श्रीमति बिशम्बरी देवी ‘नम्बरदारनी’
सबसे मुश्किल काम होता है खुद के किसी परिजन के विषय में निष्पक्ष एवं तथ्यात्मक रुप से संतुलित होकर लिखना मगर मै खुद की दादी ( जिन्हें सम्बोधन में मैं मां ही कहता हूं) के विषय में लिखते हुए किचिंत भी दुविधा में नही हूं जिसकी एक बडी वजह यह है कि वो मेरे लिए महज़ मेरी दादी (मां) नही है बल्कि एक आदर्श मातृछवि भी है इसलिए जीवनपर्यंत संघर्षरत रही ऐसी लौह महिला के विषय में लिखकर मै खुद को न केवल गौरवांवित महसूस कर रहा है बल्कि उन पर लिखना अपना एक नैतिक कर्तव्य भी समझता हूं। मेरे मन मे यदि कोई दुविधा है तो केवल इतनी है कि उनके विशद जीवन को एक लेख में समेट पाना तमाम शब्द सामर्थ्य के बावजूद भी बेहद मुश्किल काम है उनका जीवन स्वतंत्र रुप से एक जीवनी लेखन का विषय है।
गांव के पुरुष प्रधान समाज़ और जन-धन बल के जीवन में जिस प्रकार से उन्होनें संघर्षपूर्ण जीवन को अपने आत्मबल से जीया है वह न केवल अनुकरणीय है बल्कि व्यापक अर्थों में चरम विपरीत परिस्थितियों में ऐसा जीवन जीना अकल्पनीय भी है।
मात्र छब्बीस साल की उम्र में मां विधवा हो गई थी मेरे बाबा जी का मात्र 28 वर्ष की उम्र में टायफायड बुखार की वजह से आकस्मिक निधन हो गया था। चूंकि बाबा जी अकेले थे और गांव के बडें ज़मीदार घर में उनके जाने के बाद एकदम से सन्नाटा पसर गया था लगभग साढे तीन सौ बीघा जमीन और घर पर वारिस के नाम कोई व्यक्ति न बचा था। गांव में कोई कुटम्ब कुनबा भी नही था ऐसें मे बाबा जी के निधन से जो रिक्तता आई थी उसको भर पाना असम्भव कार्य था। गांव के समाजशास्त्रीय ढांचे में यह स्थिति बेहद जटिल किस्म की थी। इतनी बडी सम्पत्ति की देखरेख के लिए कोई पुरुष परिवार में नही था अमूमन तब यही अनुमान लगाया जा रहा था कि मेरी मां यहां की जमीन को औने-पौने दामों में बेच कर अपने मायके रहने चली जाएगी।
इस बेहद प्रतिकूल और आशाविहीन परिस्थिति में मां के इस निर्णय नें बुझती उम्मीदों को एक नई रोशनी दी जब उन्होनें तय किया वो कहीं नही जाएंगी और यही गांव में रहेंगी। यहां बताता चलूं जिस वक्त बाबा जी का निधन हुआ मेरे पिताजी दादी (मां) के गर्भ में थे। अतिशय चरम तनाव और अनिश्चिता के दौर में भी मां ने महस छब्बीस साल की उम्र में उस साहस का परिचय दिया जिसकी कल्पना आज भी सम्भव नही हो पाती है।
गांव की चौधरी परम्परा में पुरुषविहीन परिवार में इतनी बडी सम्पत्ति खेती-बाडी का संरक्षण कोई आसान काम नही थी उनका यह निर्णय कुछ पक्षों के लिए नागवार गुजरने जैसा था क्योंकि अमूमन यह मान लिया गया था कि अब यह परिवार बर्बाद हो गया है मगर मां नें अपनी हिम्मत,आत्मबल और सूझ-बूझ से एक पुरुष प्रधान समाज़ में अपनें परिवार को वो आधार प्रदान किया जिसकी वजह से आज भी मां न केवल गांव में बल्कि पूरे क्षेत्र में बेहद सम्मानीय है। शायद ही आसपास का कोई गांव ऐसा होगा जो लम्बरदारनी ( नम्बरदारनी) को न जानता होगा।
