और नही हो सकता था ये गतिविधि हमें संवेदनशील बनाती थी तथा पशुओं के प्रति करुणा को हमारे मन में विकसित करती थी।<br />
पशुओं को बच्चों के नरम हाथों से नहाने में खूब मजा आता था मरखणी भैंस ( जो टक्कर मारती है) तब अकेली पड़ जाती थी हम उसको घूँटे पर ही बाल्टी से पानी पिलाते थे उसका नहाना भी प्रायः स्थगित रहता था।<br />
जैसे ही पशु को खूंटे से खोलकर नलके के पास लातें वो पानी पीने में आना कानी करती तो हम छैया छैया (पानी पीने के नम्र निवेदन की कूट भाषा) कहते उसकी पीठ पर हाथ फेरते फिर वो आराम से पानी पीती। पानी पीते वक्त हम उसके सींग की जड़ के आसपास हाथ से खुजाते इससे भैंस को बहुत मजा आता वो आराम से पानी पीती जाती। नहाने के समय सबसे बड़ी चुनौति होती उनके शरीर पर जो गोबर सूख गया है उसको कैसे उतारा जाए हम उसको गीला करते और फिर जिस प्लास्टिक के डिब्बे से पानी डाल नहला रहे होते उसी से उस सूखे गोबर को रगड़कर उतारते थे इसके अलावा भैंस अपने थनों को लेकर अतिरिक्त संवेदनशील होती है वहां की साफ़ सफाई मुश्किल होती थी वो वहां हाथ न लगनें देती थी मगर धीरे धीरे उन्हें बच्चों के हाथों की आदत हो जाती थी और वो आराम से थन साफ़ करवाती थी।<br />
भैंसे की सवारी भी उन दिनों का एक बड़ा शगल हुआ करता था मैं भैंसे को खूंटे से खोलता और खोर (पशुओं के चारा डालने की जगह) पर चढ़कर उसकी पीठ पर सवार हो लेता था फिर नलके तक उसकी पीठ पर सवारी करके यमराज बनके पहुँचता था। पशुओं को नहलाते समय जो बच्चा नलका चला रहा होता वो चाहता कि पानी कम खर्च हो मगर हम खूब पानी से तर बतर करके पशुओं को नहलाते थे।<br />
नहाने के बाद पशुओं के सींगो की जड़ में और सींग पर सरसों का तेल लगाते थे ताकि वो चमक उठे। नहाने से पहले पशुओं को चारा डाला जाता जिसके लिए सान्नी करनी पड़ती थी खल को भूसे और हरे चारे पर डालकर मिक्स करते थे धूप में सरसों की खल से हाथों में तेज जलन मचती थी फिर हम चोकर की बाल्टी में हाथ डालकर उसे शांत करते थे।<br />
शाम तक काम निबटता था फिर घेर में धूल के ऊपर पानी छिड़कते थे और चारपाई बिछाकर बैठते थे उस वक्त पानी छिड़कने के बाद जो माटी की जो सोंधी खुशबू आती थी वो कमाल की होती थी।<br />
हर घर में एक झोट्टी (भैंस) जरूर होती जो किसी के हात्तड़ पड़ जाती हात्तड़ का मतलब होता वो केवल एक उसी व्यक्ति को दूध निकालनें देती थी बाकि कोई बैठता था तो लात मारती थी ऐसे में वो शख्स यदि गाँव से बाहर जाता था तो उसे हर हाल में शाम तक घर आना पड़ता था वरना भैंस रींक-रींक कर ( रम्भाते हुए) बुरा हाल कर देती थी। मनुष्य और पशु के आपसी प्रेम का यह एक अद्भुत उदाहरण था।<br />
हमारे यहां एक भैंस थी जो एक टाइम दूध देने लगी थी मैंने उसकी खूब सेवा की बढ़िया चारा डाला उसकी त्वचा से चिंचडी(परजीवी) हटाए उसके सींगो की मालिश की दो बार अलग से चोकर डालता था फिर उसनें शाम को भी दूध देना शुरू कर दिया था दूध निकालते समय मुझे उसके माथे पर हाथ फेरना होता था।<br />
कुल मिलाकर बड़ी आत्मीय दुनिया था हम बच्चे पशुओं के साथ खूब घुल मिल जाते थे छोटे बछड़े और कटड़े/कटड़ी हमें देखकर उछलना शुरू कर देते थे मानों वो हमारे गहरे दोस्त हो।<br />
शाम को हम बाल्टी भर दूध लेकर जब घर पहुँचते तो हमारी माँ हमें स्नेह और आदर से एक साथ देखती उन्हें लगता किसान का बेटा अपने मूल जीवन को जी कर आ रहा है वो चाहती थी हम खूब पढ़े लिखें आगे बढ़ें मगर एक अनिवार्य प्रशिक्षण के तौर पर और जीवनशैली के हिस्से के रूप में खेत खलिहान और पशुओं से जीवनपर्यन्त जुड़े रहें उनसे कभी मुंह न मोड़े।<br />
अब जब सबकुछ छूट गया तब ये कुछ यादें ही है जिनके सहारे मेरे जैसे न जाने कितने लोग अपना वो बचपन जी सकते है जब हमारी दुनिया का एक बड़ा हिस्सा पशु रहें थे।<br />
<br />
'यादें गाँव की'</div>
Dr.Ajithttp://www.blogger.com/profile/17632123454222628758noreply@blogger.com1tag:blogger.com,1999:blog-5563897105803220813.post-20068904333122545712016-04-06T05:31:00.002-07:002016-04-06T05:31:33.466-07:00स्कूल डेज़<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
हम तो खैर पांचवी तक परिषदीय प्राईमेरी पाठशाला में पढ़ें उसके बाद पास के कस्बे के इंटरमीडिएट कालेज (सीनियर सैकण्डरी स्कूल) में बारहवीं तक पढ़ाई की वहां सब के सब टीचर मेल ही थे जो सदा 'ज्ञानदेई' से हमारी मरम्मत को तत्पर रहतें थे। किसी फीमेल टीचर ने हमें स्कूल लेवल में नही पढ़ाया।<br />
हायर एजुकेशन में हॉस्टल के दिनों में जो साथी कान्वेंट स्कूल से पढ़कर आए थे उनके किस्सों में दो बातें आम हुआ करती थी कि क्लास में हिंदी बोलनें पर फाइन लगता था और उनकी लाइफ का पहला 'क्रश' स्कूल के दिनों में किसी मैडम पर रहा होता था।<br />
तब ये उनके क्रश के किस्से सुनकर मुझे अचरज हुआ करता था मगर बाद में इस बात का साधारणीकरण हो गया। अचरज इसलिए भी होता था प्लस टू तक हमनें अपने जीवन के क्रूरतम टीचर(हालांकि हम आजतक उनका दिल से सम्मान करते है) देखे थे इंटर कालेज में क्लास रूम में जो जितनी कड़ी पिटाई करें वो उतना ही अनुशासनप्रिय और प्रभावी टीचर होता था। हमारे प्रिंसिपल और चीफ प्रॉक्टर की बेंत मुझे आजतक याद है।<br />
एक तरफ हम पिट कर सीख रहें थे वही दूसरी तरफ हमारे कुछ कान्वेंट स्कूल में पढ़े दोस्त एटिकेट्स कानशिएस,इंग्लिश स्पोकन में माहिर हो रहे थे ऐसे में उनका खूबसूरत टीचर के प्रति पहला क्रश होना अस्वाभाविक नही कहा जा सकता है। दो अलग अलग डिस्प्लीन से निकलें बच्चों के अनुभव एकदम अलहदा थे। जेंडर को लेकर हमारे संकोच बेहद गहरे थे तो वही इंग्लिश मीडियम कान्वेंट में पढ़े बच्चों के पास अपनी महिला टीचर को आर्चीज के कार्ड देने और उनके प्रोमिल स्नेह के बड़े रागात्मक किस्से हुआ करते थें।<br />
हमारे लिए वो दुनिया किसी फंतासी से कम नही थी क्योंकि एक तरफ हमारे पिछवाड़े ज्ञानदेई से दीक्षित थे और हमारी नसों में टीचर्स का आतंक भरा सम्मान दौड़ रहा था वही दूसरी तरफ कुछ दोस्त मैडम की ड्रेसिंग सेंस और स्माइल की तारीफ़ के बदलें 'हग' का लुत्फ़ लेकर आए थे वो अपनी मैडम टीचर्स के डियो की खुशबू से लेकर हैंकी का रंग तक बता सकते थे और हम केवल ये जानते थे कि जिस दिन त्यागी जी (हमारे भूगोल टीचर) के सामने क्लास में ये न बता पाएं कि उष्ण कटिबन्धीय और सम शीतोष्ण में क्या अंतर है? उसदिन उंगलियो के पोरों पर ऐसे बेंत मारते कि बहुत देर तक जलन न मिटती थी और हम मारे पुरुषोचित्त अभिमान के क्लास में रो तक न सकते थे बस बैंच पर बैठ उंगलियों पर ऐसे फूंक मारते मानो जल गई हो।<br />
<br />
'स्कूल डेज़'</div>
Dr.Ajithttp://www.blogger.com/profile/17632123454222628758noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-5563897105803220813.post-21779012550140616382016-03-09T18:05:00.002-08:002016-03-09T18:05:13.509-08:00पत्र <div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
अप्रिय विजय माल्या जी,<br />
आपका देश से फुर्र होना तो पहले से ही तय था मेरी तरह देश की जनता को आपके डिफाल्टर होने की खबर बहुत दिनों से थी बस ये खबर उन लोगो के लिए कोई खबर नही थी जो आपके जाने के लिए इंतजाम में लगें हुए थे। विदेश जाना कोई बस पकड़कर बगल के शहर में जाना तो है नही वैसे तो आप एनआरआई स्टेट्स में रहकर भारतीयता का लुत्फ़ लूट रहे थे इसलिए हो सकता है आपको वीजा जैसी औपचारिकताओं से न गुजरना पड़ा हो और अगर पड़ा भी हो तो भारत सरकार को इसकी कानोंकान खबर नही लगी सच में ये विदेश मंत्रालय की बहुत बड़ी उपलब्धि है। नियम कायदे कानून के हिसाब से तो बाकायदा विदेश मंत्रालय में एक अलग से सेल होती है जिनके पास ये हिसाब होता है देश के अलग अलग पोर्ट से कितने लोग विदेश गए और कितने विदेशी देश में दाखिल हुए मगर आप तो सीधा इधर से अंतरध्यान हुए और सीधे उधर विदेश में प्रकट हो गए है। विदेश एक बहुत बड़ा शब्द है न जाने आप कहाँ है हमारे देश की एजेंसियां तो फ़िलहाल किसी देश का नाम लेने की स्थिति में भी नही है अपुष्ट सूत्रों के हवालें से आपके लन्दन में होने की खबर मिली है।<br />
वैसे आपने अच्छा ही किया 9000 करोड़ डकार कर। सार्वजनिक क्षेत्र के बैंको को पहली दफा लोन का अर्थ समझ आ रहा है वरना अभी तक तो वो लोन देते थे और बदलें में लोन लेने वाले को मूल सहित खरीद लेते थे आपने उनकी मलाई चाटी और उन्ही के गाल पर चांटा लगाकर साफ़ हो गए।<br />
आपको वापिस देश लाना न इस सरकार के बस की बात है और किसी और सरकार के बस की बात थी हम कुछ कुछ मोर्चो पर बहुत आक्रमक रहतें है और कुछ पर एकदम चुप्पी साध लेते है। हमारा भारत ऐसे ही इंक्रीडिबल इंडिया बना है। आपकी ही परम्परा का ललित मोदी आपको बाकी के सारे गुर सिखा देगा कि कैसे भारत संघ के कानून को टेम्स नदी के पुल पर खड़े होकर चिंदी चिंदी करके फाड़ फेंकना है।<br />
आपके पास वकीलों की फ़ौज़ है और नेताओं की दोस्ती ऐसे में कोई आपका कोई कुछ नही उखाड़ पाएगा आराम से मौज लीजिए। आपके कलाबोध के लिए ये देश सदैव आपका ऋणी रहेगा आप बीयर और शराब किंग कहे जाते है सच में आपके नशे में ये देश ऐसा मशगूल हुआ कि जब तक आँख खुली आप बेगाने देश जा चुके थे।<br />
आपके इस तरह चलें जानें से बैंको के ऑडिट हेड को जरूर थोड़ी परेशानी हो रही है मगर उसका भी कोई समाधान राहत पैकेज देकर भारत सरकार निकाल लेगी आपके यूं चले जाने से वो कर्जदार जरूर निराश है जिनके पास आप जैसा रसूख नही है अब आपसे कर्जा न वसूल पाने की कुंठा में बैंक उन कर्जदारों पर डंडा सख्त करेंगे जिन्होंने खेती बाड़ी या बिटिया के ब्याह के लिए अपनी जमीन बैंक में गिरवी रखकर कर्जा लिया है। कुछ जरूरतमंद कर्जदारों के लिए आप जरूर मुसीबत खड़ी कर गए है मगर आपको इससे क्या फर्क पड़ता है क्योंकि आपने तो कर्ज लेते समय ही सोच लिया था कि एक दमड़ी भी नही लौटानी है।<br />
आप जहां भी है देर सबेर पता लग ही जाएगा और जगह पता लगनें से क्या होता है क्योंकि आप सच्चे अर्थो में विश्व नागरिक है आपके पास मुद्रा है तो सारी दुनिया आपकी अपनी है असल मुसीबत तो उन वक्त के मारों की है जिनके कर्जा चुकाने की विल है मगर पैसा नही जिनके पास भूख है मगर रोटी नही।<br />
आपसे पहले कर्जा लेते हुए हर भारतीय नागरिक डरा करता था मगर अब आपने वो डर खत्म किया है आपने बताया कि यदि पेट के साथ दिमाग भी बड़ा हो तो आप आराम से देश का पैसा हजम कर सकतें हैं।<br />
टैक्स पेयर जनता आपको लेकर कोई इंकलाब करेगी इसकी कोई उम्मीद नही है वो खुद ईएमआई के जरिए जिन्दा है आपने व्यापक अर्थो में एक उम्मीद को जन्म दिया है भारत जैसे विकासशील देश को इसकी सख्त जरूरत थी।<br />
कला,अर्थ,कूटनीति और आपके आत्मविश्वास के लिए ये देश आपको सदैव याद रखेगा। मैं आपकी लम्बी उम्र की दुआ करता हूँ ताकि आपको देख हमें अपने देश की मजबूरी बार बार याद आती रहें।<br />
<br />
आपकी ही तरह कुछ देश का कुछ दोस्तों का कर्जमंद<br />
एक भारतीय नागरिक</div>
Dr.Ajithttp://www.blogger.com/profile/17632123454222628758noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-5563897105803220813.post-20785157220035121362016-01-16T06:44:00.002-08:002016-01-16T06:44:48.647-08:00बैंड बाजा <div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<div style="background-color: black; color: white; font-family: sans-serif; font-size: 18.6667px;" w:rsidp="00FF1C48" w:rsidr="00BA22E4" w:rsidrdefault="00BA22E4">
