Friday, June 12, 2015

हमउम्र

यह भी बड़ा विचित्र संयोग है मेरे जन्मवर्ष के हिसाब से मेरे तमाम दोस्तों में मैं सबसे छोटा हूँ। मेरे सभी दोस्त मुझसे उम्र में बड़े है और उम्र का यह अंतर एक साल से लेकर दस साल तक का है।कैलेंडर की भाषा में कहूँ तो मेरा कोई हमउम्र दोस्त नही है। मेरी सबसे गहरी दोस्ती 35-45 के वय के लोगो से है। विचित्र बात है इससे न मुझे कभी कोई असुविधा महसूस और न मेरे किसी बड़ी उम्र के मित्र को। अलबत्ता हमउम्र लोगो से मेरी ज्यादा निभ नही पाती है मेरे और उनके विषय और मन की दशा एकदम भिन्न किस्म की होती है।
दरअसल उम्र मेरे लिए महज एक देह की एक भौतिक आयु का फिनोमिना भर है मेरी यात्रा अस्तित्व की यात्रा है और वहां आयु निसन्देह एक छोटी इकाई भर है। शायद जीवन संघर्षों में मैंने अपने वय से आगे की जिंदगी का अभ्यास विकसित कर लिया है यह एक आत्म आश्वस्ति की प्रक्रिया भी समझी जा सकती है जहां आप खुद ही खुद के फ्रेंड फिलॉसफर और गाइड बन जातें हैं।
अध्यापन काल में कुछ छात्र अवश्य मित्रवत् हुए बस मेरे जीवन में वहीं छोटी उम्र के लोग बचें है मैंने कभी गुरुडम को विस्तारित नही किया और डिपार्टमेंट में खासकर रिसर्च स्कॉलर से लोकतांत्रिक और दोस्ताना व्यवहार रखा उसी की वजह से मेरे गुरु भाई आज भी मित्रवत् मुझसे जुड़े हुए है।
उम्र एक बड़ी मनोवैज्ञानिक बाधा होती है यह कनिष्टता और वरिष्टता की एक रेखा खींचती है इसमें लोग क्या तो आपको उपेक्षित करतें है या फिर बड़प्पन की केयर टाइप की फीलिंग में जीतें है। एकदम समानतावादी दृष्टि से किसी को स्वीकार करना मुश्किल होता है कनिष्टता के अपने बाल सुलभ संकोच होते है और वरिष्टता के अपने ईगो इशूज़।
मित्रता में समवयता का तर्क निजी तौर पर मुझे कभी नही जँचा मेरा मानना रहा है कि यदि आपके चेतना और सम्वेदना का स्तर समान है तो फिर ऐसी मित्रता की उपादेयता अधिक है बनिस्पत इसके कि आप अपने हमउम्र लोगो की मूर्खताएं बर्दाश्त करते रहो महज इसलिए कि वो आपके हमउम्र हैं।
बहरहाल, हो सकता है कि यह कोई मनोवैज्ञानिक असामान्यता हो (हालांकि अकादमिक पढ़ाई लिखाई में ऐसा को मनोरोग पढ़ा तो नही) या फिर मेरी यात्रा के अनुभव की थाती भी हो सकती है जहां मेरी उठ बैठ हमेशा अपने से बड़े लोगो के साथ ही रही है।
फ़िलहाल, जब अपने किसी चालीस साला या उससे ऊपर के दोस्त से बात होती है तो उस सम्वाद में आत्मीयता परिपक्व सम्वेदनशीलता और वैचारिकी का लोकतांत्रिक स्वरूप सबसे मुखर अवस्था में होता है।
पता नही मेरे जैसे कितने लोग होंगे मगर मैं अपने ऐसा होने में बेहद सहज खुश और समायोजित महसूस करता हूँ।
इस पोस्ट अपने चालीस साला दोस्त Sushil Upadhyay जी (वरिष्ठ पत्रकार एवं प्राध्यापक)से एक मनोगत टिप्पणी अवश्य चाहूंगा कि वो आखिर ऐसा कौन सा बिंदू होता है जो हमें हमेशा के लिए आयुबोध से मुक्त कर देता है।

डिस्क्लेमर: यह पोस्ट मुख्यत: फेसबुक दोस्तों से इतर दोस्तों के बारें में है। यहां अवश्य Ratanjeet Singh जैसे दोस्त भी है जो उम्र में छोटे भी है और दोस्त भी है मगर उनके लिए मैं पहले भाईसाहब/सर हूँ बाद में दोस्त इसी क्रम में कई नाम और भी है।

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