Thursday, December 13, 2012

ब्रेक



जिन्दगी की गाडी लम्बे समय से ब्रेक मारते-मारते ही चल रही है और इन्ही ब्रेक की श्रृंखला में मेरी तदर्थ से आमंत्रित व्याख्याता के रुप मे तब्दील हुई नौकरी में भी इस एक महीने का ब्रेक मिला है। विश्वविद्यालय प्रशासन ने तीन महीने काम करने की अनुमति दी थी जो 30 नवम्बर को समाप्त हो गयी सो 1 दिसम्बर से बंदा निबट निठल्ला हो गया है।
एक तारीख से डिपार्टमेंट जाना बंद कर दिया है अब अल्टरनेट डे पर नहाता हूँ सारा दिन बिस्तर पर कम्बल में पडा रहता हूँ कमोबेश ज्यादा वक्त फेसबुक पर ही कटता है कभी-कभार दिल करता है तो कुछ पढ भी लेता हूँ।
ब्रेक मिलने का आर्थिक नुकसान वाला एक पहलू है लेकिन इसके अलावा मुझे यह भी नुकसान महसूस होता है वह है कि आपकी एक बंधी-बंधाई जीवनशैली बाधित हो जाती है फिर बहुत सी चीज़ें जो आपके रोजमर्रा की आदत का हिस्सा होती है वह छूट जाती है।
इस महीने मुझे घर पर रहने का एकमात्र लाभ यह मिला है कि मेरे कुछ काम पेंडिंग पडे हुए थे वह जरुर पूरे हो जायेंगे।
फेसबुक काफी समय और ऊर्जा ले लेती है इसके अलावा कुछ करने का मन ही नही होता है मुझे ज्ञात है कि यह उचित नही है लेकिन पहले भी बहुत सी अनुचित किस्म की जीवनशैली मै ऐसे ही जीता आया हूँ।
इस महीने के आखिरी हफ्ते में दिल्ली-जयपुर-अजमेर की यात्रा प्रस्तावित है हालांकि सर्दी बेहद ज्यादा हो रही है लेकिन फिर भी जाने की यथासम्भव कोशिस रहेगी यदि कोई भौतिक बाधा न रही तो जरुर यह यात्रा की जायेगी। दिल्ली में लगभग एक साल बाद कुछ सजातीय बंधुओं से मिलना होगा जिनसे परिचय फेसबुक के माध्यम से ही हुआ है हालांकि मेरे पहले मेल-मिलाप के अनुभव ज्यादा अच्छे किस्म के नही रहे है लेकिन फिर भी इस बार फिर से कुछ नये लोगों से मिलने का मन तो है।
बहरहाल, इस बेतरतीब सी जिन्दगी में फिलवक्त का एक भावी रोमांच यही बचा हुआ है कि जनवरी मे हमारे विश्वविद्यालय मे स्थाई नियुक्ति के लिए साक्षात्कार हो रहे हैं सो इस बार क्या तो मै स्थाई हो जाउंगा या फिर स्थाई रुप से विश्वविद्यालय से सेवाओं से मुक्त। पत्नि कुछ ज्यादा चिंतित है हालांकि मै भी सचेत हूँ लेकिन फिर भी पत्नि को लगता है कि यदि यहाँ नियुक्ति नही हुई तो फिर 5 साल से जो तदर्थ साधना चल रही थी अध्यापन की वह भी व्यर्थ चली जायेगी जो सच भी है यदि इस बार यहाँ अपने विश्वविदयालय में कुछ नही हुआ तो फिर यहाँ सम्भावना शेष भी नही बचेगी।
मेरे लिए मनोविज्ञान के अध्यापन की दिशा में स्थाई होने की यह अंतिम अवसर होगा क्योंकि मै इसके बाद फिर मनोविज्ञान मे मास्टरी के लिए प्रयास भी नही करुंगा फिर कहाँ करुंगा (मास कॉम अथवा हिन्दी) कुछ कह नही सकता हूँ।
आने वाला नया साल कई अर्थों में नया होगा यह जीवन की दशा और दिशा तय कर देगा ऐसा मेरा पूर्वानुमान है वह भी जनवरी के पहले पखवाडे तक ही इसके बाद क्या होगा वह न मै जानता हूँ और न कोई और।
मन निर्मूल आंशकाओं से भी भरा रहता है जब आपके अतीत के अनुभव कडवे किस्म के हो तो फिर कुछ सहज़ रुप मे मिल जायेगा इसकी आशा दिल नही कर पाता है इसलिए मुझे भी लग रहा है कि संघर्ष बडा है इस बार लेकिन फिर भी मै भयभीत नही हूँ बल्कि एक रोमांच भी है दिल मे कि जो भी होगा जीवन का एक स्थाई फैसला तो होगा।
जनवरी में जो भी होगा वो देखा जायेगा और फिर उसके बाद ही जीवन को किस दिशा मे ले जाना है वह देखा जायेगा सो फिलहाल यही सब चल रहा है।

शेष फिर
डॉ.अजीत 

Thursday, October 25, 2012

विरोधाभास


जीवन विरोधाभासों में जीना अब आदत बनता जा रहा है। कुछ अजीब से इत्तेफाक आपके साथ शेयर कर रहा हूँ जो अपने आप मे विरोधी प्रतीत होते है लेकिन अपने जेहन मे सह अस्तित्व की अवधारणा के साथ बने हुए है मसलन:
  1. मै पीएचडी मनोविज्ञान मे हूँ और पिछले छ: सालों से मनोविज्ञान का अध्यापन कर रहा हूँ लेकिन अभी तक खुद को बतौर शिक्षक स्वीकार नही कर पाया आज भी दिलचस्पी के लिहाज़ से कविता,साहित्य,पत्रकारिता दिल औ’ जेहन के सबसे करीब है...मनोविज्ञान के उपचारात्मक पक्ष मे गहरी दिलचस्पी है आज भी लगता है कि यदि अध्यापक ही बनना है तो साहित्य/पत्रकारिता क्यों न पढाया जाएं मनोविज्ञान जीने और समझने का विज्ञान/कला है इसका टीचर बननें मे दिल नही लगता है।
  2. लगभग नास्तिक हूँ लेकिन ज्योतिष,तंत्र में गहरी अभिरुचि है और ज्योतिष को विज्ञान सम्मत भी मानता हूँ स्वांत सुखाए भाव से मित्र/परिचितों की कुंडलियाँ भी बांचता हूँ लेकिन गैर पेशेवर ढंग से नही, एक मित्र बहुत दिन से अपने पुत्र की कुंडली बनाने के लिए जोर दे रहे है लेकिन जब तक दिल नही करेगा मै देखूंगा भी नही..।
  3. गजल पढना और सुनना अपना ऑल टाईम फेवरेट काम है लेकिन इसके साथ-साथ मुझे कभी कभी पंजाबी पॉप और भावपूर्ण नये फिल्मी गीत सुनना भी अच्छा लगता है सबसे बडा विरोधाभास तो यह है कि इन सबके के साथ मुझे अपने दोआब क्षेत्र के लोकगीत रागणी से बेहद अनुराग है, है न अजीब सा इत्तेफाक की एक तरफ आप अदब की दूनिया मे गजल सुनते है दूसरी तरफ ठेठ देहाती लोकगीत।
  4. पेशे से विश्वविद्यालय का अध्यापक हूँ लेकिन सभी दोस्त पत्रकार/कवि/लेखक है अपने विषय के अकादमिक लोगो से मुझे एक खास किस्म की चिढ है।
  5. शहर के दोस्तों/परिचितों से दिल भर गया है आज भी गांव का एक दोस्त अपने दिल के बेहद करीब है।
  6. लोग-बाग संबधो का विस्तार चाहते है और मै खुद मे सिमटना चाहता हूँ।

