कांवड़ यात्रा : एक मनो-सामाजिक पड़ताल
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आज कांवड़ यात्रा शिवलिंग पर गंगाजल के अभिषेक के उपरान्त समाप्त हो जायगी. पिछले एक हफ्ते से हरिद्वार शहर अति कोलाहल से बैचैन है. डांक कांवड़ पर बजते कानफोडू डीजे और अंधाधुंध चौपहिया,दुपहिया वाहनों की रफ़्तार ने शहर की नब्ज़ को रोक दिया है. ये हर साल की कहानी है जब हफ्ते दस दिन के लिए हरिद्वार शहर स्थानीय लोगो के लिए बैगाना हो जाता है.
पुलिस प्रशासन के लिए भी ये धार्मिक आयोजन कम बड़ी चुनौती नही होती है. एक नागरिक के तौर में जब मैं उनकी कार्यशैली देखता हूँ तो मुझे आश्चर्य और करुणा दोनों के मिश्रित भाव आते है आश्चर्य इस बात के लिए कैसे उमस भरी गर्मी में वो 16 से 18 घंटो की नियमित ड्यूटी करते है और करुणा इस बात के लिए कि बाद के तीन दिनों में उनका सारा प्रशिक्षण ध्वस्त हो जाता है फिर सब कुछ कांवडियो के नैतिक और अराजक बल से संचालित होता है. पुलिस और अर्द्धसैनिक बल तब महज दर्शक बनकर रह जाते है.
कांवड़ यात्रा की समाप्ति पर प्रशासन के चेहरे पर ठीक वैसे ही भाव होते है जैसे कोई जंग जीतने के बाद भारतीय सेना के चेहरे पर होते है. अब यहाँ सवाल यह उठता है कि कोई धार्मिक यात्रा इतनी बड़ी चुनौती बन सकती है क्या? हकीकत यही है कि ये बन चुकी है.
इस यात्रा का धार्मिक महत्व क्या है उसकी पड़ताल करना मेरा क्षेत्र नही है मैं दरअसल भीड़ का मनोविज्ञान देखकर उनका मनोसामाजिक विश्लेषण करने की कोशिस करता हूँ कि आखिर कौन लोग है ये जो साल में एक बार जबरदस्त यूफोरिया में भरकर इस शहर में आते है?
आंकड़े क्या कहते है:
कल अख़बार में छपी एक खबर के मुताबिक़ वर्ष 2007 में हरिद्वार में 50 लाख लोग कांवड़ लेने आए उसके बाद अख़बार ग्राफिक्स के जरिये साल दर साल इनकी संख्या में हुई अनापेक्षित बढ़ोतरी बताता है और लिखता है कि 2015 में कांवड़ ले जाने वालो की संख्या लगभग ढाई करोड़ थी. इस साल भीड़ देखकर अंदाज़ा लगाया जा सकता है ये आंकड़ा दो गुना भी हो सकता है. मैं आंकड़ो की तथ्यात्मक सच्चाई नही जानता हूँ हो सकता है इसमें कुछ अतिरंजना भी हो मगर भीड़ हर साल बेहताशा बढ़ रही है इस बात का मैं खुद साक्षी हूँ.
कौन है ये कांवड़ लें जाने वाले लोग?
आस्था बेहद संवेदनशील चीज़ है और निजी भी. हमारे देश में सबसे जल्दी खंडित होने वाली चीज भी आस्था ही है.आस्था के नाम पर खूब क़त्ल ए आम भी हुआ है इसका इतिहास साक्षी है. मेरा मनोविश्लेषक मन कम से कम ढाई करोड़ भीड़ को आस्थावान मानने से इनकार करता है.
मनौती पूरी होने पर कांवड़ ले जाने वाले लोग इस भीड़ का दस प्रतिशत भी नही होंगे ऐसा मेरा अनुमान है. असल की जो कांवड़ यात्रा है वो पैदल कंधो पर जल लेकर जाने की यात्रा है उसमें देह का एक कष्ट भी शामिल है इसलिए उसको एकबारगी आस्था के नजरिये से समझा जा सकता है मगर जो ट्रेक्टर ट्रोली, ट्रक, डीसीएम आदि पर लदे डीजे और गैंग बनाकर चलते युवाओं की टोलियों की कांवड़ यात्रा है उसका मनोसामाजिक चरित्र पैदल चलने वालो से भिन्न है. पैदल चलने वाले कांवडिए अपेक्षाकृत एकान्तिक और शांत रहते है मगर साईलेंसर निकली बाइक और चौपहिया वाहनों वाले कांवडिए हिंसक और अराजक है.
