अपने गांव के बौद्धिक मित्र से जीवन की पहली नसीहत मिली थी जो
उस वक्त थोडी अजीब लगी थी लेकिन बाद में वो एक नजीर के जैसी लगने लगी वो सलाह देने
वाले मे शख्स थे मेरे मित्र डॉ सुशील उपाध्याय। उन दिनों मुझे पढने का चस्का लगा हुआ
था इसलिए किताबों की तलाश रहती थी मै आठवीं में पढता था उसी चस्के में डॉ.सुशील
उपाध्याय जी से किताब मांग बैठा तब उन्होने किताब तो दी लेकिन साथ ही एक सलाह भी
दी कि ‘ किताबें इंसान को मांग कर नही खरीदकर पढनी चाहिए तभी वह उनका मूल्य समझ
पाता है’ उनकी इस नसीहत में छिपा हुआ सन्देश यह भी था मै किताबों को पढने के बाद
सुरक्षित वापिस कर दूँ। आज जब अपने पुस्तक संग्रह में से दर्जनों किताबें गायब
पाता हूँ तो याद करने की कोशिस करता हूँ कौन कौन सी किताब किस मित्र/परिचित को
पढने के लिए दी थी लेकिन आज तक वापिस नही आयी तब मुझे सुशील जी की नसीहत दीगर लगने
लगती है।
डॉ.सुशील उपाध्याय मुझसे उम्र मे दस साल बडे है और गांव के
रिश्ते-नातें के लिहाज़ से मै उनका चाचा लगता हूँ लेकिन उनसे मेरे रिश्तें सदैव ही
मित्रवत रहें है सुशील जी मेरे जीवन के उन लोगो मे शुमार है जिन्होने मुझे बीज रुप
मे देखा है मुझे याद आता है कि जब सुशील जी हरिद्वार के गुरुकुल कांगडी
विश्वविद्यालय से एम.ए. (हिन्दी) और पीजी डिप्लोमा पत्रकारिता में दोनो में स्वर्ण
पदक प्राप्त करके गांव पहूंचे थे जो मेरे मन में उनके प्रति ठीक वही भाव थे जैसे
देश का खिलाडी कॉमनवेल्थ खेलों में गोल्ड मैडल जीत कर आता है हालांकि उस समय समझ
के लिहाज़ से मै उतना विकसित नही था कि अकादमिक स्वर्ण पदक के महत्व को समझ सकूँ
लेकिन फिर भी ‘ स्वर्ण’ शब्द का व्यामोह ही उपलब्धि से जुडा हुआ देखकर मेरे लिए
सुशील जी प्रेरणा के स्रोत लगने लगे थे।
उन दिनों मेरे पास एटलस की बीस इंची साईकल हुआ करती थी मै उस
पर सवार होकर सुशील जी के घर पहूंच जाता था और उनसे पत्र-पत्रिकाओं में छपने के
गुर सीखने की कोशिस करता था हालांकि उस दौर मे सुशील जी के भी संघर्ष के दिन थे वो
अमर उजाला मे प्रशिक्षु पत्रकार के रुप मे काम कर रहे थे उनके पास एक ब्लैक एंड
व्हाईट कैमरा हुआ करता था जिसको लेकर वो प्रतिदिन पास के कस्बे थानाभवन में
रिपोर्टिंग के लिए चले जाते थे।
मै अपनी स्मृतियों को टटोलता हूँ तो मुझे गांव मे सुशील जी
लकडी की काले पेंट मे पुती कुर्सी, एक हार्डबोर्ड का पैड और अखबार की तरफ से मिलने
वाला पीलिमा युक्त कागज याद आता है वो पीला अखबारी कागज मेरे जैसे नौसिखिए के लिए
किसी भोजपत्र से कम नही हुआ करता था उसके
छूने भर का अहसास बडा होता था। मै सुशील
जी के घर जिज्ञासु और साधक भाव से जाता था कई बार ऐसा होता था कि सुशील जी दिल्ली
प्रेस समूह की पत्रिकाओं के लिए लेख लिख रहे थे मै चुपचाप उनके पास चारपाई पर बैठा