और भी बहुत से विरोधाभास है जिनका अगर जिक्र करुंगा तो पोस्ट बहुत लम्बी हो जायेगी...
शेष फिर

डॉ.अजीत

Monday, September 17, 2012

चटखारा



पिछले कुछ दिनों से फिर से ब्लॉग पर नियमित लेखन नही हो पा रहा है जिसकी दो वजह है एक तो इन दिनों मौसम बदलने लगा है और दिन भर प्रमाद घेरे रखता है सर्दी आने से पहले के दिन अजीब से बोझल हो जाया करते है खासकर शाम..दूसरी वजह यह है पहले मै मुक्त भाव से डायरी लेखन किया करता था मतलब मेरे जीवन की घटनाओं और आसपास के पात्रों के उल्लेख करने मे मुझे कोई संकोच नही हुआ करता था क्योंकि डायरी लेखन विधा की यह खूबसूरती भी रही है इसमे आपको कम से कम इतना स्पेस तो मिल ही जाता है कि आप बिना लाग लपेट के अपने दिल की बातें लिख सकते है लेकिन कुछ प्रकरण/प्रसंग और व्यवहार इस तरफ इशारा कर रहे है कई बारे मेरे लिखे से किसी की निजता का हनन हो सकता है अथवा कोई इसका कोई दुरुपयोग कर सकता है इसलिए अब लिखने से पहले दिमाग लगाना पडता है पहले जैसा स्वाभाविक फ्लो नही रहा है कभी किसी दोस्त, परिचित का जिक्र करता हूँ तो पहले यह डर लगने लगता है कि इसका इम्पेक्ट गलत तो नही हो जायेगा... बस इन्ही दो वजह से लिखने का मन नही बन पाता है फिर भी जब भी लहू में हरारत जोर मारती तभी इस डायरी के पन्नों पर अपने तजरबे की कतरनें दर्ज़ करने चला ही आता हूँ।
इस पोस्ट का शीर्षक चटखारा भी इसलिए रखा है कि मेरे लिखने से जहाँ मेरा विरेचन हो जाता है वही कुछ लोगो को सामाजिक चटखारे का भी विषय मिल जाता है मेरे एक ऑनलाईन परिचित है परिचित इसलिए कह रहा हूँ क्योंकि मित्र वो कभी बन ही नही पायें वो भोपाल मे रहते है पहले एक कालेज़ में मास्टर हुआ करते थे अब मास्टरी छोड कर पत्रकारिता कर रहें है एक स्थानीय अखबार मे विशेष संवाददाता है नाम है सुरेश पाठक। पाठक जी मेरे लेखन के कभी कायल हुआ करते थे और मुझे अक्सर फोन पर या ईमेल से मेरे इस ब्लॉग की पोस्ट की तारीफ किया करते थे खासकर उन्हे मेरा बेबाकपन बेहद पसंद था उन्ही के माध्यम से भोपाल के एक दूसरे साथी पत्रकार से परिचय हुआ उनसे कभी कभार फोन पर बतिया लेता हूँ वह जो पाठक जी के मित्र है वो मुझसे भी प्रभावित रहे है इसलिए अक्सर अपनी बाईलाईन खबरों की पीडीएफ कॉपी भेज देते है कि सर, खबर की समीक्षा करके बताना कि खबर कैसी छपी है इन पत्रकार साथी का जितनी भी बार फोन आता है वो अपने महिमामंडन मे लगे रहते है मै भी उनकी हाँ मे हाँ मिलता रहता हूँ क्योंकि अब मै समझ चूका हूँ ये महोदय आत्ममुग्ध और आत्मप्रशंसाप्रिय प्राणी है।
आजकल इन दोनो पत्रकार बंधुओं के लिए मै चटखारे का विषय बना हुआ हूँ मै जैसे ही अपने इस ब्लॉग पर कुछ लिखता हूँ तुरंत दोनो में खुसर-फुसर होनी शुरु हो जाती है कि ये डॉ.अजीत के जिन्दगी मे कैसे-कैसे किस्से हो रहे है फिर उनमे से एक मुझे फोन करके सहानूभूति की अतिरिक्त खुराक देता है कभी कहता है ये वक्त है कट जायेगा आप तो साईकोलॉजी के आदमी है सो अच्छे-बूरे वक्त में आपको तो एक समान रहना चाहिए आदि-आदि। पाठक जी और दूसरे पत्रकार मित्र के बीच मेरे सन्दर्भ में हालांकि बातें बेहद गोपनीय किस्म की होती है लेकिन फिर जैसे-तैसे अलग-अलग सन्दर्भों और सूत्रों के जरिए मुझ तक वो खबरें पहूंच ही जाती है कि पाठक जी मेरे बारें मे क्या कह रहें थे या दूसरे पत्रकार मित्र क्या कह रहें थे कोई और भी न बताएं तो पाठक जी कभी कभी पव्वा चढा कर खुद ही बक देते है।
मै हरिद्वार मे इतनी दूर हूँ कभी इन दोनो से मिला भी नही हूँ लेकिन फिर इनके लिए सामाजिक चटखारे का विषय बना हुआ हूँ इधर मै ब्लॉग पर कुछ पोस्ट करुँगा उधर पाठक जी का फोन दूसरे पत्रकार मित्र के पास पहूंच जायेगा वे उसको तुरंत अपडेट कर देंगे कि देखा आज डॉ.साहब ने क्या लिखा ब्लॉग पर...? फिर दोनो मिलकर मेरे प्रसंगो का पोस्टमार्टम करेंगे फिर कोई एक मुझे फोन करेगा या एसएमएस करेगा इन दोनों बुद्धिजीवियों को मै संसार का सबसे दुखी प्राणी नजर आता हूँ और सलाह देने में तो पाठक जी का जवाब नही है एक बार बोले डॉ.साहब मैने भी हिन्दी साहित्य मे पीएचडी किया हुआ है इसलिए आपकी संवेदना से मै अच्छी तरह से परिचित हूँ। पाठक जी पहले जब अपने बारे मे ब्लॉग पर कुछ पढते थे तो उन्हे फीलगुड होता है लेकिन इन दिनों इसका उलट हो रहा है उनको भी यह लगने लगा है कि मै लोगो की निजता का सम्मान नही कर रहा हूँ...पहले वो मेरे बिना लाग लपेट के लेखन की शैली के मुक्तकंठ से प्रशंसक थे इन दिनों मेरे किस्सों को समालोचना और निंदा की चासनी मे लपेट कर सामजिक चटखारे का लुत्फ लेते पाये जा रहे है और दूसरे पत्रकार साथी भी उनके अच्छे श्रोता बने हुए है कल उन पत्रकार साथी का फोन आया था कि अरे! सर आपको एक बैंक क्लर्क ने बेवकूफ कह दिया आपकी कद काठी के हिसाब से तो ऐसा नही होना चाहिए था और आपको उस स्कूल के गार्ड को तो सबक सिखाना ही चाहिए था मैने कहा नही मै उस लडने की मनस्थिति मे नही था बाद मै उन्होने पाठक जी का जिक्र किया किया वो भी आपकी पोस्ट पढकर मज़ा ले रहे थे...मैने कहा लेने दो आखिर किसी को तो मज़ा आ रहा है...।
खैर! यह सारा किस्सा यहाँ बेतरतीब ढंग से यहाँ लिखने का एक मात्र यही मकसद है लोग भी कैसे कैसे आंखे के सामने ही बदल जाते है ये देखकर मुझे ताज्जुब होता है पहले दुख होता था अब दया आती है ऐसे छ्द्म लोगो पर... मै कम से कम जैसा हूँ वैसा लिख तो देता हूँ लेकिन ये पाठक जी जैसे लोग तो दिन भर कितने आवरणों मे जीते है उन्हें खुद नही पता होता है मेरा उद्देश्य किसी का चरित्रचित्रण करने का नही है लेकिन दया आती है ऐसे लोगो पर जो खुद को पत्रकार या साहित्यकार कहते है लेकिन उनके अन्दर इतनी संवेदना नही होती है किसी मुक्त शैली के लेखन को बिना व्यक्तिगत सन्दर्भ जोडे साहित्यिक दस्तावेज़ के रुप में ग्रहण करके उसका आस्वादन कर सकें...।
जीसस क्राईस्ट की तरह मै तो यही कहना चाहूंगा कि ईश्वर इन्हे माफ करें और सदबुद्धि ताकि अपनी रचनात्मक ऊर्जा का प्रयोग सामाजिक चटखारे और निंदारस में करने की बजाएं अपने जीवन को सहज़ और निरापद बनाएं रखने मे लगाएं वैसे ही आवरणयुक्त जिन्दगी जीते जीते इनका असली चेहरा क्या है उसका पता नही चल पाता है बेहतर हो कि मेरी त्रासदी में अपना सामाजिक चटखारा तलाशने की बजाए अपनी रचनात्मक ऊर्जा का प्रयोग अपने जीवन की बेहतरी के लिए करें....मै तो भईया पहले भी ऐसा ही था आगे भी ऐसा ही रहूंगा...।
गुस्ताखी माफ हो...आज अंतिम बार नाम सहित पोस्ट लिख रहा हूँ आगे से भाषाई कूटनीति के तहत पोस्ट लिखने की कोशिस करुंगा ताकि सांप भी मर जाये और लाठी भी न टूटे...यही आप भी चाहते है...मै समझता हूँ कि आप सब बातें ठीक से समझ गये होंगे जो मै समझाना चाह रहा हूँ...क्यों पाठक जी...?