भीड़ का मनोविज्ञान और मनोसामाजिक पृष्ठभूमि:
भारत जैसे विकासशील देश के पास जो कुछ चंद गर्व करने की चीज़े प्रचारित की जाती है उनमे से एक यह भी है हमारे पास सबसे ज्यादा युवा जनसँख्या है. मगर जिस देश का युवा हुक्के कि चिलम भरे या भांग का सुट्टा लगाया हरिद्वार से अपनी घर की तरफ वाहनों के आगे डाकिया बना दौड़ रहा है उस युवा पर मुझे थोडा कम गर्व होने लगता है. मुझे उसकी ऊर्जा अब उस रूप में प्रभावित नही कर पाती है जिसमे देश का आत्मबल झलकता हो.इस बार कि कांवड़ यात्रा में तिरंगा भी खूब दिखाई दिया धर्म और देशभक्ति का ये कॉकटेल सच में डराता भी है. यदि किसी को किसी कांवडिए के किसी क्रियाकलाप पर ऐतराज़ है तो उसके हाथ में झन्डा और डंडा दोनों है मौका पड़ने पर वो झंड सर पर कफ़न की तरह बाँध लेगा और डंडे को भीड़ में भांजने से भी गुरेज़ नही करेगा.
अपने देश के युवाओं का ये मानसिक धरातल बहुत उत्साहित नही करता है बल्कि ये काफी निराशाजनक है. ये देश के वो युवा है जिनका दावा मिटटी से जुड़े होने का है ये सोशलाईटस टाइप के यूथ नही है जो गूगल के जरिये देश को जानते हो ना ही ये टेबलायड पढ़कर बड़े हुए युवा है इसलिए इनके इस उत्साह को देखकर चिंता बढ़ जाती है.
जब मैं कांवड यात्रा में दौड़ते युवाओं को देखता हूँ तो मौटे तौर पर भीड़ को मनोवैज्ञानिक दृष्टिकोण से इस प्रकार से वर्गीकृत कर पाता हूँ:
1.यह भीड़ देश के मध्यमवर्गीय युवाओं की भीड़ है जिसमे बहुतायत में किसान जातियों के युवा है. यदि इनके रोजगार का आंकलन किया जाए तो अधिकांश भीड़ का संदर्श मौसमी बेरोज़गारी से भी जुड़ा मिलेगा.
2.चेतना या विजन की दृष्टि से ये युवा वर्ग ठीक उसी निराशा से गुजर रहा है जिस से देश का पढ़ा लिखा युवा भी गुजर रहा है.
3.इस युवा वर्ग के निजी जीवन में एकान्तिक नीरसता और निर्वात बसा हुआ है तभी ये जीवन की अर्थवेत्ता इस किस्म के आयोजनों में तलाश रहा है.
4.इस युवा वर्ग के पास ऐसे अधेड़ वर्ग के लोगो का संरक्षण है जो अपने जीवन में कुछ ख़ास नही कर पायें हैं जिन्होंने जीवन का अधिकतम आनंद मेहमान बनकर या शादियों में शामिल होकर उठाया है.
5.निसंदेह इस भीड़ में स्पोर्ट्समेन स्प्रिट है मगर उसका उपयोग सही दिशा में न कर पाने के लिए ‘स्टेट’ बड़ा दोषी है.
6.लक्ष्य विहीन सपने विहीन पीढ़ी अक्सर ऐसे निरुद्धेश्य दौडती पाई जाती है. उनका अपना कोई विवेक या यूटोपिया नही होता है और यह कांवड जैसी यात्रा साफ़ तौर पर हमें भारत के ऐसे युवाओं को एक साथ देखने का अवसर देती है. ये भारत के युवाओं के अंदरूनी हालात का एक बढ़िया साइकोलॉजिकल प्रोजेक्शन है.
7.साल भर मनमुताबिक जिंदगी न जीने की कुंठा में जीते लोगो को जब साल में एक अवसर दिखता है तब वे उत्साह के चरम पर होते है और यही उत्साह उन्हें हिंसक और अराजक बनता है.