रहता था एकाध घंटे बीतने के बाद या लेख समाप्त होने के बाद सुशील जी मुझसे बतियाते
थे उस वक्त उनके मुख से निकला एक एक शब्द मेरे ब्रहम वाक्य से कम नही होता था।
जीवन मे बहुत कुछ मैने उनसे सीखा और आज भी सीखता रहता हूँ। सुशील जी उस समय एक
सवाल लगभग मुझसे रोज ही पूछते थे कि आप मेरे यहाँ अपने घर बता कर आते है या नही
उन्हे ऐसा लगता था कि कहीं मै उनके यहाँ घंटो बैठा रहता हूँ और उधर मेरे घर वाले
मुझे ढूंड रहे होते हो।
वैचारिक पृष्टभूमि के लिहाज़ से हम दोनों मे कोई साम्य नही था
सुशील जी का झुकाव वामपंथ की तरफ था और मेरी उस समय कोई विचारधारा ही नही थी लेकिन मेरे अन्दर की जिज्ञासु प्रवृत्ति ने
सुशील जी के सामंती पृष्टभूमि के प्रति सामाजिक आक्रोश को थोडा शांत अवश्य कर दिया
था उन्होने मुझे एक स्वतंत्र चेतना के रुप मे हालांकि बाद मे स्वीकार किया लेकिन
उनकी आत्मीयता ने मुझे सदैव आप्लावित किया है।
एक वंचित पृष्टभूमि से निकल अपनी अपनी बौद्धिक क्षमता के बल
पर सुशील जी ख्याति प्राप्त की है फिलहाल वो विश्वविद्यालय में असि.प्रोफेसर है
लेकिन इससे पहले अमर उजाला,हिन्दूस्तान जैसे बडे अखबारों में चीफ रिपोर्टर के रुप
में कार्य कर चुके थे हालांकि आज भी मेरी नजर वो पहले पत्रकार है बाद में
असि.प्रोफेसर। मैने जीवन मे कभी सक्रिय पत्रकारिता नही की लेकिन एक पाठक के रुप
में जो मेरी समझ अखबारी दूनिया के बारें में है उसके आधार पर मै दावे से कह सकता
हूँ सुशील जी ने जब तक अमर उजाला,हिन्दूस्तान मे काम किया तब तक उनकी कवर की गई
खबरों में ‘एक्सक्लूसिवनैस’ के अलावा तथ्यात्मक पुष्टता भी होती थी एक पाठक के रुप
उच्च शिक्षा की स्पेशल स्टोरीज़ को मै आज तक दोनो ही अखबारों में आज भी मै मिस्स करता
हूँ उनके जाने के बाद उनकी कमी आज भी खलती है।
हमारी उम्र मे दस साल का मोटा अंतर होने के बावजूद भी हमारे
बीच मे एक खास किस्म का चेतना और सम्वेदना का रिश्ता बना हुआ है मै जब भी
दूनियादारी के झगडो मे उलझ जाता हूँ या कुछ ऐसे मानसिक सवाल जो मुझे निजी स्तर पर
परेशान करने लगते है तब शहर मे उन्हे शेयर करने के लिए मेरे जेहन में जो पहला नाम
आता है वह डॉ.सुशील उपाध्याय ही है। हालांकि सुशील जी बाह्य रुप से कई बार रुखे या
ईमोशनली ड्राई प्रतीत हो सकते है या प्रशंसा करने के मामलें मे कंजूस भी लेकिन
उनके पास अनुभव की थाती है साथ ही समचेतना भी जो हमें सवेंदना के एक ऐसे रिश्ते
में बांधे रखती है जिसकी जड कई साल पहले हमारे गांव में जम गई थी आज हमारी मित्रता
का वटवृक्ष उसी का परिणाम है जिसकी छांव में हम दोनो बारी बारी से सुस्ताते रहते
है।
( और भी
बहुत से संस्मरण है लेकिन आज इतना ही शेष फिर....)
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