शेष फिर
डॉ.अजीत

Saturday, September 8, 2012

तीस बरस गज़ल के रास्ते से.....


खुमारी चढ के उतर गयी
जिन्दगी यूँ ही गुजर गयी

कभी सोते-सोते कभी जागते
ख्वाबों के पीछे यूँ ही भागते

अपनी तो सारी उम्र गयी
खुमारी चढ के उतर गयी

रंगीन बहारो की ख्वाहिश रही
हाथ मगर कुछ आया नही

कहने को अपने थे साथी कई
साथ किसी ने निभाया नही

कोई भी हमसफर नही
खो गई हर डगर कही

लोगो को अक्सर देखा है
घर के लिए रोते हुए

हम तो मगर बेघर ही रहे
घरवालों के होते हुए

आया अपना नज़र नही
अपनी जहाँ तक नज़र गई

पहले तो हम सुन लेते थे
शोर मे भी शहनाईयाँ

अब तो हमको लगती है
भीड मे भी तन्हाईयाँ

जीने की हसरत किधर गई
दिल की कली बिखर गई

(फिल्म-उम्र की एक गज़ल जगजीत सिंह को याद करते हुए)


तीस बरस



कल तीस बरस का हो जाउंगा। हर साल 9 सितम्बर को मेरा जन्मदिन आता है वैसे तो मैने अपना जन्मदिन कभी मनाया नही है लेकिन इस बार हरिद्वार मे मुझे एक रहते हुए मुझे एक दशक पूरा हो गया है साथ ही मै 30 साल का भी हो गया हूँ इसलिए थोडा सा मन मे मानसिक कौतुहल अवश्य है। कल अपने एक मित्र सुशील उपाध्याय जी के साथ से मिलने का कार्यक्रम है देखते है कैसे मिलकर गम गलत किया जाता है।
सिंहावलोकन करने जैसा कुछ जीवन है नही बस कभी मै अपने हिसाब से जीता रहा और कभी जिन्दगी अपने हिसाब से मुझे जीने के लिए बाध्य करती रही बस इस ज्वार भाटे मे वक्त निकल गया...। क्या खोया-क्या पाया टाईप का विश्लेषण करने बैठूंगा तो काफी जख्म हरे हो जायेंगे जो खासकर दोस्ती के नाम पर मैने खाये है बस इतना कहूंगा कि न मुहब्बत न दोस्ती के लिए वक्त रुकता नही किसी के लिए...।
कल और परसो (बीते हुए) दो अप्रत्याशित घटनाएं हुई अप्रत्याशित इसलिए जिसकी मुझे आदत नही है अमूमन दैत्याकार शरीर (6 फीट 2 इंच) का होने की वजह से कभी कोई ऐसे ही फालतू ही उलझने की जुर्रत नही करता है हालांकि मै स्वभाव से लडाका किस्म का नही हूँ लेकिन ये प्रीवाईलेज़ मिलता रहा है तो मै लेता रहा हूँ।
पहली घटना यह हुई कि मै परसो बडे बेटे की स्कूल फीस जमा करवाने उसको स्कूल गया था जिस तरफ पार्किंग थी वहाँ काफी भीड भी थी और धूप भी हो रही थी सो मैने सोचा कि स्कूल के मेन गेट के पास ही एक पेड है उसकी छाया मे बाईक पार्क कर दूँ  सो मै जैसे ही बाईक पार्क करने लगा गेट पर बैठे गार्ड ने प्रतिरोध जताया मैने उसको समझाया कि बस 5 मिनट का काम है मुझे केवल फीस जमा करवानी है जल्दी ही वापिस आ जाउंगा लेकिन वो बडबडाता रहा जब मैने थोडा देहाती अन्दाज़ मे कहा कि भाई क्या आफत आ जायेगी तो वो बिगड गया और तू तडाक पर आ गया एक बार मुझे गुस्सा आया लेकिन फिर भी मै बात टाल गया लेकिन वो बडबडाता रहा जब अन्दर एंट्री करते समय मैने उससे उसका नाम पूछा जोकि उसकी वर्दी पर नही लिखा था तो उसे लगा कि शायद मै उसकी शिकायत करुंगा जो मै करता ही...वो बोला अरे...नाम मे क्या रखा क्या करेगा नाम पूछ कर....! उसने मेरे साथ अभद्रता की लेकिन फिर भी मै क्षमाशील भाव से फीस जमा करवाने चला गया वापिसी मे मेरा मन भी हुआ कि स्कूल के मैनेजर ( जो मेरे अच्छे परिचित है) से उसकी शिकायत कर दूँ बल्कि उसको वही बुला कर जलील करुँ लेकिन फिर पता नही क्या सोच कर कान दबा कर चला आया सोचा कि अभी वक्त सही नही चल रहा है इसलिए अपमान सहन कर लिया।
अब दूसरा किस्सा सुनिए अगले दिन मुझे बैंक से ड्राफ्ट बनवाना था सो मै निकट की एसबीआई की ब्रांच मे गया वहाँ पता चला कि इस शाखा का प्रिंटर खराब है इसलिए मैन ब्रांच जाना पडेगा  फिर गर्मी मे वहाँ से बाईक पर सवार हो कर मेन ब्रांच पहूंचा साहब...वहाँ कैश काउंटर पर काफी लम्बी लाईन थी लगभग 1 घटें मे मेरा नम्बर आया हालांकि जो एकाउन्टेंट रुपये जमा कर रहा था उसका व्यवहार बेहद पेशवर था इसलिए थकान मिट गई उसने आत्मीयता से मेरे दोनो ड्राफ्ट फार्म स्वीकार किए और जल्दी ही मुझे ड्राफ्ट छापने के लिए दो फार्म दे दिये और बोला वहाँ लास्ट मे जो मैडम बैठी उससे ड्राफ्ट छपवा लो....अब सीन यहाँ से बिगडता है मैने मैडम को फार्म दिए और अनुरोध किया कि इनके ड्राफ्ट छाप दें उसने अनमने मन से मुझसे फार्म लिए, मुझे याद है वह एक पतली सी विवाहित स्त्री थी शक्ल से लग रहा था कि उसका मूड खराब है फिर बोली आप बैठ जाओ जब जरुरत होगी वह बुला लेगी लेकिन मै काउंटर के पास ही खडा रहा क्योंकि उसके पास मेरे अलावा कोई काम नही था और उसके काउंटर पर और कोई कस्टमर था भी नही बस एक वजह यह हो सकती है कि उसे मेरी शक्ल पसन्द न आयी हो और वो मुझे सामने न देखना चाह रही हो..। एक बार फिर से उसने वही कहा कि आप बैठ जाओ...मैने कहा कि नही मै ठीक हूँ आप कर लीजिए अपना काम जल्दी करने के लिए हालांकि  उस पर कोई दवाब नही बनाया लेकिन इतने मे वो मोहतरमा अपना आपा खो बैठी...बोली... “कहीं भी खडे रहो बेवकूफ आदमी मुझे क्या फर्क पडता है” मैने उसका तंज सुना और सुनकर बडी तेजी से गुस्सा भी आया लेकिन फिर भी गुस्सा पी भी गया मैने सोचा इसको क्या बताउँ ये आदमी बेवकूफ तो है लेकिन तुझ बीए पास एसएससी/पीओ क्लीअर बैंक क्लर्क से कम ही बेवकूफ है तेरे सामने जो इंसान खडा है वो हर साल तेरे जैसे बैंक क्लर्क दर्जनो की संख्या में पैदा करके बाज़ार मे उतार देता है और खुद भी 3 विषयों मे पीजी, पीएचडी है...। बाद मे मैने उसको भी इग्नोर कर दिया हालांकि जब मै ब्रांच मैनेजर के पास ड्राफ्ट साईन करवाने गया तब उसने  पूछा कि आप क्या करते है और जब उसको मैने यह बताया कि मै विश्वविद्यालय मे टीचर हूँ तो उसने काफी सम्मान दिया और पानी भी पिलवाया एक बार दिल मे आ रही थी कि उस मोहतरमा को यही बुलवा कर पूछा जाए कि मै किस ऐंगल से बेवकूफ इंसान हूँ....लेकिन यहाँ भी वक्त ही दुहाई देकर खुद को समेट लिया और चल दिया वहाँ से....।
स्कूल का गार्ड हो या बैंक की क्लर्क दोनो में मुझे कोई खास फर्क नजर नही आया इसलिए मैने अपने अपने अपमान को नियति और प्रारब्ध मानते हुए मन में क्लेश लिए वहाँ सीधा अपने घर आना ही उचित समझा घर आकर यह किस्सा पत्नि को सुनाया तो बोली कि जब वक्त बुरा चलता तो ऐसे ही हानि-लाभ,यश-अपयश के दौर भी चलते है इनसे गुजरजाना ही एक मात्र समाधान है।
इन दोनो घटनाओं ने मेरे उस आत्मविश्वास को कम किया है जिसके बल पर मै साधिकार कई भी घुस जाया करता था अब आईना दिखा दिया दो बुद्धिजीवी लोगो ने....आगे से सावधानी रखनी पडेगी...।
कल मेरा फोन फ्लाईट मोड पर रहेगा क्योंकि सुबह सुबह जन्मदिन के एसएमएस का हमला हो जाता है और मै किसी का न तो फोन उठाता हूँ और न ही एसएमएस का जवाब देता हूँ इसलिए बस मुझे दिल से दुआ दो जिसमे असर भी हो....इन बेअसर खत’ओ’खतूत  से कुछ मसला हल नही होता है। आपकी मुबारकबाद  और जज्बाती पैगाम इस करमठोक के लिए बेशकीमति है...आमीन।
(आज के लिए इतना ही काफी है बाकि ‘तीस बरस’ के नाम से एक किताब अलग से लिखी जाने की योजना है....उसमे होगा मेरा सम्पूर्ण विवरण एक दोगले इंसान की सच्ची कहानी)
शेष फिर
डॉ.अजीत 