8.इस यात्रा के युवाओं में जो हिंसा और अराजकता दिखती है ( जिसमे महिलाओं पर अश्लील फब्तियां कसना भी शामिल है) वो दरअसल उनके बेहद मामूली और सतही जीवन से उपजी एक खीझ है इस यात्रा के जरिये वे खुद का ‘ख़ास’ होना महसूसते है और अक्सर अपना आपा खो बैठते है. पितृ सत्तात्मक और सामंती चेतना भी इसकी एक अन्य बड़ी वजह मुझे नजर आती है
...और अंत में यही कहना चाहता हूँ धर्म और आस्था हमें एक बेहतर मनुष्य बनाये तभी इनकी उपयोगिता है यदि आस्था किसी अन्य की असुविधा का कारण बनती है तब इसे आपकी निजी कमजोरी के रूप में देखा जाना चाहिए.दस दिन से अस्त व्यस्त शहर जब कल सुबह जगेगा तब उसकी छाती पर असंख्य कूड़े का ढेर होगा साथ ही अच्छी खासी मात्रा में गंदगी होगी कांवडिए तो शहर छोड़ जाएंगे मगर उनकी गंध एक पखवाड़े तक इस शहर का पीछा करेगी यदि बारिश न बरसे तो इनके मल-मूत्र से शहर में संक्रमित बीमारियां फ़ैल सकने की सम्भावना से इनकार नही किया जा सकता है.
कल से स्कूल कालेज खुलेगे बच्चे जो घरो में कैद हैं उन्हें स्कूल जाने का मौका मिलेगा ये सब चीज़े सोच कर सुख मिल रहा है और इस यात्रा को याद करने की एक भी सुखद वजह मै नही तलाश पा रहा हूँ इसलिए इंसान के रूप में भोले बने शिव तत्वों ये आपकी बडी नैतिक पराजय है. हो सके तो इस यात्रा ये चरित्र बदलिए हालांकि मै एक बेमैनी उम्मीद रख रहा हूँ मगर फिलहाल रख सकता हूँ क्योंकि आपकी तरह मै भी इस देश का एक संघर्षरत युवा हूँ.
बोल बम ! बम ! बम !
खोल लब कि लब आजाद है तेरे....!
© डॉ. अजित
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आज कांवड़ यात्रा शिवलिंग पर गंगाजल के अभिषेक के उपरान्त समाप्त हो जायगी. पिछले एक हफ्ते से हरिद्वार शहर अति कोलाहल से बैचैन है. डांक कांवड़ पर बजते कानफोडू डीजे और अंधाधुंध चौपहिया,दुपहिया वाहनों की रफ़्तार ने शहर की नब्ज़ को रोक दिया है. ये हर साल की कहानी है जब हफ्ते दस दिन के लिए हरिद्वार शहर स्थानीय लोगो के लिए बैगाना हो जाता है.
पुलिस प्रशासन के लिए भी ये धार्मिक आयोजन कम बड़ी चुनौती नही होती है. एक नागरिक के तौर में जब मैं उनकी कार्यशैली देखता हूँ तो मुझे आश्चर्य और करुणा दोनों के मिश्रित भाव आते है आश्चर्य इस बात के लिए कैसे उमस भरी गर्मी में वो 16 से 18 घंटो की नियमित ड्यूटी करते है और करुणा इस बात के लिए कि बाद के तीन दिनों में उनका सारा प्रशिक्षण ध्वस्त हो जाता है फिर सब कुछ कांवडियो के नैतिक और अराजक बल से संचालित होता है. पुलिस और अर्द्धसैनिक बल तब महज दर्शक बनकर रह जाते है.
कांवड़ यात्रा की समाप्ति पर प्रशासन के चेहरे पर ठीक वैसे ही भाव होते है जैसे कोई जंग जीतने के बाद भारतीय सेना के चेहरे पर होते है. अब यहाँ सवाल यह उठता है कि कोई धार्मिक यात्रा इतनी बड़ी चुनौती बन सकती है क्या? हकीकत यही है कि ये बन चुकी है.
इस यात्रा का धार्मिक महत्व क्या है उसकी पड़ताल करना मेरा क्षेत्र नही है मैं दरअसल भीड़ का मनोविज्ञान देखकर उनका मनोसामाजिक विश्लेषण करने की कोशिस करता हूँ कि आखिर कौन लोग है ये जो साल में एक बार जबरदस्त यूफोरिया में भरकर इस शहर में आते है?
