Wednesday, October 13, 2010

अवकाश

हमारे देश के किसी अन्य विश्वविद्यालय में इतने अवकाश शायद ही रहतें हो जितने मेरे विश्वविद्यालय मे रहतें है...आज यह आदेश आया कि विजयदशमी के अवकाश मे दो विशेष अवकाश और जोड दिए गये हैं मतलब कल से 19 अक्टूबर तक विश्वविद्यालय बंद रहेगा सात दिन की छुट्टी हो गई है यह खबर सुनकर एकबारगी तो सच कहूं मुझे बडी खुशी हुई लेकिन जब इस सूचना के साथ घर पहूंचा तो सारी खुशी फुर्र हो गई अब यह छूट्टी सात दिन की सज़ा बामुशक्कत लगने लगी है रोजाना एक बहाना तो मिलता है घर से जाने का...। पहले अकेले ही अपने गांव जाने का मन था क्योंकि पत्नि ने स्वास्थ्य सम्बन्धी दिक्कतों के चलते पहले ही साफ मना कर दिया था कि वह यात्रा करने की स्थिति मे नही है लेकिन मै जिस सुनसान कालोनी मे रहता हूं वहाँ हमारे पडोस मे एक भी घर नही है एकदम शून्य और सन्नाटा रहता है अब ऐसी दुविधा बनी मन मे कि पत्नि और बालक यहाँ रात कैसे काटेंगे वैसे भी मेरा एक दिन का ही कार्यक्रम था वो भी इस वजह से कि मेरे बडे भाई-भाभी घर पर आ रहें है लगभग एक साल बाद उनसे मुलाकात हो जाती लेकिन अभी अभी मैने फैसला किया है कि मै नही जाऊंगा मन मे अजीब से उच्चाटन हो गया है अब ऐसे ही अवधूत और औघड बडा रहूंगा सात दिन तक। अब अपने परायें का भेद खत्म होता जा रहा है बेताल्लुक जीने का मन है बस एकांत मे...।

कौन अपना और कौन पराया सब मिथ्या है दूनिया के रंगमंच पर अपना अपना अभिनय करना है और फिर बस अपनी गाडी पकड कर निकलना है कोई अच्छा अभिनेता बन जाता है कोई मेरे जैसा खलनायक या कायर पलायनवादी इंसान। मेरे एक करीबी दोस्त अक्सर कहा करते थे कि पराजित की बजाए कायर का सम्बोधन अधिक उचित है क्या तो युद्द मे डर के मारे उतरो मत और अगर उतर गये हो तो फिर पराजित किसी भी कीमत पर नही होना चाहिए। बात लाख टके है अब समझ मे आ रहीं है सब धीरे-धीरे। अपने वजूद की बालकीय संज्ञा कभी मेरे लिए रंज का विषय थी अब अस्तित्व का एक हिस्सा ऐसा ही नज़र आता है दूनियादारी के लिहाज़ से भले ही मै काम का आदमी न रहा हूं लेकिन अपने संचित कर्मो को भोग कर इतना ज्ञान तो होने लगा है आचार्य शंकर से सही कहा था कि जगत मिथ्या ब्रह्म सत्य। मन अभी तक इसी अद्वैत मे फंसा पडा कि किसे अपने वजूद का एक हिस्सा मानूं किससे किनारा करुं सब दूनियादारी के ढपोरशंखी किस्म के ढकोसलें है जिनका मै भी एक हिस्सा हूं।

सब अपने अपने हिस्सें की जिन्दगी जीते-जीते हुए आगे निकल जाते है और मेरे जैसा व्यक्ति लकीर का फकीर बना वही पर अटका रहता हूं, जब मै अभी दूध लेकर बाईक से वापस घर लौट रहा था तभी मेरे मन मे ये ख्याल आया कि मै अपने गांव क्या सच मे अपने बडे भाई से मिलने जाना चाहता हूं या सिर्फ एक औपचारिकता का निर्वहन करने के लिए जा रहा हूं अंदर से आवाज़ आती है जिस बडे ने आज तक अपने बडे होने का अहसास नही कराया बल्कि उनके हिस्से का बडप्पन भी मैने ओढ लिया था जिसका मुझे यह पुरस्कार मिला है आज मै सबसे बुरा हूं अपने घर वालो की नज़र मे एक कूटनीतिज्ञ हूं तथा मेरे पिताजी ने तो मुझे कई बार सार्वजनिक तौर पर सियासती कहा है और मै आजतक नही समझ पाया कि मैने कौन सी सियासत खेलकर क्या हासिल कर लिया है।

दरअसल सच्चाई ये है कि मै अपने आपसे सियासत कर रहा हूं और मेरी जो ये खीज़ है वह उसी सियासत का एक हिस्सा है क्योंकि इस सियासत के चक्कर मे मेरी अभिनय कला प्रभावित हो रही है दूनियादारी के रंगमंच पर...।

अपने बडे भाई को बडे होने का अहसास न होने की पीडा इतनी बडी नही है जितनी खुद के बडे होने पर भी शून्य की रहने की मेरा भी एक छोटा भाई है मै कभी उसके लिए बडप्पन नही दिखा सका एक अदना सा ई-टिकिट बनवाने की क्षमता मुझमे नही रही कभी और यह मै सार्वजनिक रुप से स्वीकार कर चूका हूं कि बडे भाई होने का फर्ज तो मै क्या निभाता मैने खुद उसको भावनात्मक एसएमएस करके अपनी अव्यवस्थाओं को व्यवस्थित करने के लिए लूटा है कई बार और इस बार भी वह मेरे निशाने पर कुछ न कुछ हासिल करके ही दम लूंगा यह मेरा बडप्पन है।

अब ये हमारे कुल की परम्परा बन गई है अपने से छोटे से ढेर सारी उम्मीदों के पुल बांध लो भले ही उस बेचारे के कन्धे लचक जाए या कदम लडखडा जाएं इन उम्मीदों को पूरा करने मे कुछ साल पहले तक यह मै कर रहा था अपने बडे भाई के लिए आज मेरा छोटा भाई कर रहा है मेरे लिए...।

टेलीफोन पर औपचारिक बातें या दूनियादारी मे मशरुफ अपनो के लिए अब मेरा वक्त नही बचा है और सच कहूं तो वह इच्छा शक्ति नही बची जिसके बलबूते पर मुस्कान सध जाती है अपने आप और दूनिया जिसे कहती है शिष्टाचार...।

डा.अजीत

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