Wednesday, September 5, 2012

वक्त की मांग



वक्त बेरहम होता है,वक्त बडा संगदिल होता है ऐसे जुमले अभी तक फिल्में में खुब सुने थे लेकिन आजकल इसका भुक्तभोगी भी हो गया हूँ। हर वक्त शिकायत करते रहना किसी समस्या का कोई समाधान भी नही इसलिए आज ज्यादा विधवा विलाप नही करुंगा, पिछले एक पखवाडे से गुरुकुल की नौकरी छूट जाने के बाद मेरे मित्र,शुभचिंतको ने भरसक प्रयास करें कि मेरी ससम्मान वापसी हो जाए लेकिन कई बारे चीज़े अपने हाथ मे भी नही होती है कुछ लोग चाहकर भी आपका भला नही कर पाता है ऐसे मे इसे वक्त की दुहाई देकर आगे बढने के अलावा कोई विकल्प शेष नही बचता है।
सो आज एक पखवाडे के तनाव,सम्भावनाओं,अपेक्षाओं,सम्बन्धो के खुरदरेपन की रवायत के बीच यही लिखना पड रहा है कि कल से यानि 6 सितम्बर से मै फिर से गुरुकुल कांगडी विश्वविद्यालय ज्वाईन करने जा रहा हूँ लेकिन बतौर एडहॉक असि.प्रोफेसर नही बल्कि अतिथि व्याख्याता के रुप में जिसको प्रति व्यख्यान के हिसाब से भुगतान किया जायेगा, दीगर बात यह है कि तकरीबन दस दिन पहले तक मै सार्वजनिक रुप से यहाँ तक अपने विभागाध्यक्ष साहब को भी यही दहाड कर कह रहा था कि मुझे गेस्ट फैकल्टी के रुप मे नही पढाना है लेकिन वक्त और हालात की मार ने मुझे फिर उसी जगह पर लाकर खडा कर दिया है जहाँ से ये सब बातें शुरु हुई थी तमाम भगीरथ प्रयासों के बावजूद भी जब कोई चारा न चला तो अंत: मैने यही फैसला किया है अब जैसा भी है वैसी ही सही यह जॉब करनी ही है।
गेस्ट फैकल्टी के रुप मे पढाने की कई तकनीकि दिक्कतें है लेकिन जब आपके पास कोई अन्य विकल्प न हो तो फिर दिक्कतों को स्वीकार कर आगे बढने के अलावा कोई चारा भी नही बचता है। गैस्ट फैकल्टी को 3 महीन के लिए परमिशन मिलती है जिसमे प्रति लेक्चर के हिसाब से पैसो का भुगतान किया जाता है विश्वविद्यालय प्रशासन की यह शर्त रहती है कि किसी भी सूरत में यह राशि 22000/- से ज्यादा नही होनी चाहिए यदि महीने मे कम दिन यूनिवर्सिटी खुलती है पैसों मे कटौती की जाती है कोई छूटी आदि का लाभ नही मिल पाता है आदि-आदि। ये भी एक अजीब विद्रुप बात है जिस विभाग मे मैने पिछले पांच सालों से पढाया है और जहाँ मेरे जूनियर टीचर 41000/- प्रति माह का फिक्स वेतन पा रहे है वहाँ मै अधिकतम 22000/- रुपये की प्राप्त कर सकूंगा वह भी तब यदि विभागाध्यक्ष साहब की नजरे इनायत रही तो...।
जब वक्त के फिकरे कस जाते है लोगो की निगाहे बदल जाती है कुकरमुत्ते की भांति सलाह देने वाले शुभचिंतक उग आते है कुछ करीबी दोस्त जरुरत से ज्यादा समझदार हो जाते  है और कुछ दोस्त दोस्ती के सम्पादन की कला का रिफ्रेशर कोर्स चलाने मे माहिर हो जाते है मै लम्बे समय से ये सब संत्रास भोग रहा हूँ इसलिए कोई नही पीडा नही है  और न ही मै दोषारोपण करके अपनी काहिली को कम करने या महान बनने जैसी कोई कोशिस कर रहा हूँ लेकिन एक बात जरुर दिल में आती है बार-बार कि आखिर ऐसी क्या चीज़ होती है जो आदमी को बदलने की जिद पर उतर आती है। खुद की नजरों मे गिरना और फिर खुद को सम्भाल कर लडखडाते हुए चलना बहुत मुश्किल काम है मैने यह महसूस किया है कि जब एक बार आपके समीकरण बिगड जाते है तब मित्रों की सामान्य सलाह भी व्यंग्य लगने लगती है और दुश्मनों की बातों पर प्यार आने लगता है।
वक्त,सलाह,दोस्ती,घर,परिवार,बच्चे,पत्नि और सम्बंधो का हरा-भरा संसार आपसे सतत श्रम साध्य सफलता की मांग रखता है यदि आप एक बार चूक गये तो फिर आजीवन आप स्पष्टीकरण देते रहिए कोई राहत नही मिलने वाली है।
मेरे एक पूर्व मित्र कहा करते थे कि यह चौकने का दौर है आपको कोई भी कभी भी चौका सकता है आज मुझे उनकी बातों की सच्चाई और गहराई पता चली है सच मे आजकल चौकने का दौर है मै अक्सर दूनियादारी के तमाशों से हाल-बेहाल परेशान होकर चौकता रहता हूँ लेकिन अब धीरे-धीरे आदत हो रही है। राम की मरजी राम ही जाने कह गये भईया लोग सयाने....!
एक मौजूँ शे’र अर्ज किया है..
कभी यूँ भी हुआ है हँसते-हँसते तोड दी हमने
हमें मालूम था जुडती नहीं टूटी हुई चीज़ें

जमाने के लिए जो है बडी नायाब और महँगी
हमारे दिल से सब की सब हैं वो उतरी हुई चीजें

दिखाती हैं हमें मजबूरियाँ ऐसे भी दिन अक्सर
