Monday, September 17, 2012

चटखारा



पिछले कुछ दिनों से फिर से ब्लॉग पर नियमित लेखन नही हो पा रहा है जिसकी दो वजह है एक तो इन दिनों मौसम बदलने लगा है और दिन भर प्रमाद घेरे रखता है सर्दी आने से पहले के दिन अजीब से बोझल हो जाया करते है खासकर शाम..दूसरी वजह यह है पहले मै मुक्त भाव से डायरी लेखन किया करता था मतलब मेरे जीवन की घटनाओं और आसपास के पात्रों के उल्लेख करने मे मुझे कोई संकोच नही हुआ करता था क्योंकि डायरी लेखन विधा की यह खूबसूरती भी रही है इसमे आपको कम से कम इतना स्पेस तो मिल ही जाता है कि आप बिना लाग लपेट के अपने दिल की बातें लिख सकते है लेकिन कुछ प्रकरण/प्रसंग और व्यवहार इस तरफ इशारा कर रहे है कई बारे मेरे लिखे से किसी की निजता का हनन हो सकता है अथवा कोई इसका कोई दुरुपयोग कर सकता है इसलिए अब लिखने से पहले दिमाग लगाना पडता है पहले जैसा स्वाभाविक फ्लो नही रहा है कभी किसी दोस्त, परिचित का जिक्र करता हूँ तो पहले यह डर लगने लगता है कि इसका इम्पेक्ट गलत तो नही हो जायेगा... बस इन्ही दो वजह से लिखने का मन नही बन पाता है फिर भी जब भी लहू में हरारत जोर मारती तभी इस डायरी के पन्नों पर अपने तजरबे की कतरनें दर्ज़ करने चला ही आता हूँ।
इस पोस्ट का शीर्षक चटखारा भी इसलिए रखा है कि मेरे लिखने से जहाँ मेरा विरेचन हो जाता है वही कुछ लोगो को सामाजिक चटखारे का भी विषय मिल जाता है मेरे एक ऑनलाईन परिचित है परिचित इसलिए कह रहा हूँ क्योंकि मित्र वो कभी बन ही नही पायें वो भोपाल मे रहते है पहले एक कालेज़ में मास्टर हुआ करते थे अब मास्टरी छोड कर पत्रकारिता कर रहें है एक स्थानीय अखबार मे विशेष संवाददाता है नाम है सुरेश पाठक। पाठक जी मेरे लेखन के कभी कायल हुआ करते थे और मुझे अक्सर फोन पर या ईमेल से मेरे इस ब्लॉग की पोस्ट की तारीफ किया करते थे खासकर उन्हे मेरा बेबाकपन बेहद पसंद था उन्ही के माध्यम से भोपाल के एक दूसरे साथी पत्रकार से परिचय हुआ उनसे कभी कभार फोन पर बतिया लेता हूँ वह जो पाठक जी के मित्र है वो मुझसे भी प्रभावित रहे है इसलिए अक्सर अपनी बाईलाईन खबरों की पीडीएफ कॉपी भेज देते है कि सर, खबर की समीक्षा करके बताना कि खबर कैसी छपी है इन पत्रकार साथी का जितनी भी बार फोन आता है वो अपने महिमामंडन मे लगे रहते है मै भी उनकी हाँ मे हाँ मिलता रहता हूँ क्योंकि अब मै समझ चूका हूँ ये महोदय आत्ममुग्ध और आत्मप्रशंसाप्रिय प्राणी है।
आजकल इन दोनो पत्रकार बंधुओं के लिए मै चटखारे का विषय बना हुआ हूँ मै जैसे ही अपने इस ब्लॉग पर कुछ लिखता हूँ तुरंत दोनो में खुसर-फुसर होनी शुरु हो जाती है कि ये डॉ.अजीत के जिन्दगी मे कैसे-कैसे किस्से हो रहे है फिर उनमे से एक मुझे फोन करके सहानूभूति की अतिरिक्त खुराक देता है कभी कहता है ये वक्त है कट जायेगा आप तो साईकोलॉजी के आदमी है सो अच्छे-बूरे वक्त में आपको तो एक समान रहना चाहिए आदि-आदि। पाठक जी और दूसरे पत्रकार मित्र के बीच मेरे सन्दर्भ में हालांकि बातें बेहद गोपनीय किस्म की होती है लेकिन फिर जैसे-तैसे अलग-अलग सन्दर्भों और सूत्रों के जरिए मुझ तक वो खबरें पहूंच ही जाती है कि पाठक जी मेरे बारें मे क्या कह रहें थे या दूसरे पत्रकार मित्र क्या कह रहें थे कोई और भी न बताएं तो पाठक जी कभी कभी पव्वा चढा कर खुद ही बक देते है।
