Sunday, July 31, 2016

कांवड़ यात्रा

कांवड़ यात्रा : एक मनो-सामाजिक पड़ताल
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आज कांवड़ यात्रा शिवलिंग पर गंगाजल के अभिषेक के उपरान्त समाप्त हो जायगी. पिछले एक हफ्ते से हरिद्वार शहर अति कोलाहल से बैचैन है. डांक कांवड़ पर बजते कानफोडू डीजे और अंधाधुंध चौपहिया,दुपहिया वाहनों की रफ़्तार ने शहर की नब्ज़ को रोक दिया है. ये हर साल की कहानी है जब हफ्ते दस दिन के लिए हरिद्वार शहर स्थानीय लोगो के लिए बैगाना हो जाता है.
पुलिस प्रशासन के लिए भी ये धार्मिक आयोजन कम बड़ी चुनौती नही होती है. एक नागरिक के तौर में जब मैं उनकी कार्यशैली देखता हूँ तो मुझे आश्चर्य और करुणा दोनों के मिश्रित भाव आते है आश्चर्य इस बात के लिए कैसे उमस भरी गर्मी में वो 16 से 18 घंटो की नियमित ड्यूटी करते है और करुणा इस बात के लिए कि बाद के तीन दिनों में उनका सारा प्रशिक्षण ध्वस्त हो जाता है फिर सब कुछ कांवडियो के नैतिक और अराजक बल से संचालित होता है. पुलिस और अर्द्धसैनिक बल तब महज दर्शक बनकर रह जाते है.
कांवड़ यात्रा की समाप्ति पर प्रशासन के चेहरे पर ठीक वैसे ही भाव होते है जैसे कोई जंग जीतने के बाद भारतीय सेना के चेहरे पर होते है. अब यहाँ सवाल यह उठता है कि कोई धार्मिक यात्रा इतनी बड़ी चुनौती बन सकती है क्या? हकीकत यही है कि ये बन चुकी है.
इस यात्रा का धार्मिक महत्व क्या है उसकी पड़ताल करना मेरा क्षेत्र नही है मैं दरअसल भीड़ का मनोविज्ञान देखकर उनका मनोसामाजिक विश्लेषण करने की कोशिस करता हूँ कि आखिर कौन लोग है ये जो साल में एक बार जबरदस्त यूफोरिया में भरकर इस शहर में आते है?

आंकड़े क्या कहते है:

कल अख़बार में छपी एक खबर के मुताबिक़ वर्ष 2007 में हरिद्वार में 50 लाख लोग कांवड़ लेने आए उसके बाद अख़बार ग्राफिक्स के जरिये साल दर साल इनकी संख्या में हुई अनापेक्षित बढ़ोतरी बताता है और लिखता है कि 2015 में कांवड़ ले जाने वालो की संख्या लगभग ढाई करोड़ थी. इस साल भीड़ देखकर अंदाज़ा लगाया जा सकता है ये आंकड़ा दो गुना भी हो सकता है. मैं आंकड़ो की तथ्यात्मक सच्चाई नही जानता हूँ हो सकता है इसमें कुछ अतिरंजना भी हो मगर भीड़ हर साल बेहताशा बढ़ रही है इस बात का मैं खुद साक्षी हूँ.

कौन है ये कांवड़ लें जाने वाले लोग?

आस्था बेहद संवेदनशील चीज़ है और निजी भी. हमारे देश में सबसे जल्दी खंडित होने वाली चीज भी आस्था ही है.आस्था के नाम पर खूब क़त्ल ए आम भी हुआ है इसका इतिहास साक्षी है. मेरा मनोविश्लेषक मन कम से कम ढाई करोड़ भीड़ को आस्थावान मानने से इनकार करता है.
मनौती पूरी होने पर कांवड़ ले जाने वाले लोग इस भीड़ का दस प्रतिशत भी नही होंगे ऐसा मेरा अनुमान है. असल की जो कांवड़ यात्रा है वो पैदल कंधो पर जल लेकर जाने की यात्रा है उसमें देह का एक कष्ट भी शामिल है इसलिए उसको एकबारगी आस्था के नजरिये से समझा जा सकता है मगर जो ट्रेक्टर ट्रोली, ट्रक, डीसीएम आदि पर लदे डीजे और गैंग बनाकर चलते युवाओं की टोलियों की कांवड़ यात्रा है उसका मनोसामाजिक चरित्र पैदल चलने वालो से भिन्न है. पैदल चलने वाले कांवडिए अपेक्षाकृत एकान्तिक और शांत रहते है मगर साईलेंसर निकली बाइक और चौपहिया वाहनों वाले कांवडिए हिंसक और अराजक है.

