पंचकूला (हरियाणा) के एक अभिजात्य किस्म के अस्पताल की
सुविधासम्पन्नता और बेहतरीन वास्तु भी मन को शांति नही दे पा रही थी दीवारों में
म्यूट टंगे लम्बे-चौडे एलसीडी उतने ही बोझिल और नीरस थे जितने उस पर चलते क्रिकेट
मैच या न्यूज़। अस्पताल में प्रार्थना ही एक मात्र सम्बल थी जो आस्तिकता/नास्तिकता
से परे आपको इतनी दिलासा देती है कि आपके साथ कुछ बुरा नही होगा और इस दुखद
घटनाक्रम का अंत सुखद होगा।
अस्पताल का मनोविज्ञान बेहद अजीब और दिलचस्प किस्म का है
उदासी और चिंताओं मे सने चेहरे देखकर खुद पर से यकीन उठने लगता है डॉ की एक
पॉजिटिव बात जहाँ राहत देती है वहीं एक मेडिकल जांच की छोटी से बढी हुई ईकाई भी
निर्मूल आशंकाओं का पहाड खडा कर देती है। महंगे अस्पतालों में मौटे तौर पर दो
किस्म के रोगी/परिचारक दिखते है एक हमारे जैसे जो छोटे मेडिकल सेंटर से रेफर होकर
आएं है जिनके लिए यह अस्पताल किसी देवालय से कम नही है दूसरे समाज़ के ‘समझदार’ तबके
के लोग समझदार इसलिए क्योंकि उन्होने पहले ही अपना कैशलैस मेडिक्लेम बीमा करवाया
होता है इसलिए उनके लिए मुद्रा प्रबंधन कोई मुद्दा नही होता है वह आश्वस्त हुए
अपने मरीज़ के आरोग्य के लिए लगे रहते है।
हमारे जैसे गांव-देहात किसान पृष्टभूमि के लोगो के लिए
अकास्मिक बीमारी के लिए कोई बजटीय प्रावधान नही होता है और आकस्मिक बीमारी हमारे
लिए एक बडे आर्थिक सकंट की भी द्योतक होती है। हमारे जैसे लोगो का दिमाग दोहरे रुप
से प्रताडित रहता है एक तो अपने मरीज़ के स्वास्थ्य को लेकर और दूसरा ज्यों-ज्यों
से जेब से कैश कम होता है हमारी चिताएं मुद्रा प्रबंधन पर भी केन्द्रित होती चली
जाती है और समानांतर रुप से दोनो मोर्चो पर लडते हुए हम चाहते है जितनी जल्दी हो
सके हमे इस त्रासदी से मुक्ति मिले।
इस बार की दादी जी की बीमारी के बाद पहली बार अहसास हुआ कि
हमारे लिए मेडिक्लेम पॉलिसी का क्या महत्व हो सकता है यदि यह पॉलिसी है तो फिर हम
अपने मरीज़ के सम्पूर्ण आरोग्य के लिए कम से कम आर्थिक रुप से प्रभावित हुए बिना
उसको बेहतर मेडिकल सुविधाएं उपलब्ध करा सकते है। यह बात भी मुझे पहली बार ही पता
चली कि सुपर स्पेशिलेटी अस्पताल मेडिक्लेम पॉलिसी धारकों को ज्यादा पसन्द करते है
क्योंकि इससे उनकी अच्छी खासी कमाई हो जाती है।
अस्पताल आखिर
अस्पताल ही है भले ही वह फाईव स्टार होटल की माफिक दिखता हो उसकी भव्यता आपको
सुविधा के लिहाज़ से क्षणिक आश्वस्त कर सकती है लेकिन दिल को असली तसल्ली डॉ की
पॉजिटिव कमेंट के बाद ही मिल पाती है। पिछले एक सप्ताह जो तनाव भोगा उसकी चर्चा
नही कर रहा हूँ लेकिन दिन भर की अस्पताल की भागदौड और रात में मुझे दादी जी के
अटेंडेंट के रुप में उनके साथ रुकने की स्थिति नें बेहद थका दिया था एक अरसे के
बाद मैने शारीरिक और मानसिक थकान से उपजी नींद के दबाव को महसूस किया पहली बार
खुली आंखो सोने की कोशिस की भावनात्मक रुप से मेरे लिए यह बेहद मुश्किल दौर था
क्योंकि जिस महिला नें आपका मल-मूत्र साफ किया हो यदि आपको वही काम उसका करना पडे
तो एक पूरा कालचक्र आंखो के सामने घूम जाता है जिसका होना भर आपका मनोबल बढायें
रखता हो उसको आपको समझाना पडे कि सब ठीक हो जाएगा मै समझता सबसे मुश्किल काम है।
मेरी तमाम मनोविज्ञान की पढाई तब-तब मुझे बौनी लगने लगती थी जब-जब मेरी दादी जी
घोषणा करने लगती कि अब चलने का समय आ गया है। मृत्यु शाश्वत सत्य है सबको आनी है
इसको क्षणिक स्थगित किया जा सकता है लेकिन स्थाई रुप से टाला नही जा सकता है लेकिन
इसके बावजूद भी अपने प्रियजन को खोने का भय वास्तव मे इतना बडा होता है कि हम नही
चाहते कि हम इसके स्वीकार्यता भाव के साथ जीने का अभ्यास विकसित कर सकें शायद यही
जीवन का वह अनुराग है या आसक्ति है जिसे मोह-माया बंधन कहा गया है।
बहरहाल, अब जब सब कुछ सही होने की दिशा मे आगे बढ रहा
है दादी जी घर पर आ गई है लेकिन फिर भी मन मे पिछले एक सप्ताह का चलचित्र लम्बे
समय तक खुद ब खुद रिवाईंड होकर चलता रहेगा।
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