मै हरिद्वार मे इतनी दूर हूँ कभी इन दोनो से मिला भी नही हूँ लेकिन फिर इनके लिए सामाजिक चटखारे का विषय बना हुआ हूँ इधर मै ब्लॉग पर कुछ पोस्ट करुँगा उधर पाठक जी का फोन दूसरे पत्रकार मित्र के पास पहूंच जायेगा वे उसको तुरंत अपडेट कर देंगे कि देखा आज डॉ.साहब ने क्या लिखा ब्लॉग पर...? फिर दोनो मिलकर मेरे प्रसंगो का पोस्टमार्टम करेंगे फिर कोई एक मुझे फोन करेगा या एसएमएस करेगा इन दोनों बुद्धिजीवियों को मै संसार का सबसे दुखी प्राणी नजर आता हूँ और सलाह देने में तो पाठक जी का जवाब नही है एक बार बोले डॉ.साहब मैने भी हिन्दी साहित्य मे पीएचडी किया हुआ है इसलिए आपकी संवेदना से मै अच्छी तरह से परिचित हूँ। पाठक जी पहले जब अपने बारे मे ब्लॉग पर कुछ पढते थे तो उन्हे फीलगुड होता है लेकिन इन दिनों इसका उलट हो रहा है उनको भी यह लगने लगा है कि मै लोगो की निजता का सम्मान नही कर रहा हूँ...पहले वो मेरे बिना लाग लपेट के लेखन की शैली के मुक्तकंठ से प्रशंसक थे इन दिनों मेरे किस्सों को समालोचना और निंदा की चासनी मे लपेट कर सामजिक चटखारे का लुत्फ लेते पाये जा रहे है और दूसरे पत्रकार साथी भी उनके अच्छे श्रोता बने हुए है कल उन पत्रकार साथी का फोन आया था कि अरे! सर आपको एक बैंक क्लर्क ने बेवकूफ कह दिया आपकी कद काठी के हिसाब से तो ऐसा नही होना चाहिए था और आपको उस स्कूल के गार्ड को तो सबक सिखाना ही चाहिए था मैने कहा नही मै उस लडने की मनस्थिति मे नही था बाद मै उन्होने पाठक जी का जिक्र किया किया वो भी आपकी पोस्ट पढकर मज़ा ले रहे थे...मैने कहा लेने दो आखिर किसी को तो मज़ा आ रहा है...।
खैर! यह सारा किस्सा यहाँ बेतरतीब ढंग से यहाँ लिखने का एक मात्र यही मकसद है लोग भी कैसे कैसे आंखे के सामने ही बदल जाते है ये देखकर मुझे ताज्जुब होता है पहले दुख होता था अब दया आती है ऐसे छ्द्म लोगो पर... मै कम से कम जैसा हूँ वैसा लिख तो देता हूँ लेकिन ये पाठक जी जैसे लोग तो दिन भर कितने आवरणों मे जीते है उन्हें खुद नही पता होता है मेरा उद्देश्य किसी का चरित्रचित्रण करने का नही है लेकिन दया आती है ऐसे लोगो पर जो खुद को पत्रकार या साहित्यकार कहते है लेकिन उनके अन्दर इतनी संवेदना नही होती है किसी मुक्त शैली के लेखन को बिना व्यक्तिगत सन्दर्भ जोडे साहित्यिक दस्तावेज़ के रुप में ग्रहण करके उसका आस्वादन कर सकें...।
जीसस क्राईस्ट की तरह मै तो यही कहना चाहूंगा कि ईश्वर इन्हे माफ करें और सदबुद्धि ताकि अपनी रचनात्मक ऊर्जा का प्रयोग सामाजिक चटखारे और निंदारस में करने की बजाएं अपने जीवन को सहज़ और निरापद बनाएं रखने मे लगाएं वैसे ही आवरणयुक्त जिन्दगी जीते जीते इनका असली चेहरा क्या है उसका पता नही चल पाता है बेहतर हो कि मेरी त्रासदी में अपना सामाजिक चटखारा तलाशने की बजाए अपनी रचनात्मक ऊर्जा का प्रयोग अपने जीवन की बेहतरी के लिए करें....मै तो भईया पहले भी ऐसा ही था आगे भी ऐसा ही रहूंगा...।
गुस्ताखी माफ हो...आज अंतिम बार नाम सहित पोस्ट लिख रहा हूँ आगे से भाषाई कूटनीति के तहत पोस्ट लिखने की कोशिस करुंगा ताकि सांप भी मर जाये और लाठी भी न टूटे...यही आप भी चाहते है...मै समझता हूँ कि आप सब बातें ठीक से समझ गये होंगे जो मै समझाना चाह रहा हूँ...क्यों पाठक जी...?

शेष फिर
डॉ.अजीत

1 comment:

  1. जब कहने की इच्‍छा होती है तो लि‍खा अपने आप जाता है

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