उठानी पडती हैं फिर से हमें फेंकी हुई चीज़े....(हस्तीमल हस्ती)

शेष फिर
डॉ.अजीत

Wednesday, August 29, 2012

बुलेटिन



क्षमा शोभती उस भुजंग को
जिसके पास गरल हो
उसको क्या जो दंतहीन
विषरहित, विनीत, सरल हो ।

रामधारी सिंह ‘दिनकर’
रामधारी सिंह दिनकर जी की इन पंक्तियों से बात शुरु करता हूँ ये पंक्तियां मुझे सदैव से प्रिय लगती है क्योंकि इस तरह से अपने साथ भी होता रहा है। अपने गांव देहात की एक कहावत है कि कभी कभी अच्छा करते करते भी किसी से बुरा हो जाता है ऐसा ही मेरा साथ हुआ है अपने एक दोस्त की प्रशंसावश भावातिरेक में लिखा गया और उसके निहितार्थ उनके लिए नुकसानदायक साबित होने की दशा मे आ गये जब आदमी का वक्त बुरा चल रहा होता है ऐसे प्रसंग बन ही जाते है। लिखने के मामले मे गाफिल होना ठीक नही है अब सावधानी रखनी पडेगी ताकि किसी को कष्ट न पहूंचे वैसे तो ये करमठोक किसी काबिल है नही ले दे कर एक लिखने का हुनर आता है थोडा बहुत और वह भी अगर जहीन सी गाली बन जायें तो इससे अजीब बात और क्या हो सकती है।
कल शाम अपने मित्र अनुरागी जी पधारे थे उनका सत्संग हुआ दूनिया भर का निंदारस का लाभ लिया गया ठाली बैठे बिठाये देर रात अपने एक करीबी दोस्त से मतभेद बढा लिये खुब भावुक एसएमएस बाजी हुई। रात भर बैचनी रही कि क्या सही कहा क्या गलत कहा सुबह उठते ही माफी का एसएमएस रवाना किया फिर उन मित्र से क्षमा याचना के लिए एक ईमेल भेजा। अनुरागी जी भद्र पुरुष है पिछले तीन साल से मै गांव से उनके लिए आम का आचार मंगवा कर देता हूँ (एक दिन जोश मे वायदा कर दिया था कि अनुरागी जी हमारे होते हुए आप आम का आचार बाजार से खरीद कर खाये...ऐसा नही चलेगा) अनुरागी जी जैसे लोग कम ही बचे है दूनिया में उनके साथ एक अपनापन महसूस होता है और उनके आने पर कोई औपचारिक संकोच नही होता है कि उनकी मेहमाननवाजी के लिए भी कोई फिक्र नही करनी पडती है....वैसे भी मेरे घर तक वो ही दोस्त आतें है जिनसे अपनापन हो..।
अनुरागी जी से कल विरोधाभास पर चर्चा चल रही थी कि मै जो भी कहता हूँ कि मुझे फलाँ काम नही करना है अंत मे ऐसी परिस्थितियां बन जाती है कि मुझे हार कर वही काम करना पडता है ऐसा लगता है कि मेरी सार्वजनिक घोषणाओं के विरोध में ईश्वर का कोई गुप्त एजेंडा काम कर रहा है। एक बात और मैने महसूस की है मैने जो विचार,स्वप्न,परियोजना किसी मित्र से शेअर कर ली वो काम मै कभी नही कर पाता हूँ संकल्प प्रकाशित होते ही कमजोर पड जाते है। अनुरागी जी ने मुझे समझाया कि डॉ.साहब यह प्रकृति का गुप्त सन्देश है जो आप समझ नही पा रहे है....! अब मै क्या समझुँ लेकिन ऐसा कई सालों से होता आ रहा है मेरे साथ थूक कर फिर से चाटना पडता है।
आज से दस साल पहले मेरी शादी में दहेज स्वरुप जो मारुति 800 कार आयी थी वह कल 45000/- मे बिक गई मै सोच रहा था कि कम से कम पचपन हजार की तो बिक जाये क्योंकि पिछले महीने मैने 55000/- की एक नई बाईक (उधार) खरीदी थी लेकिन अर्थशास्त्र का एक नियम पढा था कि जब आपकी क्रय शक्ति कमजोर होती है तो आप अपनी चीज़े सस्ती बेचतें है और दूसरों से चीजें महंगे दामों पर खरीदते है...सो इन दिनों अपनी क्रय शक्ति कमजोर चल रही है अब दस हजार की भरपाई इधर-उधर से करनी पडेगी।
देखते ही देखते सामने लोग जवान हो रहे है समझदार हो गये है और एक हम है कि चोट पे चोट खाये जा रहे है लेकिन फिर भी गैरत नही जागती है शायद फंतासी मे जीने वालो का यही हश्र होता है वो किसी चमत्कारिक दिन की उम्मीद पर अपनी पूरी जिन्दगी टेर सकते है जैसा मै टेर रहा हूँ।
कुछ दिन के लिए एकांत,अज्ञातवास पर जाने का मन हो रहा है घर पर दिन भर चिढचिढा पडे रहने से बेहतर है एकांत में चले जाना लेकिन अभी वक्त और हालात दोनो ही खराब है इसलिए इसकी भी उम्मीद कम ही है अब सीता राम सीता राम कहिए जाहि विधि राखे राम ताहि विधि रहिए...फिलास्फी पर चलने की नौबत आ गई है।
कल एक विदेशी मित्र से मदद मांगी है कि कुछ दिन के लिए मुझे अपने देश मे बुला लें ताकि मै अलग-थलग जिन्दगी जी सकूँ उसने आश्वासन भी दिया है मेरी शाश्वत भटकन किसकी प्रतीक है यह समझ नही आ रहा है आखिर मै किस चीज़ से भाग रहा हूँ खुद से या हालात से....।
बुलेटिन समाप्त..
डॉ.अजीत

