Wednesday, August 29, 2012

बुलेटिन



क्षमा शोभती उस भुजंग को
जिसके पास गरल हो
उसको क्या जो दंतहीन
विषरहित, विनीत, सरल हो ।

रामधारी सिंह ‘दिनकर’
रामधारी सिंह दिनकर जी की इन पंक्तियों से बात शुरु करता हूँ ये पंक्तियां मुझे सदैव से प्रिय लगती है क्योंकि इस तरह से अपने साथ भी होता रहा है। अपने गांव देहात की एक कहावत है कि कभी कभी अच्छा करते करते भी किसी से बुरा हो जाता है ऐसा ही मेरा साथ हुआ है अपने एक दोस्त की प्रशंसावश भावातिरेक में लिखा गया और उसके निहितार्थ उनके लिए नुकसानदायक साबित होने की दशा मे आ गये जब आदमी का वक्त बुरा चल रहा होता है ऐसे प्रसंग बन ही जाते है। लिखने के मामले मे गाफिल होना ठीक नही है अब सावधानी रखनी पडेगी ताकि किसी को कष्ट न पहूंचे वैसे तो ये करमठोक किसी काबिल है नही ले दे कर एक लिखने का हुनर आता है थोडा बहुत और वह भी अगर जहीन सी गाली बन जायें तो इससे अजीब बात और क्या हो सकती है।
कल शाम अपने मित्र अनुरागी जी पधारे थे उनका सत्संग हुआ दूनिया भर का निंदारस का लाभ लिया गया ठाली बैठे बिठाये देर रात अपने एक करीबी दोस्त से मतभेद बढा लिये खुब भावुक एसएमएस बाजी हुई। रात भर बैचनी रही कि क्या सही कहा क्या गलत कहा सुबह उठते ही माफी का एसएमएस रवाना किया फिर उन मित्र से क्षमा याचना के लिए एक ईमेल भेजा। अनुरागी जी भद्र पुरुष है पिछले तीन साल से मै गांव से उनके लिए आम का आचार मंगवा कर देता हूँ (एक दिन जोश मे वायदा कर दिया था कि अनुरागी जी हमारे होते हुए आप आम का आचार बाजार से खरीद कर खाये...ऐसा नही चलेगा) अनुरागी जी जैसे लोग कम ही बचे है दूनिया में उनके साथ एक अपनापन महसूस होता है और उनके आने पर कोई औपचारिक संकोच नही होता है कि उनकी मेहमाननवाजी के लिए भी कोई फिक्र नही करनी पडती है....वैसे भी मेरे घर तक वो ही दोस्त आतें है जिनसे अपनापन हो..।
अनुरागी जी से कल विरोधाभास पर चर्चा चल रही थी कि मै जो भी कहता हूँ कि मुझे फलाँ काम नही करना है अंत मे ऐसी परिस्थितियां बन जाती है कि मुझे हार कर वही काम करना पडता है ऐसा लगता है कि मेरी सार्वजनिक घोषणाओं के विरोध में ईश्वर का कोई गुप्त एजेंडा काम कर रहा है। एक बात और मैने महसूस की है मैने जो विचार,स्वप्न,परियोजना किसी मित्र से शेअर कर ली वो काम मै कभी नही कर पाता हूँ संकल्प प्रकाशित होते ही कमजोर पड जाते है। अनुरागी जी ने मुझे समझाया कि डॉ.साहब यह प्रकृति का गुप्त सन्देश है जो आप समझ नही पा रहे है....! अब मै क्या समझुँ लेकिन ऐसा कई सालों से होता आ रहा है मेरे साथ थूक कर फिर से चाटना पडता है।
आज से दस साल पहले मेरी शादी में दहेज स्वरुप जो मारुति 800 कार आयी थी वह कल 45000/- मे बिक गई मै सोच रहा था कि कम से कम पचपन हजार की तो बिक जाये क्योंकि पिछले महीने मैने 55000/- की एक नई बाईक (उधार) खरीदी थी लेकिन अर्थशास्त्र का एक नियम पढा था कि जब आपकी क्रय शक्ति कमजोर होती है तो आप अपनी चीज़े सस्ती बेचतें है और दूसरों से चीजें महंगे दामों पर खरीदते है...सो इन दिनों अपनी क्रय शक्ति कमजोर चल रही है अब दस हजार की भरपाई इधर-उधर से करनी पडेगी।
देखते ही देखते सामने लोग जवान हो रहे है समझदार हो गये है और एक हम है कि चोट पे चोट खाये जा रहे है लेकिन फिर भी गैरत नही जागती है शायद फंतासी मे जीने वालो का यही हश्र होता है वो किसी चमत्कारिक दिन की उम्मीद पर अपनी पूरी जिन्दगी टेर सकते है जैसा मै टेर रहा हूँ।
कुछ दिन के लिए एकांत,अज्ञातवास पर जाने का मन हो रहा है घर पर दिन भर चिढचिढा पडे रहने से बेहतर है एकांत में चले जाना लेकिन अभी वक्त और हालात दोनो ही खराब है इसलिए इसकी भी उम्मीद कम ही है अब सीता राम सीता राम कहिए जाहि विधि राखे राम ताहि विधि रहिए...फिलास्फी पर चलने की नौबत आ गई है।
कल एक विदेशी मित्र से मदद मांगी है कि कुछ दिन के लिए मुझे अपने देश मे बुला लें ताकि मै अलग-थलग जिन्दगी जी सकूँ उसने आश्वासन भी दिया है मेरी शाश्वत भटकन किसकी प्रतीक है यह समझ नही आ रहा है आखिर मै किस चीज़ से भाग रहा हूँ खुद से या हालात से....।
बुलेटिन समाप्त..
डॉ.अजीत

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