Wednesday, October 20, 2010

गैरहाजिर

13 अक्टूबर को विश्वविद्यालय मे अवकाश के बारें मैने अपनी पहली पोस्ट मे जिक्र किया था। पहले तो मेरा मन गांव जाने का नही था लेकिन 14 तारीख की दोपहर मे मैने फैसला कर लिया कि यहाँ की तन्हाई मे खटने के बजाए अपने गांव के सुकून मे ही वक्त गुजारुंगा और जैसे ही मैने अपने इस फैसले से पत्नि को अवगत कराया पहले तो मना कर रही थी लेकिन फिर उसने भी मेरे साथ गांव जाने का फैसला किया। हम तीनो अपनी खटारा बाईक लेकर 120 कि.मी. के अपने गांव के सफर पर निकल पडें।

दशहरा अपने गांव मे बिता कर कल ही मै लौटा हूं...बहुत सी बातें है और बहुत से किस्से। अपने बडे भाई और उनके बेटे पार्थ से मिलना एक सुखद अहसास रहा पारिवारिक मामलों मे एकाध बातों को छोडकर मै तटस्थ ही रहा बहुत लम्बरदार(नम्बरदार) बन कर देख लिया हासिल कुछ नही होता एक तमगा और मिल गया सियासती होने का...।

संचार सूचना की दूनिया से कट कर एकांत मे जीएं ये चार दिन घर मे माहौल तो उत्सव सा का था क्योंकि हम साल मे पहली बार तीनों भाई और एक बहन एक साथ एकत्रित हुए थें।

बडे भैय्या की प्राथमिकता अब पार्थ बन गया है और येन-केन-प्रकारण वें उसी के साथ अपना ज्यादा वक्त गुजारते है भाई-बन्धु के लिए अब थोडा ही वक्त बचा है। इन दिनों मै अपनी विदेश यात्रा को लेकर गंभीरतापूर्वक सोच रहा हूं मेरे एक मित्र और है मेरी तरह से जिम्मेदारियों से उकता कर विदेश का जहाज़ पकडना चाहते हैं सो अपने दुख जब एक है तो मार्ग़ भी एक सा बन गया है आज उनसे इस बारें मे संक्षिप्त चर्चा हुई हम दोनो कनाडा मे स्थापित होने का प्रयास कर रहें है।

मै भी अब सब कुछ झमेले छोड कर भाग जाना चाहता हूं बहुत दूर...शायद अपने आपसे तो कभी न भाग सकूं लेकिन ये देश मुझे अब बार बार मेरा कडवा अतीत याद दिलाता है जिससे वर्तमान नीरसता मे गुजर रहा है।

अब देखते है क्या होगा? कल फिर मेरी उनसे भेंट होंगी फिर आगे की चर्चा होगी। गांव मे ऐसा कुछ विशेष नही घटा जिसकी चर्चा आपसे कर सकूं बस अवधूतपन मे वक्त गुजर गया अब गांव भी बदल रहा है...मेरे मिज़ाज के हिसाब से...।

आवारा की डायरी पर गैरहाजिरी के लिए माफी इस बार मै गांव बिना लेपटाप के गया था सो न कुछ लिखा न कुछ पढा...।अब रोज होंगी आपसे गुफ्तगु...ये वादा रहा।

शेष फिर...

डा.अजीत

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