पिताजी के जन्म के बाद एक आशा का संचार हुआ कि परिवार में एक पुरुष वारिस पैदा हो गया है परंतु गांव की कुछ शक्तियों के लिए यह बहुत पाच्य किस्म खबर नही थी। पिताजी किशोरावस्था तक जाते जातें कुसंग का शिकार हो गए ( एक एजेंडे के तहत यह सब किया गया था फिलहाल वह उल्लेखनीय नही है)। पिताजी मदिरा व्यसनी हो गए जिसके फलस्वरुप उनकी भूमिका अपना वह आकार न ले सकी जिस उम्मीद से परिवार उनकी तरफ देख रहा था। कालांतर में उन्होने उस अवस्था में मदिरा त्यागी जब शरीर व्याधियों की शरण स्थली बन गई थी। मां की प्ररेणा से वो गांव के प्रधान और जिला सहकारी बैंक के डायरेक्टर भी रहें।
मेरी मां नें आजीवन संघर्ष किया गांव के पितृसत्तात्मक और जनबल के समाज़ के समक्ष वो अकेली वैधानिक लडाई लडती रही। जिस वक्त घर पुरुषविहीन हो गया था उन्होनें अपने मायके से कहकर अपना एक भाई स्थाई रुप से गांव में रखा वो खेती बाडी दिखवाते है। इन सब के पीछे की ऊर्जा प्ररेणा और सच्चाई की लडाई लडने वाली मां ही रही है।
उनके अन्दर गजब की जीवटता भरी थी नेतृत्व उनके खून में था इतने प्रतिशोध उन्होनें सहे कि सभी की चर्चा की जाए तो एक बडी कथा लिखी जा सकती है। जमीन से जुडे और अन्य फौजदारी के कई कई मुकदमें उन्होनें लडे क्योंकि उनको इस आशय से परेशान किया जाता था कि उनका मनोबल कमजोर हो जाए और वो गांव से भाग खडी हो। तहसील और जिले स्तर पर अधिकारियों से ,नेताओं से,जजों से मिलना उनके जीवन का हिस्सा बन गया था उनके अन्दर गजब का आत्मविश्वास रहा है जो आज भी कायम है। गांव में चाहे डीएम आया हो या एसएसपी उनके अन्दर कभी स्त्रियोचित्त संकोच मैने नही देखा है।
मेरी मां कक्षा तीन पढी थी उन्हें अक्षर ज्ञान था वो पढ भी लेती थी और आज भी हस्ताक्षर ही करती है। उनके संस्कार और मूल्य हम तीन भाई और एक बहन के अन्दर स्थाई रुप से बसे हुए है। मां ने हमें बताया कि अपने परिश्रम से अर्जित सम्पत्ति का यश भोग ही मनुष्य का नैतिक अधिकार होता है पैतृक सम्पत्ति के अभिमान में नही रहना चाहिए इसमें हमारी भूमिका मात्र हस्तांतरण भर की होती है। निजी तौर पर मेरे अन्दर सामंतवादी मूल्य नही विकसित हुए इसकी बडी वजह मां के दिए संस्कार ही थे। उन्होनें सदैव मानवता,करुणा और शरणागत वत्सल का पाठ पढाया इतनी बडी जमीदारन होने के बावजूद भी वो वंचितों के शोषण के कभी पक्ष में नही रही बल्कि ऐसा कई बार हुआ गांव ने अन्य शक्तिशाली ध्रूवों के द्वारा सताए गए लोगों की उन्होनें अपनी सीमाओं का अतिक्रमण करके मदद की। वो संकट में पडे किसी भी व्यक्ति की मदद के लिए सदैव तत्पर रहती थी।