<r><t>बैंड बाज़ा: एक बेसुरी धुन यह भी</t></r></div>
<div style="background-color: black; color: white; font-family: sans-serif; font-size: 18.6667px;" w:rsidp="00FF1C48" w:rsidr="00BA22E4" w:rsidrdefault="00BA22E4">
<ppr><szcs class="c24"></szcs></ppr><r><rpr style="list-style: outside;"><rfonts w:hint="cs"><sz class="c24"><szcs class="c24"><cs></cs></szcs></sz></rfonts></rpr><t>--------------------------------------</t></r></div>
<div style="background-color: black; color: white; font-family: sans-serif; font-size: 18.6667px;" w:rsidp="00FF1C48" w:rsidr="00BF0E45" w:rsidrdefault="00BF0E45">
<ppr><szcs class="c24"></szcs></ppr><r><rpr style="list-style: outside;"><rfonts w:hint="cs"><sz class="c24"><szcs class="c24"><cs></cs></szcs></sz></rfonts></rpr><t xml:space="preserve">वो हमारे बीच में </t></r><r w:rsidr="008F032E"><rpr style="list-style: outside;"><rfonts w:hint="cs"><sz class="c24"><szcs class="c24"><cs></cs></szcs></sz></rfonts></rpr><t xml:space="preserve">किसी </t></r><r><rpr style="list-style: outside;"><rfonts w:hint="cs"><sz class="c24"><szcs class="c24"><cs></cs></szcs></sz></rfonts></rpr><t xml:space="preserve">मिथक की तरह रहते है समाज़ उन्हें क्षेपक से ज्यादा कुछ नही </t></r><r w:rsidr="008F032E"><rpr style="list-style: outside;"><rfonts w:hint="cs"><sz class="c24"><szcs class="c24"><cs></cs></szcs></sz></rfonts></rpr><t>समझता</t></r><r w:rsidr="00A642A2"><rpr style="list-style: outside;"><rfonts w:hint="cs"><sz class="c24"><szcs class="c24"><cs></cs></szcs></sz></rfonts></rpr><t>।</t></r><r><rpr style="list-style: outside;"><rfonts w:hint="cs"><sz class="c24"><szcs class="c24"><cs></cs></szcs></sz></rfonts></rpr><t xml:space="preserve">हमारी खुशियों में </t></r><r w:rsidr="00731E25"><rpr style="list-style: outside;"><rfonts w:hint="cs"><sz class="c24"><szcs class="c24"><cs></cs></szcs></sz></rfonts></rpr><t xml:space="preserve">भरपूर </t></r><r><rpr style="list-style: outside;"><rfonts w:hint="cs"><sz class="c24"><szcs class="c24"><cs></cs></szcs></sz></rfonts></rpr><t>रंग जमाने की सारी जिम्मेदारी उन्ही की होती है मगर हम कभी उनके जीवन में पसरें दुखों को जाननें की कोशिश भी नही करत</t></r><r w:rsidr="008F032E"><rpr style="list-style: outside;"><rfonts w:hint="cs"><sz class="c24"><szcs class="c24"><cs></cs></szcs></sz></rfonts></rpr><t>े</t></r><r><rpr style="list-style: outside;"><rfonts w:hint="cs"><sz class="c24"><szcs class="c24"><cs></cs></szcs></sz></rfonts></rpr><t>। वो हमारे किस्स</t></r><r w:rsidr="00A642A2"><rpr style="list-style: outside;"><rfonts w:hint="cs"><sz class="c24"><szcs class="c24"><cs></cs></szcs></sz></rfonts></rpr><t>ों में सतही हास्य और व्यंग्य के रुप में</t></r><r><rpr style="list-style: outside;"><rfonts w:hint="cs"><sz class="c24"><szcs class="c24"><cs></cs></szcs></sz></rfonts></rpr><t xml:space="preserve"> जिंदा रहते है मसलन हम किसी के गर्दन पर बढे हुए बाल या कलरफुल ड्रेस को देखकर कहते है कि देखो क्या बाजेवाला सा बना घूम रहा है !</t></r></div>
<div style="background-color: black; color: white; font-family: sans-serif; font-size: 18.6667px;" w:rsidp="00FF1C48" w:rsidr="00BF0E45" w:rsidrdefault="00BF0E45">
<ppr><szcs class="c24"></szcs></ppr><r><rpr style="list-style: outside;"><rfonts w:hint="cs"><sz class="c24"><szcs class="c24"><cs></cs></szcs></sz></rfonts></rpr><t>हम कभी</t></r><r w:rsidr="00A642A2"><rpr style="list-style: outside;"><rfonts w:hint="cs"><sz class="c24"><szcs class="c24"><cs></cs></szcs></sz></rfonts></rpr><t xml:space="preserve"> यह</t></r><r><rpr style="list-style: outside;"><rfonts w:hint="cs"><sz class="c24"><szcs class="c24"><cs></cs></szcs></sz></rfonts></rpr><t xml:space="preserve"> अन्दाज़ा नही लगा पाते है कि हमारी खुशियों में बैंड बजाने वाले लोगो की </t></r><r w:rsidr="00A642A2"><rpr style="list-style: outside;"><rfonts w:hint="cs"><sz class="c24"><szcs class="c24"><cs></cs></szcs></sz></rfonts></rpr><t xml:space="preserve">असल जिन्दगी में किस कदर बैंड </t></r><r><rpr style="list-style: outside;"><rfonts w:hint="cs"><sz class="c24"><szcs class="c24"><cs></cs></szcs></sz></rfonts></rpr><t>बजी होती है वो सांस की बीमारियों से लडते फेफडों को अधिकतम विस्तार तक फैलाते हमारे लिए वो धुन निकालते है जिस पर हम मदहोश होकर थिरक सकें।</t></r></div>
<div style="background-color: black; color: white; font-family: sans-serif; font-size: 18.6667px;" w:rsidp="00FF1C48" w:rsidr="00BF0E45" w:rsidrdefault="00BF0E45">
<ppr><szcs class="c24"></szcs></ppr><r><rpr style="list-style: outside;"><rfonts w:hint="cs"><sz class="c24"><szcs class="c24"><cs></cs></szcs></sz></rfonts></rpr><t xml:space="preserve">बैंड का मैकनिज़्म भी बडा अजीब है जिसे सबसे ज्यादा मेहनत करनी होती है वो हमेशा हाशिए पर रहता है बैंड का मास्टर तो फिर भी नेग लूटता रहता है मगर जो बडे ब्रास के बने बैंड मे दम भर फूंक भर रहे होते है उनके गले की उभरी हुई नसें और आंखों की पुतलियों का अधिकतम फैलाव उन्हें मानवीय श्रम के चरम पर टांग देता है मगर उन्हें न तारीफ मिलती है और न ही नेग ही। हालांकि खुशियों में पैसे उडाना एक किस्म का सामंती ही चलन है जहां किसी के फन की वास्तविक कद्र करने की बजाए पैसा उडाकर स्वामित्व का बडा अजीब प्रदर्शन किया जाता है।</t></r></div>
<div style="background-color: black; color: white; font-family: sans-serif; font-size: 18.6667px;" w:rsidp="00FF1C48" w:rsidr="005A3996" w:rsidrdefault="005A3996">
<ppr><szcs class="c24"></szcs></ppr><r><rpr style="list-style: outside;"><rfonts w:hint="cs"><sz class="c24"><szcs class="c24"><cs></cs></szcs></sz></rfonts></rpr><t xml:space="preserve">जब मै किसी बैंड को देखता हूं तो उसमे मौसमी मजदूर की तरह काम करने बैंड के अधेड </t></r><r w:rsidr="008F032E"><rpr style="list-style: outside;"><rfonts w:hint="cs"><sz class="c24"><szcs class="c24"><cs></cs></szcs></sz></rfonts></rpr><t xml:space="preserve">से लेकर बुजुर्ग मेम्बर पर नजर जाती है </t></r><r><rpr style="list-style: outside;"><rfonts w:hint="cs"><sz class="c24"><szcs class="c24"><cs></cs></szcs></sz></rfonts></rpr><t xml:space="preserve">वो उम्र के इस पडाव मे अजीब सी शून्यता को झेलते हुए अपने कन्धे में सांप के जैसा बैंड ढोने के लिए बाध्य है। फुरसत मे बीडी फूंकते हुए उन्हे देख लगता है जैसे उनकी जिन्दगी मे कोई खुशी की धुन नही है वो खुशियों को सुनने के</t></r><r w:rsidr="008F032E"><rpr style="list-style: outside;"><rfonts w:hint="cs"><sz class="c24"><szcs class="c24"><cs></cs></szcs></sz></rfonts></rpr><t xml:space="preserve">मामलें में </t></r><r><rpr style="list-style: outside;"><rfonts w:hint="cs"><sz class="c24"><szcs class="c24"><cs></cs></szcs></sz></rfonts></rpr><t xml:space="preserve">लगभग बहरे हो गए है। सांस और फेफडे की बीमारी एक उम्र के बाद उनको अपने कब्जे मे ले लेती है क्योंकि वो अपनी सांस की नली का सामान्य व्यक्ति से चार गुना ज्यादा उपयोग करते है ऐसे में उनके फेफडे असामान्य फैलाव के शिकार हो जाते है। कभी गौर से उनकें होठ </t></r><r><rpr style="list-style: outside;"><rfonts w:hint="cs"><sz class="c24"><szcs class="c24"><cs></cs></szcs></sz></rfonts></rpr><lastrenderedpagebreak><t>देखिएगा कैसे बैंड</t></lastrenderedpagebreak></r><r w:rsidr="008F032E"><rpr style="list-style: outside;"><rfonts w:hint="cs"><sz class="c24"><szcs class="c24"><cs></cs></szcs></sz></rfonts></rpr><t xml:space="preserve"> के पाईप पर लगे-</t></r><r><rpr style="list-style: outside;"><rfonts w:hint="cs"><sz class="c24"><szcs class="c24"><cs></cs></szcs></sz></rfonts></rpr><t>लगे उलथ जाते है। हम अन्दाज़ा भी नही लगा सकते है कि किसी फिल्मी गाने की धुन बजाने के लिए कितना</t></r><r w:rsidr="008F032E"><rpr style="list-style: outside;"><rfonts w:hint="cs"><sz class="c24"><szcs class="c24"><cs></cs></szcs></sz></rfonts></rpr><t xml:space="preserve"> अधिक</t></r><r><rpr style="list-style: outside;"><rfonts w:hint="cs"><sz class="c24"><szcs class="c24"><cs></cs></szcs></sz></rfonts></rpr><t xml:space="preserve"> शारीरिक श्रम लगता है।</t></r></div>
<div style="background-color: black; color: white; font-family: sans-serif; font-size: 18.6667px;" w:rsidp="00FF1C48" w:rsidr="005A3996" w:rsidrdefault="005A3996">
<ppr><szcs class="c24"></szcs></ppr><r><rpr style="list-style: outside;"><rfonts w:hint="cs"><sz class="c24"><szcs class="c24"><cs></cs></szcs></sz></rfonts></rpr><t xml:space="preserve">गरीबी,बीमारी कुपोषण से वो रोज़ लडतें है मगर फिर भी उनके लिए थकना मना होता है उन्हें हर हाल में जहां भर </t></r><r w:rsidr="008F032E"><rpr style="list-style: outside;"><rfonts w:hint="cs"><sz class="c24"><szcs class="c24"><cs></cs></szcs></sz></rfonts></rpr><t xml:space="preserve">की </t></r><r><rpr style="list-style: outside;"><rfonts w:hint="cs"><sz class="c24"><szcs class="c24"><cs></cs></szcs></sz></rfonts></rpr><t xml:space="preserve">फूंक खुद के अन्दर इकट्ठी करनी होती है और फिर गानें की डिमांड के मुताबिक छोडना होता है ताकि हम खुशी मे झूम कर थिरक सकें।</t></r></div>
<div style="background-color: black; color: white; font-family: sans-serif; font-size: 18.6667px;" w:rsidp="00FF1C48" w:rsidr="00731E25" w:rsidrdefault="005A3996">
<ppr><szcs class="c24"></szcs></ppr><r><rpr style="list-style: outside;"><rfonts w:hint="cs"><sz class="c24"><szcs class="c24"><cs></cs></szcs></sz></rfonts></rpr><t xml:space="preserve">यह सच है कि ब्रास बैंड एक टीम वर्क होता है मगर फिर भी इस टीम के अधेड और बुजुर्गवार सदस्यों की तकलीफें सच में कम नही होती है उम्र के लिहाज़ से सबसे पीछे रहना होता है और सबसे कम पैसा उनको मिलता है इसके अलावा उमस भरी गर्मी जो ड्रेस बैंड वाले पहनतें वह भी कम कष्टदायक नही है </t></r><r w:rsidr="00731E25"><rpr style="list-style: outside;"><rfonts w:hint="cs"><sz class="c24"><szcs class="c24"><cs></cs></szcs></sz></rfonts></rpr><t xml:space="preserve">न जाने कौन ऐसी ड्रेस डिजाईन करता है मोटा चमकीला कपडा उपर से उस ड्रेस का चरित्र वही मालिक और सेवक वाला होता है।</t></r></div>