भीड़ का मनोविज्ञान और मनोसामाजिक पृष्ठभूमि:

भारत जैसे विकासशील देश के पास जो कुछ चंद गर्व करने की चीज़े प्रचारित की जाती है उनमे से एक यह भी है हमारे पास सबसे ज्यादा युवा जनसँख्या है. मगर जिस देश का युवा हुक्के कि चिलम भरे या भांग का सुट्टा लगाया हरिद्वार से अपनी घर की तरफ वाहनों के आगे डाकिया बना दौड़ रहा है उस युवा पर मुझे थोडा कम गर्व होने लगता है. मुझे उसकी ऊर्जा अब उस रूप में प्रभावित नही कर पाती है जिसमे देश का आत्मबल झलकता हो.इस बार कि कांवड़ यात्रा में तिरंगा भी खूब दिखाई दिया धर्म और देशभक्ति का ये कॉकटेल सच में डराता भी है. यदि किसी को किसी कांवडिए के किसी क्रियाकलाप पर ऐतराज़ है तो उसके हाथ में झन्डा और डंडा दोनों है मौका पड़ने पर वो झंड सर पर कफ़न की तरह बाँध लेगा और डंडे को भीड़ में भांजने से भी गुरेज़ नही करेगा.
अपने देश के युवाओं का ये मानसिक धरातल बहुत उत्साहित नही करता है बल्कि ये काफी निराशाजनक है. ये देश के वो युवा है जिनका दावा मिटटी से जुड़े होने का है ये सोशलाईटस टाइप के यूथ नही है जो गूगल के जरिये देश को जानते हो ना ही ये टेबलायड पढ़कर बड़े हुए युवा है इसलिए इनके इस उत्साह को देखकर चिंता बढ़ जाती है.
जब मैं कांवड यात्रा में दौड़ते युवाओं को देखता हूँ तो मौटे तौर पर भीड़ को मनोवैज्ञानिक दृष्टिकोण से इस प्रकार से वर्गीकृत कर पाता हूँ:

1.यह भीड़ देश के मध्यमवर्गीय युवाओं की भीड़ है जिसमे बहुतायत में किसान जातियों के युवा है. यदि इनके रोजगार का आंकलन किया जाए तो अधिकांश भीड़ का संदर्श मौसमी बेरोज़गारी से भी जुड़ा मिलेगा.

2.चेतना या विजन की दृष्टि से ये युवा वर्ग ठीक उसी निराशा से गुजर रहा है जिस से देश का पढ़ा लिखा युवा भी गुजर रहा है.

3.इस युवा वर्ग के निजी जीवन में एकान्तिक नीरसता और निर्वात बसा हुआ है तभी ये जीवन की अर्थवेत्ता इस किस्म के आयोजनों में तलाश रहा है.

4.इस युवा वर्ग के पास ऐसे अधेड़ वर्ग के लोगो का संरक्षण है जो अपने जीवन में कुछ ख़ास नही कर पायें हैं जिन्होंने जीवन का अधिकतम आनंद मेहमान बनकर या शादियों में शामिल होकर उठाया है.

5.निसंदेह इस भीड़ में स्पोर्ट्समेन स्प्रिट है मगर उसका उपयोग सही दिशा में न कर पाने के लिए ‘स्टेट’ बड़ा दोषी है.

6.लक्ष्य विहीन सपने विहीन पीढ़ी अक्सर ऐसे निरुद्धेश्य दौडती पाई जाती है. उनका अपना कोई विवेक या यूटोपिया नही होता है और यह कांवड जैसी यात्रा साफ़ तौर पर हमें भारत के ऐसे युवाओं को एक साथ देखने का अवसर देती है. ये भारत के युवाओं के अंदरूनी हालात का एक बढ़िया साइकोलॉजिकल प्रोजेक्शन है.

