Sunday, November 24, 2013

डायरी नोटस


डायरी नोट्स

(जो कागज़ की बजाए मन पर ही लिखे रह गए...)

यह कोई संघर्ष कथा या पटकथा जैसी नही है न ही यह वंचित भाव से उपजे असंतोष की मानस गाथा है बल्कि अपने आप में यह एक विचित्र किस्म का प्रलाप है जो सम्पन्नता की दहलीज़ से रिसता हुआ विडम्बनाओं के गलियारें तक आ पहूंचा है।कथ्य के लिहाज़ से यह अपवाद का गल्प है जिसमे मेरी असफलतों के शिल्प से  सम्भावनाओं के षडयंत्रों और विकल्पों के रोजगार की कराह  छिपी हुई है। अभी तक यही स्थापित मान्यता रही है कि अभाव व्यक्ति के लिए संघर्ष की इबारत लिखता है लेकिन क्या कभी आपने सोचा कि कई बार सम्पन्नता भी आपके वजूद के खिलाफ खडी हो सकती है जहाँ आपको हमेशा दोहरी लडाई लडने के लिए तैयार रहना पडता हो एक अपने वर्ग के अन्दर और दूसरी बाहर की दूनिया से जिसकी नजरों में आपके लिए कुछ भी अपरिहार्य न रहा हो। अपनी स्मृतिबोध के साथ ऐसी लडाई लडता गिरता सम्भलता और लडखडाता मै यहाँ तक आ पहूंचा हूँ। इस कहानी में मेरी उदासी के किस्से है इस कहानी में एक बिखरे वजूद के बनने बिगडने की अनकही दास्तान है और शायद मेरे ऐसे होने की वजह भी जिस पर कम ही लोगो को यकीन आएगा।
अपने वय से आगे जिन्दगी जीने का चयन कभी किसी का नही होता है वक्त के हसीन मजाक के लिहाज़ से जब आपके पैरो मे जिम्मेदारी की जंजीर पडी होती है तब आपकी परिधि इतनी सीमित हो जाती है कि आप अपने ही जीवनवृत्त की त्रिज्या तक नही नाप पाते है ऐसे में किस्सागो दोस्तों की महफिल मे आप केवल श्रोता भर हो सकते है या फिर आपकी उपयोगिता सहमति तक ही सिमट आती है। कई बार बडी शिद्दत से सोचता हूँ कि ये अतिसम्वेदनशीलता या भावुकता कहाँ से उपजती है खुद की ही पडताल करने पर पाता हूँ इसकी जड दरअसल भावनात्मक अपवंचन ही है जब आप त्रासदी के नायक बन अपने आसपास बेहद कमजोर लोगो को पाते है जिनके पास खोखली सांत्वना भी नही होती है दरअसल वो परिवेशीय कुंठा और अपनी निजि असफलता से उपजी खीज़ मिटाने के लिए आपके मन के कोमल पक्ष की परवाह किए बिना चोट पर चोट किए जाते है और आप अपनी आसपास के करीबी लोगो की ऐसी खुदमुख्तयारी का शिकवा जीवनपर्यंत किसी से नही कर पाते है यह एक ऐसा बोझ है जिसको अपने साथ जीने-मरने के क्रम में हर हाल में ढोना पडता है।
यह एक ऐसी मनोदशा की मूल ग्रंथि के अकुंरित होने की कहानी है जिसमें शाम अक्सर बोझिल हो जाया करती है जहाँ मन से उत्सवधर्मिता का स्थाई विलोपन हो जाता है जहाँ मन और चेतना की यात्रा अवसाद और समझ के बीच उलझ कर रह जाती है जहाँ आप कई बार सामान्य से भी कई गुना अधिक सामान्य तथा कई बार कई गुना असामान्य प्रदर्शन करते पायें जातें हैं। मन के निर्वात में घुटते मानवीय सम्बंधो के धुंधले रेखाचित्र किस हद तक आपको विचलित कर सकते है इसका अनुमान भी लगाना कठिन काम है। अन्यथा ली जाने वाली बातों के प्रति समझ का प्रकटीकरण और बेहद सामान्य चुस्त जुमलेबाजी में भी गहरा व्यंग्य सूंघने की घ्राण शक्ति को कभी वरदान तो कभी अभिशाप समझना आपके लिए किसी गहरी पहेली से कम नही है।
मन के समानांतर कई स्तरों पर जिन्दगी को युक्तियों के सहारे जीने की कला विकसित करना सहज़ चुनाव का मसला नही है बल्कि  अपने अस्तित्व की मूल प्रकृति और बाह्य जगत की अपेक्षाओं के मध्य समन्वय में खर्च होती मानसिक ऊर्जा के क्षरण का क्षोभ वास्तव में कई बार ब्राह्मांड की अनंत गहराई से बडा प्रतीत होने लगता है।
यह बेहोशी की हालत में बडबडाने जैसा है जिसमे आप मन के आंतरिक बंधनों से मुक्त हो लोक में अपने मानसिक द्वन्द आरोपित करना चाहते है ताकि आप आंतरिक शांति महसूस कर सके लेकिन शांति की कीमत सकार और नकार की लौकिक परिभाषाओं से परे चुकाने की नियति एक खास किस्म की जिद आपके अन्दर पैदा कर देती है जहाँ अपनेपन को तलाशती आंखे सलाह से इसलिए बचने लगती है क्योंकि उसमे नसीहत की बू आती है।
यात्रा अकेले तय करनी है यह प्रज्ञा हमेशा कहती है लेकिन अपेक्षाओं और भावनाओं के वृहदजाल मे उलझा मन हमेशा साथ चाहता है और जिस साथ के आभासी होने की पूरी सम्भावना है उसी को साथ बनाये रखने का लोभ आपको तरह तरह पेश होने के लिए बाध्य करता है अंतोत्गत्वा अकेलेपन की सामाजिक नियति को स्वीकार करने के मानसिक बल को सुरक्षित करता हुआ उस दिशा में आगे निकल जाता है जहाँ कभी कुछ हमसफर बन रहबर साथ चले होते है वह पीछे मुडकर बार बार देखता है लेकिन दूरतलक भी कोई छाया नजर नही आती है लेकिन यात्रा नही रुकती है और हिज्र की ऐसी लम्बी यात्रा मै करके अब यहाँ आ गया हूँ थोडा सुस्ता रहा हूँ खुद को टटोल रहा हूँ ताकि मन की बैलेंसशीट में अटके दोस्तों को अपने दृष्टिबंधन से मुक्त कर आगे की यात्रा की तैयारी कर सकूँ लेकिन बेहद मुश्किल काम है बेहद ही मुश्किल....।

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