<div style="background-color: black; color: white; font-family: sans-serif; font-size: 18.6667px;" w:rsidp="00FF1C48" w:rsidr="00731E25" w:rsidrdefault="00731E25">
<ppr><szcs class="c24"></szcs></ppr><r><rpr style="list-style: outside;"><rfonts w:hint="cs"><sz class="c24"><szcs class="c24"><cs></cs></szcs></sz></rfonts></rpr><t>मुझे लगता है बैंड बजाना ठीक वैसा ही एक फन है जैसे कोई दूसरा म्यूजिक इंस्ट्रुमेंट बजाने का होता है मगर एक पेशे और रीत के रुप में यह उतना सम्मानजनक कभी नही रहा है ये बस खुशियों के बदलें मनुष्य के अधिकतम उपयोग के दर्शन पर चलता आया है। एक पेशे के रुप में बैंड बजाना भी समाज मे हाशिए पर जी रहे लोगो का पेशा रहा है इसलिए इससे जुडा सामाजिक सन्दर्भ भी सतत साथ चलता है।</t></r></div>
<div style="background-color: black; color: white; font-family: sans-serif; font-size: 18.6667px;" w:rsidp="00FF1C48" w:rsidr="00731E25" w:rsidrdefault="00731E25">
<ppr><szcs class="c24"></szcs></ppr><r><rpr style="list-style: outside;"><rfonts w:hint="cs"><sz class="c24"><szcs class="c24"><cs></cs></szcs></sz></rfonts></rpr><t xml:space="preserve">आजकल तो डीजे वाले बाबू नें बैंड के काम को वैसे ही काफी कम दिया गया है मगर फिर भी जो लोग इस पेशे से सीजनल जुडे हुए है उनके जीवन में उन खुशियों का दशमांश भी नही होता है जिनके वो साक्षी होते है वो अनजाने लोगो के बीच अपने दुख छोड चमकीली ड्रेस जरुर पहनतें है मगर उसके नीचे उनके पैबंद लगे कपडे ही होते है वो सुर को जरुर साधते है मगर उनकी खुद की दुनिया के सपनें और सुख इतने बेसुरे होते है कि वो न उन्हें देख पाते है और न सुन पातें है।</t></r></div>
<div style="background-color: black; color: white; font-family: sans-serif; font-size: 18.6667px;" w:rsidp="00FF1C48" w:rsidr="00A642A2" w:rsidrdefault="00731E25">
<ppr><szcs class="c24"></szcs></ppr><r><rpr style="list-style: outside;"><rfonts w:hint="cs"><sz class="c24"><szcs class="c24"><cs></cs></szcs></sz></rfonts></rpr><t>श्रम का क्रुरतम रुप देखना तो कभी किसी उस बुजुर्ग से जरुर मिलिएगा जो जवानी के दिनों</t></r><r w:rsidr="008F032E"><rpr style="list-style: outside;"><rfonts w:hint="cs"><sz class="c24"><szcs class="c24"><cs></cs></szcs></sz></rfonts></rpr><t xml:space="preserve"> में क्या</t></r><r><rpr style="list-style: outside;"><rfonts w:hint="cs"><sz class="c24"><szcs class="c24"><cs></cs></szcs></sz></rfonts></rpr><t xml:space="preserve"> तो किसी बैंड मे काम कर चुका हो या फिर किसी आढत मे पल्लेदारी ( बोझ उठाने) क़ा काम कर चुका हो फिर आप शायद महसूस कर पाए कि बोझ जब कांधे और पीठ पर लदता है तब असल में नसों की कराह से कैसा संगीत बजता है</t></r><r w:rsidr="008F032E"><rpr style="list-style: outside;"><rfonts w:hint="cs"><sz class="c24"><szcs class="c24"><cs></cs></szcs></sz></rfonts></rpr><t>।</t></r><r><rpr style="list-style: outside;"><rfonts w:hint="cs"><sz class="c24"><szcs class="c24"><cs></cs></szcs></sz></rfonts></rpr><t xml:space="preserve"> हम तो धुन के फन में नाचकर मस्ती </t></r><r><rpr style="list-style: outside;"><rfonts w:hint="cs"><sz class="c24"><szcs class="c24"><cs></cs></szcs></sz></rfonts></rpr><lastrenderedpagebreak><t>में झूमकर निकल लेते है मगर उस धुन को बजाने वाली ताउम्र किस तरह से अपनी ही बजाई धुन से सिसकता है इस हकीकत</t></lastrenderedpagebreak></r><r w:rsidr="008F032E"><rpr style="list-style: outside;"><rfonts w:hint="cs"><sz class="c24"><szcs class="c24"><cs></cs></szcs></sz></rfonts></rpr><t xml:space="preserve"> का हमें शायद कभी पता नही चल पाता है</t></r><r><rpr style="list-style: outside;"><rfonts w:hint="cs"><sz class="c24"><szcs class="c24"><cs></cs></szcs></sz></rfonts></rpr><t>।</t></r><r w:rsidr="008F032E"><rpr style="list-style: outside;"><rfonts w:hint="cs"><sz class="c24"><szcs class="c24"><cs></cs></szcs></sz></rfonts></rpr><t xml:space="preserve"> खुशियां अपनी कीमत जरुर वसूलती है ये सच बात है मगर किससे और किस रुप में इस सच की हमें जरुर पडताल करनी चाहिए। बैंड बाजे के पेशे में अधिक मानवीय हस्तक्षेप होना चाहिए साथ न्यूनतम श्रम/संविदा के कानूनों का भी पालन किया जाना चाहिए ताकि बैंड बजाने वाले सदस्य को उपयुक्त श्रम सुविधाएं मिल सकें इसके अलावा हमें भी अपने परिवेश के प्रति अधिक संवेदनशील होने की आवश्यकता है ताकि हम बैंड बाजे वाले को महज पैसा देकर अधिकतम उपयोग किया जाने वाले एक ह्युमन इंस्ट्रुमेंट भर न समझें </t></r><r w:rsidr="00A642A2"><rpr style="list-style: outside;"><rfonts w:hint="cs"><sz class="c24"><szcs class="c24"><cs></cs></szcs></sz></rfonts></rpr><t>तभी हमारे जीवन में उत्सवों और खुशियों का वास्तविक अर्थ अपने सही स्वरुप में प्रकट होगा।</t></r></div>
<div style="background-color: black; color: white; font-family: sans-serif; font-size: 18.6667px;" w:rsidp="00FF1C48" w:rsidr="008F032E" w:rsidrdefault="00A642A2">
<ppr><szcs class="c24"></szcs></ppr><r><rpr style="list-style: outside;"><rfonts w:hint="cs"><sz class="c24"><szcs class="c24"><cs></cs></szcs></sz></rfonts></rpr><t xml:space="preserve">डॉ.अजित</t></r></div>
</div>
Dr.Ajithttp://www.blogger.com/profile/17632123454222628758noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-5563897105803220813.post-38559867681160162712015-09-30T21:02:00.002-07:002015-09-30T21:02:46.224-07:00देहात <div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
हम देहात के निकले बच्चे थे। पांचवी तक घर से तख्ती लेकर स्कूल गए थे स्लेट को जीभ से चाटकर अक्षर मिटाने की हमारी स्थाई आदत थी कक्षा के तनाव में स्लेटी खाकर हमनें तनाव मिटाया था। स्कूल में टाट पट्टी की अनुपलब्धता में घर से खाद या बोरी का कट्टा बैठने के लिए बगल में दबा कर भी ले जातें थे। कक्षा छः में पहली दफा हमनें अंग्रेजी का कायदा पढ़ा और पहली बार एबीसीडी देखी स्मॉल लेटर में बढ़िया एफ बनाना हमें बारहवीं तक भी न आया था। करसीव राइटिंग तो आजतक न सीख पाए।<br />
हम देहात के बच्चों की अपनी एक अलहदा दुनिया था कपड़े के बस्ते में किताब और कापियां लगाने का विन्यास हमारा अधिकतम रचनात्मक कौशल था। तख्ती पोतने की तन्मयता हमारी एक किस्म की साधना ही थी। हर साल जब नई कक्षा के बस्ते बंधते (नई किताबें मिलती) तब उन पर जिल्द चढ़ाना हमारे जीवन का स्थाई उत्सव था।<br />
ब्लू शर्ट और खाकी पेंट में जब हम इंटरमीडिएट कालेज पहूँचे तो पहली दफा खुद के कुछ बड़े होने का अहसास हुआ। गाँव से आठ दस किलोमीटर दूर के कस्बें में साईकिल से रोज़ सुबह कतार बना कर चलना और साईकिल की रेस लगाना हमारे जीवन की अधिकतम प्रतिस्पर्धा थी। हर तीसरे दिन हैंडपम्प को बड़ी युक्ति से दोनों टांगो के मध्य फंसाकर साईकिल में हवा भरतें मगर फिर भी खुद की पेंट को हम काली होने से बचा न पाते थे।<br />
स्कूल में पिटते मुर्गा बनतें मगर हमारा ईगो हमें कभी परेशान न करता हम देहात के बच्चें शायद तब तक जानते नही थे कि ईगो होता क्या है क्लास की पिटाई का रंज अगले घंटे तक काफूर हो गया होता और हम अपनी पूरी खिलदण्डिता से हंसते पाए जाते।<br />
रोज़ सुबह प्रार्थना के समय पीटी के दौरान एक हाथ फांसला लेना होता मगर फिर भी धक्का मुक्की में अड़ते भिड़ते सावधान विश्राम करते रहते।<br />
हम देहात के निकले बच्चें सपनें देखने का सलीका नही सीख पातें अपनें माँ बाप को ये कभी नही बता पातें कि हम उन्हें कितना प्यार करते है।<br />
हम देहात से निकले बच्चें गिरतें सम्भलतें लड़ते भिड़ते दुनिया का हिस्सा बनतें है कुछ मंजिल पा जाते है कुछ यूं ही खो जाते है। एकलव्य होना हमारी नियति है शायद। देहात से निकले बच्चों की दुनिया उतनी रंगीन होती वो ब्लैक एंड व्हाइट में रंग भरने की कोशिश जरूर करतें हैं।<br />
पढ़ाई फिर नौकरी के सिलसिलें में लाख शहर में रहें लेकिन हम देहात के बच्चों के अपने देहाती संकोच जीवनपर्यन्त हमारा पीछा करते है नही छोड़ पाते है सुड़क सुड़क की ध्वनि के साथ चाय पीना अनजान जगह जाकर रास्ता कई कई दफा पूछना।कपड़ो को सिलवट से बचाए रखना और रिश्तों को अनौपचारिकता से बचाए रखना हमें नही आता है।<br />
अपने अपने हिस्से का निर्वासन झेलते हम बुनते है कुछ आधे अधूरे से ख़्वाब और फिर जिद की हद तक उन्हें पूरा करने का जुटा लाते है आत्मविश्वास।<br />
हम देहात से निकलें बच्चें थोड़े अलग नही पूरे अलग होते है अपनी आसपास की दुनिया में जीते हुए भी खुद को हमेशा पाते है थोड़ा प्रासंगिक थोड़ा अप्रासंगिक।<br />
<br />
'हम देहात के बच्चें'</div>
Dr.Ajithttp://www.blogger.com/profile/17632123454222628758noreply@blogger.com1tag:blogger.com,1999:blog-5563897105803220813.post-31793002339210691742015-08-24T20:29:00.002-07:002015-08-24T20:29:17.725-07:00दोस्ती <div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
'दोस्ती' के बहाने एक जरूरी बात:<br />
<br />
दोस्ती दुनिया का एक खूबसूरत रिश्ता है। हम अपने दोस्त खुद चुनते है और इसलिए हमें दोस्ती के मामलें में शिकायत करने का हक नही बनता है। चाहे दुनिया आभासी हो या वास्तविक दोस्तों की उपस्थिति हमें एक ख़ास किस्म की अपनत्व भरी सुरक्षा प्रदान करती है।<br />
कभी कभी कुछ अपरिहार्य कारणोंवश इस खूबसूरत रिश्तें पर ग्रहण लग जाता है यहां तक दोस्ती स्थगित हो जाती है या फिर टूट जाती है। मेरे ख्याल से बहुत ईगो सेंट्रिक होना,संवाद का अभाव, गलतफहमियों के बादल और एकतरफा अपेक्षाओं से यह रिश्ता कई बार उस स्थिति में चला जाता है जहां से वापसी सम्भव नही हो पाती है।<br />
किसी भी परिस्थिति में दोस्ती टूटना जीवन की एक अप्रिय घटना होती है और हम भावावेश अतिरेकता में कुछ ऐसी बातें भी करनें लगते है जो नही करनी चाहिए।<br />
जिस शख्स को आपने कभी अपना अच्छा दोस्त कहा होता है सम्बन्ध टूटने के बाद उसके बारे में तेजी से राय बदलती जाती है और हम कहीं न कहीं नकारात्मक होते चले जातें है।<br />
मेरे हिसाब से दोस्त छूटने और दोस्ती टूटने पर हमें कम से कम इन बातों से बचना चाहिए ताकि खत्म हो चुके सम्बन्ध में भी एक न्यूनतम गरिमा बची रहे:<br />
1. कभी किसी दुसरे मित्र के साथ टूटे रिश्तें की समीक्षात्मक चर्चा से बचना चाहिए। जिस दोस्त को आपने कभी अच्छा कहा होता है उसको बाद में बुरा कहने से भी बचना चाहिए।<br />
2. प्रायः प्रसंगवश लोगबाग आपको उस दिशा में ले जा सकते है जहां आपके उस मित्र का संदर्भ जुड़ा होता है मगर आपको सख्त ऐतराज़ जताते हुए उस पूर्व मित्र की पीठ पीछे की निंदा आदि में न खुद शामिल होना चाहिए न किसी दुसरे को उसके बारें सामाजिक चटखारे का विषय बनाने की इजाजत देनी चाहिए।<br />
3. कभी भी अभिधा/लक्षणा/व्यंजना या व्यंग्य की शैली में ऐसी कोई बात अपने स्तर पर न करें जिससे आपके पुराने साथी को कोई तकलीफ पहूँचे मेरे हिसाब से ऐसे बात करना कतई गरिमापूर्ण नही होता है।<br />
