Saturday, October 30, 2010

मौसम

आजकल मौसम धीरे धीरे बदल रहा है ठंडक बढ रही सुबह शाम की सो मैने अपने कुछ गर्म कपडे आज निकलवाए है एकाध दिन धूप लगने के बाद पहनने के काबिल हो जाएंगे। आज विश्वविद्यालय मे अपने हास्टल के दिनों के पुराने साथी माहेश्वरी जी से मिलना हुआ। गुरुकुल मे आप यूं समझ लीजिए कि हम दो ही भीष्म पितामह रह गये है अपने ग्रुप के बाकि सबके सब अपनी दूनियादारी मे मशगूल हो गये हैं...कुछ परिपक्व और व्यावहारिक हो गये और कुछ दूनियादारी मे मशरुफ लेकिन यहाँ अपने साथ के लोगो मे से जब माहेश्वरी को देखता हूं तो लगता कि उनको अभी जमाने की हवा नही लगी है वें अभी तक वैसे ही है जैसे कभी मुझे हास्टल के कमरा नम्बर 14 मे मिलें थे। वही बेतरतीब जिन्दगी जीने की आदत अभी तक उनके वजूद का बडा हिस्सा है जो मुझे पसंद भी है। वैसे तो बिरादरी से बनिए है लेकिन आदत से बहुत बेतरतीब और लापरवाह साथ ही अतिसंवेदनशील भी और हिसाब-किताब मे बिल्कुल कच्चे मेरी तरह से।

आजकल वो भी गहरी पीडा से गुज़र रहे है अपने वजूद को लेकर परेशान रहते है और बार बार यह सवाल खुद से करते है कि आखिर मै कर क्या रहा हूं? वैसे आपको बता दूं कि लौकिक रुप से वें माईक्रोबायोलाजी से पी.एच.डी. कर रहे है अपने जमाने मे बडे पढाकु किस्म छात्र रहें है लेकिन दूनियादारी की परीक्षा मे उलझ कर रह गये है भले ही वे लगातार विश्वविद्यालय के टापर रहें है।

हम दोनो ने अपनी अपनी पीडा आज सांझी की वें मुझे कुछ ज्यादा ही सम्मान देते है जिसका मै कतई काबिल नही हूं लेकिन वे मेरी कविताओं के मुक्त कंठ के प्रशंसक है। साहित्य,सम्वेदना और कविता से उनका गहरा जुडाव है भले ही वे विज्ञान विषय के छात्र है। आज फिर मैने घर से आर्थिक मदद ली है बजट बहुत दिनों से बस मे नही आ रहा है सोचता हर बार हूं कि इस बार किसी से मांगना न पडे लेकिन ऐसा नही होता है अंतत: मुझे घर वालो के सामने हाथ फैलाने पडते है वहाँ से पैसा तो मिल ही जाता है लेकिन उसका मेरे पिताजी अहसास खुब कराते है ये उनकी आदत मे शुमार है ताकि भविष्य मे मै घर पर हो रही किसी विषय पर हो रही लोकतांत्रिक बहस में साधिकार हिस्सा न ले सकूं बस अपने पिताजी की स्वेच्छारिता के प्रति अपनी मौन समर्थन देता रहूं। इसमे उनको मानसिक सुख मिलता है अपने फर्ज को वोट मे बदलने की पुरी कोशिस करती है लेकिन मै इतना बेशर्म किस्म का इंसान हूं कि मै पैसा भी ले लेता हूं और गीता पर हाथ रखे बिना किसी भी विषय पर अपनी सच और बेबाक राय रखने से बाज नही आता हूं तभी तो मेरे पिताजी मुझे सियासती कहते है। मै पता नही किस किस्म का सियासती हूं ये मुझे भी नही पता है बस सच बोलने का आदी हूं इसलिए फसादी हूं....।

डा.अजीत

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