7.साल भर मनमुताबिक जिंदगी न जीने की कुंठा में जीते लोगो को जब साल में एक अवसर दिखता है तब वे उत्साह के चरम पर होते है और यही उत्साह उन्हें हिंसक और अराजक बनता है.

8.इस यात्रा के युवाओं में जो हिंसा और अराजकता दिखती है ( जिसमे महिलाओं पर अश्लील फब्तियां कसना भी शामिल है) वो दरअसल उनके बेहद मामूली और सतही जीवन से उपजी एक खीझ है इस यात्रा के जरिये वे खुद का ‘ख़ास’ होना महसूसते है और अक्सर अपना आपा खो बैठते है. पितृ सत्तात्मक और सामंती चेतना भी इसकी एक अन्य बड़ी वजह मुझे नजर आती है

...और अंत में यही कहना चाहता हूँ धर्म और आस्था हमें एक बेहतर मनुष्य बनाये तभी इनकी उपयोगिता है यदि आस्था किसी अन्य की असुविधा का कारण बनती है तब इसे आपकी निजी कमजोरी के रूप में देखा जाना चाहिए.दस दिन से अस्त व्यस्त शहर जब कल सुबह जगेगा तब उसकी छाती पर असंख्य कूड़े का ढेर होगा साथ ही अच्छी खासी मात्रा में गंदगी होगी कांवडिए तो शहर छोड़ जाएंगे मगर उनकी गंध एक पखवाड़े तक इस शहर का पीछा करेगी यदि बारिश न बरसे तो इनके मल-मूत्र से शहर में संक्रमित बीमारियां फ़ैल सकने की सम्भावना से इनकार नही किया जा सकता है.

कल से स्कूल कालेज खुलेगे बच्चे जो घरो में कैद हैं उन्हें स्कूल जाने का मौका मिलेगा ये सब चीज़े सोच कर सुख मिल रहा है और इस यात्रा को याद करने की एक भी सुखद वजह मै नही तलाश पा रहा हूँ इसलिए इंसान के रूप में भोले बने शिव तत्वों ये आपकी बडी नैतिक पराजय है. हो सके तो इस यात्रा ये चरित्र बदलिए हालांकि मै एक बेमैनी उम्मीद रख रहा हूँ मगर फिलहाल रख सकता हूँ क्योंकि आपकी तरह मै भी इस देश का एक संघर्षरत युवा हूँ.

बोल बम ! बम ! बम !
खोल लब कि लब आजाद है तेरे....!

