Thursday, May 30, 2013

उच्च शिक्षा

उच्च शिक्षा में लगभग एक दशक बीता दिया पहले पढाई की और पिछले साल से एक विश्वविद्यालय में तदर्थ रूप से पढ़ा भी रहा हूँ चूंकि मेरी नौकरी तदर्थ किस्म की रही है इसलिए स्थायी होने के लिए इधर उधर भी हाथ पैर मारता रहा मसलन देश के प्रमुख विश्वविद्यालयों में साक्षात्कार देने जाता रहा हूँ प्रभु कृपा से मनोविज्ञान के अतिरिक्त पत्रकारिता और हिंदी साहित्य में भी नौकरी पाने की  अकादमिक योग्यता रखता हूँ (यूजीसी-नेट होने के कारण). स्थायी नौकरी पाने के अपने आरंभिक संघर्षो में मुझे लगता था की उच्च शिक्षा में पिछड़े /दलित/अल्पसंख्यक वर्ग  से होना सबसे बड़े अपात्रता हैं क्योंकि नियोक्ता अधिकांश सवर्ण हैं और एक गाँव देहात तथा किसान परिवार की पृष्टभूमि का होने के नाते एक सवर्ण मानसिकता कभी स्वीकार नही कर पाती की इस वर्ग का बच्चा वहां तक पहुंचे जहाँ उनका जन्मसिद्ध अधिकार एवं वर्चस्व रहा है,लेकिन धीरे-धीरे जब मैंने विश्लेषण करना शुरू किया तो पाया कि अपने इस महान देश भारत में केवल जाति के ही मोर्चे पर लडाई नही लड़ी जाति है और भी बहुत से मोर्चे है जिनसे आपको लड़ना होता है और यह विरल संयोग की बात होती है कि इन सबसे आप लड़ते खपते वहां तक पहुँच जाएँ जिसकी आप पात्रता रखते हैं ऐसे ही कुछ मोर्चो की बानगी देखिए:-

.पहला मोर्चा हिंदी बनाम अंग्रेजी का इस देश में बहुत बड़ा है जो मेरे जैसे प्राथमिक पाठशाला में पढ़े बच्चो को झेलना पड़ता है चूंकि हम सरकारी स्कूल में पढ़े है जहाँ कक्षा में पहले बार एबीसीडी सिखाई जाती है हमने तख्ती पोतकर,ईमला लिखकर पढना,लिखना सीखा है इसलिए हम अंग्रेजी भाषा के मामले में हमेशा एक दोयम दर्जे के ही रहते है और जनाब अपने देश में तो अंग्रेजी में बोलना आना मानो कुफ्र है मैं सभी विषयो के अध्यापन में अंग्रेजी के महत्व को नही नकार रहा हूँ लेकिन पत्रकारिता जैसे हिंदी अधिकार के विषय की भी पढाई हमारे विश्वविद्यालयो में अंग्रेजी में होती है इस बात का मुझे तब पता चला जब एक केन्द्रीय विवि के साक्षात्कार में अच्छा इंटरव्यू होने के बाद भी महज़ इसलिए मेरा चयन नही हो पाया क्योंकि मैंने हिंदी में बात की और मैं धाराप्रवाह अंग्रेज़ी बोलना नहीं जानता था. ऐसे में कान्वेंट शिक्षित लोगो को तरजीह दी जाती है और हम हिंदी भाषी कतार से बाहर हो जाते हैं.

. दूसरा मोर्चा साहब संस्थानों का है मेरी इस बात से मेरे कुछ जेएनयू,बीएचयू,डीयू के दोस्त खफा हो सकते है लेकिन यह भी एक कड़वा सच है कि आपको नौकरी दिलाने में आपका संस्थान भी बेहद मददगार साबित होता है मसलन अगर आप जेएनयू,बीएचयू,डीयू,इलाहाबादविवि से पढ़े है तो समझिये आपकी आधी मुश्किल कम हो गयी है इन बड़े संस्थानों का ठप्पा आपके बड़े को पार लगा देता है ऐसे में जो लोग अपेक्षकृत छोटे संस्थानों से पढ़े हैं उनके साथ दोयम दर्जे का व्यवहार होता है मै पात्रता/योग्यता की बात नहीं कर रहा हूँ वो हर संस्थान में हर किस्म के लोग आपको मिल जायेंगे मानता हूँ कि उक्त संस्थान देश के अकादमिक क्षेत्र के बड़े माने हुए संस्थान हैं लेकिन दोस्तों महज़ इस वजह से देश के हर अवसर पर यदि वही के लोगो को अगर तरजीह दी जाने लगेगी तो देश के बाकी विवि के पढ़े लिखे बेरोजगारों का क्या होगा क्या ऐसे सांस्थानिक श्रेष्टता पूर्वाग्रहों का होना न्यायोचित है?

