Friday, October 29, 2010

महान

मैने दिल से कहा ढूंड लाना खुशी....नासमझ गम लाया तो गम ही सही.. नीलेश मिश्र का लिखा यह गीत अभी सुन रहा था फिल्म है रोग। गज़ब का गीत है संवेदना के मामले मे मनुष्य की अपेक्षाओं का भावपूर्ण चित्रण किया गया है,यह गीत मै अक्सर सुनता हूं कभी कभी तो यह लोरी की तरह से मेरे लेपटाप पर बजता रहता मै इसको सुनते सुनते सो जाता हूं।

मन और तन दोनो थके-थके से है आज पत्नि और उसकी बहन टी.वी.मे सास बहू के शोषण और षडयंत्रों मे अपनी इमेज़ देखकर सुखद-दुखद महसूस कर रही है। आजकल घर पर छोटा भाई भी आया हुआ है उसकी एक परीक्षा होनी है आगामी 31 अक्टूबर को जिसके लिए वो तैयारी कर रहा है।

आज मुझे थोडी जुकाम की भी शिकायत है गला दर्द कर रहा है बस थूक नही निगला जाता है बडा दर्द होता है मै कोई ज्यादा हेवी दवाई लेना नही चाहता हूं सो घर पर ही एक कोल्ड टैबलेट पडी हुई थी वही ली है अभी शाम को शायद सुबह तक कुछ आराम मिले।

रिश्ते सुधारने के चक्कर मे मै खुद इतना बडा खलनायक बन चूका कि अब मुझे अपने आपसे ही एक घिन्न सी होने लगी है मै महान बनने के चक्कर मे ध्वजवाहक बन कर चला था अपने कुल की प्राण प्रतिष्ठा को वापस स्थापित करने के लिए लेकिन यहाँ तो तमाशा ही दूसरा खडा हो गया है पूरा सीन ही बदल गया है। पिता के लिए सियासती,भाईयों के लिए तटस्थ और पत्नि के लिए युक्तियुक्त झूठ बोलने मे माहिर शेखचिल्ली टाईप का इंसान बन गया हूं। मित्र पहले से ही बालकीय और सनकी होने का विशेषण दे चूके है जिन्हे मेरी हर सामान्य सी बात तंज लगती है तो कुल मिलाकर आजकल मै नितांत ही अकेला इस जीवन युद्द मे खडा हूं और मज़े की बात है कि इस औपचारिकता पंसद दूनिया मे मै खुद को आउटडेटड महसूस करता हूं।

जब मै कक्षा नौ मे पढता था तब मैने अपने घर की जिम्मेदारियों को ओढ लिया था इस ज़िद के साथ कि अपने परिवार की पुनश्च: प्राण प्रतिष्ठा करनी है और इसी चक्कर मे मैने अपने सीमाओं से परे जाकर परिवार के बहुत कुछ किया भी है लेकिन दुर्भाग्य से उसका कोई लेखा-जोखा मेरे किसी परिजन के पास नही है सबने अपनी अपनी परिभाषाएं गढ ली है और अपने जीने का एक तरीका भी तय कर लिया है लेकिन न जाने क्यों मै वही पर अटका हुआ हूं।

आज भी जब अपने गांव जाता हूं तो वही आग अपने अन्दर आज भी जिन्दा पाता हूं जो आज से दस साल पहले थी लेकिन अब हौसला जवाब देने लगा है सच्चाई तो यह है कि कभी सामूहिकता के चक्कर मे मै अपने सपने अपने कुछ अज़ीजो के यहाँ गिरवी रख आया था ताकि सनद रहे और वक्त पर काम आ सके लेकिन हुआ इसका एक उल्टा है सपनें अब एक ऐसी कडवी याद बनकर रह गये है जिसके जायका हमेशा मेरे जेहन मे कडवा ही रहेगा।

आप कभी भी सभी को खुश नही रख सकते हैं चाहे लाख कोशिस कर ले अपनी जान लडा दें लेकिन शिकवे-शिकायत बनी ही रहती है सो मै भी इसी का एक हिस्सा हूं। महान बनने की जो लत है वो एक दिन आपके ऐसे मुहाने पे लाकर खडा कर देती है जहाँ कदमों मे लडखडाहट और जबान मे हकलाहट के सिवाय कुछ नही बचता है।

समान सम्वेदना की समझ रखने वाले लोग बहुत कम इस दूनिया मे सबके अपने अपने तर्क और कोण है अपने जीवन प्रमेय को जीने के...।

एक खीझ,एक गुस्सा और एक जुगुप्सा के भाव के साथ मै जी रहा हूं आजकल यही आज की सबसे बडी सच्चाई है। मनोविज्ञान मेरा विषय है और मेरे मुख से ऐसी निराशावादी प्रतीत होने वाली बात शोभा नही देती है लेकिन मैने पहले भी लिखा था कि इस ब्लाग पर मै बौद्दिक रुप से नग्न हो कर अपनी बात कहूंगा और वो भी ईमानदारी के साथ विषय बाद की बात है पहले मेरा अपना अस्तित्व है और फिर मेरा व्यक्तिगत रुप से शिव खेडा टाईप के मोटिवेशन मे श्रद्दा भी नही है जो आपके अन्दर एक क्षणिक़ उत्तेजना भर देती हो बस...।

स्थाई मोटिवेशन कहाँ से मिलेगा उसी की तलाश और जुगत मे हूं अगर मिल गया तो आपके साथ जरुर शेयर करुंगा अभी तो खुद को सुलझाने मे लगा हुआ हूं...।
डा.अजीत

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