© डॉ. अजित

Sunday, May 29, 2016

गाँव की यादें

गाँव में गर्मियों की छुट्टियों में या फिर स्कूल से आकर पशुओं को चारा डालनें उनका गोबर हटाने और नहाने पानी पिलाने की जिम्मेदारी बच्चों पर आ जाती थी।
तब हाथ के हैंडपम्प (नलके ) से पानी खिंचा जाता था नल के सामनें एक कटा हुआ ड्रम रखा होता है हम बच्चें उसे मिलकर भरते थे फिर डांगरो (पशुओं) को पानी पिलाने और नहाने का काम करते थे।
सह अस्तित्व का इससे बढ़िया सामाजिक प्रशिक्षण कुछ और नही हो सकता था ये गतिविधि हमें संवेदनशील बनाती थी तथा पशुओं के प्रति करुणा को हमारे मन में विकसित करती थी।
पशुओं को बच्चों के नरम हाथों से नहाने में खूब मजा आता था मरखणी भैंस ( जो टक्कर मारती है) तब अकेली पड़ जाती थी हम उसको घूँटे पर ही बाल्टी से पानी पिलाते थे उसका नहाना भी प्रायः स्थगित रहता था।
जैसे ही पशु को खूंटे से खोलकर नलके के पास लातें वो पानी पीने में आना कानी करती तो हम छैया छैया (पानी पीने के नम्र निवेदन की कूट भाषा) कहते उसकी पीठ पर हाथ फेरते फिर वो आराम से पानी पीती। पानी पीते वक्त हम उसके सींग की जड़ के आसपास हाथ से खुजाते इससे भैंस को बहुत मजा आता वो आराम से पानी पीती जाती। नहाने के समय सबसे बड़ी चुनौति होती उनके शरीर पर जो गोबर सूख गया है उसको कैसे उतारा जाए हम उसको गीला करते और फिर जिस प्लास्टिक के डिब्बे से पानी डाल नहला रहे होते उसी से उस सूखे गोबर को रगड़कर उतारते थे इसके अलावा भैंस अपने थनों को लेकर अतिरिक्त संवेदनशील होती है वहां की साफ़ सफाई मुश्किल होती थी वो वहां हाथ न लगनें देती थी  मगर धीरे धीरे उन्हें बच्चों के हाथों की आदत हो जाती थी और वो आराम से थन साफ़ करवाती थी।
भैंसे की सवारी भी उन दिनों का एक बड़ा शगल हुआ करता था मैं भैंसे को खूंटे से खोलता और खोर (पशुओं के चारा डालने की जगह) पर चढ़कर उसकी पीठ पर सवार हो लेता था फिर नलके तक उसकी पीठ पर सवारी करके यमराज बनके पहुँचता था। पशुओं को नहलाते समय जो बच्चा नलका चला रहा होता वो चाहता कि पानी कम खर्च हो मगर हम खूब पानी से तर बतर करके पशुओं को नहलाते थे।
नहाने के बाद पशुओं के सींगो की जड़ में और सींग पर सरसों का तेल लगाते थे ताकि वो चमक उठे। नहाने से पहले पशुओं को चारा डाला जाता जिसके लिए सान्नी करनी पड़ती थी खल को भूसे और हरे चारे पर डालकर मिक्स करते थे धूप में सरसों की खल से हाथों में तेज जलन मचती थी फिर हम चोकर की बाल्टी में हाथ डालकर उसे शांत करते थे।
शाम तक काम निबटता था फिर घेर में धूल के ऊपर पानी छिड़कते थे और चारपाई बिछाकर बैठते थे उस वक्त पानी छिड़कने के बाद जो माटी की जो सोंधी खुशबू आती थी वो कमाल की होती थी।
हर घर में एक झोट्टी (भैंस) जरूर होती जो किसी के हात्तड़ पड़ जाती हात्तड़ का मतलब होता वो केवल एक उसी व्यक्ति को दूध निकालनें देती थी बाकि कोई बैठता था तो लात मारती थी ऐसे में वो शख्स यदि गाँव से बाहर जाता था तो उसे हर हाल में शाम तक घर आना पड़ता था वरना भैंस रींक-रींक कर ( रम्भाते हुए) बुरा हाल कर देती थी। मनुष्य और पशु के आपसी प्रेम का यह एक अद्भुत उदाहरण था।
हमारे यहां एक भैंस थी जो एक टाइम दूध देने लगी थी मैंने उसकी खूब सेवा की बढ़िया चारा डाला उसकी त्वचा से चिंचडी(परजीवी) हटाए उसके सींगो की मालिश की दो बार अलग से चोकर डालता था फिर उसनें शाम को भी दूध देना शुरू कर दिया था दूध निकालते समय मुझे उसके माथे पर हाथ फेरना होता था।
कुल मिलाकर बड़ी आत्मीय दुनिया था हम बच्चे पशुओं के साथ खूब घुल मिल जाते थे छोटे बछड़े और कटड़े/कटड़ी हमें देखकर उछलना शुरू कर देते थे मानों वो हमारे गहरे दोस्त हो।
शाम को हम बाल्टी भर दूध लेकर जब घर पहुँचते तो हमारी माँ हमें स्नेह और आदर से एक साथ देखती उन्हें लगता किसान का बेटा अपने मूल जीवन को जी कर आ रहा है वो चाहती थी हम खूब पढ़े लिखें आगे बढ़ें मगर एक अनिवार्य प्रशिक्षण के तौर पर और जीवनशैली के हिस्से के रूप में खेत खलिहान और पशुओं से जीवनपर्यन्त जुड़े रहें उनसे कभी मुंह न मोड़े।
अब जब सबकुछ छूट गया तब ये कुछ यादें ही है जिनके सहारे मेरे जैसे न जाने कितने लोग अपना वो बचपन जी सकते है जब हमारी दुनिया का एक बड़ा हिस्सा पशु रहें थे।