अपने दैनिक जीवन में मां बेहद अनुशासित और आध्यात्मिक चेतना वाली महिला रही है। आज भी लगभग ब्यासी साल की उम्र में नित्य पूजा कर्म और यज्ञ करना उनके जीवन का अभिन्न हिस्सा बना हुआ है। मां को कभी कमजोर पडते मैने नही देखा अपनी याददाश्त के आधार पर कह सकता हूं कभी उनको शिकायत करते हुए नही देखा ना ही उनके अन्दर स्त्रियोचित्त अधीरता मुझे कभी नजर आई। मां के मन के संकल्प इतने मजबूत किस्म के रहे है कि उन्होने जो तय किया वो उन्होने प्राप्त भी किया है।
मेरे बडे भाई डॉ.अमित सिंह सर्जन ( एम.एस.) है मै पीएचडी (मनोविज्ञान) हूं और मुझसे छोटा भाई जनक बी टेक है हम तीनों भाई अपनी मां की वजह से ही उच्च शिक्षित और दीक्षित हो पाए है। एक बेहद लापरवाह किस्म के पारिवारिक परिवेश में मेरी मां अपने अपने पोत्रों के जीवन में मूल्यों और संस्कारों का निवेश किया है और उसी के बल पर हम एक बेहतर इंसान बनने की दिशा में आगे बढ पाएं है।
गत वर्ष पिताजी का लीवर की बीमारी के चलते आकस्मिक निधन हो गया यह सदमा जरुर मां के लिए अपूरणीय क्षति है इकलौते पुत्र के निधन नें उन्हे अन्दर से तोड दिया है मगर आज भी वो हमें हौसला देती रहती है। उनका होना भर एक बहुत बडी आश्वस्ति है। ये मां के संस्कारों का आत्मबल था कि पिताजी के निधन के उपरांत हम बहुत आत्मश्लाघी होकर न सोच पाए और मै अपनी स्थापित अकादमिक दुनिया और छोटा भाई अपनी एमएनसी की जॉब छोडकर गांव में खेती बाडी के प्रबंधन के लिए चले आए।
सदियों में ऐसी जीवट और जिजिविषा वाली महिला का जन्म होता है उनका जीवन स्वयं में एक अभिप्ररेणा की किताब है जिसको पढतें हुए जिन्दगी आसान और मुश्किलें कमजोर लगने लगती है। ऐसी दिव्य चेतना से मेरा रक्त सम्बंध जुडा हुआ है यह निश्चित रुप से मेरे प्रारब्ध और पूर्व जन्म के संचित् कर्मों का फल है। मेरे अन्दर संवेदना,सृजन,करुणा आदि कोमल भावों के बीज रोपण में मां की अभूतपूर्व भूमिका है। सार्वजनिक जीवन के हिसाब से मां महज़ मेरी दादी नही है बल्कि गांव की एक आदर्श महिला है जिसके व्यक्तित्व और कृतित्व से गांव का इतिहास अनेक वर्षो तक प्रकाशित होता रहेगा। निसन्देह उनका होना हमारे लिए एक सामाजिक गौरव का विषय है उनका व्यक्तित्व सदैव यही पाठ पढाता रहेगा कि परिस्थितियां चाहे कितनी भी प्रतिकूल क्यों न हो मनुष्य को अपने आत्मबल पर भरोसा रखना चाहिए। नीयत नेक हो तो मंजिल अवश्य ही मिलती है।
सबसे मुश्किल काम होता है खुद के किसी परिजन के विषय में निष्पक्ष एवं तथ्यात्मक रुप से संतुलित होकर लिखना मगर मै खुद की दादी ( जिन्हें सम्बोधन में मैं मां ही कहता हूं) के विषय में लिखते हुए किचिंत भी दुविधा में नही हूं जिसकी एक बडी वजह यह है कि वो मेरे लिए महज़ मेरी दादी (मां) नही है बल्कि एक आदर्श मातृछवि भी है इसलिए जीवनपर्यंत संघर्षरत रही ऐसी लौह महिला के विषय में लिखकर मै खुद को न केवल गौरवांवित महसूस कर रहा है बल्कि उन पर लिखना अपना एक नैतिक कर्तव्य भी समझता हूं। मेरे मन मे यदि कोई दुविधा है तो केवल इतनी है कि उनके विशद जीवन को एक लेख में समेट पाना तमाम शब्द सामर्थ्य के बावजूद भी बेहद मुश्किल काम है उनका जीवन स्वतंत्र रुप से एक जीवनी लेखन का विषय है।