Saturday, August 18, 2012

एक था.....


एक था अजीत...
जो अक्सर फेसबुक से चिपका पाया जाता था।
जो अक्सर उधार के शे’रो से वाहवाह लूटने का आदी था।
जो जल्दी ही अपना धैर्य खो देता था।
जो लोगो से जल्दी जुड जाता था और फिर जल्दी ही उनसे ही बोर हो जाता था।
जो लोगो से मिलने से कतराता था।
जो अपने मित्रो के फोन नही उठाता था।
जो दोगली जिन्दगी जीता था मतलब जो है वो नही दिखता और जो दिखना चाहता है वो है नही।
जो बेहूदा बातें करता रहता और जिसकी बातों से बोरडम फैला रहता था।
जो अपनेपन से डरता था जिसे दिल तोडने की आदत थी।
जो खुद को महान घोषित करने के जाने क्या –क्या प्रपंच नही करता था।
जो पहले सिद्धांत बनाता था और खुद ही सबसे पहले उन्हे तोडता था।
जो एक बेबात नाराज़ और उदास रहने वाला इंसान था।
जो शिखर पर पहूंच कर उसको छोड देने और शून्य से जीवन शुरु करने का आदी था।

एक यह अजीत है...
जिसने फेसबुक छोडने के बाद अपनी अध्येतावृत्ति को बढाने का दावा किया था लेकिन अभी तक एक भी किताब नही पढ पाया है।
जिसने अपने दोनो ब्लॉग को नियमित करने का दावा किया था लेकिन अभी तक एक भी पोस्ट नही लिख पाया है।
जो अपने बढते वजन को लेकर चिंतित है और कुछ ठोस कदम उठाना चाह रहा था लेकिन ज्यादा कुछ नही कर पाया है।
जिसको आज भी रात मे देर सोना और दिन मे खोना और बेबस होना अच्छा लगता है।
जो आज भी अक्सर अपना फोन बंद रखता है और कुछ दोस्तों के फोन नही उठाता है।
जो आज भी अज्ञातवास जीने का आदी है।
जो अपने परिचितों से को यह नही समझा पाता है कि उसके जीवन मे अब कोई मित्र के लिए स्पेस नही बचा है।
जो लोगो को खुश रखना नही सीख पाया है।
एक कोशिस...
जैसा हूँ वैसा ही रहने की।
बिना शर्त के सम्बंधो को जीने की।
किसी को कोई जवाब न देने की।
कुछ खोने पाने की जद्दोजहद जारी रखने की।
अपना वजूद सिद्ध करने तक हौसला बनायें रखने की...।
कुछ लिखने-पढने की।  