'यादें गाँव की'

Wednesday, April 6, 2016

स्कूल डेज़

हम तो खैर पांचवी तक परिषदीय प्राईमेरी पाठशाला में पढ़ें उसके बाद पास के कस्बे के इंटरमीडिएट कालेज (सीनियर सैकण्डरी स्कूल) में बारहवीं तक पढ़ाई की वहां सब के सब टीचर मेल ही थे जो सदा 'ज्ञानदेई' से हमारी मरम्मत को तत्पर रहतें थे। किसी फीमेल टीचर ने हमें स्कूल लेवल में नही पढ़ाया।
हायर एजुकेशन में हॉस्टल के दिनों में जो साथी कान्वेंट स्कूल से पढ़कर आए थे उनके किस्सों में दो बातें आम हुआ करती थी कि क्लास में हिंदी बोलनें पर फाइन लगता था और उनकी लाइफ का पहला 'क्रश' स्कूल के दिनों में किसी मैडम पर रहा होता था।
तब ये उनके क्रश के किस्से सुनकर मुझे अचरज हुआ करता था मगर बाद में इस बात का साधारणीकरण हो गया। अचरज इसलिए भी होता था प्लस टू तक हमनें अपने जीवन के क्रूरतम टीचर(हालांकि हम आजतक उनका दिल से सम्मान करते है) देखे थे इंटर कालेज में क्लास रूम में जो जितनी कड़ी पिटाई करें वो उतना ही अनुशासनप्रिय और प्रभावी टीचर होता था। हमारे प्रिंसिपल और चीफ प्रॉक्टर की बेंत मुझे आजतक याद है।
एक तरफ हम पिट कर सीख रहें थे वही दूसरी तरफ हमारे कुछ कान्वेंट स्कूल में पढ़े दोस्त एटिकेट्स कानशिएस,इंग्लिश स्पोकन में माहिर हो रहे थे ऐसे में उनका खूबसूरत टीचर के प्रति पहला क्रश होना अस्वाभाविक नही कहा जा सकता है। दो अलग अलग डिस्प्लीन से निकलें बच्चों के अनुभव एकदम अलहदा थे। जेंडर को लेकर हमारे संकोच बेहद गहरे थे तो वही इंग्लिश मीडियम कान्वेंट में पढ़े बच्चों के पास अपनी महिला टीचर को आर्चीज के कार्ड देने और उनके प्रोमिल स्नेह के बड़े रागात्मक किस्से हुआ करते थें।
हमारे लिए वो दुनिया किसी फंतासी से कम नही थी क्योंकि एक तरफ हमारे पिछवाड़े ज्ञानदेई से दीक्षित थे और हमारी नसों में टीचर्स का आतंक भरा सम्मान दौड़ रहा था वही दूसरी तरफ कुछ दोस्त मैडम की ड्रेसिंग सेंस और स्माइल की तारीफ़ के बदलें 'हग' का लुत्फ़ लेकर आए थे वो अपनी मैडम टीचर्स के डियो की खुशबू से लेकर हैंकी का रंग तक बता सकते थे और हम केवल ये जानते थे कि जिस दिन त्यागी जी (हमारे भूगोल टीचर) के सामने क्लास में ये न बता पाएं कि उष्ण कटिबन्धीय और सम शीतोष्ण में क्या अंतर है? उसदिन उंगलियो के पोरों पर ऐसे बेंत मारते कि बहुत देर तक जलन न मिटती थी और हम मारे पुरुषोचित्त अभिमान के क्लास में रो तक न सकते थे बस बैंच पर बैठ उंगलियों पर ऐसे फूंक मारते मानो जल गई हो।

'स्कूल डेज़'

