15 मई के सेवा विश्राम के बाद से ये समय आ गया है करीब-करीब तीन महीने होने को जा रहें है...कुल मिलाकर काफी मिला जुला किस्म का वक्त गुजरा पिछले साल के जितनी यात्राएं तो नही कर सका लेकिन फिर भी केदारनाथ के दर्शन हो गए साथ एकाध और जगह भटका गया है।
साफगौई और ईमानदारी का यही तकाज़ा है कि ये मान लिया जाए कि इन दिनों दिन बडे ही बेतरतीब और नीरस किस्म से कट रहें है गुलज़ार साहब की उस गज़ल की तरह जिन्दगी अपना फलसफा रोज पढा जाती है...दिन कुछ ऐसे गुजारता है कोई, अहसान जैसे उतारता है कोई...’ कमोबेश यही मन:स्थिति बनी हुई है। थिंक पाजिटिव जैसे जुमलो और मोटिवेशनल कायदों से परे मै मनोविज्ञान का विद्यार्थी होने के बावजूद जैसा महसूस कर रहा हूँ वैसा ही ब्याँ कर रहा हूँ वरना दिल बहलाने के ख्याल बहुत से अच्छे मेरे पास भी हैं।
कल प्रेमनगर आश्रम पर डॉ.सुशील उपाध्याय जी मुलाकात हुई अपनी कुछ सामयिक चिंताएं उनके साथ सांझा की कुल मिलाकर अपनी कही उनकी सुनी। उपाध्याय जी अभी चीन की यात्रा से लौटे से है सो उनसे चीन के मनो-सामाजिक जगत के बारे मे जानने का अवसर मिला.. उपाध्याय जी ने समग्रता के साथ अपनी चीन यात्रा का संक्षेप मे वृतांत कहा साथ मुझे हौसला भी दिया कि बदले हुए हालात मे कुछ बीच का रास्ता निकाल लिया जायेगा वो आत्मीयता से सुनतें है तथा सुख-दुख मे तुरंत ही शामिल हो जाते है मै इसलिए भी उनका कद्रदान हूँ वरना आजकल लोग कुछ ज्यादा ही आत्ममुग्ध होते जा रहे हैं बस यदि आप सहमत है तो ठीक है वरना आप आउटडेटड...। इन सब बातों के बीच फिलवक्त मन की बैचेनी दूसरी दिशा मे जा रही है किसी भी तरह से एक दशक से बनी हुई यथास्थिति को तोडने की जुगत दिल मे पल भी रही है और साथ जल भी रही है लेकिन मंजिल का पता रहबर से कैसे पता चले जब रहजन ही तनकीद मे माहिर मे हो..! ऐसी आधी-अधूरी मन:स्थिति मे ही दिन गुजर जाता है पिछले एक हफ्ते से तबीयत भी नासाज़ रही है सो उसका भी असर है दिल बोझिल और मन थका-थका सा रहता है।
बहरहाल, बदली हुई परिस्थितियों मे सामंजस्य स्थापित करने की एक कवायद चल रही है वक्त बदला है...लोग बदले है और हालात भी सो बसी इन्ही के बीच से मध्य मार्ग तलाश रहा हूँ गुजर जाने के लिए....। आवारा की डायरी के एकाध नियमित पाठकों के लिए इस पर लिखी तज़रबों की तहरीरें निराशा की गवाह बनती जा रही है जबकि हकीकत मे ऐसा नही है मै कतई निराश नही हूँ और न ही हताश बस थोडा मिज़ाज ही ऐसा कडवा हो गया है कि चाह कर भी दिलकश बातें पेश नही कर पाता हूँ...वरना किस्से और भी बहुत है।
अर्ज़ किया है:
हमारे दिल में भी झांखो अगर मिले फुरसत हम अपने चेहरो से इतने नज़र नही आतें... (प्रो.वसीम बरेलवी)
डॉ.अजीत
आपकी डायरी कह रही है की आप एक मजबूत इन्सान हैं | कभी हिम्मत नहीं हारने वाले !
ReplyDeleteआपकी डायरी
ReplyDeleteबहुत कुछ कह रही है