बस यही है अपना खेल तमाशा...जिसे आप हाथ की सफाई और नज़रबन्दी समझ सकते है।

शेष फिर....
डॉ.अजीत

Saturday, August 4, 2012

आमद


आवारी की डायरी बहुत दिनो से बंद पडी है अब बार बार फेसबुक को भी दोषी नही ठहराया जा सकता है कुछ मेरी ही कमअक्ली है कि नियमित लिखना नही हो पा रहा है इन दिनों फिर से एक अजीब किस्म का ठहराव आया हुआ है न नियोजन का मन होता है और न ही प्रयोजन का कुछ साथी लोग ऐसे बदले हुए व्यवहार से खफा है लेकिन अब किसी की कोई खास फिक्र नही होती है ऐसा लगता है जो लोग साथ के लिए है वो ऐसे ही छूट जायेंगे और जो साथी है उन्हे मेरे ऐसे होने से कोई फर्क नही पडेगा।
सच्चाई के साथ जीना कई बार बेहद खतरनाक हो जाता है चूंकि मै मनोविज्ञान से ताल्लुक रखता हूँ तो ऐसे मे हर किसी की अपेक्षा यही रहती है कि मै हमेशा अति आत्मविश्वास से लबरेज रहूँ,हमेशा बी पॉजिटिव और मोटिवेशन का लेक्चर पेलता रहूँ जो मुझसे नही होता है। मैने इस विषय को अपने सुख के लिए पढा और मेरे जीवन मे इसकी जितनी उपयोगिता है वह भी मुझे पता है लेकिन किसी को दिखाने के लिए मै अपने मूल स्वरुप को बदलना जरुरी नही समझता हूँ।
आने वाली 9 सितम्बर को तीस का हो जाउंगा एक तरह से कमोबेश आधी जिन्दगी जी ली है मैने जिन्दगी अपने फ्लेवर के हिसाब से जीने का सबक सिखाती रहती है लेकिन मै आज तक कुछ नही सीख पाया बस ऐसे ही पता नही किस झोंक मे जिए जा रहा हूँ कुछ विद्वान दोस्तो का कहना है कि मेरे जीवन मे लक्ष्य का अभाव है जबकि ऐसा नही है मेरे पास जो लक्ष्य है उसे सुनकर कोई मेरे मानसिक पागलपन पर हंस सकता है अपना आपा खो सकता है लेकिन यह जरुर है खालिस लक्ष्य होने से कुछ नही हो जाता है फिर कभी कभी सोचता हूँ कि ऐसा भी नही है मैने अपने स्तर से कोई प्रयास न किए हो लेकिन अब फिर से अपने को समेट कर जुट जाना थोडा मुश्किल काम है लेकिन इसके अलावा कोई विकल्प भी नही है।
कुछ दोस्त कहते है कि मेरे पास खुश होने/रहने की बहुत सी पुख्ता वजह है लेकिन मुझे अहसास-ए-कमतरी इतना ज्यादा है कि मै कभी अपनी छोटी-छोटी उपलब्धियों को भी सेलीब्रेट नही कर पाता हूँ दो विषयों ने यूजीसी नेट,25 साल की उम्र मे पीएचडी की उपाधि,निर्बाध नौकरी (एडहॉक ही सही) आदि-आदि कुछ चीजे जिन पर खुश होना चाहिए लेकिन सच यह है कि मुझे इनसे कोई खुशी नही मिलती है बस एक साक्षी भाव बन गया है जैसे भी चीजो से गुजर जाना है।
आधी जिन्दगी जीने के बाद अब यह सोचता हूँ कि ये जिन्दगी की पतवार मुझे किस दिशा मे लिए जा रही है मै हूँ क्या ? और बनना क्या चाहता हूँ...। इन दिनो एक खास किस्म की आदत और अपने निकट के लोगो मे देख रहा हूँ कि यदि जैसे ही किसी को आपने अपने मन की बात ईमानदारी से शेअर कर दी बस फिर लोग आपके सम्पादन मे लग जाते है सलाहो, नसीहतों का कारोबार शुरु हो जाता है वो आपको खारिज़ करते हुए आपको बदलने की जिद पर आ जाते है।
ऐसे लोगो के साथ मुझे बहुत मुश्किल होती है पहले करीब आना और फिक्र-ए-यार के हिजाब में अपनी पसन्द-नापसन्द थोपना आज के दौर के इंसान की खुबी है मुझे आग्रही लोग लम्बे समय तक बांधे नही रख पाते है एक समय के बाद एक खास किस्म की चिढ सी हो जाती है और फिर अपने स्पेस के थोडा कडवा बोलना पडता है जो मुझे भी अच्छा नही लगता है लेकिन क्या करुँ इसके अलावा कोई रास्ता ही नही बचता है..।
मसले तो बहुत से है लिखने बताने के लिए लेकिन अब बस इतना ही.....शेष फिर
डॉ.अजीत 

Friday, April 27, 2012

लम्बा विराम

आवारा की डायरी लिखना मेरे लिए निजि पीडा को ब्याँ करने जैसा रहा है एक साल पहले मेरे लिए यहाँ लिख कर राहत महसूस करना एक स्थाई उपचार हो गया था लेकिन फिर धीरे धीरे फेसबुक की लग गई अब वहाँ वमन करता रहता हूँ इसलिए अपनी डायरी के पन्ने कोरे पडे है। आज बहुत दिनों बाद यहाँ लिखने का मन हुआ पिछले दिनों के बहुत से किस्से है यदि उन सभी को विस्तार से लिखना शुरु करुँ तो कई पोस्ट हो जायेंगी लेकिन सारांश: यह कह सकता हूँ दिन ब दिन जिन्दगी एक नया पाठ पढाती है और मेरे जैसा जीव कभी उससे कोई सबक नही सीखता है और फिर से वही गल्तियाँ करता है जो पहले की है।
अब मुझे यह लगने लगा है कि मै एक पकाऊ किस्म का इंसान हूँ इसे आत्म आलोचना की व्याधि जैसा कुछ न समझें बल्कि यह एक ऐसी मनस्थिति का परिचायक है जहाँ खुद का अप्रासंगिक लगना एक आदत बनती जा रही है। मनोविज्ञान मे यदि इस बीमारी का नाम देने की बात कही जाए तो यह क्रोनिक डिप्रेशन है लेकिन मुझे अलग इसलिए लगता है कि मै अभी तक मुश्किल वक्त में भी इसी स्थाई भाव मे रहता हूँ एक प्रकार से चित्त का यह एक स्थाई भाव हो गया है न किसी बात से ज्यादा खुशी होती है और न किसी बात की ज्यादा पीडा।
कल शाम फेसबुक पर चटियाते हुए मैने एक मित्र से कहा कि मुझे लगता है कि मै कभी किसी को खुश नही कर पाया और मैने लोगो को निराश ही किया है फिर यही बात मैने अपने स्टेट्स पर भी शेअर की लेकिन आस-पास देखता हूँ तो सम्बन्धो का एक हरा भरा संसार है लेकिन मुझे किसी मे कोई खास दिलचस्पी नही है सब कुछ साथ होते हुए भी विलग है अपेक्षाएं,जिम्मेदारियाँ सब है और सब जरुरी भी है लेकिन फिर भी दिल मे एक खास किस्म का अनासक्तिबोध है। पिछले दिनो एक फेसबुकिया मित्र मुझसे खफा हो गया और मुझे दोगला इंसान करार देते हुए बेवफा घोषित कर दिया पहले पीडा हुई फिर कुछ जायज़ स्पष्टीकरण भी दिए लेकिन अब मन शांत हो गया है कोई मेरे विषय मे जो भी राय करें अब क्या फर्क पडता है आप एक सीमा तक ही अपना पक्ष रख सकते है  लेकिन जब दिमाग पक जाता है तब वह पक्ष बहाना लगने लगता है ऐसे फिल्म हमराज़ का वही गीत अच्छा लगने लगता है..चलो एक बार फिर से अजनबी बन जाएं हम दोनो...यह अध्याय यही समाप्त हो जाता है।
सम्बंधो की नियति यही है शत प्रतिशत समर्पण का अंत भी अंतोत्गत्वा शंका के साथ ही होता है कई बार आपका होना लोगो के लिए एक सुविधा मात्र होता है जहाँ आप फिलर की तरह से अपना जगह भरते है और जैसे ही किसी और का विकल्प आपकी जगह तैयार होता वैसे ही आप हाशिए पर आ जाते है यही एक स्थाई परम्परा है।
इन दिनों विश्वविद्यालय में भी अपनी सेवा का अंतिम काल चल रहा है 15 मई के बाद अपनी छुट्टी हो जाती है फिर अगले सत्र में बुलाया जाता है वो भी काफी आधिकारिक जद्दोजहद के बाद ऐसे में सारी ऊर्जा समीकरण,षडयंत्र,संकल्प,विकल्प आदि मे व्यय होती है पता नही कब इस तदर्थ जीवन से मुक्ति मिलेगी! अब तो यह सोचना भी बन्द कर दिया है।
इस बार गर्मियों मे यात्रा की योजना है किस तरफ की यह कहा नही जा सकता है वैसे भी किसी योजना का कोई इसलिए भी कोई अर्थ नही है कि मै जो भी योजना बनता हूँ वह सफल नही हो पाती है पता नही इसमे क्या हरि इच्छा रहती है।
अंत मे एक बात और कहना चाहता हूँ आवरण जीवन की सच्चाई है और यह दूनिया ऐसे ही आवरणों मे जीती भी है आपको दिगम्बर स्वरुप मे कोई देख पाये और उसको पचा पाये यह दुर्लभ संयोग की बात है कभी कभी मुझे यह लगता है कि जैसे मै मनोविज्ञान का प्राध्यापक हूँ तो सभी लोग मुझसे यही चाहते है कि हमेशा मोटिवेशन और पाजिटिव थिंकिंग की बातें करुँ...हमेशा लोगो को उत्तेजित अवस्था मे रखूँ खुश रखने की कोशिस करुँ और मै अक्सर करता भी हूँ लेकिन कभी कभी मेरी हिम्मत भी जवाब देने लगती है क्योंकि बतौर इंसान मै कैसा महसूस करता हूँ यह जिसके शेअर कर सकूँ ऐसा कोई शख्स मेरी जिन्दगी में नही है क्योंकि यदि मै अपनी वास्तविक हालात ब्याँ करुं तो मेरे मनोविज्ञान के ज्ञान पर संदेह हो जाता है कि अमाँ यार लोगो को क्या खाक रिहेबिलेट करोगे खुद ही जब संतुलित नही हो...ऐसे में दिन भर जबरदस्ती का शिव खेडा टाईप का मोटिवेशन भी बांटना पडता है और खुद को पाजिटिव बनाये रखने की एक कवायद करनी पडती है।
बहरहाल,जिन्दगी ऐसे ही एक सुर मे आलाप खींचे जा रही है अब पता नही इसे कोई नया राग पैदा होगा या यह अनुराग भी समाप्त हो जायेगा। उम्मीद करता हूँ अपने हाल-ए-दिल की अगली किस्त आप तक जल्दी पहूंचा सकूँ...आमीन।
डॉ.अजीत