Wednesday, March 9, 2016

पत्र

अप्रिय विजय माल्या जी,
आपका देश से फुर्र होना तो पहले से ही तय था मेरी तरह देश की जनता को आपके डिफाल्टर होने की खबर बहुत दिनों से थी बस ये खबर उन लोगो के लिए कोई खबर नही थी जो आपके जाने के लिए इंतजाम में लगें हुए थे। विदेश जाना कोई बस पकड़कर बगल के शहर में जाना तो है नही वैसे तो आप एनआरआई स्टेट्स में रहकर भारतीयता का लुत्फ़ लूट रहे थे इसलिए हो सकता है आपको वीजा जैसी औपचारिकताओं से न गुजरना पड़ा हो और अगर पड़ा भी हो तो भारत सरकार को इसकी कानोंकान खबर नही लगी सच में ये विदेश मंत्रालय की बहुत बड़ी उपलब्धि है। नियम कायदे कानून के हिसाब से तो बाकायदा विदेश मंत्रालय में एक अलग से सेल होती है जिनके पास ये हिसाब होता है देश के अलग अलग पोर्ट से कितने लोग विदेश गए और कितने विदेशी देश में दाखिल हुए मगर आप तो सीधा इधर से अंतरध्यान हुए और सीधे उधर विदेश में प्रकट हो गए है। विदेश एक बहुत बड़ा शब्द है न जाने आप कहाँ है हमारे देश की एजेंसियां तो फ़िलहाल किसी देश का नाम लेने की स्थिति में भी नही है अपुष्ट सूत्रों के हवालें से आपके लन्दन में होने की खबर मिली है।
वैसे आपने अच्छा ही किया 9000 करोड़ डकार कर। सार्वजनिक क्षेत्र के बैंको को पहली दफा लोन का अर्थ समझ आ रहा है वरना अभी तक तो वो लोन देते थे और बदलें में लोन लेने वाले को मूल सहित खरीद लेते थे आपने उनकी मलाई चाटी और उन्ही के गाल पर चांटा लगाकर साफ़ हो गए।
आपको वापिस देश लाना न इस सरकार के बस की बात है और किसी और सरकार के बस की बात थी हम कुछ कुछ मोर्चो पर बहुत आक्रमक रहतें है और कुछ पर एकदम चुप्पी साध लेते है। हमारा भारत ऐसे ही इंक्रीडिबल इंडिया बना है। आपकी ही परम्परा का ललित मोदी आपको बाकी के सारे गुर सिखा देगा कि कैसे भारत संघ के कानून को टेम्स नदी के पुल पर खड़े होकर चिंदी चिंदी करके फाड़ फेंकना है।
आपके पास वकीलों की फ़ौज़ है और नेताओं की दोस्ती ऐसे में कोई आपका कोई कुछ नही उखाड़ पाएगा आराम से मौज लीजिए। आपके कलाबोध के लिए ये देश सदैव आपका ऋणी रहेगा आप बीयर और शराब किंग कहे जाते है सच में आपके नशे में ये देश ऐसा मशगूल हुआ कि जब तक आँख खुली आप बेगाने देश जा चुके थे।
आपके इस तरह चलें जानें से बैंको के ऑडिट हेड को जरूर थोड़ी परेशानी हो रही है मगर उसका भी कोई समाधान राहत पैकेज देकर भारत सरकार निकाल लेगी आपके यूं चले जाने से वो कर्जदार जरूर निराश है जिनके पास आप जैसा रसूख  नही है अब आपसे कर्जा न वसूल पाने की कुंठा में बैंक उन कर्जदारों  पर डंडा सख्त करेंगे जिन्होंने खेती बाड़ी या बिटिया के ब्याह के लिए अपनी जमीन बैंक में गिरवी रखकर कर्जा लिया है। कुछ जरूरतमंद कर्जदारों के लिए आप जरूर मुसीबत खड़ी कर गए है मगर आपको इससे क्या फर्क पड़ता है क्योंकि आपने तो कर्ज लेते समय ही सोच लिया था कि एक दमड़ी भी नही लौटानी है।
आप जहां भी है देर सबेर पता लग ही जाएगा और  जगह पता लगनें से क्या होता है क्योंकि आप सच्चे अर्थो में विश्व नागरिक है आपके पास मुद्रा है तो सारी दुनिया आपकी अपनी है असल मुसीबत तो उन वक्त के मारों की है जिनके कर्जा चुकाने की विल है मगर पैसा नही जिनके पास भूख है मगर रोटी नही।
आपसे पहले कर्जा लेते हुए हर भारतीय नागरिक डरा करता था मगर अब आपने वो डर खत्म किया है आपने बताया कि यदि पेट के साथ दिमाग भी बड़ा हो तो आप आराम से देश का पैसा हजम कर सकतें हैं।
टैक्स पेयर जनता आपको लेकर कोई इंकलाब करेगी इसकी कोई उम्मीद नही है वो खुद ईएमआई के जरिए जिन्दा है आपने व्यापक अर्थो में एक उम्मीद को जन्म दिया है भारत जैसे विकासशील देश को इसकी सख्त जरूरत थी।
कला,अर्थ,कूटनीति और आपके आत्मविश्वास के लिए ये देश आपको सदैव याद रखेगा। मैं आपकी लम्बी उम्र की दुआ करता हूँ ताकि आपको देख हमें अपने देश की मजबूरी बार बार याद आती रहें।