4. किसी भी रिश्तें के टूटने की हमेशा द्विपक्षीय वजहें होती है इसलिए कभी खुद को न्यायोचित ठहराते हुए एकपक्षीय आरोपण न करें बल्कि आत्मालोचन करते हुए खुद के पार्ट पर हुई गलतियों का विवेचन करें ताकि किसी नए रिश्तें में आपसे उनकी गलतियों की पुनरावृत्ति न हो।<br />
5. जिस दोस्त के साथ आपने अपना क्वालिटी टाइम शेयर किया होता है उसकी सुखद स्मृतियों को याद रखें गलती करना मनुष्य का स्वभाव है। राग द्वेष छल झूठ ये सब मानवीय वृत्तियाँ है जो किसी किसी व्यक्ति की सीमा बन जाती है। इसलिए कड़वी बातों को जीवन अनुभव और सुखद बातों को अपनी स्मृतियों का हिस्सा बनाएं।<br />
6. यदि दोस्ती के आपके अनुभव अच्छे नही है या आपके दोस्त ने आपको पीड़ा भी पहूँचाई है तब भी उदारमना हो उसके व्यवहार को उसकी कमजोरी या सीमा समझते हुए क्षमाशील होते हुए आगे बढ़ना चाहिए क्योंकि जीवन एक यात्रा है हम इसी तरह के अनुभवों से बहुत कुछ सीखते हैं।<br />
7. दुनिया की तरह मानवीय सम्बन्धो की लोच भी गोल है जो छूट गया है वो कभी न कभी फिर लौट कर आप तक जरूर आता है इसलिए जो आपके अस्तित्व का हिस्सा है वो आपसे अवश्य जुड़ेगा उसके जाने पर खेद न करें और जो आपके अस्तित्व की यात्रा का सहचर नही है उसे आप किसी भी ढंग से बाँध कर नही रख सकते हैं।<br />
...निसन्देह जीवन में किसी को दोस्त बनाना और फिर उसका छूट जाना एक बेहद कष्टकारी और पीड़ादायक अनुभव होता है मगर कुछ सम्बन्धो की आयु नियति द्वारा भी निर्धारित करती है बाकि हम सब की मानवीय कमजोरियां यह तय कर देती है कि कौन कहां तक साथ चलेगा। दिन ब दिन जटिल होती दुनिया में साथ तो अक्सर मिल जाता है मगर साथी नही मिलतें है।<br />
मुझे लगता है कि किसी भी जागरूक सम्वेदनशील मनुष्य को दोस्ती टूटने की दशा में भी एक खास स्तर से नीचे नही उतरना चाहिए दोस्ती नितांत ही व्यक्तिगत चीज है इससे जुड़े खराब अनुभवों को ढ़ोते रहना और सार्वजनिक करना मेरी दृष्टि में गरिमापूर्ण नही होता है।<br />
इसी हवाले से दो शेर आप सबके नज्र करता हूँ:<br />
<br />
जाने कौन सी मजबूरियों का कैदी हो<br />
वो साथ छोड़ गया है तो बेवफा न कहो<br />
<br />
ये और बात है के दुश्मन हुआ है आज मगर<br />
वो मेरा दोस्त था कल तक उसे बुरा न कहो<br />
राहत इंदौरी<br />
© डॉ.अजित<br />
<br /></div>
Dr.Ajithttp://www.blogger.com/profile/17632123454222628758noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-5563897105803220813.post-28007001875634775392015-07-30T01:29:00.002-07:002015-07-30T01:29:39.482-07:00बाग़ का ब्याह <div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
बाग़ का ब्याह<br />
----------<br />
बाग़ का ब्याह सुननें में काफी विचित्र लगता है मगर सच है बाग़ का भी ब्याह किया जाता है। जब मैंने बाग़ के ब्याह की बात सुनी तो मुझे भी बड़ा अचरज हुआ था। हमारा आम का बाग़ है आज से लगभग पचास साल पहले मेरी माँ (दादी) ने इस बाग़ को लगवाया था इस बाग़ में पहला आम का पेड़ माँ के हाथों रखा गया था। लोक जीवन में एक बड़ी विचित्र मान्यता है कि बाग़ को लगाने वाला तब अपने बाग़ का फल नही खा सकता है जब तक वह बाग़ का ब्याह न कर दें। मानन्यता यह भी थी कि यदि कोई बिना ब्याह के अपने बाग़ का फल खा लेता है तो उस बाग़ के फल में कीड़े पड़ने शुरू हो जायेंगे। हमारे घर पर जब भी आम आतें तो माँ उन्हें बिलकुल नही खाती थी उनके लिए किसी दुसरे बाग़ के आम मंगवाए जाते थे। सुननें में बड़ा विचित्र सा है कि जो फलदार पेड़ लगाए वही उसका फल न खा सके। जब मैंने माँ से पूछा कि बाग़ का ब्याह कैसे किया जाएगा तब उन्होंने बताया बकायदा खेत पर हवन होगा तथा दो पेड़ के शाखाओं को लाल कपड़े से आपस में बांधा जाएगा इसके बाद अपनी सामर्थ्य अनुसार गाँव भर के लोगो को प्रीतिभोज कराया जाएगा और यह प्रीतिभोज ठीक वैसा ही होगा जैसे घर के किसी बच्चे की शादी में आयोजित किया जाता है।<br />
बाग़ का ब्याह करनें के बाद माँ अपने बाग़ के आम खाने की अधिकारी हो जाऐंगी।<br />
हमनें कई बार बाग़ का ब्याह करनें का मन बनाया मगर अपरिहार्य कारणोंवश वो महूर्त न सध सका आज भी माँ अपने बाग़ के आम नही खाती है। मैं कई बार मजाक में कह देता हूँ कि माँ अब तो बाग़ बूढा यानि पचास पचपन साल का हो गया है अब इस उम्र इसका ब्याह करनें से क्या फायदा रहनें देते है इसे यूं ही कुंआरा माँ चूंकि अब अपनी यात्रा के अंतिम चरण में है इसलिए वो भी दार्शनिक भाव से कह देती है अब क्या बाग़ का ब्याह करोगे ! मगर फिर भी कहीं न कहीं उनके मन में अपने बाग़ का ब्याह न कर पाने की पीड़ा ठीक वैसे ही दिख जाती है जैसे माँ बाप का कोई बच्चा अविवाहित रह जाने की नजर आ जाती है।<br />
लोक मान्यताओं के इतर इस तरह की परम्पराओं के व्यापक समाजशास्त्रीय अर्थ भी है यह मनुष्य और प्रकृति के सम्वेदना के रिश्तें को मजबूत करने की एक लोकरीति भी समझी जा सकती है। भले ही इस तरह की मान्यताओं का कोई वैज्ञानिक आधार न हो मगर सामाजिक जीवन में वानिकी और मनुष्य के रिश्तें को मजबूत करने की कड़ी में इस तरह की परम्पराओं का एक विशिष्ट महत्व है। ये परम्पराएं भी अंतिम दौर में है इसलिए हम भले ही इन्हें बचाने में असमर्थ है मगर इन्हें याद करकें इनका दस्तावेजीकरण तो कर ही सकते है।<br />
© डॉ. अजित </div>
Dr.Ajithttp://www.blogger.com/profile/17632123454222628758noreply@blogger.com1tag:blogger.com,1999:blog-5563897105803220813.post-49903292751105328162015-06-12T08:35:00.002-07:002015-06-12T08:35:46.042-07:00हमउम्र <div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
यह भी बड़ा विचित्र संयोग है मेरे जन्मवर्ष के हिसाब से मेरे तमाम दोस्तों में मैं सबसे छोटा हूँ। मेरे सभी दोस्त मुझसे उम्र में बड़े है और उम्र का यह अंतर एक साल से लेकर दस साल तक का है।कैलेंडर की भाषा में कहूँ तो मेरा कोई हमउम्र दोस्त नही है। मेरी सबसे गहरी दोस्ती 35-45 के वय के लोगो से है। विचित्र बात है इससे न मुझे कभी कोई असुविधा महसूस और न मेरे किसी बड़ी उम्र के मित्र को। अलबत्ता हमउम्र लोगो से मेरी ज्यादा निभ नही पाती है मेरे और उनके विषय और मन की दशा एकदम भिन्न किस्म की होती है।<br />
दरअसल उम्र मेरे लिए महज एक देह की एक भौतिक आयु का फिनोमिना भर है मेरी यात्रा अस्तित्व की यात्रा है और वहां आयु निसन्देह एक छोटी इकाई भर है। शायद जीवन संघर्षों में मैंने अपने वय से आगे की जिंदगी का अभ्यास विकसित कर लिया है यह एक आत्म आश्वस्ति की प्रक्रिया भी समझी जा सकती है जहां आप खुद ही खुद के फ्रेंड फिलॉसफर और गाइड बन जातें हैं।<br />
अध्यापन काल में कुछ छात्र अवश्य मित्रवत् हुए बस मेरे जीवन में वहीं छोटी उम्र के लोग बचें है मैंने कभी गुरुडम को विस्तारित नही किया और डिपार्टमेंट में खासकर रिसर्च स्कॉलर से लोकतांत्रिक और दोस्ताना व्यवहार रखा उसी की वजह से मेरे गुरु भाई आज भी मित्रवत् मुझसे जुड़े हुए है।<br />
उम्र एक बड़ी मनोवैज्ञानिक बाधा होती है यह कनिष्टता और वरिष्टता की एक रेखा खींचती है इसमें लोग क्या तो आपको उपेक्षित करतें है या फिर बड़प्पन की केयर टाइप की फीलिंग में जीतें है। एकदम समानतावादी दृष्टि से किसी को स्वीकार करना मुश्किल होता है कनिष्टता के अपने बाल सुलभ संकोच होते है और वरिष्टता के अपने ईगो इशूज़।<br />
मित्रता में समवयता का तर्क निजी तौर पर मुझे कभी नही जँचा मेरा मानना रहा है कि यदि आपके चेतना और सम्वेदना का स्तर समान है तो फिर ऐसी मित्रता की उपादेयता अधिक है बनिस्पत इसके कि आप अपने हमउम्र लोगो की मूर्खताएं बर्दाश्त करते रहो महज इसलिए कि वो आपके हमउम्र हैं।<br />
बहरहाल, हो सकता है कि यह कोई मनोवैज्ञानिक असामान्यता हो (हालांकि अकादमिक पढ़ाई लिखाई में ऐसा को मनोरोग पढ़ा तो नही) या फिर मेरी यात्रा के अनुभव की थाती भी हो सकती है जहां मेरी उठ बैठ हमेशा अपने से बड़े लोगो के साथ ही रही है।<br />
फ़िलहाल, जब अपने किसी चालीस साला या उससे ऊपर के दोस्त से बात होती है तो उस सम्वाद में आत्मीयता परिपक्व सम्वेदनशीलता और वैचारिकी का लोकतांत्रिक स्वरूप सबसे मुखर अवस्था में होता है।<br />
पता नही मेरे जैसे कितने लोग होंगे मगर मैं अपने ऐसा होने में बेहद सहज खुश और समायोजित महसूस करता हूँ।<br />
इस पोस्ट अपने चालीस साला दोस्त Sushil Upadhyay जी (वरिष्ठ पत्रकार एवं प्राध्यापक)से एक मनोगत टिप्पणी अवश्य चाहूंगा कि वो आखिर ऐसा कौन सा बिंदू होता है जो हमें हमेशा के लिए आयुबोध से मुक्त कर देता है।<br />
<br />
डिस्क्लेमर: यह पोस्ट मुख्यत: फेसबुक दोस्तों से इतर दोस्तों के बारें में है। यहां अवश्य Ratanjeet Singh जैसे दोस्त भी है जो उम्र में छोटे भी है और दोस्त भी है मगर उनके लिए मैं पहले भाईसाहब/सर हूँ बाद में दोस्त इसी क्रम में कई नाम और भी है।</div>
Dr.Ajithttp://www.blogger.com/profile/17632123454222628758noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-5563897105803220813.post-71946683821111665792015-06-07T20:15:00.002-07:002015-06-07T20:15:51.925-07:00मन की बात <div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
मन की बात:<br />
<br />
अपनें देश में सरकारी नौकरी सामाजिक आर्थिक सुरक्षा की गारंटी समझी जाती है। यह उद्यमशीलता को भी घुन की तरह चाटती है। सवाल रोटी और सामाजिक प्रतिष्ठा से जुड़ा होता है इसलिए जोखिम लेनें की क्षमता भी स्वत: कमजोर हो जाती है।<br />
ईमानदारी से कहूँ तो मुझे व्यक्तिगत तौर पर कभी सरकारी नौकरी ने उस तरह से आकर्षित नही किया है मैंने एक विश्वविद्यालय में सात साल तदर्थ नौकरी भी की है सम्भव है कल किसी विश्वविद्यालय/कॉलेज में फिर से स्थाई असि.प्रोफ़ेसरी करता पाया जाऊं। मगर मेरा ऐसा करनें की वजह सरकारी नौकरी का मोह नही होगा बल्कि हिंदी पट्टी में बतौर फ्रीलांस लेखक/कवि जीवन जीनें की क्षीण सम्भावनाओं के चलते ऐसा होगा।<br />
फिलहाल जो स्थिति है उसमें हिंदी लेखक मात्र लेखन के जरिए अपने परिवार को नही पाल सकता है अतिशय श्रम के बावजूद भी न्यूनतम पारिश्रमिक/रॉयल्टी मिलती है। अपवाद स्वरूप कुछ नाम छोड़ दें तो तमाम हिंदी के बड़े लेखक का मुख्य व्यवसाय कुछ और रहा है जिसके जरिए उनका घर चलता था और लेखन उन्होंने द्वितीयक रूप से किया है। ये कहानी तो बड़े लेखकों की है जो नवोदित है उनकी उड़ान के लिए आसमान और भी ऊंचा हो जाता है।<br />
हिंदी पट्टी में पूर्णकालिक लेखक होने की अवधारणा अभी विकसित नही हो पाई है लेखन को शौकिया काम ही समझा जाता रहा है जबकि अंग्रेजी के लेखन में परिस्थितियां ठीक इसके विपरीत है वहां फ्रीलांस राइटर अपनी बेस्ट सेलर के जरिए एक बढ़िया सामाजिक और आर्थिक सम्पन्न जिंदगी जीता है। भारत में भी समकालीन अंग्रेजी लेखकों की आर्थिक सामाजिक स्थिति कई गुना बेहतर है वो आत्मविश्वास भरी जिंदगी जीते है।<br />
हिंदी के लेखक का जीवन त्रासद और उपेक्षित माने जाने के लिए शापित है कुछ इक्का दुक्का लोग मायानगरी मुम्बई की शिफ्ट हो जातें है वहां पैसा मिलता है अपेक्षाकृत पहचान गुम हो जाती है।<br />
बहुत से सम्भावनाशील हिंदी के लेखक ऐसे ही सरकारी गैर सरकारी जिंदगी के बीच झूलते हुए अपना लेखकीय प्रतिदान समाज़ को देते है। पूर्णकालिक लेखक होकर जीना वास्तव में काफी मुश्किल काम है।<br />
