मन की बात:
अपनें देश में सरकारी नौकरी सामाजिक आर्थिक सुरक्षा की गारंटी समझी जाती है। यह उद्यमशीलता को भी घुन की तरह चाटती है। सवाल रोटी और सामाजिक प्रतिष्ठा से जुड़ा होता है इसलिए जोखिम लेनें की क्षमता भी स्वत: कमजोर हो जाती है।
ईमानदारी से कहूँ तो मुझे व्यक्तिगत तौर पर कभी सरकारी नौकरी ने उस तरह से आकर्षित नही किया है मैंने एक विश्वविद्यालय में सात साल तदर्थ नौकरी भी की है सम्भव है कल किसी विश्वविद्यालय/कॉलेज में फिर से स्थाई असि.प्रोफ़ेसरी करता पाया जाऊं। मगर मेरा ऐसा करनें की वजह सरकारी नौकरी का मोह नही होगा बल्कि हिंदी पट्टी में बतौर फ्रीलांस लेखक/कवि जीवन जीनें की क्षीण सम्भावनाओं के चलते ऐसा होगा।
फिलहाल जो स्थिति है उसमें हिंदी लेखक मात्र लेखन के जरिए अपने परिवार को नही पाल सकता है अतिशय श्रम के बावजूद भी न्यूनतम पारिश्रमिक/रॉयल्टी मिलती है। अपवाद स्वरूप कुछ नाम छोड़ दें तो तमाम हिंदी के बड़े लेखक का मुख्य व्यवसाय कुछ और रहा है जिसके जरिए उनका घर चलता था और लेखन उन्होंने द्वितीयक रूप से किया है। ये कहानी तो बड़े लेखकों की है जो नवोदित है उनकी उड़ान के लिए आसमान और भी ऊंचा हो जाता है।
हिंदी पट्टी में पूर्णकालिक लेखक होने की अवधारणा अभी विकसित नही हो पाई है लेखन को शौकिया काम ही समझा जाता रहा है जबकि अंग्रेजी के लेखन में परिस्थितियां ठीक इसके विपरीत है वहां फ्रीलांस राइटर अपनी बेस्ट सेलर के जरिए एक बढ़िया सामाजिक और आर्थिक सम्पन्न जिंदगी जीता है। भारत में भी समकालीन अंग्रेजी लेखकों की आर्थिक सामाजिक स्थिति कई गुना बेहतर है वो आत्मविश्वास भरी जिंदगी जीते है।
हिंदी के लेखक का जीवन त्रासद और उपेक्षित माने जाने के लिए शापित है कुछ इक्का दुक्का लोग मायानगरी मुम्बई की शिफ्ट हो जातें है वहां पैसा मिलता है अपेक्षाकृत पहचान गुम हो जाती है।
बहुत से सम्भावनाशील हिंदी के लेखक ऐसे ही सरकारी गैर सरकारी जिंदगी के बीच झूलते हुए अपना लेखकीय प्रतिदान समाज़ को देते है। पूर्णकालिक लेखक होकर जीना वास्तव में काफी मुश्किल काम है।
निजी तौर मेरी दिली तमन्ना है कि मैं एक पूर्णकालिक लेखक के रूप में जीवन जिऊँ लेखन के सिलसिले में मुक्त यायावर बन देश विदेश की यात्राऐं करूँ भिन्न भिन्न सभ्यता और संस्कृति के लोगो से मिलूँ उनके जीवन के अप्रकाशित पहलूओं की पड़ताल करते हुए उन पर लेखन करूँ। अच्छे विश्वविद्यालयों में विजिट करूँ महंगे बीयर बार में बैठ साहित्यिक चर्चा कर सकूं( अंग्रेजी लेखकों की तरह)
मगर साथ में मेरी कुछ सामाजिक जिम्मेदारियां भी है मुझे अपने परिवार के लिए बुनियादी सुविधाओं का ढांचा खड़ा करना है मेरे बच्चे बढ़िया स्कूल में पढ़ें इसका भी प्रबन्ध करना है और इन सबके लिए अंततः मुझे हारकर एक अदद सरकारी नौकरी की तरफ की देखना पड़ेगा क्योंकि हिंदी के मुक्ताकाशी लेखन से फिलहाल अपनें देश में मैं ये सब प्रबंध नही कर सकता हूँ जो मेरी पारिवारिक सामाजिक जरूरतों से जुडी हुई बुनियादी चीजें है।
यह हिंदी के लेखन के परिप्रेक्ष्य में बड़ी त्रासद बात है जिसके चलतें लेखक का एक बड़ा हिस्सा वो उपक्रम खा जाता है जहां उसका तन खपता है और इसी तन को खपा कर उसे तनख्वाह मिलती है जिसके जरिए उसका और उसके परिवार का पेट पलता है बाकि वो जो भी लिख रहा है उसे बोनस ही समझिए।
डिस्क्लेमर: मैं एक बड़े किसान परिवार से ताल्लुक रखता हूँ इसलिए मेरे लिए धन अर्जन कोई विषय नही होगा यह एक मिथक और पूर्वाग्रह होगा। यहां 'मैं' से मेरा आशय नितांत ही मेरे स्वतन्त्र अस्तित्व से है उसमें पैतृक पृष्टभूमि की कोई भूमिका नही है न ही उसे मैं एक साधन के रूप में कभी देखता हूँ।