आपकी ही तरह कुछ देश का कुछ दोस्तों का कर्जमंद
एक भारतीय नागरिक

Saturday, January 16, 2016

बैंड बाजा

बैंड बाज़ा: एक बेसुरी धुन यह भी
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वो हमारे बीच में किसी मिथक की तरह रहते है समाज़ उन्हें क्षेपक से ज्यादा कुछ नही समझताहमारी खुशियों में भरपूर रंग जमाने की सारी जिम्मेदारी उन्ही की होती है मगर हम कभी उनके जीवन में पसरें दुखों को जाननें की कोशिश भी नही करत। वो हमारे किस्सों में सतही हास्य और व्यंग्य के रुप में जिंदा रहते है मसलन हम किसी के गर्दन पर बढे हुए बाल या कलरफुल ड्रेस को देखकर कहते है कि देखो क्या बाजेवाला सा बना घूम रहा है !
हम कभी यह अन्दाज़ा नही लगा पाते है कि हमारी खुशियों में बैंड बजाने वाले लोगो की असल जिन्दगी में किस कदर बैंड बजी होती है वो सांस की बीमारियों से लडते फेफडों को अधिकतम विस्तार तक फैलाते हमारे लिए वो धुन निकालते है जिस पर हम मदहोश होकर थिरक सकें।
बैंड का मैकनिज़्म भी बडा अजीब है जिसे सबसे ज्यादा मेहनत करनी होती है वो हमेशा हाशिए पर रहता है बैंड का मास्टर तो फिर भी नेग लूटता रहता है मगर जो बडे ब्रास के बने बैंड मे दम भर फूंक भर रहे होते है उनके गले की उभरी हुई नसें और आंखों की पुतलियों का अधिकतम फैलाव उन्हें मानवीय श्रम के चरम पर टांग देता है मगर उन्हें न तारीफ मिलती है और न ही नेग ही। हालांकि खुशियों में पैसे उडाना एक किस्म का सामंती ही चलन है जहां किसी के फन की वास्तविक कद्र करने की बजाए पैसा उडाकर स्वामित्व का बडा अजीब प्रदर्शन किया जाता है।
जब मै किसी बैंड को देखता हूं तो उसमे मौसमी मजदूर की तरह काम करने बैंड के अधेड से लेकर बुजुर्ग मेम्बर पर नजर जाती है वो उम्र के इस पडाव मे अजीब सी शून्यता को झेलते हुए अपने कन्धे में सांप के जैसा बैंड ढोने के लिए बाध्य है। फुरसत मे बीडी फूंकते हुए उन्हे देख लगता है जैसे उनकी जिन्दगी मे कोई खुशी की धुन नही है वो खुशियों को सुनने केमामलें में लगभग बहरे हो गए है। सांस और फेफडे की बीमारी एक उम्र के बाद उनको अपने कब्जे मे ले लेती है क्योंकि वो अपनी सांस की नली का सामान्य व्यक्ति से चार गुना ज्यादा उपयोग करते है ऐसे में उनके फेफडे असामान्य फैलाव के शिकार हो जाते है। कभी गौर से उनकें होठ देखिएगा कैसे बैंड के पाईप पर लगे-लगे उलथ जाते है। हम अन्दाज़ा भी नही लगा सकते है कि किसी फिल्मी गाने की धुन बजाने के लिए कितना अधिक शारीरिक श्रम लगता है।
गरीबी,बीमारी कुपोषण से वो रोज़ लडतें है मगर फिर भी उनके लिए थकना मना होता है उन्हें हर हाल में जहां भर की फूंक खुद के अन्दर इकट्ठी करनी होती है और फिर गानें की डिमांड के मुताबिक छोडना होता है ताकि हम खुशी मे झूम कर थिरक सकें।