निजी तौर मेरी दिली तमन्ना है कि मैं एक पूर्णकालिक लेखक के रूप में जीवन जिऊँ लेखन के सिलसिले में मुक्त यायावर बन देश विदेश की यात्राऐं करूँ भिन्न भिन्न सभ्यता और संस्कृति के लोगो से मिलूँ उनके जीवन के अप्रकाशित पहलूओं की पड़ताल करते हुए उन पर लेखन करूँ। अच्छे विश्वविद्यालयों में विजिट करूँ महंगे बीयर बार में बैठ साहित्यिक चर्चा कर सकूं( अंग्रेजी लेखकों की तरह)<br />
मगर साथ में मेरी कुछ सामाजिक जिम्मेदारियां भी है मुझे अपने परिवार के लिए बुनियादी सुविधाओं का ढांचा खड़ा करना है मेरे बच्चे बढ़िया स्कूल में पढ़ें इसका भी प्रबन्ध करना है और इन सबके लिए अंततः मुझे हारकर एक अदद सरकारी नौकरी की तरफ की देखना पड़ेगा क्योंकि हिंदी के मुक्ताकाशी लेखन से फिलहाल अपनें देश में मैं ये सब प्रबंध नही कर सकता हूँ जो मेरी पारिवारिक सामाजिक जरूरतों से जुडी हुई बुनियादी चीजें है।<br />
यह हिंदी के लेखन के परिप्रेक्ष्य में बड़ी त्रासद बात है जिसके चलतें लेखक का एक बड़ा हिस्सा वो उपक्रम खा जाता है जहां उसका तन खपता है और इसी तन को खपा कर उसे तनख्वाह मिलती है जिसके जरिए उसका और उसके परिवार का पेट पलता है बाकि वो जो भी लिख रहा है उसे बोनस ही समझिए।<br />
<br />
डिस्क्लेमर: मैं एक बड़े किसान परिवार से ताल्लुक रखता हूँ इसलिए मेरे लिए धन अर्जन कोई विषय नही होगा यह एक मिथक और पूर्वाग्रह होगा। यहां 'मैं' से मेरा आशय नितांत ही मेरे स्वतन्त्र अस्तित्व से है उसमें पैतृक पृष्टभूमि की कोई भूमिका नही है न ही उसे मैं एक साधन के रूप में कभी देखता हूँ।</div>
Dr.Ajithttp://www.blogger.com/profile/17632123454222628758noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-5563897105803220813.post-92155926952513114412015-05-12T08:25:00.003-07:002015-05-12T08:25:43.118-07:00गांव की बातें<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
मनुष्य जहां जन्म लेता है उस जमीन से उस मिट्टी से उसका ताउम्र एक आत्मीय लगाव रहता है। अपनी जन्मभूमि से साथ हमारा एक गहरा अतीत जुडा होता है भले ही उस अतीत की स्मृतियां सुखद हो या दुखद मगर फिर भी अपनी जडें हमे सदैव अपनी और खींचती रहती है। गांव-देहात में जन्मे लोगो की नगरीकरण की प्रक्रिया में यह अतीत सदैव आडे आता रहा है। पहले अध्ययन और बाद में नौकरी के सिलसिलें मै डेढ दशक तक शहर में रहा अब एक दुर्योग की वजह से पिछले सवा साल से गांव में हूं। शहर मे रहतें हुए मैने गांव की जीवनशैली और मातृभूमि प्रेम के बारें मे खूब लिखा। निसन्देह गांव के जीवन में एक खास किस्म की सहजता है मगर पिछले एक साल से गांव के जीवन का पुन: हिस्सा बनने के बाद कुछ सवाल मेरे जेहन मे सतत दस्तक देते रहें है जिस वक्त हमनें गांव छोडा था उस दौर की पीढियां एकदम अलग किस्म की थी वें सीमित साधनों और बिना किसी मार्गदर्शन के खुद ही गिरती संभलती हुई अपना रास्ता बना रही थी। अब गांव की तस्वीर भी काफी हद तक बदल गई है अब गांव उस सहजता और आत्मीयता के केन्द्र नही बचें है जिसके लिए ये जाने जाते थे। मैनें बहुत सी पोस्ट गांव की सकारात्मकता के विषय पर लिखी है आज कुछ ऐसे बिन्दूओं को प्रकाशित कर रहा हूं जो न केवल असहज करने वाले है बल्कि गांव के विषय में स्थापित लोक अवधारणाओं का पर भी प्रश्नचिंह लगाते है। मेरे पास एक समीक्षक दृष्टि है इसलिए मेरा उद्देश्य महज गांव का महिमामंडन करना नही है आज इस पोस्ट के जरिए मैं गांव की कुछ विसंगतियों के बारें में बात करने जा रहा हूं मुझे लगता है गांव के विषय में बहुत भावुक होकर सोचने से पहलें इन तथ्यों पर भी विचार किया जाना चाहिए।<br />
1.गांव में जातिवादी तंत्र बेहद सक्रिय और जटिल अवस्था में मौजूद है। कोई भी प्रगतिशील व्यक्ति इस तंत्र को देखकर एक खास किस्म की बैचेनी महसूस कर सकता है। लाख समतामूलक समाज़ का दावा करें आज भी गांव में सवर्ण जातियों की दबंगई कायम है। दलित और अति पिछ्डों की स्थिति कमोबेश आज भी एक जैसी ही है। 21 वीं सदी के भारत में गांव का यह स्वरुप निसन्देह बडे सवाल खडे करता है।<br />
<br />
2.गांव में पडौसी अपने खुद के पडौसी को बर्बाद देखना चाहता है वो उसकी तरक्की से कतई खुश नही होता है बल्कि एक चिढ और ईर्ष्या की भावना रखता है। गांव में किसी सम्पन्न और भलेमानुष के लडकें को बाकायदा एजेंडा बनाकर कुसंग का शिकार किया जाने की परम्परा है खुद मेरे पिताजी को किशोरावस्था में मदिरा के व्यसन का आदी बनाना इसी एजेंडे के तहत किया गया था क्योंकि वो अकेले थे और सम्पत्ति के लिहाज़ से गांव के सबसे बडे जमींदार थे। इसका खामियाज़ा हमारे पूरे परिवार ने भोगा और पिताजी मात्र 57 साल की उम्र मे व्यसन व्याधि शरीर की वजह से दिवंगत हो गए।<br />
<br />
3.गांव में आपके पास सर्वाईव करनें के लिए मैन पावर (मसल्स पावर) का होना एक अनिवार्य शर्त है भले ही आपके पास जमीन कम हो मगर आपके पास कुटम्ब जरुर होना चाहिए तभी गांव में आप सुरक्षित है। मैन पावर की कमी में आप गांव के असामाजिक तत्वों के लिए एक इजी टारगेट हो जातें हैं और फिर आपको किस्म किस्म से परेशान किया जा सकता है।<br />
<br />
4.गांव में सम्पत्ति के झगडें इतने आम बात है कि इसकी वजह से परिवारों मे तनाव पसरा रहता है आपसे मे बोलचाल तक बंद हो जाती है और यहां तक की छोटी छोटी मेढ की लडाई में कत्ल तक हो जातें हैं। आपके परिजन भी आपको दीवानी के मुकदमों में फंसाकर ताउम्र कचहरी के चक्कर कटवाते रख सकतें हैं। अविवाहित पुरुषों की सम्पत्ति के चक्कर मे दुर्गति और हत्या आम बात है।<br />
<br />
5.गांव में वर्चस्व और पंचायती राजनीति के चलते किसी संवेदनशील और रचनात्मक व्यक्ति के लिए यहां कोई सम्भावना नही बचती है बल्कि यदि आप तटस्थ है न्यायप्रिय है और अपने गांव के लिए सच मे कुछ सकारात्मक करना भी चाहते है तो उसमें भी राजनीति दांवपेंच घुसाकर आपकी यथासम्भव लैगपुलिंग करने की एक बडी नकारात्मक परम्परा है।<br />
<br />
6.गांव में बेहद उदार भद्र तटस्थ और एकांतिक जीवन नही जी सकते है यदि आप ऐसा जीना चाहतें है तो आप गांव के सामाजिक गॉसिप के तंत्र के लिहाज़ से ‘असामाजिक’ या घमंडी जीव है।<br />
<br />
7.संयोग से एक बडी पृष्टभूमि से ताल्लुक रखनें की वजह से यह जान पाया कि आप गांव में केवल कृषि आधारित जीवन नही जी सकते है लोग सतत रुप से आपको अपनी नूरा कुश्ती में हिस्सा लेने के लिए प्रोवोक करते रहेंगे आपकी कृषि आधारित प्रयोगधर्मिता से अभिप्रेरणा लेने की बजाए उसे एक अफवाह केन्द्रित सामाजिक चटखारे का विषय बनाने मे यकीन रखते है जिसमें अजीब सा व्यंग्यात्मक कौतुहल छिपा होता है।<br />
<br />
8.अब गांव में उस किस्म की आत्मीयता लगभग हाशिए पर बची है जब लोग सबके दुख मे दुखी और सबके सुख में सुखी हुआ करते थे अब यहां घर घर डीटीएच लगे है और हाथ में स्मार्ट फोन है मगर बावजूद इनके मनुष्य से मनुष्य की भावनात्मक दूरी बढती गई है।<br />
<br />
9.एक बडा कडवा सच यह भी है गांव में वही आदमी रहना चाहता है जिसके पास शहर में बसनें का कोई विकल्प नही है अन्यथा हर आदमी चाहता है उसका शहर में छोटा ही सही एक मकान हो जहां कम से कम उसके बच्चें रहकर पढ सकें।<br />
<br />
10.बिजली,शिक्षा,स्वास्थ्य,परिवहन, लॉ एंड ऑडर यें पांच मूल भूत तंत्र गांव में पूरी तरह से ध्वस्त है इसके लिए न किसी राज्य सरकार और ने केन्द्र सरकार के पास कोई कार्ययोजना है सब भगवान भरोसे है यदि आप नजदीक से इस बुनियादी तंत्र की कमी से उपजी विसंगतियां दुश्वारियां देखेंगे तो आप हैरत मे पड जायेंगे कि गांव के लोग आखिर किसके सहारे जिन्दा हैं।<br />
<br />
...फिलहाल इतना है इन दस बिन्दूओं के व्यापक समाजशास्त्रीय और मनोवैज्ञानिक अर्थ है जिन पर शोध विमर्श हो सकता है। कई दिनों से यह लिखनें की सोच रहा था मगर मातृभूमि का प्रेम मुझे अक्सर रोक लेता है आज लगा कि चूंकि मैं इस जीवन का हिस्सा हूं इसलिए कम से कम उन लोगों को गांव का यह सच जरुर बताना चाहिए जो मेरे जरिए गांव को देख और समझ रहें है।<br />
कल वाणी गीत जी के एक कमेंट ने मेरे मन की जड़ता तोड़ी जिसमें उन्होने कहा कि ग्राम्य जीवन का मतलब ‘अहा जीवन’ नही होता है। सच में गांव मे जीना उतना आसान नही है जितना आप सब को लगता है यहां के जीवन की अपनी कुछ ऐसी पेचीदिगियां है जिनका कोई हल किसी के पास नजर नही आता है।<br />
<br />
<br />
© डॉ.अजीत<br />
<br />
डिस्क्लेमर: यह मेरा नितांत ही निजी ऑब्सर्वेशन है।इसे गाँव के विषय में नकारात्मक प्रचार न समझा जाए।</div>
Dr.Ajithttp://www.blogger.com/profile/17632123454222628758noreply@blogger.com1tag:blogger.com,1999:blog-5563897105803220813.post-60838178721172012902015-04-11T07:27:00.002-07:002015-04-11T07:27:21.367-07:00दो भाई <div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
(फेसबुक के पुराने पाठक मित्र जानतें है अपनें गांव के कुछ किरदारों पर मैं पहले भी एक शृंखला लिख चुका हूं। ये कोई खास किरदार नही है न ही इनके जीवन मे कोई नायकत्व है परंतु देहात के जीवन के ये किरदार अपने किस्म के आखिरी जरुर है जवान होती पीढियों के लिए इनके मामूली से दिखने वाले जीवन का दस्तावेजीकरण मेरे लिए लेखकीय सुख से बढकर निजि तौर पर सुखदायक इसे मेरी जन्मभूमि के प्रति मेरे लगाव की एक अभिव्यक्ति भर भी समझा जा सकता है। आने वाली पीढियां भले ही इसमें कोई रुचि प्रकट न करें मगर कभी पीछे मुडकर देखनें ये छोटी सी कतरन हमेशा मददगार रहेगी। गांव के जीवन को समझनें का एक समाजशास्त्रीय दस्तावेज़ बने यह मेरी इच्छा है इन लोगो के जरिए गांव के जीवन मे झांकना निसन्देह आत्मीय महसूस होता है।)<br />
<br />
--------’मंगलू-काशी नाई: दो भाई’<br />
<br />
मंगलू नाई का कागज़ पतरों मे नाम मंगलसैन है मगर गांव की सम्बोधन की अपभ्रंश परम्परा (जाति का समाज़शास्त्रीय अनुक्रम भी एक पक्ष है) में वो मंगलसैन से मंगलू हो गया है। मंगलू का एक छोटा भाई काशी। दोनों भाई गांव में रहकर नाई का काम करते रहे है दोनो ही जज़मान सिस्टम ( किसानों के बाल काटनें का फसलाना तंत्र) के जरिए गुजर बसर करते आये हैं। गांव मे नाई को बडे और मझोले किसान हर छमाही पर फसल में से अनाज़ देते है जिसकी ऐवज़ में वो साल भर उनके बाल काटते है।<br />
<br />
मंगलू के चार बेटे है मगर कोई भी अपने पिता के इस पैतृक काम को नही करता है एक शराब के ठेके पर सेल्समैन है एक टेलर मास्टर है दो बेटे धारुहेडा( हरियाणा) में किसी फैक्टरी मे काम करते है। काशी का एक बेटा है जिसका वास्तव में नाम जगप्रकाश है मगर गांव मे उसे लोग चट्टु कहतें है वो जरुर नाई का काम करता है।<br />
<br />
मंगलू पुरानें जमाने का दसवी दर्जे तक पढा हुआ है फारेस्ट विभाग में सरकारी नौकरी पर लग गया था मगर जंगलात मे काम करने मे जी नही लगा तो सरकारी नौकरी छोड गांव में नाई का काम करने आ लौट आया मंगलू की उम्र अब सत्तर के पार मगर आज भी उसे अपने उस नौकरी छोडने का अफसोस है। मेरे पास अक्सर बैठ जाता है बातचीत में कुछ अंग्रजी के वाक्य धाराप्रवाह बोलता है जिससे उसका पुराना पढा लिखा होने की पुष्टि हो सके। काशी अनपढ है मगर वो अपने काम में पारंगत है।<br />
<br />