अपनें देश में सरकारी नौकरी सामाजिक आर्थिक सुरक्षा की गारंटी समझी जाती है। यह उद्यमशीलता को भी घुन की तरह चाटती है। सवाल रोटी और सामाजिक प्रतिष्ठा से जुड़ा होता है इसलिए जोखिम लेनें की क्षमता भी स्वत: कमजोर हो जाती है।
ईमानदारी से कहूँ तो मुझे व्यक्तिगत तौर पर कभी सरकारी नौकरी ने उस तरह से आकर्षित नही किया है मैंने एक विश्वविद्यालय में सात साल तदर्थ नौकरी भी की है सम्भव है कल किसी विश्वविद्यालय/कॉलेज में फिर से स्थाई असि.प्रोफ़ेसरी करता पाया जाऊं। मगर मेरा ऐसा करनें की वजह सरकारी नौकरी का मोह नही होगा बल्कि हिंदी पट्टी में बतौर फ्रीलांस लेखक/कवि जीवन जीनें की क्षीण सम्भावनाओं के चलते ऐसा होगा।
फिलहाल जो स्थिति है उसमें हिंदी लेखक मात्र लेखन के जरिए अपने परिवार को नही पाल सकता है अतिशय श्रम के बावजूद भी न्यूनतम पारिश्रमिक/रॉयल्टी मिलती है। अपवाद स्वरूप कुछ नाम छोड़ दें तो तमाम हिंदी के बड़े लेखक का मुख्य व्यवसाय कुछ और रहा है जिसके जरिए उनका घर चलता था और लेखन उन्होंने द्वितीयक रूप से किया है। ये कहानी तो बड़े लेखकों की है जो नवोदित है उनकी उड़ान के लिए आसमान और भी ऊंचा हो जाता है।
हिंदी पट्टी में पूर्णकालिक लेखक होने की अवधारणा अभी विकसित नही हो पाई है लेखन को शौकिया काम ही समझा जाता रहा है जबकि अंग्रेजी के लेखन में परिस्थितियां ठीक इसके विपरीत है वहां फ्रीलांस राइटर अपनी बेस्ट सेलर के जरिए एक बढ़िया सामाजिक और आर्थिक सम्पन्न जिंदगी जीता है। भारत में भी समकालीन अंग्रेजी लेखकों की आर्थिक सामाजिक स्थिति कई गुना बेहतर है वो आत्मविश्वास भरी जिंदगी जीते है।
हिंदी के लेखक का जीवन त्रासद और उपेक्षित माने जाने के लिए शापित है कुछ इक्का दुक्का लोग मायानगरी मुम्बई की शिफ्ट हो जातें है वहां पैसा मिलता है अपेक्षाकृत पहचान गुम हो जाती है।
बहुत से सम्भावनाशील हिंदी के लेखक ऐसे ही सरकारी गैर सरकारी जिंदगी के बीच झूलते हुए अपना लेखकीय प्रतिदान समाज़ को देते है। पूर्णकालिक लेखक होकर जीना वास्तव में काफी मुश्किल काम है।
निजी तौर मेरी दिली तमन्ना है कि मैं एक पूर्णकालिक लेखक के रूप में जीवन जिऊँ लेखन के सिलसिले में मुक्त यायावर बन देश विदेश की यात्राऐं करूँ भिन्न भिन्न सभ्यता और संस्कृति के लोगो से मिलूँ उनके जीवन के अप्रकाशित पहलूओं की पड़ताल करते हुए उन पर लेखन करूँ। अच्छे विश्वविद्यालयों में विजिट करूँ महंगे बीयर बार में बैठ साहित्यिक चर्चा कर सकूं( अंग्रेजी लेखकों की तरह)
मगर साथ में मेरी कुछ सामाजिक जिम्मेदारियां भी है मुझे अपने परिवार के लिए बुनियादी सुविधाओं का ढांचा खड़ा करना है मेरे बच्चे बढ़िया स्कूल में पढ़ें इसका भी प्रबन्ध करना है और इन सबके लिए अंततः मुझे हारकर एक अदद सरकारी नौकरी की तरफ की देखना पड़ेगा क्योंकि हिंदी के मुक्ताकाशी लेखन से फिलहाल अपनें देश में मैं ये सब प्रबंध नही कर सकता हूँ जो मेरी पारिवारिक सामाजिक जरूरतों से जुडी हुई बुनियादी चीजें है।
यह हिंदी के लेखन के परिप्रेक्ष्य में बड़ी त्रासद बात है जिसके चलतें लेखक का एक बड़ा हिस्सा वो उपक्रम खा जाता है जहां उसका तन खपता है और इसी तन को खपा कर उसे तनख्वाह मिलती है जिसके जरिए उसका और उसके परिवार का पेट पलता है बाकि वो जो भी लिख रहा है उसे बोनस ही समझिए।
डिस्क्लेमर: मैं एक बड़े किसान परिवार से ताल्लुक रखता हूँ इसलिए मेरे लिए धन अर्जन कोई विषय नही होगा यह एक मिथक और पूर्वाग्रह होगा। यहां 'मैं' से मेरा आशय नितांत ही मेरे स्वतन्त्र अस्तित्व से है उसमें पैतृक पृष्टभूमि की कोई भूमिका नही है न ही उसे मैं एक साधन के रूप में कभी देखता हूँ।
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