आंकड़े क्या कहते है:
कल अख़बार में छपी एक खबर के मुताबिक़ वर्ष 2007 में हरिद्वार में 50 लाख लोग कांवड़ लेने आए उसके बाद अख़बार ग्राफिक्स के जरिये साल दर साल इनकी संख्या में हुई अनापेक्षित बढ़ोतरी बताता है और लिखता है कि 2015 में कांवड़ ले जाने वालो की संख्या लगभग ढाई करोड़ थी. इस साल भीड़ देखकर अंदाज़ा लगाया जा सकता है ये आंकड़ा दो गुना भी हो सकता है. मैं आंकड़ो की तथ्यात्मक सच्चाई नही जानता हूँ हो सकता है इसमें कुछ अतिरंजना भी हो मगर भीड़ हर साल बेहताशा बढ़ रही है इस बात का मैं खुद साक्षी हूँ.
कौन है ये कांवड़ लें जाने वाले लोग?
आस्था बेहद संवेदनशील चीज़ है और निजी भी. हमारे देश में सबसे जल्दी खंडित होने वाली चीज भी आस्था ही है.आस्था के नाम पर खूब क़त्ल ए आम भी हुआ है इसका इतिहास साक्षी है. मेरा मनोविश्लेषक मन कम से कम ढाई करोड़ भीड़ को आस्थावान मानने से इनकार करता है.
मनौती पूरी होने पर कांवड़ ले जाने वाले लोग इस भीड़ का दस प्रतिशत भी नही होंगे ऐसा मेरा अनुमान है. असल की जो कांवड़ यात्रा है वो पैदल कंधो पर जल लेकर जाने की यात्रा है उसमें देह का एक कष्ट भी शामिल है इसलिए उसको एकबारगी आस्था के नजरिये से समझा जा सकता है मगर जो ट्रेक्टर ट्रोली, ट्रक, डीसीएम आदि पर लदे डीजे और गैंग बनाकर चलते युवाओं की टोलियों की कांवड़ यात्रा है उसका मनोसामाजिक चरित्र पैदल चलने वालो से भिन्न है. पैदल चलने वाले कांवडिए अपेक्षाकृत एकान्तिक और शांत रहते है मगर साईलेंसर निकली बाइक और चौपहिया वाहनों वाले कांवडिए हिंसक और अराजक है.
भीड़ का मनोविज्ञान और मनोसामाजिक पृष्ठभूमि:
भारत जैसे विकासशील देश के पास जो कुछ चंद गर्व करने की चीज़े प्रचारित की जाती है उनमे से एक यह भी है हमारे पास सबसे ज्यादा युवा जनसँख्या है. मगर जिस देश का युवा हुक्के कि चिलम भरे या भांग का सुट्टा लगाया हरिद्वार से अपनी घर की तरफ वाहनों के आगे डाकिया बना दौड़ रहा है उस युवा पर मुझे थोडा कम गर्व होने लगता है. मुझे उसकी ऊर्जा अब उस रूप में प्रभावित नही कर पाती है जिसमे देश का आत्मबल झलकता हो.इस बार कि कांवड़ यात्रा में तिरंगा भी खूब दिखाई दिया धर्म और देशभक्ति का ये कॉकटेल सच में डराता भी है. यदि किसी को किसी कांवडिए के किसी क्रियाकलाप पर ऐतराज़ है तो उसके हाथ में झन्डा और डंडा दोनों है मौका पड़ने पर वो झंड सर पर कफ़न की तरह बाँध लेगा और डंडे को भीड़ में भांजने से भी गुरेज़ नही करेगा.
अपने देश के युवाओं का ये मानसिक धरातल बहुत उत्साहित नही करता है बल्कि ये काफी निराशाजनक है. ये देश के वो युवा है जिनका दावा मिटटी से जुड़े होने का है ये सोशलाईटस टाइप के यूथ नही है जो गूगल के जरिये देश को जानते हो ना ही ये टेबलायड पढ़कर बड़े हुए युवा है इसलिए इनके इस उत्साह को देखकर चिंता बढ़ जाती है.