जिस बात के लिए मंगलू-काशी दोनों भाई जाने जाते है वो उन दोनों भाईयों का आपस का प्रेम। दोनों की एकदम से राम-लक्ष्मण की जोडी है। गांव मे आज भी भाईयों के प्रेम का उदाहरण के लिए मंगलू-काशी का ही नाम लिया जाता है। मंगलू चूंकि पढा लिखा है इसलिए वो थोडा शार्प भी है मगर काशी का प्रेम एकदम निश्छल और नैसर्गिक किस्म का रहा है। काशी जवानी में ही विधुर हो गया था उसनें कभी अपने जीवन की परवाह नही की हमेशा अपने बडे भाई के लिए जुता रहा। अब दोनों ही भाई लगभग सन्यास आश्रम में है मगर आज भी दोनो का प्रेम अद्भुत किस्म का है। ऐसा प्रेम विरला ही देखने को मिलता है। गांव में लगभग सभी लोग यह बात जानते है कि यदि मंगलू कहीं गांव से बाहर गया होता था और शाम तक वापिस नही आता था वो काशी शाम को लालटेन लेकर बस स्टैंड पर पहूंच जाता था और जब तक मंगलू वापिस न आता वहीं बैठ उसकी राह देखता था। पिछलें दिनों मंगलू की आंखों का मोतियाबंद का आपरेशन हुआ तो काशी अपने बडे भाई मंगलू का हाथ पकडकर उसे गली मे लेकर चलता था। दोनो बूढे हो चुके है मगर आज भी दोनों में गजब का प्यार है।<br />
<br />
दोनों भाईयों में यह प्रेम बचा रहा है इसकी एक बडी वजह काशी का बेहद सरल होना रहा है। हालांकि अब काशी अपने बेटे के साथ अलग रहता है मगर एक वक्त वह भी हुआ करता था कि जब तक शाम को मंगलू खाना न खा ले काशी खाना नही खाता था। काशी से पूछने पर बताता है क्या कहूं बाबू जी मेरा जी ही ऐसा है। छ महीने पहले मंगलू गम्भीर रुप से बीमार हो गया था बचने के कम आसार थे कई दिन अस्पताल में भर्ती रहा उन दिनों काशी मेरे पास चिंतातुर हो बैठा रहता और कहता है भाई के मरनें पर मेरा जीना मुश्किल हो जाएगा मेरी भगवान से यही प्रार्थना है कि मै मंगलू से पहले मरुं क्योंकि मंगलू मेरे बिना जी सकता है मगर मै मंगलू के बिना जी न सकूंगा। खैर ! जब मंगलू स्वस्थ होकर घर आया तब काशी को राहत की सांस नसीब हुई।<br />
<br />
मंगलू चूंकि पढा लिखा है इसलिए वो थोडा उसका लाभ भी लेता है अब उसने संत गुरु राम रहीम का सत्संग लिया हुआ है इसलिए वो अब हमेशा आध्यात्मिक बातों मे ज्यादा रुचि लेता है और काशी चूंकि शाम को एक एक-दो पैग देशी शराब के लगा लेता है इसलिए वो काशी की निंदा भी करता है उसे अपने साथ सत्संग में लेकर चलने की जिद करता है मगर काशी ने साफ मना कर देता है इसे मंगलू उसकी अज्ञानता कहता है। दोनों भाई दो विपरीत ध्रुव है मगर फिर भी बेहद सहज है।<br />
<br />
ओढी हुई सामाजिक समझदारी और सामाजिकता के इस दौर में मंगलू और काशी जैसे भाई अपने किस्म के अकेले है। भले ही मंगलू का संवेदना का पक्ष काशी की अपेक्षा कमजोर है उसकें अन्दर वैचारिकता और पढे लिखे होने का अतिशय दंभ भी नजर आता है मगर फिर भी दोनों भाईयों का प्रेम वास्तव में अद्भुत किस्म का है उम्र के इस दौर में भी दोनों भाई ठीक वैसे ही लगते है जैसे स्कूल के दिनों के साथ जानें वाले दो भाई दिखते है जिनकी कक्षाओं मे एक दो साल का ही फर्क होता है।<br />
<br />
काशी के भाई प्रेम की वजह से वो निजि सम्बधों मे पिछडा भी है वो अपने बेटे की उतनी केयर नही कर पाया जितनी करनी चाहिए थी आज बडे भाई के बेटे शहरों मे निकल गये है उसका खुद का बेटा गांव में ही रह गया है मगर फिर भी काशी के मन में कोई मलाल नही है वो आज भी भाई के लिए अपनी जान छिडकता है। आज भी शाम को यदि उसके मंगलू न दिखे तो वो मौहल्ले में पूछना शुरु कर देता है कि भाई कहीं मंगलू देखा क्या?<br />
<br />
दिन ब दिन एकाकी होते जीवन में और भाईयों की सामाजिक दूरी के बीच में अपने आसपास दो ऐसे भाईयों को देखना निसन्देह सुखप्रद है उनके अलावा पूरे गांव भाईयों के पारस्परिक प्रेम का कोई उदाहरण नजर नही आता है कल मंगलू और काशी भले ही नही रहेंगे मगर उन दोनों भाईयों के पारस्परिक प्रेम के किस्से हमेशा जिन्दा बचे रहेंगे यह अपने आप में क्या कम बडी बात है</div>
Dr.Ajithttp://www.blogger.com/profile/17632123454222628758noreply@blogger.com1tag:blogger.com,1999:blog-5563897105803220813.post-90170266053873441722015-03-31T03:13:00.003-07:002015-03-31T03:13:28.146-07:00फेसबुक<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
इनबॉक्स में दिखते है जो परेशान बहुत<br />
हकीकत में छूट गए उनके अरमान बहुत<br />
<br />
स्माइल उनका डर कभी लिहाज़ बताती थी<br />
जोश से जब हमें सुनाते थे वो फरमान बहुत<br />
<br />
लाइक करके चले गए हम चुपचाप वॉल से<br />
देखा जब उनके दर पर बैठें है मेहमान बहुत<br />
<br />
कभी बेतक्कलुफ सी बातें कभी दुनियादारी<br />
उनके कमेंट्स करते थे बारहा हमें हैरान बहुत<br />
<br />
यूं तो लाइक कमेंट शेयर टैग में शामिल थे सब<br />
फेसबुक पर दोस्तों से रहें हम अनजान बहुत<br />
<br />
© डॉ.अजीत<br />
<br />
<br />
<br />
<br /></div>
Dr.Ajithttp://www.blogger.com/profile/17632123454222628758noreply@blogger.com1tag:blogger.com,1999:blog-5563897105803220813.post-15012727713286738482015-03-23T22:04:00.002-07:002015-03-23T22:04:50.751-07:00टाइमपास <div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
खुद से भागते लोगो को जीने का सलीका दे गया<br />
ऐ जुकरबर्ग बच्चों के हाथ में कैसा लतीफा दे गया<br />
<br />
एक अदद आई डी बना कर क्या गुनाह कर दिया<br />
ये तेरा इनबॉक्स तो तल्खियों का वजीफा दे गया<br />
<br />
पहले फ्रेंड फिर अन्फ्रेंड आखिर ब्लॉक कर दिया<br />
दोस्त के नाम पर सर्च करके कुछ खलीफा दे गया<br />
<br />
कुछ हकीम ऐसे भी थे इस चेहरे की किताब पर<br />
होना जिनका मरीज ए इश्क को शिफ़ा दे गया<br />
<br />
म्यूच्यूअल फ्रेंड की पता नही कोई बात बुरी लग गई<br />
डिएक्टिवेट के साथ दोस्त वापिस सारी वफ़ा दे गया।<br />
<br />
© डॉ. अजीत<br />
<br />
<br /></div>
Dr.Ajithttp://www.blogger.com/profile/17632123454222628758noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-5563897105803220813.post-65611026536372311772015-03-08T21:25:00.000-07:002015-03-08T21:25:07.829-07:00याद <div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
वक्त कभी थम जाता है कभी तेजी से गुजर जाता है मगर कभी कभी वक्त फांस की तरह मन में फंस जाता है आज 9 मार्च ठीक वैसा ही मेरे मन में फंसा हुआ है जैसा पिछले साल का 9 मार्च था। आज ही के दिन पिताजी आकस्मिक रूप से अपनी यात्रा पूर्ण कर हमें दुनिया में अकेला छोड़ गए थे।<br />
पिछले एक साल में पिता का न होना क्या होता है इसके अर्थ समझ पाया हूँ उनके जीते जी मेरी उनसे तमाम मुद्दों पर असहमतियां/मतभेद रहे थे परन्तु अब मुझे खुद के तर्क बेहद बचकाने और हास्यास्पद लगते है।<br />
पिछले एक साल से कोई दिन ऐसा नही गया होगा जिसमें पिताजी की कमी न खली हो परन्तु स्मृतियों को सायास एक बंद कमरें में रख छोड़ा था यहां तक तमाम रिश्तेंदारों के दबाव के बावजूद घर की बैठक में पिताजी का मालायुक्त चित्र भी नही लगनें दिया क्योंकि सच्चाई यह है मनुष्य की नश्वरता के नाम का पूरे परिवार को उपदेश देते देते मैं खुद अंदर से इतना कमजोर और डरा हुआ था कि पिताजी को एक निर्जीव फ्रेम में टंगा देखनें की हिम्मत मुझमें नही थी।<br />
जीवन में पिता का न होना आपके जीवन में एक स्थाई किस्म की आश्वस्ति का न होना होता है आपकी तमाम दुनियावी सफलता महज एक घटना में तब्दील हो जाती है क्योंकि आपसे ज्यादा उस पर फख्र करनें वाला आपके पास नही होता है।<br />
पिताजी के निधन के बाद मेरे जीवन में यू टर्न आया और पिछले एक साल से गाँव में हूँ उनका स्थान लेना तो बहुत बड़ी बात है गाँव के लिहाज से मैं उनका दशमांश भी नही बन पाया हूँ। गाँव में उनका कद बेहद बड़ा था उनका एक लिहाज़ था और इसी के चलतें पूरे गाँव में कोई उन्हें उनके नाम से सम्बोधित नही करता था। भलें ही पिताजी एक सामन्त जमींदार थे परन्तु वो कभी शोषक नही थे बल्कि गाँव के अन्य चौधरियों द्वारा सताए गए गरीब दलित/पिछड़ों के रक्षक थे वो सच्चे अर्थों में शरणागत वत्सल थें।<br />
बहरहाल, पिताजी को लेकर एक सवाल अक्सर मन में घूमता रहता है कि अभी बहुत जल्द था उनका जाना उन्हें इस समय नही जाना चाहिए था वो तो एक हफ्ते की बीमारी भोग निकल गए इस दुनिया से।और पीछे छोड़ गए एक यथार्थ का एक कड़वा संसार जहां रोज जीना है रोज मरना हैं।<br />
पिता का न होना आपको एकदम से इतना बड़ा बना देता है कि आप उस प्रौढ़ता को जीते हुए कब हंसना भूल जाते है खुद आपको भी नही पता चलता है।<br />
फिलहाल एक साल बीत गया है मगर बहुत कुछ है जो मेरे अंदर बीत नही रहा है कुछ सवाल कुछ अधूरे जवाब और कुछ धुंधले स्वप्न मेरे जेहन में यादों की आंच में पकतें है और पिघलता मैं जाता हूँ।<br />
पारिवारिक उत्तरदायित्व के भूमिका में जब कभी तन्हा घिर जाता हूँ तब पिताजी का न होना बड़ी शिद्दत से याद आता है निसन्देह सूक्ष्म रूप में पिताजी मुझे यूं देखकर मुस्कुराते होंगे क्योंकि उनको जितनी सलाह मैं दिया करता था अब मैं खुद उस किस्म की एक भी अमल नही कर पाता हूँ।<br />
लोक परलोक में प्रायः यकीन नही रखता हूँ परन्तु आज खुद को सांत्वना देने के लिए यही कहता हूँ ईश्वर पिताजी को इस सांसारिक जीवन मरण से मुक्त करें और अपने श्री चरणों में स्थान दें भले ही इसके लिए मेरे संचित कर्मों का भी उपयोग कर लें। जीवन है तो सम्बन्ध है और सम्बन्ध है तो दुःख है। बीतते सालों में पिताज़ी की स्मृतियाँ मुझे मजबूत बनाएं यही कामना करता हूँ।<br />
<br />
एक साल का एक वृत्त पूर्ण होने पर एक अभागे पुत्र की अपने पिता को अश्रुपूरित श्रद्धांजलि !<br />
<br /></div>
Dr.Ajithttp://www.blogger.com/profile/17632123454222628758noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-5563897105803220813.post-91178923191979172392015-02-22T04:09:00.002-08:002015-02-22T04:09:24.910-08:00रॉकस्टार <div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
रॉकस्टार: ‘जो मेरे अंदर कहीं रहता है’<br />
<br />
आज रॉकस्टार फिल्म देखी। फिल्म पुरानी है मगर एक मित्र ने अनुशंसा की तो देखने की वाजिब वजह मिल गई। सबसे पहले तो उस दोस्त का आभार जिसनें एक खूबसूरत फिल्म का हिस्सा बनने के लिए मुझे प्रेरित किया। यह फिल्म मुझसे छूट गई थी इसका अब मुझे मलाल हुआ है। आज फिल्म पर समीक्षा जैसा कुछ नही लिखूंगा बस फिल्म के जरिए खुद के अहसास के खुले पोस्टकार्ड बेनामी पतों पर लिखने और भेजने का मन है। रॉकस्टार एक ऐसे रुहानी किरदार की कहानी है जो हमारे अन्दर ही बसता है खुद से खुद की रिहाई और खुद को खुद के अक्स से देखने की फुरसत ये कमबख्त दुनिया कब देती है और फिल्म इसी ही हिमायत करती है। निजी तौर पर मेरी जो संगीत की समझ कहती है रॉक बैचेनियों का संगीत है। रॉक म्यूजिक रुह की बैचेनियों का लाउड साउंड के जरिए कैथारसिस है वो हमारी बंदिशों को तोडकर हमे आजाद होने की ख्वाहिश का आसमान देता है। रॉकस्टार दरअसल एक ऐसी ही दुनिया की कहानी है जो हम सबके अन्दर एक अमूर्त रुप में बनती बिगडी रहती है। ये भी सच बात है कि कम ही लोग जेजे ( जॉर्डन) की तरह उस अहसास को पहचान पाते है जो दर्द के लिफाफे में अक्सर बैरंग खत की शक्ल में हमारे तकिए के नीचे सिरहारने रखा मिलता है और हम अक्सर करवट बदल सो जाते है। जॉर्डन और हीर दरअसल दो किरदार नही है बल्कि मै उनको किरदार से आगे बढकर दो उन्मुक्त चेतनाएं कहूंगा जो एक दूसरे पर आश्रित भी है और एकदूसरे को जानने समझने की यात्रा पर भी है।फिल्म में नायक और नायिका का आपसी भरोसे का मेआर भी बहुत ऊंचा है जिससे हौसला मिलता है। फिल्म का एक अपना महीन सूक्ष्म मनोविज्ञान है रॉकस्टार फिल्म एक ‘विचित्र अहसास’ को परिभाषित करती है उसके जिन्दगी मे देर सबेर दस्तक होने पर उसके बाद के जिन्दगी मे आये बदलाव को एक नए नजरिए से देखने का जज्बा देती है। फिल्म में मैत्री और प्रेम से इतर भी एक अपरिभाषित रिश्तें की व्यापकता और उसको स्वीकार कर जीने की कहानी भी है। जॉर्डन ( रणवीर कपूर) और हीर ( नरगिस फाखरी) दोनो की सहजता प्रभावित करती है दोनो की प्रयोगधर्मिता आरम्भ मानवीय सम्बंधो को देहातीत होने की सम्भावना को भी पल्लवित करती है। निसन्देह स्त्री पुरुष सम्बंधों मे देह एक मनोवैज्ञानिक सच है यह एक लौकिक तत्व है इसके अलावा पूरी फिल्म में इशक में दरगाह की रुहानियत है बैचेनियों के आलाप है। फिल्म में म्यूजिक लोबान की तरह जलता है और रुह को सुकून अता करता है पूरी फिल्म में एक खास किस्म का अधूरापन भी प्रोजेक्ट किया है जो एक Abstract Emotion के रुप में उपस्थित रहता है।<br />