गांव के पुरुष प्रधान समाज़ और जन-धन बल के जीवन में जिस प्रकार से उन्होनें संघर्षपूर्ण जीवन को अपने आत्मबल से जीया है वह न केवल अनुकरणीय है बल्कि व्यापक अर्थों में चरम विपरीत परिस्थितियों में ऐसा जीवन जीना अकल्पनीय भी है।
मात्र छब्बीस साल की उम्र में मां विधवा हो गई थी मेरे बाबा जी का मात्र 28 वर्ष की उम्र में टायफायड बुखार की वजह से आकस्मिक निधन हो गया था। चूंकि बाबा जी अकेले थे और गांव के बडें ज़मीदार घर में उनके जाने के बाद एकदम से सन्नाटा पसर गया था लगभग साढे तीन सौ बीघा जमीन और घर पर वारिस के नाम कोई व्यक्ति न बचा था। गांव में कोई कुटम्ब कुनबा भी नही था ऐसें मे बाबा जी के निधन से जो रिक्तता आई थी उसको भर पाना असम्भव कार्य था। गांव के समाजशास्त्रीय ढांचे में यह स्थिति बेहद जटिल किस्म की थी। इतनी बडी सम्पत्ति की देखरेख के लिए कोई पुरुष परिवार में नही था अमूमन तब यही अनुमान लगाया जा रहा था कि मेरी मां यहां की जमीन को औने-पौने दामों में बेच कर अपने मायके रहने चली जाएगी।
इस बेहद प्रतिकूल और आशाविहीन परिस्थिति में मां के इस निर्णय नें बुझती उम्मीदों को एक नई रोशनी दी जब उन्होनें तय किया वो कहीं नही जाएंगी और यही गांव में रहेंगी। यहां बताता चलूं जिस वक्त बाबा जी का निधन हुआ मेरे पिताजी दादी (मां) के गर्भ में थे। अतिशय चरम तनाव और अनिश्चिता के दौर में भी मां ने महस छब्बीस साल की उम्र में उस साहस का परिचय दिया जिसकी कल्पना आज भी सम्भव नही हो पाती है।
गांव की चौधरी परम्परा में पुरुषविहीन परिवार में इतनी बडी सम्पत्ति खेती-बाडी का संरक्षण कोई आसान काम नही थी उनका यह निर्णय कुछ पक्षों के लिए नागवार गुजरने जैसा था क्योंकि अमूमन यह मान लिया गया था कि अब यह परिवार बर्बाद हो गया है मगर मां नें अपनी हिम्मत,आत्मबल और सूझ-बूझ से एक पुरुष प्रधान समाज़ में अपनें परिवार को वो आधार प्रदान किया जिसकी वजह से आज भी मां न केवल गांव में बल्कि पूरे क्षेत्र में बेहद सम्मानीय है। शायद ही आसपास का कोई गांव ऐसा होगा जो लम्बरदारनी ( नम्बरदारनी) को न जानता होगा।
पिताजी के जन्म के बाद एक आशा का संचार हुआ कि परिवार में एक पुरुष वारिस पैदा हो गया है परंतु गांव की कुछ शक्तियों के लिए यह बहुत पाच्य किस्म खबर नही थी। पिताजी किशोरावस्था तक जाते जातें कुसंग का शिकार हो गए ( एक एजेंडे के तहत यह सब किया गया था फिलहाल वह उल्लेखनीय नही है)। पिताजी मदिरा व्यसनी हो गए जिसके फलस्वरुप उनकी भूमिका अपना वह आकार न ले सकी जिस उम्मीद से परिवार उनकी तरफ देख रहा था। कालांतर में उन्होने उस अवस्था में मदिरा त्यागी जब शरीर व्याधियों की शरण स्थली बन गई थी। मां की प्ररेणा से वो गांव के प्रधान और जिला सहकारी बैंक के डायरेक्टर भी रहें।
