Friday, April 27, 2012

लम्बा विराम

आवारा की डायरी लिखना मेरे लिए निजि पीडा को ब्याँ करने जैसा रहा है एक साल पहले मेरे लिए यहाँ लिख कर राहत महसूस करना एक स्थाई उपचार हो गया था लेकिन फिर धीरे धीरे फेसबुक की लग गई अब वहाँ वमन करता रहता हूँ इसलिए अपनी डायरी के पन्ने कोरे पडे है। आज बहुत दिनों बाद यहाँ लिखने का मन हुआ पिछले दिनों के बहुत से किस्से है यदि उन सभी को विस्तार से लिखना शुरु करुँ तो कई पोस्ट हो जायेंगी लेकिन सारांश: यह कह सकता हूँ दिन ब दिन जिन्दगी एक नया पाठ पढाती है और मेरे जैसा जीव कभी उससे कोई सबक नही सीखता है और फिर से वही गल्तियाँ करता है जो पहले की है।
अब मुझे यह लगने लगा है कि मै एक पकाऊ किस्म का इंसान हूँ इसे आत्म आलोचना की व्याधि जैसा कुछ न समझें बल्कि यह एक ऐसी मनस्थिति का परिचायक है जहाँ खुद का अप्रासंगिक लगना एक आदत बनती जा रही है। मनोविज्ञान मे यदि इस बीमारी का नाम देने की बात कही जाए तो यह क्रोनिक डिप्रेशन है लेकिन मुझे अलग इसलिए लगता है कि मै अभी तक मुश्किल वक्त में भी इसी स्थाई भाव मे रहता हूँ एक प्रकार से चित्त का यह एक स्थाई भाव हो गया है न किसी बात से ज्यादा खुशी होती है और न किसी बात की ज्यादा पीडा।
कल शाम फेसबुक पर चटियाते हुए मैने एक मित्र से कहा कि मुझे लगता है कि मै कभी किसी को खुश नही कर पाया और मैने लोगो को निराश ही किया है फिर यही बात मैने अपने स्टेट्स पर भी शेअर की लेकिन आस-पास देखता हूँ तो सम्बन्धो का एक हरा भरा संसार है लेकिन मुझे किसी मे कोई खास दिलचस्पी नही है सब कुछ साथ होते हुए भी विलग है अपेक्षाएं,जिम्मेदारियाँ सब है और सब जरुरी भी है लेकिन फिर भी दिल मे एक खास किस्म का अनासक्तिबोध है। पिछले दिनो एक फेसबुकिया मित्र मुझसे खफा हो गया और मुझे दोगला इंसान करार देते हुए बेवफा घोषित कर दिया पहले पीडा हुई फिर कुछ जायज़ स्पष्टीकरण भी दिए लेकिन अब मन शांत हो गया है कोई मेरे विषय मे जो भी राय करें अब क्या फर्क पडता है आप एक सीमा तक ही अपना पक्ष रख सकते है  लेकिन जब दिमाग पक जाता है तब वह पक्ष बहाना लगने लगता है ऐसे फिल्म हमराज़ का वही गीत अच्छा लगने लगता है..चलो एक बार फिर से अजनबी बन जाएं हम दोनो...यह अध्याय यही समाप्त हो जाता है।
सम्बंधो की नियति यही है शत प्रतिशत समर्पण का अंत भी अंतोत्गत्वा शंका के साथ ही होता है कई बार आपका होना लोगो के लिए एक सुविधा मात्र होता है जहाँ आप फिलर की तरह से अपना जगह भरते है और जैसे ही किसी और का विकल्प आपकी जगह तैयार होता वैसे ही आप हाशिए पर आ जाते है यही एक स्थाई परम्परा है।
इन दिनों विश्वविद्यालय में भी अपनी सेवा का अंतिम काल चल रहा है 15 मई के बाद अपनी छुट्टी हो जाती है फिर अगले सत्र में बुलाया जाता है वो भी काफी आधिकारिक जद्दोजहद के बाद ऐसे में सारी ऊर्जा समीकरण,षडयंत्र,संकल्प,विकल्प आदि मे व्यय होती है पता नही कब इस तदर्थ जीवन से मुक्ति मिलेगी! अब तो यह सोचना भी बन्द कर दिया है।
इस बार गर्मियों मे यात्रा की योजना है किस तरफ की यह कहा नही जा सकता है वैसे भी किसी योजना का कोई इसलिए भी कोई अर्थ नही है कि मै जो भी योजना बनता हूँ वह सफल नही हो पाती है पता नही इसमे क्या हरि इच्छा रहती है।
अंत मे एक बात और कहना चाहता हूँ आवरण जीवन की सच्चाई है और यह दूनिया ऐसे ही आवरणों मे जीती भी है आपको दिगम्बर स्वरुप मे कोई देख पाये और उसको पचा पाये यह दुर्लभ संयोग की बात है कभी कभी मुझे यह लगता है कि जैसे मै मनोविज्ञान का प्राध्यापक हूँ तो सभी लोग मुझसे यही चाहते है कि हमेशा मोटिवेशन और पाजिटिव थिंकिंग की बातें करुँ...हमेशा लोगो को उत्तेजित अवस्था मे रखूँ खुश रखने की कोशिस करुँ और मै अक्सर करता भी हूँ लेकिन कभी कभी मेरी हिम्मत भी जवाब देने लगती है क्योंकि बतौर इंसान मै कैसा महसूस करता हूँ यह जिसके शेअर कर सकूँ ऐसा कोई शख्स मेरी जिन्दगी में नही है क्योंकि यदि मै अपनी वास्तविक हालात ब्याँ करुं तो मेरे मनोविज्ञान के ज्ञान पर संदेह हो जाता है कि अमाँ यार लोगो को क्या खाक रिहेबिलेट करोगे खुद ही जब संतुलित नही हो...ऐसे में दिन भर जबरदस्ती का शिव खेडा टाईप का मोटिवेशन भी बांटना पडता है और खुद को पाजिटिव बनाये रखने की एक कवायद करनी पडती है।
बहरहाल,जिन्दगी ऐसे ही एक सुर मे आलाप खींचे जा रही है अब पता नही इसे कोई नया राग पैदा होगा या यह अनुराग भी समाप्त हो जायेगा। उम्मीद करता हूँ अपने हाल-ए-दिल की अगली किस्त आप तक जल्दी पहूंचा सकूँ...आमीन।
डॉ.अजीत