<br />
दरअसल,फिल्म इश्क के जरिए खुद के रुह की बैचेनियों को रफू करने की एक ईमानदार कोशिस है जो इसकी फिक्र नही करती है कि क्या दुनियावी लिहाज़ से ठीक है और क्या गलत है। एक पाक इश्क के ज़ज़्बात को फिल्म एक बिखरी हुई कहानी में पिरोती है और उसी के जरिए दिल की बीमारी का ईलाज़ करती है। फिल्म को देखते हुए खुद का दिल कई बार बेहद तेज धडकने लगता है जिसका एक ही मतलब है कि बात सीधे तक दस्तक दे रही है। दिल का टूटना और दर्द को महसूस करना किसी भी फनकार के लिए जरुरी है फिल्म इसी के सहारे आगे बढती है मगर इस दर्द की कीमत सच में बहुत बडी है यकीनन इश्क का मरहम उसकी मरहम पट्टी जरुर कर सकता है मगर कमबख्त ! इस मतलबी दुनिया न हीर जैसी माशूका मिलती है और न जॉर्डन जैसा आशिक।रॉकस्टार हम सबके अन्दर दबे एक ऐसे वजूद को से हमें मिलवाती है जो सही गलत के भेद मे नही पडना चाहता बस मुक्त हो जीना चाहता है कुछ मासूम अहसासो के जरिए दुनियादारी के लिहाज़ से वो गंद मचाना चाहता है मगर ये गंद मासूम बदमाशियों से शुरु हो रुहों के मिलन पर जाकर खत्म होती है। इतनी हिम्मत जब रब अता करता है तब एक ऐसी दुनिया का हिस्सा हम खुद ब खुद बन जाते है जो इश्क के वलियों की दुनिया है जहां हमारी रुह अपने बिछडे अहसासों से मिलकर थोडी देर के लिए एक रुहानी जश्न मे खो जाती है। ये फिल्म सच में सूफियाना फिल्म है जो हमे खुद के करीब ले आती है भले घंटे दो घंटे के लिए ही सही।<br />
<br />
और अंत में शुक्रिया दोस्त </div>
Dr.Ajithttp://www.blogger.com/profile/17632123454222628758noreply@blogger.com1tag:blogger.com,1999:blog-5563897105803220813.post-55345229381193063752015-01-14T06:56:00.002-08:002015-01-14T06:56:27.201-08:00परिवर्तन <div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
प्रायः साधना को आध्यात्म से जोड़कर देखा जाता है। व्यापक सन्दर्भों में इसकी जड़े दर्शन और आध्यात्म से ही पोषित होती है। ये स्वयं को साधने से सम्बंधित है इसलिए साधना कहा गया है और जरूरी नही प्रत्येक साधना रहस्यमयी ही हो हम रोजमर्रा की जिंदगी में भी किसी न किसी स्तर पर साधनारत होते ही है। आध्यात्म,रहस्यवाद,साधना इनसे आत्म उन्नयन की दिशा में आगे बढ़ सकते बशर्ते आप होशपूर्वक खुद को देख सके और जो भी कदम इस दिशा में आगे बढ़ाएं उससे आपके ईगो को खुराक न मिल पाये बल्कि ईगो के प्रति अपनी प्रतिक्रिया को विलम्बित करते हुए लगभग स्तंभित कर दिया जाना चाहिए।<br />
बिना किसी उपलब्धि सरीखी स्प्रिचुअल ग्लैमराईजेशन और महानताबोध के मैंने एक प्रयोग खुद के साथ किया वास्तव इस प्रयोग के पीछे न साधना जैसे भाव थे न उस तरह किसी लक्ष्य का निर्धारण किया था। लम्बें समय से मेरी आदत पकी हुई थी भोजन के समय प्रिय आहार देख आह्लादित हो जाना और नापसन्द की चीज़ बनी देख कर हद दर्जे का खिन्न हो जाना कई दफा प्रतिक्रिया स्वरूप दाल/सब्जी चिढ कर छोड़ देता और केवल नमक से रोटी खाता था। इसकी वजह से प्रायः घर पर वही बनता जो केवल मुझे पसन्द होता था और मेरी पसन्द बेहद सीमित किस्म थी मसलन सब्जियां लगभग ना के बराबर खाता था। इसके अलावा आहार व्यवहार से जुडी एक आदत और थी भूख लगी होने की स्थिति में मेरी इच्छा होती कि घर पर सबसे पहले भोजन मुझे मिलें।<br />
पिछले 9 महीने से गाँव में हूँ इन आदतों के चलते शुरुवात में थोड़ी असुविधा हुई परन्तु बाद में स्वत: ही खुद में यह परिवर्तन आ गया कि अब भोजन के प्रति एक साक्षी भाव उत्पन्न हो गया है। अमूमन जब माताजी मुझसे यह पूछती कि आज क्या बनाये तो मै घर के अन्य सदस्यों की पसन्द के अनुरूप खाना बनाने की बात कहता हूँ। अब मुझे न सबसे पहले भोजन चाहिए और न केवल खुद की पसन्द अब न बेस्वाद भोजन बनने पर मेरी कोई नकारात्मक प्रतिक्रिया होती है। अब जिस समय और जैसा भी भोजन मिल जाए मुझे रुचिपूर्ण लगता है। अब मुझे इस बात से कोई ख़ास फर्क नही पड़ता कि भोजन मेरी पसन्द का बना है या मेरी नापसन्द का बस उसे शरीर की एक जरूरत समझ साक्षी भाव से ग्रहण करता हूँ और इससे मुझे बेहद संतोष भी मिलता है। अब समझ की यात्रा भोजन/स्वाद से आगे निकल गई है अब जो भी जिस समय मिल जाए वो ही सहर्ष स्वीकार है। खाने के मामलें में मेरी नगण्य प्रतिक्रिया हो गई है इस बात पर परिजन भी हैरान है कि एक चूजी और चटोरा शख्स ऐसे कैसे बदल गया है। यह बदलाव बेहद सुखद है।<br />
गौरतलब हो यह कोई विशिष्ट बात नही है कोई उपलब्धि है जिसका ग्लेमराईजेशन करके मै अपने ईगो को पुष्ट करना चाह रहा हूँ यहां इसका उल्लेख केवल इस भाव से किया है कि अपने कंडीशण्ड जीवन में कुछ रेडिकल चेंज लाकर कई दफा चेतना की जड़ता टूटती है जिसका अपना एक सुख है।<br />
प्रयोग के रूप में आप अपनी किसी आग्रही आदत के उलट जाकर साक्षी या स्वीकार भाव विकसित कर सकते है। देखिए एक रेडिकल चेंज आपको कितनी सुखद अनुभूति देता है।<br />
<br />
'रेडकिल चेंज'</div>
Dr.Ajithttp://www.blogger.com/profile/17632123454222628758noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-5563897105803220813.post-22075379915335871452014-12-24T20:48:00.002-08:002014-12-24T20:48:19.052-08:00ख़्वाब <div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
कुछ ख़्वाब केवल<br />
आँखें देखती है<br />
उन्हें देखने की इजाज़त<br />
दिल और दिमाग नही देते<br />
ऐसी बाग़ी आँखों से<br />
नींद विरोध में विदा हो जाती है<br />
ऐसे ख़्वाब बहुत जल्द<br />
नींद की जरूरत से बाहर निकल आते है<br />
वो हमारी चेतना का हिस्सा बन<br />
खुली आँखों हमें दिखते है<br />
दिल अपनी कमजोरी दिखाता नही<br />
दिमाग को जताता है अक्सर<br />
और दिमाग की होती है एक ही जिद<br />
वो देखना चाहता हमें हर हालत में<br />
विजयी और सफल<br />
दिल धड़कनों की आवाज़ सुनता है<br />
सुनकर डरता है<br />
वो भांप लेता है<br />
मन के राग के आलाप<br />
जो बज रहे होते है<br />
बिना लय सुर ताल के<br />
इन ख़्वाबों को देखते हुए<br />
न रूह थकती है और न आँख<br />
दोनों ही करती है इन्तजार<br />
एक ऐसे ख़्वाब के सच होने का<br />
यही इन्तजार बनता है जीने की वजह<br />
मनुष्य को मनुष्य बनाए रखने में ऐसे ख़्वाब<br />
ईश्वर के नियोजित षडयन्त्र का हिस्सा होते है<br />
क्योंकि<br />
ऐसे ख़्वाब कभी पूरे नही होते<br />
बस उनका अधूरापन<br />
उन्हें न कभी बूढ़ा नही होने देता<br />
और न मरने देता है।<br />
<br />
© डॉ. अजीत<br />
<div>
<br /></div>
</div>
Dr.Ajithttp://www.blogger.com/profile/17632123454222628758noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-5563897105803220813.post-1002738002396739162014-12-08T03:13:00.002-08:002014-12-08T03:13:09.641-08:00दुःख का मनोविज्ञान <div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
तमाम उम्र जो रिश्तों की तुरपाई करता रहा उसकी भूमिकाऐं बदली मगर न वो बदला और न उसके अंदर की अच्छाई ही। जिंदगी ने उसको बहुत जल्दी ही नट की तरह संतुलन साधने के लिए प्रशिक्षित कर दिया था। जिन्दगी ने उसको उम्मीदें दी मगर उसके बदले जो लिया वो उसके चाहने वालो का स्थाई दुःख बना रहेगा उम्र भर। सुख दुःख की धूप छाँव में उसके हिस्से तपती धूप ज्यादा आई मगर उसको धूप छाँव से ज्यादा अपना खुद का आसमान बुनने की धुन थी उसने सबको दिया अपने हिस्से का आकाश। उसका होना सबके लिए एक आश्वस्ति जैसा था उसके रहतें हर गलती छोटी और हर खुशी बड़ी हो जाती थी। उसकी डांट में फ़िक्र और दुआओं में अपने संचित कर्मों को बांटने की आदत शामिल थी।<br />
वो जब तक आसपास था तब तक अपने कद का अकेला अहसास साथ नही चलता था परछाई पर उसकी परछाई की नजर साथ चलती थी। एक छोटी सी दुनिया के जितना बड़ा विस्तार हो सकता था उसका केंद्र था वो अकेला शख्स। नही देखा था कभी उसको बोझिल बातें करते हुए। वो कभी एक निरपेक्ष यात्री था तो कभी एक संघर्षरत योद्धा।<br />
बाहर की दुनिया से लड़ते भिड़ते बनते बिगड़ते उसकी जो लड़ाई खुद से चल रही थी उसका किसी को भी आभास नही था और जब वो प्रकट हुई तो उसके बाद की दुनिया बेहद निःसहाय किस्म की हो गई थी।<br />
उस आदर्श पुरुष को तयशुदा मौत की तरफ बढ़ते हुए देखना जीवन का सबसे अविस्मरणीय निसहायताबोध था। जब तक हम अपने हिस्से के सुख का दशमांश भी उसको लौटा पातें नियति ने उसके लेने के सारे केंद्र पर मनाही का ताला टांग दिया था।<br />
किस्तों में अपने प्रियजन को पीड़ा त्रासदी और मौत के चक्र का हिस्सा बनते देखना सदी का सबसे बड़ा दुःख था और ये दुःख तब और भी गहरा जाता जब वो शख्स मेरा पिता था। तमाम वैचारिक असहमतियों के बावजूद और कथित ज्ञान अर्जन के बाद भी मेरा कद कभी इस काबिल न हो सकता है कि उनके किए कामों को अच्छा या बुरा कहकर सम्पादित कर सकूं।<br />
जीवन का उत्तरार्द्ध जब सुख भोगने के लिए शास्त्रों ने अनुकूल बताया तब भी मुझे यकीन नही होता था मगर पिता का ऐसे आकस्मिक चलें जाना मेरे उस विश्वास को और पुष्ट कर गया कि कुछ लोगो के न पूर्वाद्ध में सुख नसीब होता है और उत्तरार्द्ध में वो जीवनपर्यन्त अपने हिस्से का दुःख जीने और सुख बांटने के लिए ही जन्म लेते है।<br />
पिता का यूं चले जाना अपने साथ एक दुनिया ले जाता है जहां बहुत से ऐसे प्रश्न हमारें मन में घूमते रहते है जिनका कोई जवाब किसी के पास नही होता है।<br />
वक्त भले ही सब सीखा देता है परन्तु एक निर्वात सदैव मन के अंदर बचा रह जाता है जहां कुछ वक्त से शिकायतें कुछ खुद से सवाल चलते रहतें गाहे बगाहे मनुष्य के रूप में इस निर्वात को जीना बेहद त्रासदपूर्ण लगता है क्योंकि हम केवल सोच कर भी मन को सांत्वना नही दे पातें है ऐसे दुःख बड़े अपरिहार्य और ढीठ किस्म के होते है कहने/लिखनें/बांटने से इनकी मात्रा और तीव्रता पर कोई फर्क नही पड़ता है।<br />
<div>
<br /></div>
</div>
Dr.Ajithttp://www.blogger.com/profile/17632123454222628758noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-5563897105803220813.post-90770729966782156522014-11-02T19:03:00.000-08:002014-11-02T19:03:01.558-08:00त्रिशंकु <div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
धर्म को छोड कोई दूसरी एक भी चीज ऐसी नही थी जिसे मै बदल सकता था और धर्म के बदलने से मेरी किसी समस्या का समाधान नही हो सकता था। प्रज्ञा चेतना और सम्वेदना की यात्रा पर मै पैदल चलता चलता बहुत दूर निकल आया था इस मार्ग का चयन मेरा खुद का चयन नही था बल्कि इस मार्ग मे खुद मुझे चुन लिया था। वय वर्ग जाति धर्म सबके लिहाज़ से लगभग मै निष्काषित और निर्वासित था यह एक किस्म का स्व निर्वासन था। वर्ण संकरो दलितों अति पिछ्डो अल्पसंख्यकों की स्थिति मुझसे सम्मानजनक थी क्योंकि वें अपनी पहचान के साथ संगठित थे वे लड रहे थे अपने हिस्से की लडाईयां।<br />
