Wednesday, April 6, 2011

फुरसत के बहाने

आज हमें अस्पताल से आएं पांच दिन हो गये है। हरिद्वार आने पर बच्चे को लेकर कुछ ऐसी व्यस्तताएं बनी की आज थोडी फुरसत मिली तो आपसे रुबरु होने का अवसर मिला है। जब मेरा पहला बेटा हुआ था तब मै गांव मे ही रहता था तब मुझे पता नही चला था कि एक नवजात शिशु के लिए किन-किन जरुरी चीज़ो की जरुरत पडती है परिवार मे रहते सब कुछ मैनेज़ हो जाता है लेकिन इस बार सब कुछ खुद ही मैनेज़ करना था। पहली बार बच्चे के लिए कपडे वगैरह की खरीददारी की जिसमे अपने मित्र डा.अनिल सैनी जी का सहयोग मिला शापिंग और विशेषकर बच्चो की शापिंग के मामले में उनकी विशेष योग्यता हैं।

वैसे तो डाक्टर ने हाईजिन के पाईंट आफ व्यूव से बच्चे को कम से कम सोशल इंटरएक्शन मे रखने की सिफारिश की थी लेकिन फिर कुछ खास लोग ऐसे थे जो बच्चे को देखने के लिए आ ही गये उनका प्यार,आशीर्वाद इतना महत्वपूर्ण था कि डाक्टरी सिफारिश को भी नज़र अन्दाज़ करना पडा। अब बच्चा ठीक है अस्पताल मे जो कष्ट भोगा उसके बाद अब हालात सामान्य की तरफ बढ रहें हैं अभी 10 तारीख को फिर से देहरादून जाना है फालो-अप के लिए तभी बच्चे की वैक्सीनेशन की प्रक्रिया भी शुरु की जायेगी।

जब तक आप किसी कारज़ मे व्यस्त रहतें है तब तक मन भी एक अपनी टाईप्ड मनोदशा से बाहर नही निकलता है बस सारा ओरियंटेशन एक तरफ ही बना रहता है जिसके अपने फायदे है और थोडे नुकसान भी...। अब मै उस तरह की भागादौडी वाली व्यस्तता से बाहर निकल आया हूँ थोडा फुरसत मे हूँ तो मन फिर से एक खास किस्म का निर्वात महसुस कर रहा है जो घटना घटित होनी थी उससे मन उलझता-सुलझता बाहर निकल आया है और धीरे-धीरे फिर से जीवन की प्रासंगिकता के सवाल पर टाल-मटोल कर रहा हैं मसले कई है लेकिन आपस में इतने गुथे हुए है कि किस एक निर्णय पर पहूंच पाना मुश्किल है।

शाम का वक्त हमेशा से ही मेरे लिए अवसादी और बोझिल किस्म का हो जाया करता रहा है गर्मीयों की शामें अक्सर चिढचिढी हो जाया करती है। मौसम के बदलने पर मन नही बदल पाता या ऐसा समझ लीजिए कि मन हर बदलाव का विरोधी है चाहें को मन का हो या तन का।

अपने विश्वविद्यालय मे इंटरव्यूव भी पैंडिंग पडे हुई है जिसमे मेरे भाग्य का भी फैसला होना है पहले मार्च के अंतिम सप्ताह में होने की उम्मीद थी अब अप्रैल के अंतिम सप्ताह मे होने के कयास लगाए जा रहें है। इस तरह से विश्वविद्यालय की इस लेटलतीफी ने मेरी मानसिक उलझने और बढा दी है अब मन यही चाहत है कि जितनी जल्दी हो सके गुरुकुल में अपने दाना-पानी की स्थिति स्पष्ट होनी चाहिए क्योंकि तदर्थ जीते-जीते अपने जीवन का अर्थ कही खो सा गया है अब क्या तो यहाँ स्थाई हो जाएं वरना फिर यहाँ से बाहर।

मेरा मन बार बार यही कह रहा है कि यदि गुरुकुल मे इस बार स्थाई नियुक्ति नही हो पाती है तो फिर अगले सत्र से यहाँ पर काम नही करुंगा...फिर क्या करुंगा? ये अभी तय नही है हो सकता है कि अपने गांव लौट जांउ और डिग्री.पद.पदवी और ओहदे को एकतरफ रख कर खेती-बाडी करुं। मनोवैज्ञानिक-किसान....! सोचने में ही अजीब है जब हकीकत मे होगा तो कैसा होगा।

बहरहाल,जीवन लंबे अरसे से एक ठहराव में चल रहा है यह भी उसी ठहराव का एक हिस्सा है जिसमे मुझे कुछ बडे निर्णय लेने है अपने तथाकथित करियर के सम्बन्ध में...। मेरे कुछ चाहने वाले मित्र है जो मुझे अपने आसपास देखना चाहते है सो इस बार उन पर दबाव है कि कैसे मुझे शहर मे रुकने के लिए सहयोग कर सके मैं निर्लिप्त भाव से चीज़ो से गुजरना चाहता हूँ जो भी होगा ठीक ही होगा हाँ ये सच है कि अगर मै बैक तो पवेलियन (गांव) गया तो फिर ये मेरा पुनर्जन्म होगा फिर ये कवि/समीक्षक/मनोवैज्ञानिक/लेखक और तथाकथित बुद्दिजीवी के चोले उतर जायेंगे और वहाँ का जीवन होगा एकदम शांत,क्लांत,सम्पर्कविहिन और निर्वासित किस्म का जिसका जिक्र मै पहले भी अपनी एक पोस्ट मे कर चुका हूँ...। अब उसकी महिमामंडन की जरुरत भी नही है।

अब विराम लेता हूँ....शेष फिर

डा.अजीत

1 comment:

  1. सही कहा आपने जो भी होगा अच्छा ही होगा यही आशा कर सकते है हम भविष्य से .......

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