मेरी मां नें आजीवन संघर्ष किया गांव के पितृसत्तात्मक और जनबल के समाज़ के समक्ष वो अकेली वैधानिक लडाई लडती रही। जिस वक्त घर पुरुषविहीन हो गया था उन्होनें अपने मायके से कहकर अपना एक भाई स्थाई रुप से गांव में रखा वो खेती बाडी दिखवाते है। इन सब के पीछे की ऊर्जा प्ररेणा और सच्चाई की लडाई लडने वाली मां ही रही है।
उनके अन्दर गजब की जीवटता भरी थी नेतृत्व उनके खून में था इतने प्रतिशोध उन्होनें सहे कि सभी की चर्चा की जाए तो एक बडी कथा लिखी जा सकती है। जमीन से जुडे और अन्य फौजदारी के कई कई मुकदमें उन्होनें लडे क्योंकि उनको इस आशय से परेशान किया जाता था कि उनका मनोबल कमजोर हो जाए और वो गांव से भाग खडी हो। तहसील और जिले स्तर पर अधिकारियों से ,नेताओं से,जजों से मिलना उनके जीवन का हिस्सा बन गया था उनके अन्दर गजब का आत्मविश्वास रहा है जो आज भी कायम है। गांव में चाहे डीएम आया हो या एसएसपी उनके अन्दर कभी स्त्रियोचित्त संकोच मैने नही देखा है।
मेरी मां कक्षा तीन पढी थी उन्हें अक्षर ज्ञान था वो पढ भी लेती थी और आज भी हस्ताक्षर ही करती है। उनके संस्कार और मूल्य हम तीन भाई और एक बहन के अन्दर स्थाई रुप से बसे हुए है। मां ने हमें बताया कि अपने परिश्रम से अर्जित सम्पत्ति का यश भोग ही मनुष्य का नैतिक अधिकार होता है पैतृक सम्पत्ति के अभिमान में नही रहना चाहिए इसमें हमारी भूमिका मात्र हस्तांतरण भर की होती है। निजी तौर पर मेरे अन्दर सामंतवादी मूल्य नही विकसित हुए इसकी बडी वजह मां के दिए संस्कार ही थे। उन्होनें सदैव मानवता,करुणा और शरणागत वत्सल का पाठ पढाया इतनी बडी जमीदारन होने के बावजूद भी वो वंचितों के शोषण के कभी पक्ष में नही रही बल्कि ऐसा कई बार हुआ गांव ने अन्य शक्तिशाली ध्रूवों के द्वारा सताए गए लोगों की उन्होनें अपनी सीमाओं का अतिक्रमण करके मदद की। वो संकट में पडे किसी भी व्यक्ति की मदद के लिए सदैव तत्पर रहती थी।
अपने दैनिक जीवन में मां बेहद अनुशासित और आध्यात्मिक चेतना वाली महिला रही है। आज भी लगभग ब्यासी साल की उम्र में नित्य पूजा कर्म और यज्ञ करना उनके जीवन का अभिन्न हिस्सा बना हुआ है। मां को कभी कमजोर पडते मैने नही देखा अपनी याददाश्त के आधार पर कह सकता हूं कभी उनको शिकायत करते हुए नही देखा ना ही उनके अन्दर स्त्रियोचित्त अधीरता मुझे कभी नजर आई। मां के मन के संकल्प इतने मजबूत किस्म के रहे है कि उन्होने जो तय किया वो उन्होने प्राप्त भी किया है।
मेरे बडे भाई डॉ.अमित सिंह सर्जन ( एम.एस.) है मै पीएचडी (मनोविज्ञान) हूं और मुझसे छोटा भाई जनक बी टेक है हम तीनों भाई अपनी मां की वजह से ही उच्च शिक्षित और दीक्षित हो पाए है। एक बेहद लापरवाह किस्म के पारिवारिक परिवेश में मेरी मां अपने अपने पोत्रों के जीवन में मूल्यों और संस्कारों का निवेश किया है और उसी के बल पर हम एक बेहतर इंसान बनने की दिशा में आगे बढ पाएं है।