नितांत संयोग के चलते जिस धर्म जाति पृष्टभूमि में जन्म हुआ उसकी रवायतों मे मेरी दिलचस्पी किशोरावस्था के शुरु होने तक रही तब तक मेरा मस्तक भी गर्व से भरा रहता कभी अपने हिन्दू होने पर और कभी अपनी जाति के गौरवशाली इतिहास पर मगर शायद अस्तित्व का नियोजन दूसरे किस्म का था उसने मेरे हिस्से वर्ग निर्वासन/बहिष्कार लिख दिया था जैसे ही समझ जैसी किसी चीज का उदभव मन मे हुआ तो पता चला कि गर्व तो केवल उस चीज़ पर किया जा सकता है जो आपने अपने श्रम से अर्जित की हो बाकि तो संयोग की भीख में मिला हो उस पर गर्व करने का कोई औचित्य नही बनता है इसलिए तभी उस मिथ्याभिमान से मुक्त हुआ मेरे लिए हिन्दू होना और अपनी इस क्षत्रिय जाति में पैदा होना ठीक एक संयोग का मामला लगने लगा।<br />
अपने अतीत से कटकर चलना आपकी आंतरिक यात्रा के लिए सहज हो सकता है मगर बाह्य जगत मे इतनी सहजता नही मिलती है एक तरफ तो मै अपने वर्ग से कटाव की प्रक्रिया से गुजर रहा था वहीं दूसरी तरफ तमाम संवेदनशीलता के बावजूद मेरे दलित और अति पिछ्डें मित्रों के लिए मुझे उसी सदाश्यता से स्वीकार कर पाना मुश्किल था जिस वर्ग से उनका प्रतिशोध का रिश्ता रहा हो उस वर्ग से निर्वासित किसी व्यक्ति को अपने समूह का हिस्सा बनाने से पहले उनके मन मे तमाम शंकाएं थी सच तो ये है सखा भाव से वो कभी आत्मसात कर भी नही पाए मेरे सम्वेदनशील रचनाधर्मी व्यक्तित्व के बावजूद मेरा कद और मेरा अक्स उन्हें घसीटता हुआ अपने अतीत मे ले जाता जहाँ सामंती शोषण के तमाम किस्से उनके जेहन मे विचर रहे होते उस वक्त उनका मन मुझे लेकर तीन हिस्सों में बंट जाता एक मन मुझे बिना शर्त और शंकारहित स्वीकारने की वकालत करता एक मन उन्हे सावधान करता कि सामंती चरित्र के षडयंत्र कभी नही समाप्त होते है इसे जब भी मौका मिलेगा ये तुम्हें तुम्हारी औकात बता देगा और तीसरा मन एक खास किस्म के सैडेटिव प्लीज़र मे जीता उसे लगता कि अब उनकी वैचारिकी और संघर्ष के परिणाम सामने आने लगे है एक खांटी सामंती परिवार का लडका उनकी सोहबत मे आकर राहत महसूस करता है वें उसके साथ हमप्याला होते समय गर्व और अभिमान से भर जाते उस समय वंचित वर्ग का सामंती मनोविज्ञान देखा जा सकता था वस्तुत: मनुष्य का स्वाभाविक चरित्र पावर सेंटर ही विकसित करना होता है।<br />
इन तीन किस्म के मन के बीच मै सच्चे दोस्तों के हाथ पकड उन्हें विश्वास दिलाने की कोशिस करता कि मै शोषक,उत्पीडक नही हूं चेतन स्तर पर वो इससे सहमत भी थे परंतु अर्द्धचेतन और अवचेतन के स्तर पर उनका भोगा हुआ यथार्थ मुझे समग्र रुप से कभी स्वीकार न कर पाता उस समय मेरी बडी विचित्र स्थिति हो जाती है एक तरफ मै अपना मूल खुद काटकर आया हूं वही दूसरी तरफ जो मेरा मित्र वर्ग है उसकी शंका सन्देह या ग्राह्यता मुझे स्वीकारने मे बाधा बनती जाती है मै त्रिशकुं की भांति बीच मे लटक जाता था।<br />
अपने आसपास के आसमान को देखने पर पता चलता कि मै अकेला त्रिशकुं नही हूं यहां तो मेरे जैसे बहुत से लोग है जो अपने हिस्से का निर्वासन झेल रहे है अपने वर्ग मे उनकी दिलचस्पी और श्रद्धा नही बची है और जिन लोगो की तरफ वो उम्मीद और मानवीय दृष्टि से आए थे उनके पूर्वाग्रह और संघर्षो की आंच ने उन्हें कभी करीब नही आने दिया। मैने देखा इन त्रिशकुंओं मे कुछ ब्राहमण भी थे वो उदास होकर बताते कि उनके पूर्वजों ने चाहे जो किया हो मगर उन्होने कभी दलितों को नही सताया वो दलितों से मैत्री की अभिलाषा मे थें मगर दलित/पिछ्डे मित्रों को उनके आने से षडयंत्र और अपना आन्दोलन कमजोर पडने का भय था इसलिए उनको टांग दिया जाता था ऐसे ही आसमान में उनमे से कुछ सच्चे मुसलमान थे जिन्होनें लानत भेजी थी हिंसा पर जेहाद के बदले आंतक और इंसानों के कतले आम पर जिसके बदले मुसलमानों ने उन्हे काफिर कहा मगर हिन्दूओं के लिए वो कभी सहज न्ही रहे उन्हें लगता रहा कि ये मुसलमान पहले है इंसान बाद में।<br />
खांचों मे बंटकर रहना इंसान की नियति है अपने लिए सुरक्षा तलाशना मनुष्य की अस्तित्व को बचाने की अपनी सबसे बडी युक्ति विचारधारा जिस ईमानदारी की मांग करती है वो ईमानदारी एक किस्म का पूर्वाग्रह साथ बांटती है जिसके चलते मेरे जैसे बहुत से लोग अपने अपने हिस्से का निर्वासन भोगते हुए ताउम्र यही बताते रहते है कि वो वैसे कतई नही है जैसे उनके पूर्वज़ रहे होंगे अपने बिना किसी दोष वो जीते है अपने हिस्से का अपराधबोध बार बार यह विश्वास दिलाते है कि मै अपने लोगो अपनी परम्पराओं के खिलाफ आपके नही मगर अविश्वास और भोगे हुए यथार्थ की चासनी इतनी गाढी होती है उसमे अपना संघर्ष हमेशा गाढा और मीठा दिखता है दूसरे व्यक्ति का उद्देश्यपूर्ण ! मनुष्य की समझ पर यह एक ऐसा प्रश्नचिंह है जो हाल फिलहाल तो मिटता नही दिखता है बाकि उम्मीद पर दुनिया कायम है और मै भी इसी उम्मीद पर कायम हूं शायद कल इंसान को उसके मौलिक वजूद से पहचाना जाए न कि उसकी धर्म,जाति,आर्थिक-सामाजिक पृष्टभूमि से उसकी सीमाएं निर्धारित की जाएं।<br />
<br />
<br />
‘एक त्रिशकुं की आपबीती</div>
Dr.Ajithttp://www.blogger.com/profile/17632123454222628758noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-5563897105803220813.post-29399189479422063322014-10-03T05:33:00.002-07:002014-10-03T05:33:41.221-07:00हैदर <div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
'हैदर' रिश्तों की सच्चाई और कश्मीर वादी की स्याह हकीकत की महीन पड़ताल करती फिल्म है। फिल्म में दो यात्राएं समानांतर रूप से चलती है एक कश्मीर में पूछताछ के नाम पर उठाए गए लोगो के परिवार की दारुण कथा है दूसरी रिश्तों की महीन बुनावट में उलझे प्यार की पैमाइश की कोशिस फिल्म करती दिखती है। फिल्म की गति थोड़ी स्लो है मगर एक बार जुड़ने के बाद आप फिल्म के सिरे जोड़ पाते है। विशाल भारद्वाज की फिल्मों में स्त्री किरदार को काफी रहस्यमयी ढंग से विकसित किया जाता है हैदर में भी तब्बु के मिजाज़ को पढ़ने के लिए मन जीने से नीचे तहखाने में उतरना पड़ता है।<br />
फिल्म मां-बेटे और भाभी-देवर के रिश्तें को काफी अलग एंगल से दिखाया गया है। हैदर और उसकी मां यानि तब्बु के रिश्तें में एक अलग किस्म की टोन भी है जो कभी कभी विस्मय से भरती है।फिल्म उम्मीद,बेरुखी,इश्क और धोखे के जरिए कश्मीर की अवाम के एक जायज मसले पर बात करती नजर आती है। केके मेनन गजब के एक्टर है तब्बु के देवर खुर्रम मियाँ के रूप में उनका काम पसंद आया। श्रद्धा कपूर भी फिल्म में काफी नेचुरल लगी है वो काफी आगे तक जाएँगी। शाहिद कपूर फिल्म में एक अपने रोल का एक फ्लेवर मेंटन नही रख पाते है कहीं बहुत भारी हो जाते तो कहीं थोड़े कमजोर निजी तौर पर फिल्म में श्रीनगर के लाल चौक पर एक कश्मीर की हालात पर एक पोलिटिकल स्टायर करने के सीन में बेहद गजब की परफोर्मेंस देते दिखे ओवरआल ठीक ही है। फिल्म में इरफ़ान खान और नरेंद्र झा का रोल काफी छोटा है मगर इरफ़ान खान तो इरफ़ान खान वो गागर में सागर भर देते है नरेंद्र झा का काम भी बहुत क्लासिक किस्म का है।<br />
फिल्म में गीतों में गुलजार ने कश्मीर की खुशबू भर दी है उनमें आंचलिकता का पुट है फिल्म में फैज़ की शायरी फिल्म को असल मुद्दे से जोड़े रखती है।<br />
फिल्म की कमजोरी स्लो होना है जिन दर्शकों के पास सब्र नही है उन्हें फिल्म नही देखनी चाहिए हैदर को महसूस करने के लिए दिमाग का खुला और दिल का जला होना जरूरी है मौज मस्ती के लिए कोई और स्क्रीन देखी जा सकती है। विशाल भारद्वाज ने एक संवेदनशील मसलें पर एक काफी प्रासंगिक फिल्म बनाई है इसके लिए वो बधाई के पात्र है।<br />
<br />
(आज घुटने में दर्द के बावजूद यह फिल्म बड़े बेटे राहुल के साथ देखी राहुल की मल्टीप्लेक्स स्क्रीन की यह पहली फिल्म थी इसलिए उसके लिए यह फिल्म और भी महत्वपूर्ण हो जाती है। दोस्तों के साथ बहुत से फ़िल्में देखी है मगर आज बेटे को दोस्त के रूप फिल्म दिखाकर एक अलग किस्म का सुख मिला इसलिए भी हैदर ताउम्र मेरे लिए एक यादगार फिल्म रहेगी)</div>
Dr.Ajithttp://www.blogger.com/profile/17632123454222628758noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-5563897105803220813.post-33235660444472475022014-09-30T01:47:00.002-07:002014-09-30T01:47:34.036-07:00वो तीन <div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
मोहम्मद अजीज़ शब्बीर कुमार अनवर ये तीन ऐसे गायक है जो अस्सी-नब्बे के दशक में बेहद लोकप्रिय रहें है यूपी और बिहार में आज भी मोहम्मद अजीज़ के चाहने वालो की कमी नही है उनके रोमांटिक ड्युटस आज भी ऑटो/बस ने सुने जा सकते है इस दौर की पढ़ी लिखी पीढ़ी को न उनमे नाम याद होंगे और न उनके गाए सुपरहिट गीत हाँ उनको एक वर्ग विशेष की पसंद में जरुर टाइप्ड कर दिया गया है। मोहम्मद अजीज़ को बस/ऑटो ड्राईवर रिक्शा चालको की पसंद का गायक समझा जाने लगा है। मगर ये तीनो अपने अपने किस्म के अजीम फनकार रहें है सभी नही तो कुछ गीत मोहम्मद अजीज़ ने बेहद दिलकश आवाज में गाएं है चाहे वह कर्मा फिल्म का कालजयी गीत दिल दिया है जान भी देंगे ऐ वतन तेरे लिए या फिर फिल्म मुद्दत का रोमांटिक गीत प्यार हमारा अमर रहेगा याद करेगा ये जहां हो...ठीक ऐसे ही शब्बीर कुमार और अनवर के भी बेहद दिलकश गीत मौजूद है।<br />
बदलते वक्त ने इस फनकारों को हमारी याददाश्त से बाहर कर दिया है मै कभी कभी इनके एकाकी जीवन की कल्पना करता हूँ तो सिहर जाता हूँ मोहम्मद अजीज़ ने खासी लोकप्रियता का समय भी जिया है अब जब उन्हें इंडस्ट्री में कोई नही पूछता है तब वो कैसे निर्वासन में जिन्दगी जीते होंगे ऐसे गुमनामी जिन्दगी जीना बेहद मुश्किल होती होगी पिछले दिनों कहीं पढ़ा था वो आर्थिक बदहाली से भी गुजर रहें है। फ़िल्मी दुनिया की कितनी छोटी याददाश्त होती है कल तक जो आपका स्टार गायक था आज गुमनाम है यही बात हम श्रोताओं की भी है हम आगे बढ़ते चले जाते है एक दौर कुमार शानू अलका याज्ञनिक सोनू निगम का था अब वो भी ढलान पर है अब अरजित मोहित चौहान या नए लोगो का दौर है। कुमार शानू को अब मै मोहम्मद अजीज की जगह जाता देखता हूँ उनके मेलोडियस सोंग्स भी अब एक वर्ग विशेष तक सीमित होकर रह गए वरना एक समय था जब रोमांटिक ट्रैक का मतलब की कुमार शानू था पुरानी आशिकी फिल्म के गीतों ने क्या धमाल मचाया था।<br />
कुल मिलाकर मेरी तो आदत अतीत में जीने की रही है इसलिए गाहे बगाहे इन पुराने दौर के फनकारो को याद करता रहता हूँ। किशोर-रफी-मुकेश त्रयी की दुनिया से भी अलग फनकारों की एक दुनिया रही है जिन्होंने अपने फन की ताकत से अपने चाहने वाले पैदा किए अब आप उन्हें लोअर मीडिल क्लास समझ मूल्यवान न समझे तो यह आपकी समझ की सीमा हो सकती है। बड़े चेहरों के बीच खुद को जमाना बहुत हिम्मत की बात होती है हिन्दी फ़िल्मी गायकी के इन सर्वहारा का मै बड़े दिल से सम्मान करता हूँ और उन्हें उनके गीतों के माध्यम से शिद्दत से याद भी करता हूँ। भले वो आज हाशिए की जिन्दगी जी रहें है मगर मेरे लिए वो सदैव मेरे दिल के करीब ही रहेंगे उनको यादों में बचाकर रखना दरअसल उस दौर को बचाकर रखना था जब हम गुनगुनाने की सच्ची वजह अपने दिल में रखते थे आज की तरह नही कि गायक का नाम भी मुश्किल से याद रह पाता है। </div>
Dr.Ajithttp://www.blogger.com/profile/17632123454222628758noreply@blogger.com0