Sunday, January 1, 2012

2012

साल का बीत जाना मेरे लिए ठीक वैसा है जैसे घडे से धीरे-धीरे पानी का रीत जाना क्योंकि हर नया साल अपने साथ नये सपने नई चुनौतियां लेकर आता है जिनमे से कुछ ही पूरे हो पाते है बाकि सभी ऐसे ही अधूरे पडे रहे जाते है। हर जाने वाला साल अपने होने की एक ऐसी जमानत होता है जिसमे हमारी खट्टी-मिट्ठी यादें दर्ज़ रहती हैं।

कल ही गांव से लौटा हूँ वैसे तो एकाध तकनीकि पर कम भरोसा करने वाले मित्रों ने 31 दिसम्बर को ही एसएमएस भेज कर अपनी शुभकामनाओं की औपचारिकता खत्म की क्योंकि कई बार 1 जनवरी को मोबाईल का नेटवर्क जाम हो जाता है लेकिन आज सुबह जैसे ही मैने अपने मोबाईल का स्वीच ऑन किया तुरंत ही कतार में खडे एसएमएस की झडी सी लग गई मैने सभी को एक-एक करके पढा और साक्षी भाव से पढता रहा इसे आप मेरी काहिली ही समझ सकते है कि मैने किसी को जवाब मे हेप्पी न्यू ईयर नही कहा हाँ मैने कल जरुर अपने दो गुरुजनों को मैसेज़ भेजे हर साल मै ऐसा ही करता हूँ इसके अलावा मित्रों/रिश्तेदारों को कोई मैसेज़ नही भेजा क्या करुँ मुझे दिल से ही ऐसी कोई प्ररेणा नही मिलती और मैने सायास कुछ करना नही चाहता हूँ।

अब थोडा कुछ 2011 के बारें मे बतिया लिया जाए बेचारा अब मेरे घर मे कुछ दिन तक बस कैलेंडर की शक्ल मे पडा रहेगा और फिर किसी दिन रद्दी वाले के साथ रवाना हो जायेगा। तारीख के हिसाब से तो मुझे कुछ ज्यादा याद नही है लेकिन एकाध बातों के साथ यह कह सकता हूँ कि यह साल भी अन्य सालों की तरह से औसत ही गुजरा पिछले कई सालों से या यूँ कहूँ सभी गुजरने वाले सालों में ऐसा कुछ खास नही घटा जिसका जश्न मनाया जाये और न ही ऐसा कुछ खोया जिसका अफसोस किया जा सके।

पिछले साल मे दो बडी घटना घटी मेरे जीवन मे एक तो 18 मार्च को मेरे यहाँ दूसरा बेटा हुआ और दूसर जून में मैने जर्नलिज़्म एंड मॉस कम्यूनिकेशन मे यूजीसी-नेट की परीक्षा पास की इसके अलावा मुझे इस बार अपनी तदर्थ नियुक्ति मे बढा हुआ वेतन भी मिला। इसके अलावा कुछ भी ऐसा खास नही हुआ जिसकी यहाँ चर्चा करुँ... इस 2012 में मेरे सामने कई चुनौतियां है कुछ प्रकट किस्म की और कुछ गुप्त प्रकट चुनौतियों से फिर भी एक बार निबटा जा सकता है लेकिन गुप्त किस्म की जो चुनौतियां होती है उनसे निबटना बेहद मुश्किल काम है।

खैर ! अभी तक तो कुछ रास्ता नज़र नही आ रहा है लेकिन दिल मे एक उम्मीद जरुर है कि शायद कुछ बीच का रास्ता निकल आयेगा और जीवन के घर्षण से कुछ राहत मिलेगी।

आखिर मे 2011 में जो सबसे बडी क्षति हुई है उसका जिक्र करता चलूँ थोडा दिल हल्का हो जायेगा 2002 में अपने मित्र बनें अभिषेक जी ने हमसे इस साल औपचारिक रुप से नाता तोड लिया मतलब आजकल वें अपने गर्दिश के दिन बेहद तन्हा होकर काटना चाहते है इसी सिलसिले मे वे पिछले एक साल से सम्पर्क शुन्य चल रहे है पिछले साल मे बमुशकिल दो बार ही फोन पर बात हो पायी और अब तो इसकी भी उम्मीद नही है क्योंकि कल ही मुझे एक मेरे मित्र ने बताया है अभिषेक जी अब जयपुर शिफ्ट हो गये है अपने मामा जी के पास।

अभिषेक जी के साथ का छूटना किसी सदमे से कम नही है पिछले एक साल मे कई बार ऐसा हुआ कि मन बेबस हो गया और टीस भर गयी बात करने का दिल्ली जाकर मिलने का बहुत मन हुआ लेकिन फिर अपने आप को रोक लिया क्योंकि जब अभिषेक ही हमारी शक्ल देखना नही चाहता तो फिर हम जबरदस्ती उसके लिए दिक्कते क्यों पैदा करें! बस निदा फाज़ली साहब की ये गज़ल सुनता रहा हूँ ना मुहब्बत ना दोस्ती के लिए वक्त रुकता नही किसी के लिए.... इसे सुनकर दिल को तसल्ली मिलती है।

रिश्तों के मामले में मै बडा निर्धन किस्म का रहा हूँ जो भी मिला दिल के करीब आया वही फिर अचानक दूर हो गया अब तो आदत सी हो गई है इस सब की...एक चीज़ और खुद के अन्दर महसूस कर रहा हूँ कि अब मन अविश्वासी सा हो गया है जल्दी से किसी बात पर यकीन नही कर पाता हूँ और लोग ये कहते है कि सीखने के लिए शंका को त्यागना पडेगा साथ ही विश्वास और समर्पण प्रदर्शित करना पडेगा लेकिन दिल है कि मानता नही...।

आज के लिए बस इतना ही आप सभी के लिए नववर्ष 2012 मंगलमय हो इसी शुभकामना के साथ विदा लेता हूँ.....।

डॉ.अजीत