Sunday, November 2, 2014

त्रिशंकु

धर्म को छोड कोई दूसरी एक भी चीज ऐसी नही थी जिसे मै बदल सकता था और धर्म के बदलने से मेरी किसी समस्या का समाधान नही हो सकता था। प्रज्ञा चेतना और सम्वेदना की यात्रा पर मै पैदल चलता चलता बहुत दूर निकल आया था इस मार्ग का चयन मेरा खुद का चयन नही था बल्कि इस मार्ग मे खुद मुझे चुन लिया था। वय वर्ग जाति धर्म सबके लिहाज़ से लगभग मै निष्काषित और निर्वासित था यह एक किस्म का स्व निर्वासन था। वर्ण संकरो दलितों अति पिछ्डो अल्पसंख्यकों की स्थिति मुझसे सम्मानजनक थी क्योंकि वें अपनी पहचान के साथ संगठित थे वे लड रहे थे अपने हिस्से की लडाईयां।
नितांत संयोग के चलते जिस धर्म जाति पृष्टभूमि में जन्म हुआ उसकी रवायतों मे मेरी दिलचस्पी किशोरावस्था के शुरु होने तक रही तब तक मेरा मस्तक भी गर्व से भरा रहता कभी अपने हिन्दू होने पर और कभी अपनी जाति के गौरवशाली इतिहास पर मगर शायद अस्तित्व का नियोजन दूसरे किस्म का था उसने मेरे हिस्से वर्ग निर्वासन/बहिष्कार लिख दिया था जैसे ही समझ जैसी किसी चीज का उदभव मन मे हुआ तो पता चला कि गर्व तो केवल उस चीज़ पर किया जा सकता है जो आपने अपने श्रम से अर्जित की हो बाकि तो संयोग की भीख में मिला हो उस पर गर्व करने का कोई औचित्य नही बनता है इसलिए तभी उस मिथ्याभिमान से मुक्त हुआ मेरे लिए हिन्दू होना और अपनी इस क्षत्रिय जाति में पैदा होना ठीक एक संयोग का मामला लगने लगा।
अपने अतीत से कटकर चलना आपकी आंतरिक यात्रा के लिए सहज हो सकता है मगर बाह्य जगत मे इतनी सहजता नही मिलती है एक तरफ तो मै अपने वर्ग से कटाव की प्रक्रिया से गुजर रहा था वहीं दूसरी तरफ तमाम संवेदनशीलता के बावजूद मेरे दलित और अति पिछ्डें मित्रों के लिए मुझे उसी सदाश्यता से स्वीकार कर पाना मुश्किल था जिस वर्ग से उनका प्रतिशोध का रिश्ता रहा हो उस वर्ग से निर्वासित किसी व्यक्ति को अपने समूह का हिस्सा बनाने से पहले उनके मन मे तमाम शंकाएं थी सच तो ये है सखा भाव से वो कभी आत्मसात कर भी नही पाए मेरे सम्वेदनशील रचनाधर्मी व्यक्तित्व के बावजूद मेरा कद और मेरा अक्स उन्हें घसीटता हुआ अपने अतीत मे ले जाता जहाँ सामंती शोषण के तमाम किस्से उनके जेहन मे विचर रहे होते उस वक्त उनका मन मुझे लेकर तीन हिस्सों में बंट जाता एक मन मुझे बिना शर्त और शंकारहित स्वीकारने की वकालत करता एक मन उन्हे सावधान करता कि सामंती चरित्र के षडयंत्र कभी नही समाप्त होते है इसे जब भी मौका मिलेगा ये तुम्हें तुम्हारी औकात बता देगा और तीसरा मन एक खास किस्म के सैडेटिव प्लीज़र मे जीता उसे लगता कि अब उनकी वैचारिकी और संघर्ष के परिणाम सामने आने लगे है एक खांटी सामंती परिवार का लडका उनकी सोहबत मे आकर राहत महसूस करता है वें उसके साथ हमप्याला होते समय गर्व और अभिमान से भर जाते उस समय वंचित वर्ग का सामंती मनोविज्ञान देखा जा सकता था वस्तुत: मनुष्य का स्वाभाविक चरित्र पावर सेंटर ही विकसित करना होता है।