गत वर्ष पिताजी का लीवर की बीमारी के चलते आकस्मिक निधन हो गया यह सदमा जरुर मां के लिए अपूरणीय क्षति है इकलौते पुत्र के निधन नें उन्हे अन्दर से तोड दिया है मगर आज भी वो हमें हौसला देती रहती है। उनका होना भर एक बहुत बडी आश्वस्ति है। ये मां के संस्कारों का आत्मबल था कि पिताजी के निधन के उपरांत हम बहुत आत्मश्लाघी होकर न सोच पाए और मै अपनी स्थापित अकादमिक दुनिया और छोटा भाई अपनी एमएनसी की जॉब छोडकर गांव में खेती बाडी के प्रबंधन के लिए चले आए।
सदियों में ऐसी जीवट और जिजिविषा वाली महिला का जन्म होता है उनका जीवन स्वयं में एक अभिप्ररेणा की किताब है जिसको पढतें हुए जिन्दगी आसान और मुश्किलें कमजोर लगने लगती है। ऐसी दिव्य चेतना से मेरा रक्त सम्बंध जुडा हुआ है यह निश्चित रुप से मेरे प्रारब्ध और पूर्व जन्म के संचित् कर्मों का फल है। मेरे अन्दर संवेदना,सृजन,करुणा आदि कोमल भावों के बीज रोपण में मां की अभूतपूर्व भूमिका है। सार्वजनिक जीवन के हिसाब से मां महज़ मेरी दादी नही है बल्कि गांव की एक आदर्श महिला है जिसके व्यक्तित्व और कृतित्व से गांव का इतिहास अनेक वर्षो तक प्रकाशित होता रहेगा। निसन्देह उनका होना हमारे लिए एक सामाजिक गौरव का विषय है उनका व्यक्तित्व सदैव यही पाठ पढाता रहेगा कि परिस्थितियां चाहे कितनी भी प्रतिकूल क्यों न हो मनुष्य को अपने आत्मबल पर भरोसा रखना चाहिए। नीयत नेक हो तो मंजिल अवश्य ही मिलती है।
बहुत ही प्रेरणादायी व्यक्तित्व है, माँ को सुनाया वे भी भावुक हो गई, अभिनंदन ऐसी दादी का मेरी ओर से भी ... सादर प्रणाम !
ReplyDeleteआपने दादी माँ के बारे में बहुत ही धाराप्रवाह लिखा है। शुरुआत करने के बाद अंत तक पढता ही गया। दादी माँ जैसा व्यक्तित्व सदियों में बिरले ही जन्म लेते हसीन। उस काल के पुरुष प्रधान समाज मे इतनी जीवटता से इतनी बड़ी खेती बाड़ी सहेज लेना कोई हंसी खेल नही है।
ReplyDeleteदादी माँ को ईश्वर अच्छा स्वास्थ्य और लम्बी उम्र दे। बहुत शुभकामनाएं।
रामराम
#हिन्दी_ब्लागिंग
भूल सुधार
ReplyDeleteहसीन = है
पढा जाए।
मैं सचमुच इस लेख को पसंद करता हूं
ReplyDeleteहम आपके ब्लॉग को पूरी तरह से पसंद करते हैं और आपके लगभग सभी लेख पढ़ते हैं
ReplyDeleteप्रणाम
ReplyDeleteबेहद आदरणीय व्यकितत्व 💐💐💐
मेरा नतमस्तक प्रणाम।
ReplyDeleteआपके पिताजी पोसतुमस चाइल्ड थे और मेरे मामाजी ,आपकी दादी की जीवनी कुछ कुछ मेरी नानी से मिलती है। बाकी आपकी दादी (माँ) की जीवनी प्रेरणास्पद तो है ही।
ReplyDeleteDadi maa was really an Inspiring role model . May She Rest In Peace!
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