वक्त कभी थम जाता है कभी तेजी से गुजर जाता है मगर कभी कभी वक्त फांस की तरह मन में फंस जाता है आज 9 मार्च ठीक वैसा ही मेरे मन में फंसा हुआ है जैसा पिछले साल का 9 मार्च था। आज ही के दिन पिताजी आकस्मिक रूप से अपनी यात्रा पूर्ण कर हमें दुनिया में अकेला छोड़ गए थे।
पिछले एक साल में पिता का न होना क्या होता है इसके अर्थ समझ पाया हूँ उनके जीते जी मेरी उनसे तमाम मुद्दों पर असहमतियां/मतभेद रहे थे परन्तु अब मुझे खुद के तर्क बेहद बचकाने और हास्यास्पद लगते है।
पिछले एक साल से कोई दिन ऐसा नही गया होगा जिसमें पिताजी की कमी न खली हो परन्तु स्मृतियों को सायास एक बंद कमरें में रख छोड़ा था यहां तक तमाम रिश्तेंदारों के दबाव के बावजूद घर की बैठक में पिताजी का मालायुक्त चित्र भी नही लगनें दिया क्योंकि सच्चाई यह है मनुष्य की नश्वरता के नाम का पूरे परिवार को उपदेश देते देते मैं खुद अंदर से इतना कमजोर और डरा हुआ था कि पिताजी को एक निर्जीव फ्रेम में टंगा देखनें की हिम्मत मुझमें नही थी।
जीवन में पिता का न होना आपके जीवन में एक स्थाई किस्म की आश्वस्ति का न होना होता है आपकी तमाम दुनियावी सफलता महज एक घटना में तब्दील हो जाती है क्योंकि आपसे ज्यादा उस पर फख्र करनें वाला आपके पास नही होता है।
पिताजी के निधन के बाद मेरे जीवन में यू टर्न आया और पिछले एक साल से गाँव में हूँ उनका स्थान लेना तो बहुत बड़ी बात है गाँव के लिहाज से मैं उनका दशमांश भी नही बन पाया हूँ। गाँव में उनका कद बेहद बड़ा था उनका एक लिहाज़ था और इसी के चलतें पूरे गाँव में कोई उन्हें उनके नाम से सम्बोधित नही करता था। भलें ही पिताजी एक सामन्त जमींदार थे परन्तु वो कभी शोषक नही थे बल्कि गाँव के अन्य चौधरियों द्वारा सताए गए गरीब दलित/पिछड़ों के रक्षक थे वो सच्चे अर्थों में शरणागत वत्सल थें।
बहरहाल, पिताजी को लेकर एक सवाल अक्सर मन में घूमता रहता है कि अभी बहुत जल्द था उनका जाना उन्हें इस समय नही जाना चाहिए था वो तो एक हफ्ते की बीमारी भोग निकल गए इस दुनिया से।और पीछे छोड़ गए एक यथार्थ का एक कड़वा संसार जहां रोज जीना है रोज मरना हैं।
पिता का न होना आपको एकदम से इतना बड़ा बना देता है कि आप उस प्रौढ़ता को जीते हुए कब हंसना भूल जाते है खुद आपको भी नही पता चलता है।
फिलहाल एक साल बीत गया है मगर बहुत कुछ है जो मेरे अंदर बीत नही रहा है कुछ सवाल कुछ अधूरे जवाब और कुछ धुंधले स्वप्न मेरे जेहन में यादों की आंच में पकतें है और पिघलता मैं जाता हूँ।
पारिवारिक उत्तरदायित्व के भूमिका में जब कभी तन्हा घिर जाता हूँ तब पिताजी का न होना बड़ी शिद्दत से याद आता है निसन्देह सूक्ष्म रूप में पिताजी मुझे यूं देखकर मुस्कुराते होंगे क्योंकि उनको जितनी सलाह मैं दिया करता था अब मैं खुद उस किस्म की एक भी अमल नही कर पाता हूँ।
लोक परलोक में प्रायः यकीन नही रखता हूँ परन्तु आज खुद को सांत्वना देने के लिए यही कहता हूँ ईश्वर पिताजी को इस सांसारिक जीवन मरण से मुक्त करें और अपने श्री चरणों में स्थान दें भले ही इसके लिए मेरे संचित कर्मों का भी उपयोग कर लें। जीवन है तो सम्बन्ध है और सम्बन्ध है तो दुःख है। बीतते सालों में पिताज़ी की स्मृतियाँ मुझे मजबूत बनाएं यही कामना करता हूँ।
एक साल का एक वृत्त पूर्ण होने पर एक अभागे पुत्र की अपने पिता को अश्रुपूरित श्रद्धांजलि !