.तीसरा मोर्चा साहब क्षेत्र का है उच्च शिक्षा में आपके क्षेत्र भी आपकी बौद्धिकता तय करता है मसलन जैसे कि मै पश्चिम उत्तर प्रदेश से ताल्लुक रखता हूँ ऐसे में उच्च शिक्षा के क्षेत्र मठाधीश यह बात हजम ही नहीं कर पाते है कि इस क्षेत्र का कोई आदमी कविता,साहित्य,पत्रकारिता,दर्शन,मनोविज्ञान आदि की बात कर सकता है उन्हें लगता है इस क्षेत्र में केवल दबंग और लट्ठबाज ही पैदा हो सकते या फिर अपराधी मुझे कई बार ऐसे असहज स्थिति का सामना करना पड़ा है जब मै किसी महफ़िल में अपनी कविता सुनाई और लोगो को अघोर किस्म का आश्चर्य हुआ है कि मुज़फ्फरनगर का कोई बन्दा वह भी किसान पुत्र कविता कर सकता है या शुद्ध हिंदी में बात कर सकता है इसी पूर्वाग्रह का सामना विभिन्न विवि में इंटरव्यू के दौरान भी करना पड़ता है.

.मैंने आरटीआई के माध्यम से यूजीसी से यह पता किया की देश के प्रमुख विवि के कुलपति कहाँ से सम्बंधित है वहां से जो जानकारी मिली वह हैरत में डालने वाली थी देश प्रमुक विवि और नए बने केंद्रीय विवि में जेएनयू,बीएचयू,डीयू,इलाहाबादविवि,आईआईटी के प्रोफेसर ही कुलपति बने हुए है ऐसे में जब उनके मातृ संस्थान का कोई बंदा इंटरव्यू देने आता है तो उनका अपनी मातृसंस्था के प्रति प्रेम स्वत: ही जागृत हो जाता है और उनकी भरपूर कोशिस यही रहती है कि हम अपने प्रोडक्ट को नौकरी दे सकें.यह ऐसी कडवी सच्चाई है जिसको बुद्धिजीवी दिल जरुर स्वीकार करेगा दिमाग करें या ना करें.

. उच्च शिक्षा में आप जिसके निर्देशन में अपना शोध प्रबंध पूर्ण करते है उन प्रोफेसर साहब का अपना अलग महत्व यांकी अगर आपका पीएचडी गाइड अपने विषय की जानी मानी शख्सियत है तो फिर भी आप के लिए मंजिल आसन हो जायेगी मसलन जब कोई प्रोफेसर अपने विषय का इतना बड़ा विशेषज्ञ होता है तब वह प्रमुख विवि में सब्जेक्ट एक्सपर्ट भी नामित होता हैं फिर जहाँ भी पोस्ट निकलेगी वो आपको इशारा कर देगा बस उसके बाद आपकी नौकरी पक्की ऐसे कम जान पहचान वाले प्रोफेसर के चेले बेचारे ऐसे ही झोला उठाये घूमते रहते है सिलेक्शन कमेटी भी यह पहले से मान लेती है कि जब यह बंदा इतने बड़े ज्ञानी का चेला है तो यह भी ज्ञानी ही होगा ऐसे में बेचारे सामान्य बैकग्राउंड के लोग स्वत: ही बाहर हो जाते हैं.

....दोस्तों और भी बहुत से मोर्चे अगर मैं सभी का जिक्र करना शुरू करूँ तो ये पोस्ट बहुत बड़ी हो जाएगी बाकी आप खुद समझदार हैं. इन सब मोर्चो से लड़ते-भिड़ते सुप्रीम कोर्ट के आरक्षण के आरक्षण लागू करने के  डंडे के चलते अगर आप को नौकरी मिल जाये तो मै आपको परम सौभाग्यशाली कहूँगा..इन मोर्चो के चलते तमाम वाद प्रभावी रहते हैं मैं किसी एक का नाम नहीं लूँगा आप सभी जानते ही हैं ऐसे में स्टेट यूनिवर्सिटीज और डीम्ड यूनिवर्सिटीज के पढ़े गाँव देहात के  लोग उस अवसर की तलाश में दर बदर भटकते रहते है क्योंकि उनका कोई रहनुमा मेज़ की उस तरफ नहीं बैठा होता है जो कह सके कि नौकरी देने में एक ही बात देखी जाए कि बंदा काबिल है या नहीं...

4 comments:

  1. sir you are absolutely right... and i am really happy to see that all the issues that have been pointed out by you are in existence... keep it up sir.

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  2. bahut samay se apaka naam aur parapsychology se juda...usmai post band ho gai...pata nahi kyu... ab jab other blog par visit kar raha hu to... yese article...lajwab... shesh ki umeed mai...

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  3. बहुत शानदार चिन्हीकरण.......

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  4. डा साहब, आपका व्यक्तिगत अनुभव है पर कुछ हद तक यथार्थ भी है। मैंने गोरखपुर से एलएलबी किया, BHU से एलएल एम्, , पीएच डी । गोरखपुर के प्रति BHU वालों की भावना को भी देखा और गोरखपुर वालों की BHU के प्रति भी। गोरखपुर के मेरे गुरु/प्रोफ़ेसर ने मुझसे कहा BHU में तो बहुत नंबर मिलता है, ज्यादातर पास हो जाते हैं। फिर इलाहबाद में अध्यापन भी किया- यहाँ के प्रोफ़ेसर बन्धु अभिमान पूर्वक कहते थे की हमारे यहाँ का एलएल एम् सबसे अधिक उत्कृष्ट है, यहाँ कोई पाठ्यक्रम ही नहीं है, कहीं से भी प्रश्न पूछा जा सकता है। अर्थात उक्त तीनों विश्वविद्यालयों के प्रोफ़ेसर अपने को शेष दोनों से श्रेष्ठ समझते हैं।

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