भारत जैसे विकासशील देश के समक्ष बेरोज़गारी एक
बड़ी चुनौति है. दस-दस बरस या इससे भी अधिक समय हो गया है लोग अपनी उच्चतम डिग्री
लेकर बेरोजगार घूम रहे. शिक्षा में सुधार के नाम पर केन्द्रीय और राज्य स्कूली
बोर्ड ने किस्म-किस्म के परिवर्तन भी किए और शिक्षा के तीनों स्तरों
बेसिक.माध्यमिक और उच्च में बड़े बदलाव देखने को मिले है.
मेरी पीढ़ी के लोगो ने जब आज से बीस-पच्चीस साल
पहले दसवीं की थी उस समय स्टेट बोर्ड के एग्जाम एक बहुत बड़ा हौव्वा हुआ करते थे
बोर्ड का रिजल्ट भी दस से पन्द्रह प्रतिशत ही रहा करता था. पूरे गाँव में पास होने
वाले इक्का-दुक्का बच्चे ही होते थे उन दिनों फर्स्ट डिवीज़न तो आना बहुत बड़ी उपलब्धि
हुआ करती थी, उस सिस्टम से पढ़े सेकंड डिवीज़न धारी बच्चे भी पढनें में ठीक ठाक
बुद्धिमान ही हुआ करते थे.
बाद में बोर्ड ने अपनी शिक्षा पद्धति की
समीक्षा की और सीबीएसई की तर्ज पर मार्किंग सिस्टम को अपनाया अब बोर्ड एग्जाम में
स्टूडेंट्स अस्सी और नब्बे प्रतिशत से अधिक अंक लेकर पास होते है. यही हाल अब उच्च
शिक्षा में भी है. देश भर में सीबीसीएस सिस्टम लागू हो गया है जिसने 70 प्रतिशत
अंक लिखित परीक्षा के माध्यम से मिलते है और 30 प्रतिशत अंक सेशनल के माध्यम से
स्टूडेंट्स अर्जित करते है इस कारण अब यूजी और पीजी लेवल पर अस्सी और नब्बे फीसदी
अंको वाले स्टूडेंट्स खूब मिल जाएंगे.
हमारे दौर में, हमारा कालेज एक राज्य
विश्वविद्यालय से सम्बन्धित था जिस पर एक बड़ी जनसंख्या की उच्च शिक्षा की
जिम्मेदारी था इसलिए वहां भी मार्किग सिस्टम कुछ ऐसा था कि आर्ट्स और सोशल साइंस
के सब्जेक्ट्स में हमेशा औसत श्रेणी के ही नम्बर मिलते थे.
इस कहानी का जिक्र करने का मकसद यह है कि
पुराने सिस्टम से पढ़े लोगो को अभी तक सरकार नौकरी नही दे पाई है और इस नई सिस्टम से
पढ़े लोग अब उनके साथ नौकरी की कतार में लग गए है. इस नए सिस्टम से पढ़े लोगो की
मेरिट भी जाहिरी तौर पर ऊंची है इनकी दसवीं, बारहवीं, ग्रेजुएशन, पीजी में फर्स्ट
डिविजन है और न केवल फर्स्ट डिवीज़न है बल्कि बोरा भरकर इनके नम्बर आए हुए है. ऐसे
में जो पुराने बोर्ड और पुराने हायर एजुकेशन सिस्टम से पढ़ें है उनके समक्ष एक बड़ा
संकट खड़ा हो गया है क्योंकि जब मेरिट बनती है तो ये नए वाले बच्चे टॉप में आ जाते
है और पुराने सिस्टम से पढ़ें लोग खिसकते हुए आखिर में चले जाते है जबकी नौकरी की
कतार में ये उनसे पहले लगे है.
बोर्ड और हायर एजुकेशन का सिस्टम सरकार ने
बदला है इसलिए इसमें उन लोगो का क्या दोष है जो पुराने सिस्टम से पढ़े है? जब साधन
भी कम होते थे और नम्बर भी कम ही मिला करते थे. आप उन्हें उनके समय में नौकरी नही
दे पाए और वर्तमान समय में नए सिस्टम से निकले लोग उनकी योग्यता को एकदम ही खारिज
कर रहे है. न्याय के सिद्धांत के अनुसार ये अन्याय है क्योंकि जो बदलाव आपने अब
किया है वो आप बीस-तीस साल पहले कर लेते कौन सा उन बच्चों ने मना किया था?
उन्होंने तब के सिस्टम में संघर्ष किया और पास होकर आगे बढे और लगातार खुद को
अपडेट भी करते रहे मगर देश में बरोजगारी का आलम यह है कि उनको कोई भी सरकार नौकरी
नही दे सकी है ये उनका नही पूरे सिस्टम का फैल्योर है.
गुड अकेडमिक रिकॉर्ड के नाम पर अब पुराने
सिस्टम से पढ़े लोग बेहद कमजोर स्थिति में आ गए है जबकि उस समय की पढ़ाई और आज की
पढ़ाई में बुनियादी अंतर है आज का स्टूडेंट् टेक्नोसेवी है और तब के स्टूडेंट की
चुनौति अलग किस्म की थी. अब बढ़िया ग्रेड और मेरिट है मगर नोलेज अब सेकंडरी हो गई
है पुराने समय के पढ़े लोगो के पास डिवीज़न भले ही सैंकड़ है मगर उनके पास ठोस ज्ञान
भी है.
फिर मैं एक सवाल यह पूछता हूँ जब एक ख़ास समय
में एक प्रमाणित सिस्टम से पास हुए लोगो को सरकार नौकरी नही दे पाई है और अब
उन्हें उसी भीड़ का हिस्सा बना दिया गया है जिसमें नए सिस्टम से पढ़े और अधिक अंकधारी
लोग नौकरी की कतार में खड़े है, तब ऐसे में क्या उनको नौकरी मिल सकेगी? शायद नही.
साक्षात्कार और मेरिट के झोल में वो स्वत:
बाहर होते चले जाएंगे जो पापुलेशन पिछले दो दशक से आपकी व्यवस्था का हिस्सा रही है
और जो इस आशा की प्रत्याशा पर काम करती रही कि एक न एक दिन उन्हें एक अदद सरकारी
नौकरी मिल जाएगी उनके लिए आपने एक ऐसा जाल बुन दिया है जिसमें वो खुद ही उलझकर
बाहर हो जाएंगे.
नीति बनाने वाले लोग कभी अनजान नही होते है बस
वो कुछ मुद्दों पर जानबूझकर आँख बंद कर लेते है क्योंकि उन्हें लगता है इतना बड़ा
देश है इसलिए ऐसे में भीड़ में कुछ करोगे तो चल जाएगा और नौकरी की कतार में लगा
व्यक्ति सच में इतना कमजोर हो जाता है कि वो खुद के साथ हुए किसी किस्म के अन्याय
पर उफ़ तक नही करता है क्योंकि उन्हें लगता है कि एक न एक दिन उनके दिन जरुर
बदलेंगे.
उनके दिन बदलते जरुर है और उन्हें इसका एहसास
तब होता है जब उनका पढ़ाया कोई स्टूडेंट उन्ही के साथ एक समान पद पर इंटरव्यू देने
पहुंचता है. तब समझ नही आता कि उसकी नमस्ते ली जाए कि उससे हाथ मिलाया जाए क्योंकि
सिस्टम ने दोनों के लिए जगह बना दी है.
©डॉ. अजित