12 वी दर्जे में अर्थशास्त्र की किताब में पढ़ा था की ब्याज बचत का पुरस्कार है उस वक़्त केवल परीक्षा के लिहाज़ से केवल परिभाषा याद कर ली थी उस वक़्त इस परिभाषा में छिपी नसीहत को नही समझ पाया था और आज भी बचत के मामले में एकदम से निबट बुद्धू इंसान हूँ कहने को तो दो बैंक अकाउंट है लेकिन दोनों में जिस दिन मुद्रा आती है बेचारी उसके एकाध घंटे बाद ही एटीएम के हलक से मैं निगलवा लेता हूँ हाँ बस काम चल रहा है जैसे तैसे इसलिए सोचता नहीं हूँ सच तो यह भी है कि अभी आमदनी इतनी है भी नहीं कि बचत के रूप में इन्वेस्ट कर सकूँ अभी तो गाँव की एक कहावत के हिसाब से 'गेल गल्ला गेल पल्ला' (तुरंत आमंदनी और तुरंत खर्च ) करके जिंदगी चल रही है कभी कभी कुछ भाई-बंधू और दोस्त सलाह देते है कि कम से कम एक मेडिक्लैम पालिसी तो ले ही लो क्योंकि बुरा वक़्त बता कर नहीं आता है उस वक्त उनकी बात ठीक लगती है लेकिन बाद में सायास भूल जाता हूँ. आज बचत पुराण बांचने की एक वजह और भी है आज मुझे अपने माँ (दादी जी ) की एक आदत याद आ रही थी वैसे तो हम गाँव के बड़े जमीदार रहे है लेकिन कभी उस किस्म साहूकार कभी नहीं रहे कि हमारा पैसा गाँव में ब्याज पर चलता हो बस अपना काम चलता रहा है वजह एक यह भी थी कि मेरे पिताजी हद दर्जे के खर्चीले इंसान रहे है उनकी इस आदत से बहुत से लोगो को प्रश्रय मिलता रहा है....मेरी माँ (दादी जी ) को हमने बचपन से छोटी छोटी बचत करते देखा है उनके पास अनुभव था एक प्रतिबद्धता थी कि हमे आत्मनिर्भर बनाना है और हमे इस भाव से बड़ा करना है कि कभी अपनी पैतृक संपत्ति पर अभिमान नही करना है उन्होंने हमने यह सिखाया कि खुद के श्रम से अर्जित मुद्रा पर ही हमारा अधिकार होता है हम उसे अपने मन के मुताबिक़ खर्च कर सके उनकी मान्यता रही है कि पैतृक संपत्ति को लेकर हमारी दो ही जिम्मेदारियां है एक तो वह सुरक्षित रहे दूसरा उसको हम अपनी अगली पीढ़ी को यथारूप में स्थानांतरित कर सके.
मैं जब शायद पांचवी पढता था तब उन्होंने मेरे नाम से 25 रूपये महीने की गाँव के डाकघर में आरडी शुरू करवाई थी मेरी ही नहीं मेरे बाकि भाई बहनों के नाम से भी ही उन्होंने यही खाता खुलवाया था...वो हर महीने जमा करती रहती है और हमे याद भी नहीं था कि हमारे नाम से ऐसे कोई खाते भी है. वो साल दर साल जमा करती रही और जब वो राशि दो हजार हो गयी फिर उन्होंने उसके हमारे नाम से किसान विकास पत्र खरीद लिए बाद में हर पांच साल में वो रकम दुगनी होने पर उसको बदलवा देती थी...उन्होंने हमे भी नहीं बताया था कि ऐसी कोई बचत हमारे नाम से हो रही है...फिर एक दिन उन्होंने मुझे अपने पास बुलाया और कहा कि ये मैंने तुम सब के नाम थोड़ी सी बचत की है अब ये कागज़ तुम सब अपने अपने पास रखो...और जब जीवन में ऐसी भीड़ आ पड़े कि कंही से पैसे न मिल रहे हो और बेहद वाजिब ढंग से तुम्हे पैसो कि सख्त जरुरत हो तब इनको तुडवा कर अपना काम चला लेना ये पैसा तुम्हारे तब काम आएगा....उनके ये वचन किसी आशीर्वाद की तरह से एकदम से सही सच हुए आप यकीन नहीं करेंगे की एक वक्त मुझ पर ऐसा ही आन पड़ा था की कही से भी पैसा नहीं मिल पा रहा था और मुझे पैसो की सख्त जरुरत थी तब मुझे अपनी माँ के दिए किसान विकास पत्र की याद आयी और वो 25 रूपए महीने की मासिक बचत से बने किसान विकास पत्र ने मेरी पूरे 15000 की मदद की....और मेरे बड़े छोटे भाई-बहन के भी ऐसे ही वक्त में वो पैसा काम आया....तब मुझे एहसास हुआ की घर के बड़े बुजुर्ग वास्तव में कितने दूरदर्शी होते हैं और वो धन की उपयोगिता हम से बेहतर समझते थे क्योंकि उन्होंने अभाव देखा होता था... आज जब हम बचत के नाम पर सोचते है कि क्यों अपनी जरूरतों का गला घोंटा जाए ऐसे में उस दौर के लोग याद आते है जो अपने वर्तमान को संघर्ष की चक्की में पीस कर हमारा भविष्य सुरक्षित कर रहे थे.
sir ji aapne to rula diya aaj ....
ReplyDeleteNyc... ..
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