जब मैं कांवड यात्रा में दौड़ते युवाओं को देखता हूँ तो मौटे तौर पर भीड़ को मनोवैज्ञानिक दृष्टिकोण से इस प्रकार से वर्गीकृत कर पाता हूँ:
1.यह भीड़ देश के मध्यमवर्गीय युवाओं की भीड़ है जिसमे बहुतायत में किसान जातियों के युवा है. यदि इनके रोजगार का आंकलन किया जाए तो अधिकांश भीड़ का संदर्श मौसमी बेरोज़गारी से भी जुड़ा मिलेगा.
2.चेतना या विजन की दृष्टि से ये युवा वर्ग ठीक उसी निराशा से गुजर रहा है जिस से देश का पढ़ा लिखा युवा भी गुजर रहा है.
3.इस युवा वर्ग के निजी जीवन में एकान्तिक नीरसता और निर्वात बसा हुआ है तभी ये जीवन की अर्थवेत्ता इस किस्म के आयोजनों में तलाश रहा है.
4.इस युवा वर्ग के पास ऐसे अधेड़ वर्ग के लोगो का संरक्षण है जो अपने जीवन में कुछ ख़ास नही कर पायें हैं जिन्होंने जीवन का अधिकतम आनंद मेहमान बनकर या शादियों में शामिल होकर उठाया है.
5.निसंदेह इस भीड़ में स्पोर्ट्समेन स्प्रिट है मगर उसका उपयोग सही दिशा में न कर पाने के लिए ‘स्टेट’ बड़ा दोषी है.
6.लक्ष्य विहीन सपने विहीन पीढ़ी अक्सर ऐसे निरुद्धेश्य दौडती पाई जाती है. उनका अपना कोई विवेक या यूटोपिया नही होता है और यह कांवड जैसी यात्रा साफ़ तौर पर हमें भारत के ऐसे युवाओं को एक साथ देखने का अवसर देती है. ये भारत के युवाओं के अंदरूनी हालात का एक बढ़िया साइकोलॉजिकल प्रोजेक्शन है.
7.साल भर मनमुताबिक जिंदगी न जीने की कुंठा में जीते लोगो को जब साल में एक अवसर दिखता है तब वे उत्साह के चरम पर होते है और यही उत्साह उन्हें हिंसक और अराजक बनता है.
8.इस यात्रा के युवाओं में जो हिंसा और अराजकता दिखती है ( जिसमे महिलाओं पर अश्लील फब्तियां कसना भी शामिल है) वो दरअसल उनके बेहद मामूली और सतही जीवन से उपजी एक खीझ है इस यात्रा के जरिये वे खुद का ‘ख़ास’ होना महसूसते है और अक्सर अपना आपा खो बैठते है. पितृ सत्तात्मक और सामंती चेतना भी इसकी एक अन्य बड़ी वजह मुझे नजर आती है
...और अंत में यही कहना चाहता हूँ धर्म और आस्था हमें एक बेहतर मनुष्य बनाये तभी इनकी उपयोगिता है यदि आस्था किसी अन्य की असुविधा का कारण बनती है तब इसे आपकी निजी कमजोरी के रूप में देखा जाना चाहिए.दस दिन से अस्त व्यस्त शहर जब कल सुबह जगेगा तब उसकी छाती पर असंख्य कूड़े का ढेर होगा साथ ही अच्छी खासी मात्रा में गंदगी होगी कांवडिए तो शहर छोड़ जाएंगे मगर उनकी गंध एक पखवाड़े तक इस शहर का पीछा करेगी यदि बारिश न बरसे तो इनके मल-मूत्र से शहर में संक्रमित बीमारियां फ़ैल सकने की सम्भावना से इनकार नही किया जा सकता है.
कल से स्कूल कालेज खुलेगे बच्चे जो घरो में कैद हैं उन्हें स्कूल जाने का मौका मिलेगा ये सब चीज़े सोच कर सुख मिल रहा है और इस यात्रा को याद करने की एक भी सुखद वजह मै नही तलाश पा रहा हूँ इसलिए इंसान के रूप में भोले बने शिव तत्वों ये आपकी बडी नैतिक पराजय है. हो सके तो इस यात्रा ये चरित्र बदलिए हालांकि मै एक बेमैनी उम्मीद रख रहा हूँ मगर फिलहाल रख सकता हूँ क्योंकि आपकी तरह मै भी इस देश का एक संघर्षरत युवा हूँ.
बोल बम ! बम ! बम !
खोल लब कि लब आजाद है तेरे....!
© डॉ. अजित