यह सच है कि ब्रास बैंड एक टीम वर्क होता है मगर फिर भी इस टीम के अधेड और बुजुर्गवार सदस्यों की तकलीफें सच में कम नही होती है उम्र के लिहाज़ से सबसे पीछे रहना होता है और सबसे कम पैसा उनको मिलता है इसके अलावा उमस भरी गर्मी जो ड्रेस बैंड वाले पहनतें वह भी कम कष्टदायक नही है न जाने कौन ऐसी ड्रेस डिजाईन करता है मोटा चमकीला कपडा उपर से उस ड्रेस का चरित्र वही मालिक और सेवक वाला होता है।
मुझे लगता है बैंड बजाना ठीक वैसा ही एक फन है जैसे कोई दूसरा म्यूजिक इंस्ट्रुमेंट बजाने का होता है मगर एक पेशे और रीत के रुप में यह उतना सम्मानजनक कभी नही रहा है ये बस खुशियों के बदलें मनुष्य के अधिकतम उपयोग के दर्शन पर चलता आया है। एक पेशे के रुप में बैंड बजाना भी समाज मे हाशिए पर जी रहे लोगो का पेशा रहा है इसलिए इससे जुडा सामाजिक सन्दर्भ भी सतत साथ चलता है।
आजकल तो डीजे वाले बाबू नें बैंड के काम को वैसे ही काफी कम दिया गया है मगर फिर भी जो लोग इस पेशे से सीजनल जुडे हुए है उनके जीवन में उन खुशियों का दशमांश भी नही होता है जिनके वो साक्षी होते है वो अनजाने लोगो के बीच अपने दुख छोड चमकीली ड्रेस जरुर पहनतें है मगर उसके नीचे उनके पैबंद लगे कपडे ही होते है वो सुर को जरुर साधते है मगर उनकी खुद की दुनिया के सपनें और सुख इतने बेसुरे होते है कि वो न उन्हें देख पाते है और न सुन पातें है।
श्रम का क्रुरतम रुप देखना तो कभी किसी उस बुजुर्ग से जरुर मिलिएगा जो जवानी के दिनों में क्या तो किसी बैंड मे काम कर चुका हो या फिर किसी आढत मे पल्लेदारी ( बोझ उठाने) क़ा काम कर चुका हो फिर आप शायद महसूस कर पाए कि बोझ जब कांधे और पीठ पर लदता है तब असल में नसों की कराह से कैसा संगीत बजता है हम तो धुन के फन में नाचकर मस्ती में झूमकर निकल लेते है मगर उस धुन को बजाने वाली ताउम्र किस तरह से अपनी ही बजाई धुन से सिसकता है इस हकीकत का हमें शायद कभी पता नही चल पाता है खुशियां अपनी कीमत जरुर वसूलती है ये सच बात है मगर किससे और किस रुप में इस सच की हमें जरुर पडताल करनी चाहिए। बैंड बाजे के पेशे में अधिक मानवीय हस्तक्षेप होना चाहिए साथ न्यूनतम श्रम/संविदा के कानूनों का भी पालन किया जाना चाहिए ताकि बैंड बजाने वाले सदस्य को उपयुक्त श्रम सुविधाएं मिल सकें इसके अलावा हमें भी अपने परिवेश के प्रति अधिक संवेदनशील होने की आवश्यकता है ताकि हम बैंड बाजे वाले को महज पैसा देकर अधिकतम उपयोग किया जाने वाले एक ह्युमन इंस्ट्रुमेंट भर न समझें तभी हमारे जीवन में उत्सवों और खुशियों का वास्तविक अर्थ अपने सही स्वरुप में प्रकट होगा।
डॉ.अजित