इन तीन किस्म के मन के बीच मै सच्चे दोस्तों के हाथ पकड उन्हें विश्वास दिलाने की कोशिस करता कि मै शोषक,उत्पीडक नही हूं चेतन स्तर पर वो इससे सहमत भी थे परंतु अर्द्धचेतन और अवचेतन के स्तर पर उनका भोगा हुआ यथार्थ मुझे समग्र रुप से कभी स्वीकार न कर पाता उस समय मेरी बडी विचित्र स्थिति हो जाती है एक तरफ मै अपना मूल खुद काटकर आया हूं वही दूसरी तरफ जो मेरा मित्र वर्ग है उसकी शंका सन्देह या ग्राह्यता मुझे स्वीकारने मे बाधा बनती जाती है मै त्रिशकुं की भांति बीच मे लटक जाता था।
अपने आसपास के आसमान को देखने पर पता चलता कि मै अकेला त्रिशकुं नही हूं यहां तो मेरे जैसे बहुत से लोग है जो अपने हिस्से का निर्वासन झेल रहे है अपने वर्ग मे उनकी दिलचस्पी और श्रद्धा नही बची है और जिन लोगो की तरफ वो उम्मीद और मानवीय दृष्टि से आए थे उनके पूर्वाग्रह और संघर्षो की आंच ने उन्हें कभी करीब नही आने दिया। मैने देखा इन त्रिशकुंओं मे कुछ ब्राहमण भी थे वो उदास होकर बताते कि उनके पूर्वजों ने चाहे जो किया हो मगर उन्होने कभी दलितों को नही सताया वो दलितों से मैत्री की अभिलाषा मे थें मगर दलित/पिछ्डे मित्रों को उनके आने से षडयंत्र और अपना आन्दोलन कमजोर पडने का भय था इसलिए उनको टांग दिया जाता था ऐसे ही आसमान में उनमे से कुछ सच्चे मुसलमान थे जिन्होनें लानत भेजी थी हिंसा पर जेहाद के बदले आंतक और इंसानों के कतले आम पर जिसके बदले मुसलमानों ने उन्हे काफिर कहा मगर हिन्दूओं के लिए वो कभी सहज न्ही रहे उन्हें लगता रहा कि ये मुसलमान पहले है इंसान बाद में।
खांचों मे बंटकर रहना इंसान की नियति है अपने लिए सुरक्षा तलाशना मनुष्य की अस्तित्व को बचाने की अपनी सबसे बडी युक्ति विचारधारा जिस ईमानदारी की मांग करती है वो ईमानदारी एक किस्म का पूर्वाग्रह साथ बांटती है जिसके चलते मेरे जैसे बहुत से लोग अपने अपने हिस्से का निर्वासन भोगते हुए ताउम्र यही बताते रहते है कि वो वैसे कतई नही है जैसे उनके पूर्वज़ रहे होंगे अपने बिना किसी दोष वो जीते है अपने हिस्से का अपराधबोध बार बार यह विश्वास दिलाते है कि मै अपने लोगो अपनी परम्पराओं के खिलाफ आपके नही मगर अविश्वास और भोगे हुए यथार्थ की चासनी इतनी गाढी होती है उसमे अपना संघर्ष हमेशा गाढा और मीठा दिखता है दूसरे व्यक्ति का उद्देश्यपूर्ण ! मनुष्य की समझ पर यह एक ऐसा प्रश्नचिंह है जो हाल फिलहाल तो मिटता नही दिखता है बाकि उम्मीद पर दुनिया कायम है और मै भी इसी उम्मीद पर कायम हूं शायद कल इंसान को उसके मौलिक वजूद से पहचाना जाए न कि उसकी धर्म,जाति,आर्थिक-सामाजिक पृष्टभूमि से उसकी सीमाएं निर्धारित की जाएं।


‘एक त्रिशकुं की आपबीती

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